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जगद्गुरु श्रीकृष्ण का उपदेश सम्पूर्ण गीता सार बीस वाक्यों में।
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हमारी जिंदगी में सुख और दुःख दोनों लगे हुए है, सुख के समय तो हम खुश रहते है लेकिन दुःख के समय यह हमे पहाड़ सा लगने लगता है और हम भगवान को इसका जिम्मेंदार ठहराने लगते है ।

परन्तु दुःख या संकट हमारे जिंदगी के लिए आवशयक है क्योकि ये हमे हमारे आगे की जिंदगी के लिए महत्वपूर्ण सबक दे कर जाते है तथा जब भी हमारे जिंदगी में दुःख या संकट आते है तब भगवान हमारी मदद करते है व हमे उससे लड़ने की ताकत देते है।

हिन्दू धर्म के पवित्र ग्रन्थ भगवद गीता में यह बताया गया है की मनुष्य अपने जीवन को किस तरह बेहतर ढंग से जी सकता है और अपने हर परेशानियों पर विजय पा सकता है. भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध के दौरान करुक्षेत्र में अर्जुन को भगवद गीता का ज्ञान दिया था।

भगवद गीता में 18 अध्याय और लगभग 700 श्लोक है जिनमे में जीवन के हर समस्या का समाधान करने का उपाय है.भगवत गीता के ये श्लोक सिर्फ़ भारत में ही नहीं बल्कि विदेशो में भी लोगो के मार्गदर्शक है तथा भगवद गीता एक नई दिशा प्रदान करने वाला ग्रन्थ है. आइये जानते है भगवत गीता के वे 20 श्लोक के सार जो निश्चित ही आपमें एक नई ऊर्जा भर देंगे !

1 . मन की लगाम सदैव अपने हाथो में रखो :- यदि मनुष्य अपने मन को काबू पर रखे तो वह दुनिया में किसी भी असम्भव कार्य को सम्भव में परिवर्तित कर सकता है. जो मन को नियंत्रित नहीं करते उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है।

2 . अपने विश्वास को अटल बनाओ :- कोई भी मनुष्य अपने विश्वास से निर्मत होता है तथा जैसा वह विश्वास करता है वैसा बन जाता है।

3 . क्रोध मनुष्य का दुश्मन है :- क्रोध से भ्रम पैदा होता है, भ्रम से बुद्धि व्यग्र होती है और जब बुद्धि के व्यग्र नष्ट होने से बुद्धि की तर्क शक्ति समाप्त हो जाती है तो मनुष्य के पतन की शुरुवात होने लगती है।

4 . संदेह करना त्याग दो :- संदेह करने वाले व्यक्ति के लिए प्रसन्नता न तो इस लोक में है और नहीं परलोक में।

5 . उठो और मजिल की तरफ बढ़ो :- आत्म-ज्ञान रूपी तलवार उठाओ तथा इसके माध्यम से अपने ह्रदय के अज्ञान रूपी संदेह को काटकर अलग कर दो, अनुशाषित रहो, उठो।

6 . इन तीन चीज़ो से सदैव दूर रहो :- भगवद गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को संदेश देते हुए वासना, क्रोध और लालच को नर्क के तीन मुख्य द्वारा बतलाया है।

7 . हर एक पल कुछ सिखाता है :- मनुष्य को उसके जिंदगी में घटित हो रहे हर एक छोटी – बड़ी चीज़ कुछ न कुछ सिख देकर जाती है. भगवद गीता में कहा गया ही की इस जीवन में न कुछ खोता है और न ही कुछ व्यर्थ होता है।

8 . अभ्यास आपको सफलता दिलाएगा :- मन अशांत है और उसे नियंत्रित करना कठिन, लेकिन अभ्यास के द्वारा उसे भी वश में किया जा सकता है।

9 . सम्मान के साथ जियो :- लोग आपके अपमान के बारे में हमेशा बात करेंगे परन्तु उनको अपने पर हावी मत होने दो. एक सम्मानित व्यक्ति के लिए अपमान मृत्यु से भी बदतर है।

10 . खुद पर विश्वास रखो :- मनुष्य जो चाहे वह बन सकता है, विश्वास के साथ इच्छित वस्तु पर लगातार चिंतन करें।

