मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।। यह बात कई बार आपके मुख से निकली होगी और बहुधा दूसरों के द्वारा भी सुनी होगी। जीवन का बहुत बड़ा रहस्य इस साधारण सी लोकोक्ति में छिपा है।। जिसका मन हार जाता है। फिर चाहे दुनिया के कितने भी साधन और शक्ति उसके पास क्यों ना हो वह जरूर पराजित होता है।। कुछ ना होते हुए भी मनोबल जिसका बना हुआ है वह एक दिन जरूर विजयी होता है। इंसान की वास्तविक ताकत तो उसका स्वयं का आत्मबल ही है।। मनोबल से हीन व्यक्ति तो निर्जीव ही है। शरीर कितना भी हृष्ट पुष्ट हो, आसान सा कार्य हो लेकिन शरीर को कार्य करने के लिए प्रेरित करने वाला तो मन ही है। सारे कार्य मन के द्वारा ही तो संचालित होते हैं।। मन से कभी भी हार मत मानना, नहीं तो आसान सा जीवन कठिन हो जाएगा भरोसा रखें, हम जब कहीं किसी का अच्छा कर रहे होते हैं। तव हमारे लिए भी कहीं कुछ अच्छा हो रहा होता है।।
*जय श्री राधेकृष्णा।।*
[अब भी बाकी कहना है
कह डाला हमने सब कुछ पर बाकी अब भी कहना है,
रूप गंध भरपूर समाया फिर भी विपदा सहना है।
चाहत के माणिक को हमने कितनी कितनी बार तराशा।
सागर की लहरों का कलरव समझ ना पाया उनकी भाषा।
ज्वाला समझ रही मौसम को तिल- तिल उसको जलना है।।
रूप गंध भरपूर समाया फिर भी विपदा सहना है।
कैसा है, यह खेल तमाशा सम्मोहन में फंसा हुआ।
पोंछ सिलवटें लहरों वाली चादर में है कसा हुआ।।
जीवन का संघर्ष विषम है विकट हाल में रहना है।
रूप गंध भरपूर समाया फिर भी विपदा सहना है।।
अंबर में उम्मीद भरी है, उड़ना है, कुछ पाने को।
फैली हैं, मीठी उम्मीदें राह विकट हैं, जाने को।।
हाथ गले में डाल द्वार पर सांसो पर ही चलना है।
रूप गंध भरपूर समाया फिर भी विपदा सहना है।।
कह डाला हमने सब कुछ पर बाकी अब भी कहना है।
रूप गंध भरपूर समाया फिर भी विपदा सहना है।।
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एक सूखा पत्ता वृक्ष से गिरा, हवा पूरब में ले गई तो पूरब चला गया, पश्चिम ले गई तो पश्चिम गया।। सूखे पत्ते के व्यवहार में ज्ञान की किरण है। बस ऐसे ही आप भी हो जाइये।। जहां हवा ले जाये वहाँ चले जायें प्रकृति को समर्पित। अपनी कोई मर्जी नहीं।। यह जो विराट का खेल चलता, इस विराट के खेल में मैं एक तरंग की भांति सम्मिलित हो जायें। जहां अनंत जाता जो आप भी चल पडें।। उससे अलावा कोई मंजिल नहीं। जिस पल आपका समर्पण इतना गहरा हो जाएगा आप ज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे।।
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यदि कोई तुम्हारे विचारों के अनुकूल नहीं चलता तो क्रोध न करो। सोचो कि तुम अपने मालिक की मौज के कितना अनुकूल चलते हो, पहले अपने आपको अनुकूल बनाओ।। लोगों से विचारों का आदान-प्रदान करने से अच्छा है। कि एकान्त में प्रभु का चिन्तन करो।। भजन के समय शरीर को सावधान और सीधा करके बिठाओ। मन को सावधानी से मस्तक में दोनों भृकुटियों के मध्य में स्थिर करो।। जैसे परीक्षा के दिन निकट आने पर बालक अधिक पढ़ाई करते हैं। वैसे ही सेवक को भी चाहिए कि जैसे जैसे जीवन के दिन व्यतीत होते जायें, वैसे वैसे अभ्यास के लिए समय और पुरुषार्थ बढाते चलें। जो कुछ प्रभु प्रदान करें उसे प्रसाद समझ प्रसन्न्ता से खाओ।। खाते समय क्रोध न करो, चिन्ताएं भुला दो। हँस-हँस के खाओ तो उसमें अमृत सम स्वाद आयेगा।।