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[जीवन में कष्ट सहने की क्षमता तो रखो मगर इसे कष्टकर ना बनाओ। जीवन को पर-पीड़ा में लगाने में भी कष्ट मिलता है।। और पर-पीड़ा दायक बनाने से भी कष्ट ही मिलता है। मगर एक कष्ट जहाँ आपको परोपकार रुपी सुख का आंनद देता है।।’ वहीँ दूसरा कष्ट सम्पूर्ण जीवन को ही कष्ट कारक व पीड़ा दायक बना देता है। कष्ट कारक नहीं कष्ट निवारक बनो। पीड़ा दायक नहीं प्रेम दायक बनो।। जीवन को क्षणभंगुर समझने का मतलब यह नहीं कि कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा विषयोपभोग कर लिया जाए, बल्कि यह है। कि फिर दुवारा अवसर मिले ना मिले इसलिए इस अवसर का पूर्ण लाभ लेते हुए इसे सदकर्मों में व्यय किया जाए। स्वयं विचार करें।।
[: शुभ विचार को कल पर मत छोड़ो और अशुभ विचार को आगे के लिए टाल दो। क्योंकि मन की अवस्था सदा एक रस नहीं रहती। हो सकता है जो शुभ विचार आज मन मे उठा है, कल तक रहे ही न; इसलिए उसे आज ही अभी पूरा कर लो। अशुभ विचार को कल पर टाल देने से कल मनःस्थिति बदल जाने पर वह विचार भी बदल जायेगा और जीव अशुभ कर्म करने से बच जायेगा।। सगुण साकार रूप भगवान के श्री चरणों की सेवा का अवसर सदा नहीं मिलता वह जीव धन्य है। जिन्हें यह सुअवसर प्राप्त है।। ऐ मन यदि तू पाप करना चाहे तो ऐसी जगह ढूंढ, जहाँ सर्वदर्शी परमात्मा तुम्हें न देखें; नहीं तो पाप ही मत कर।ह्रदय में सच्ची प्यास और हकीकी तलब पैदा होने पर मालिक भी प्रेमी से मिलने के लिए व्याकुल हो जाते हैं।। जो विचारमान हैं। और सदगुरु का दामन पकड़े जो उनकी आज्ञा-मौज अनुसार सेवा, सत्संग, भजन-सुमिरण आदि में लगे हुए हैं, वे माया से बचे हुए हैं। जैसे मछली के उछलने से समुद्र नहीं उमड़ता, वैसे ही माया चाहे जितना प्रयास करे और जितने छल-बल दिखाए, भक्तों के ह्रदयों पर उसका तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता।।
[ परमात्मा की प्राप्ति और प्रभु के प्रति प्रेम उत्पन्न करने एवं बढ़ाने के लिए साधु पुरूष का संग करना और उनके उपदेशों को श्रद्धा व प्रेम से सुनकर तदनुसार आचरण करना, ही सत्संग है, जैसा संग, वैसा रंग। संग से ही मनुष्य की पहचान की जाती है।। अतः अपनी उन्नति एवं वास्तविक सुख की प्राप्ति के लिए सदैव साधु संतों के संग सत्संग करना चाहिए शास्त्र कहते हैं, कि मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। और मन शुद्ध होता है।। विवेक से और विवेक साधु संतो के संग से सत्संग से ही मिलता है। अन्य दूसरा कोई उपाय नहीं है।। क्रोध आने पर चिल्लाने के लिए ताकत नहीं चाहिए। मगर क्रोध आने पर चुप रहने के लिए बहुत ताक़त चाहिए।।

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