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जो सचमुच दूसरों का ध्यान रख सकते हैं,दूसरों की देखभाल कर सकते हैं वे जानते हैं कि पहले अपने आपका ध्यान रखना जरुरी है।अपने भीतर अपने को ही संभालने की क्षमता नहीं है तो दूसरों को कैसे संभाला जा सकता है।उसकी शुरुआत भी घर से होती है क्योंकि मनुष्य का अधिकतम समय उसके घर में व्यतीत होता है।उसके पूर्ण विश्राम का स्थल भी वही है।अतः ठीक ही कहा है-
‘अगर तुम सचमुच विश्व को बदलना चाहते हो तो घर जाओ और अपने परिवार से प्रेम करो।’
कई लोग पारिवारिक अशांति के कारण घर से दूर ही रहते हैं लेकिन फिर वापस लौटना ही पडता है।लगता है अशांति के लिये जिम्मेदार दूसरे लोग हैं।सच यह है कि जिम्मेदार स्वयं है क्योंकि उसे सदस्यों को संभालना नहीं आता।इसका भी कारण यह है कि मूल में तो खुद को ही संभालना नहीं आता।
गीता कहती है-जिसने अपने को जीता वही अपना मित्र है,जिसने अपने को नहीं जीता वह अपना शत्रु है।’
हमें लगता है अशांति करनेवाले लोग शत्रु हैं या शत्रु जैसे हैं।गलत है यह बात।सच यह है कि हम ही हमारे शत्रु हैं क्योंकि हमने अपने को नहीं जीता या हम अपने को जीतने की बात न समझते हैं,न उसे कोई महत्व देते हैं।हमें लगता है यह दूसरों का काम है ताकि वे उन्हें ठीक रखें जिससे हमें किसी तरह की कोई असुविधा न हो।
यही सब कर रहे हैं।सब एक दूसरे को जिम्मेदार समझ रहे हैं,स्वयं कोई जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता।स्वयं जिम्मेदारी लेने का मतलब है स्वयं को जीतना जिसमें पहली बात आती है दूसरों से सारी अपेक्षाओं का अंत।हम दूसरों से कुछ चाहना बंद करें तथा स्वयं सहयोग पूर्ण बनें।
कोई कहे इससे दूसरों की नकारात्मक आदत नहीं बदलेगी तो हमें इसकी फिक्र नहीं करनी है।हमें सकारात्मक होना है।यह समझ की दिशा में पहला कदम है।यह सत्य संकल्प है वर्ना मन मानता नहीं।
मन ही तो माया है।मन को तरना,माया को तरना है।
कृष्ण कहते हैं-‘मेरी माया दुस्तर है लेकिन जो मेरी शरण में आता है वह उसे तर जाता है।’
शरण में आने का अर्थ है हमारे हित के लिये जो कुछ हमें करने के लिये कहा गया है वह संकल्पपूर्वक हम करें,बिना संकल्पविकल्प के।
हमें यह गलतफहमी दूर कर लेनी चाहिए कि दयालु,करुणामय तथा सम्मानपूर्ण होने से हम कमजोर हो जायेंगे।यह कठिन है इतना जरूर है।
अहंकार को कमजोर होने की इतनी फिक्र है तो वह दयाकरुणासम्मान पूर्ण होने को चुनौती की तरह क्यों नहीं लेता?
बाजार में इतनी भीड,इतनी अस्तव्यस्तता का कारण क्या?अहंकार सबसे आगे निकलना चाहता है।यदि सबके अहंकार निर्णय लेलें कि हम तो सबके पीछे रहेंगे तो भीड तुरंत व्यवस्थित होने लगे।कोरोना हमें फिजिकल डिस्टेंसिंग सिखाये-ऐसी जरूरत इतने वर्षों बाद इसलिए पड रही है इसका कारण यही है कि हमने शांत,सहज,सुव्यवस्थित रहने को कभी महत्व दिया नहीं,अहंकार को ही महत्व देते रहे।जब ट्राफिक जाम होता है तो घंटों निकल जाते हैं व्यवस्था ठीक करने में।
ऐसा ही एक ट्राफिक जाम हमारे खुद के भीतर ही है।हम खुद से आगे निकलना चाहते हैं।हमें हमारी असुखद स्थिति प्रिय नहीं होती,हमें सुखद चाहिए ऐसे में असुखद स्वयं का पीछे छूटना स्वाभाविक है।
इससे समस्या का हल नहीं होता।पहले हमें असुखद स्वयं के साथ रहना होगा,उसे समझना,सुलझाना होगा।वह मूल कारण जो है।
सभी यही कर रहे हैं।वे असुखद स्वयं के साथ रहना पसंद नहीं करते और बाहर सुखद की तलाश करते हैं।
बाहर सुखद की तलाश पूरी तरह से गलत दिशा में उठाया गया कदम है।सुख चाहिए तो अपनी तरफ आना पडे,असुखद स्वयं को ठीक करना पडे वही सही है।
आदमी को लगता है भीतर सुख नहीं है इसलिए बाहर जाना पडता है।बाहर एंद्रिक सुख है।भीतर अपने होने का सुख है।
क्या कभी अनुभव किया है कि शांति से अकेले में बैठे हैं,कोई स्मृति विक्षेप नहीं है तब बडा अच्छा लग रहा होता है?