11 . कमजोर मत बनना :- हर व्यक्ति का विश्वास उसकी प्रकृति के अनुसार होता है।

12 . मृत्यु सत्य है उसे नकारा नहीं जा सकता :- जन्म लेने वाले के लिए मृत्य उतनी ही निश्चित है जितना की मृत होने वाले के लिए जन्म लेना. इसलिए जो अपरिहार्य है उस पर शोक मत करो।

13 . ऐसा मत करो जिस से खुद को तकलीफ होती हो :- अप्राकृतिक कर्म बहुत तनाव पैदा करता है।

14 . मेरे लिए सब एक समान है :- भगवान श्री कृष्णा अर्जुन को भगवद का ज्ञान देते हुए कहते है की में सभी प्राणियों को समान रूप से देखता हु, न कोई मुझे कम प्रिय है न अधिक. लेकिन जो मेरी प्रेमपूर्वक आराधना करते है वो मेरे भीतर रहते है और में उनके जीवन में आता हूँ।

15 . बुद्धिमान बनो :- संसार के सुखो में खोकर अपने जीवन के मुख्य लक्ष्य से मत भटको. सदैव अपने लक्ष्य की ओर अपना सम्पूर्ण ध्यान केंद्रित करो।

16 . सभी मुझ से है :- भगवान श्री कृष्ण कहते है की में मधुर सुगंध हु. में ही अग्नि की ऊष्मा हु , सभी जीवित प्राणियों का जीवन और सन्यासियों का आत्मसंयम हूँ।

17 . में प्रत्येक वस्तु में वास करता हु :- भगवान प्रत्येक वस्तु में है तथा सबसे ऊपर भी।

18 . ज्ञान व्यक्ति को दूसरों से अलग बनाता है :- भगवान कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते है की में उन्हें ज्ञान देता हु जो सदैव मुझ से जुड़े रहते है और जो मुझसे प्रेम करते है।

19 . खुद का कार्य करो :- किसी और का काम पूर्णता से करने से अच्छा है खुद का काम करो भले ही उसे अपूर्णता से क्यों न करें।

20 . डर को छोड़ कर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ो :- उससे मत डरो जो कभी वास्तविकता नहीं है, न कभी था और न कभी होगा. जो वास्त्विक है व हमेशा था और कभी नष्ट नहीं होगा।📚🖍🙏🙌
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“चरणामृत और पंचामृत में क्या अंतर है..??”
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मंदिर में या फिर घर/मंदिर पर जब भी कोई पूजन होती है, तो चरणामृत या पंचामृत दिया हैं। मगर हम में से ऐसे कई लोग इसकी महिमा और इसके बनने की प्रक्रिया को नहीं जानते होंगे।

चरणामृत का अर्थ होता है भगवान के चरणों का अमृत और पंचामृत का अर्थ पांच अमृत यानि पांच पवित्र वस्तुओं से बना। दोनों को ही पीने से व्यक्ति के भीतर जहां सकारात्मक भावों की उत्पत्ति होती है,
वहीं यह सेहत से जुड़ा मामला भी है।

👉चरणामृत क्या है.??
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शास्त्रों में कहा गया है –
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णो पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।।

अर्थात :
भगवान विष्णु के चरणों का अमृतरूपी जल सभी तरह के पापों का नाश करने वाला है। यह औषधि के समान है। जो चरणामृत का सेवन करता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता है।

कैसे बनता चरणामृत..??
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तांबे के बर्तन में चरणामृत रूपी जल रखने से उसमें तांबे के औषधीय गुण आ जाते हैं। चरणामृत में तुलसी पत्ता, तिल और दूसरे औषधीय तत्व मिले होते हैं। मंदिर या घर में हमेशा तांबे के लोटे में तुलसी मिला
जल रखा ही रहता है।

चरणामृत लेने के नियम :
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चरणामृत ग्रहण करने के बाद बहुत से लोग सिर पर हाथ फेरते हैं, लेकिन शास्त्रीय मत है कि ऐसा नहीं करना चाहिए। इससे नकारात्मक प्रभाव बढ़ता है। चरणामृत हमेशा दाएं हाथ से लेना चाहिए और
श्रद्घाभक्तिपूर्वक मन को शांत रखकर ग्रहण करना चाहिए। इससे चरणामृत अधिक लाभप्रद होता है।

चरणामृत का लाभ
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आयुर्वेद की दृष्टि से चरणामृत स्वास्थ्य के लिए बहुत ही अच्छा माना गया है। आयुर्वेद के अनुसार तांबे में अनेक रोगों को नष्ट करने की क्षमता होती है। यह पौरूष शक्ति को बढ़ाने में भी गुणकारी माना जाता है। तुलसी के रस से कई रोग दूर हो जाते हैं और इसका जल मस्तिष्क को शांति और निश्चिंतता प्रदान करता हैं। स्वास्थ्य लाभ के साथ ही साथ चरणामृत बुद्घि, स्मरण शक्ति को बढ़ाने भी कारगर होता है।

पंचामृत
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पंचामृत का अर्थ है.

