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🙏सत्य ज्ञान व परहित से युक्त जीवन ही धर्म है।ब्राम्हण और ब्राम्हणत्व से प्रीति ही भगवान की भक्ति है।हम ईश्वर व क्षत्रिय समाज के राजाओं के सदैव आभारी रहेंगे ज्ञान यदि सत्य को चरितार्थ नहीं करता तब वह ज्ञान सिर्फ अहंकार ही प्रदान करता है,जो पीड़ा और अपयश का कारण मूलभूत है, जिसमें परहित भाव नहीं ओ मानव योनि के लिए कलंक है। ब्राह्मण चारों युगो मे दिया ही है लिया कुछ नहीं यही भाव रखे किसी के हक को खाने से दूर हो यही ब्रहमणत्व है।। ब्राम्हणों के चरणों मे प्रेम के बिना भक्ति कहा धर्म और भक्ति के बिना जीवन पशु के समान ही है। शायद हम सभी का जीवन उसी ओर ही उन्मुख है।।

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सज्जनता जीवन को शीतलता प्रदान करने वाली समीर है। सज्जनता के अभाव में जीवन उस जलते अंगारे के सामान है जो स्वयं तो जलता ही है मगर अपने संपर्क में आने वाले को भी जलाता है।। सज्जनता ही जीवन का आभूषण और श्रृंगार है। सोने की लंका में रहने वाला रत्न जडित सिंहासन पर आरुढ़, नानालंकारों को धारण करने वाले रावण का जीवन भी शोभाहीन है। और पर्वत पर पत्थर के ऊपर व पेड़ की डालों पर बैठे सुग्रीव, हनुमान जी सहित आदि वानरों व अँधेरी गुफा में वास करने वाले जामवंत का जीवन शोभायुक्त है।। जीवन की शोभा अलंकारों से नहीं अपितु आपके संस्कारों और उच्च विचारों से है, विनम्रता से है, सरलता और सहनशीलता से है। सज्जनता रुपी आभूषण को धारण करो ताकि स्वर्ण आभूषणों के अभाव में भी आपका सौन्दर्य बना रहे॥

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[सत्य है, कि लोहे से ही लोहे को काटा जा सकता है। और पत्थर से ही पत्थर को तोड़ा जा सकता है।। मगर ह्रदय चाहे कितना भी कठोर क्यों ना हो उसको पिघलने के लिए कभी भी कठोर वाणी कारगर नहीं हो सकती क्योंकि वह केवल और केवल नरम वाणी से ही पिघल सकता है।। क्रोध को क्रोध से नहीं जीता जा सकता, बोध से जीता जा सकता है। अग्नि अग्नि से नहीं बुझती जल से बुझती है। समझदार व्यक्ति बड़ी से बड़ी बिगड़ती स्थितियों को दो शब्द प्रेम के बोलकर संभाल लेते हैं।। हर स्थिति में संयम रखो, संयम ही आपको क्लेशों से बचा सकता है। आँखों में शर्म रहे और वाणी नरम रहे तो समझ लेना परम सुख आपसे दूर नहीं।। रूठते हैं, शब्द भी अपने गलत इस्तेमाल होने पर, देखा है। हमने शब्दों को भी अकसर रूठते हुए॥
[04/04, 18:46] Daddy: हमारी आत्मा और परमात्मा एक ही है । इस बात को मानते तो सभी है ,लेकिन इसे आत्मसात कर लेने वाले बिरले ही महा पुरुष होते है । वे किसी भी सुख -दुख से अप्रभावित रहते हुए पाप – पुण्यो को छोड़ कर आत्मा में ही रमण करने लगते है । उन मनुष्यों के के सभी कर्म दिव्यता को प्राप्त होते है ॥

जब हम दूसरों पर भरोसा करते है और दूसरों पर ही निर्भर करते है तो उस स्थिति में हम अपनी आत्मिक शक्ति खो देते है ॥
अत: जगत पर निर्भर होने के बजाय अपनी आत्मा पर ही भरोसा करे । जब हम दूसरों का भरोसा छोड़ कर केवल अपनी आत्मा का ही भरोसा करेंगे तो जगत की सभी सम्पदायें स्वत: ही आप के पास आने लगेगी । हमारी दृष्टि जगत और केवल एक आत्म तत्व पर ही स्थिर होनी चाहिए । लोगों की धमकी और प्रशंसा को काट कर केवल आत्म तत्व पर ही दृष्टि रखें ॥

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[अग्नि चाहे दीपक की हो, चिराग की हो अथवा मोमबत्ती की लौ से हो, इसके दो ही कार्य है जलना और प्रकाश करना। यह हमारे विवेक के ऊपर निर्भर करता है कि हम इसका कहाँ उपयोग करें।
यही लौ मनुष्य के शरीर को शांत भी कर देती है, यही लौ अन्धकार को दूर कर सम्पूर्ण जगत को प्रकाशमय कर देती है। चिन्तन की बात यह है कि उपयोग करने के ऊपर निर्भर है वो उसी वस्तु से पुण्यार्जन कर सकता है तो थोड़ी चुक होने पर पापार्जन भी कर सकता है।
संसार में किसी भी वस्तु को, व्यक्ति को, स्थिति को कोसने की आवश्यकता नही है। जरुरत है उसका गुण, स्वभाव और प्रकृति समझकर समाज के हित में उपयोग करने की। दुनिया बड़ी खूबसूरत है इसे अपने विवेक, चिन्तन और शुभ आचरण से और अधिक सुन्दर बनाया जाए, यही सच्चा यज्ञ होगा।

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