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम सहज सुखस्वरूप हैं।कोई भी अपने को नहीं छोडना चाहता।उसे बाध्य किया जाय, खुद से वंचित किया जाय तो वह चिढता है,परेशान होता है।उसकी पहली आवश्यकता खुद के साथ रहने की ही है।
उसे छोड दिया जाय तो उसे राहत हो जाती है।आधार उसके खुद के भीतर है चाहे वह एक चींटी ही क्यों न हो।
समस्या समाधान के रोज के इस खेल से समझ सकते हैं।समस्याएं हमें खींचती हैं,परनिर्भर बनाती हैं।समाधान होने पर हम पुन:अपने में लौट आते हैं,राहत हो जाती है,हम आश्वस्त हो जाते हैं।
हर आदमी आश्वस्तता चाहता है फिर वह स्वयं स्वेच्छा से क्यो परनिर्भर होता है?
उस समय वह भूल ही जाता है कि परनिर्भरता उसे प्रिय नहीं, उसे तो स्वस्थता ही प्रिय है।
यह समझना चाहिए।समझने से ही आत्मनिर्भरता आती है।आत्मनिर्भर व्यक्ति स्वतंत्रता का सुख अनुभव करता है।ऐसे व्यक्ति के संपर्क में जो आयें उन्हें उसके स्वतंत्रता सुख का संप्रेषण होता है।वे चाहते हैं उन्हें भी इस तरह का सुख मिले।
तो जो सही अर्थ में स्वतंत्र है,समझा हुआ,सुलझा हुआ है वह उनकी मदद कर सकता है।वही कर सकता है,सुधारक नहीं।सुधारक या तो दूसरों की अनुकूलता चाहता है या दूसरों का भला करना चाहता है।दूसरे भी फिर दूसरे हैं।उन्हें यह जबर्दस्ती की भलाई पसंद नहीं होती।वे कहते हैं-हम जैसे भी हैं ठीक हैं।नहीं चाहिए तुम्हारी राय,परामर्श।’
सुधारक की जगह ऐसा आदमी हो जो पहले खुद अपने आपको संभालने में सक्षम हो,अपना ध्यान रखने में निपुण हो तो वह पूरी तरह से स्वस्थ हो जाता है बजाय परस्थ होने के।
यह स्वस्थता जबर्दस्ती किसीको सुधारती नहीं।इससे स्वतः रचनात्मक परिवर्तन घटित होता है दूसरों में।
गीता वैराग्य पूर्वक जिस आत्माभ्यास की सलाह देती है वह यही है।पहले हम अपने आपमें हों स्वतंत्र, सुखी,स्वस्थ,सुदृढ।फिर दूसरों की फिक्र करें।पहले का कोर्स पूरा हो गया तो बाद की जिम्मेदारी निभाने में कोई दिक्कत नहीं पडती।पहले का ही कोर्स पूरा नहीं हुआ है तो आगे बाधा पडनेवाली ही है।
इसे ठीक तरह से समझ भी लें तो आगे रास्ता खुलता है वर्ना हम स्वयं को पीछे छोडकर अस्तव्यस्त, पराधीन,परनिर्भर होकर व्यक्ति, घटना, परिस्थिति को ठीक करने में लगे रहते हैं दिनरात।परेशानी में जीवन बिताते रहते हैं।अपनी तरफ नहीं देखते।बहुत हुआ तो सेल्फी ले लेंगे।वे सही और बुनियादी तौर पर सेल्फी ले सकें तो ठीक है।उसे ऐसा करना शोभा देगा।
बाकी आत्मविश्वासपूर्वक कार्य करने की क्षमता व समझ से वंचित ही रहते हैं।ऐसा लगता है यह तो औरों के लिये है जबकि यह सभीके लिये है वास्तविकता होने से।
आवश्यकता है आधार रुप में स्वयं को प्राप्त होने की जिसका अर्थ है अहंकाररहित होना।अहंकाररहित होने का अर्थ है सही दिशा में ऊर्जा का इस्तेमाल होना।अहंबुद्धि रुप अहंकार तो उसे व्यर्थ की तुलना,आशा अपेक्षा के द्वंद्वों में ही नष्ट करता रहता है।वह दूसरों को संभालता भी है तो स्वयं अस्थिर,अस्तव्यस्त होकर।
बात यह हो रही है कि दूसरों को संभालने वाला पहले खुद को संभालने की जरूरत और उसके महत्व को समझ ले।उसके पहले वह किसी व्यक्ति, घटना,परिस्थिति की समस्या की बात उठाये नहीं।स्वयं सक्षम हो और इस सामर्थ्य के लिये परेशान हो तो यह परेशानी शुभ है, रचनात्मक है बाकी सारी परेशानी नकारात्मक है,विध्वंसात्मक है।

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