‘पांच अमृत’। दूध, दही, घी, शहद, शक्कर को मिलाकर पंचामृत बनाया जाता है। इसी से भगवान का अभिषेक किया जाता है। पांचों प्रकार के मिश्रण से बनने वाला पंचामृत कई रोगों में लाभ-दायक और मन को शांति प्रदान करने वाला होता है। इसका एक
आध्यात्मिक पहलू भी है। वह यह कि पंचामृत आत्मोन्नति के 5 प्रतीक हैं। जैसे –

दूध – दूध पंचामृत का प्रथम भाग है। यह शुभ्रता का प्रतीक है, अर्थात हमारा जीवन दूध की तरह निष्कलंक होना चाहिए।

दही- दही का गुण है कि यह दूसरों को अपने जैसा बनाता है। दही चढ़ाने का अर्थ यही है कि पहले हम निष्कलंक हो सद्गुण अपनाएं और दूसरों को भी अपने जैसा बनाएं।

घी- घी स्निग्धता और स्नेह का प्रतीक है। सभी से हमारे स्नेहयुक्त संबंध हो, यही भावना है।

शहद- शहद मीठा होने के साथ ही शक्तिशाली भी होता है। निर्बल व्यक्ति जीवन में कुछ नहीं कर सकता, तन और मन से शक्तिशाली व्यक्ति ही सफलता पा सकता है।

शक्कर- शक्कर का गुण है मिठास, शकर चढ़ाने का अर्थ है जीवन में मिठास घोलें। मीठा बोलना सभी को अच्छा लगता है और इससे मधुर व्यवहार बनता है।
उपरोक्त गुणों से हमारे जीवन में सफलता हमारे कदम चूमती है।

पंचामृत के लाभ : पंचामृत का सेवन करने से शरीर पुष्ट और रोगमुक्त रहता है। पंचामृत से जिस तरह हम भगवान को स्नान कराते हैं, ऐसा ही खुद स्नान करने से शरीर की कांति बढ़ती है। पंचामृत उसी मात्रा में सेवन करना चाहिए, जिस मात्रा में किया जाता है। उससे ज्यादा नहीं।
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ग्रहों का मूल त्रिकोण

सूर्य – सिंह राशि में ० से २० अंश तक मूल त्रिकोण शेष राशि स्वगृह हैं।
चन्द्र – वृष में ४ से ३० अंश तक मूल त्रिकोण, शेष उच्च हैं।
मंगल – मेष में १ अंश से १२ अंश तक मूल त्रिकोण, शेष स्वगृह हैं।
बुध – कन्या में १६ से २० अंश तक मूल त्रिकोण, शेष स्वगृह हैं।
गुरु – धनु में १ से १० अंश तक मूल त्रिकोण, शेष स्वगृह हैं।
शुक्र – तुला में १ से १५ अंश तक मूल त्रिकोण, शेष स्वगृह हैं।
शनि – कुम्भ में १ से २० अंश तक मूल त्रिकोण, शेष गृह हैं।
ग्रहों की उच्चनीचादि राशियां—
सूर्य – मेष राशि में १० अंश तक उच्च तथा तुला में इतने अंशों तक नीच।
चन्द्रमा – वृष में ३ अंश तक उच्च तथा वृश्चिक में ३ अंश तक नीच।
मंगल – मकर में २८ अंश तक उच्च तथा कर्वâ के २८ अंश तक नीच।
बुध – कन्या में १५ अंश तक उच्च तथा मीन में इतने अंश तक नीच।
गुरु – कर्वâ में ५ अंश तक उच्च तथा मकर में ५ अंश तक नीच।
शुक्र – मीन में २७ अंश तक उच्च तथा कन्या में २७ अंश तक नीच।
शनि – तुला के २० अंश तक उच्च तथा मेष के २० अंश तक नीच राशि में रहता है।
ग्रहों की नृपादि संज्ञा – सूर्य राजा, चन्द्रमा रानी, मंगल मण्डलेश्वर या सेनापति, बुध कुमार, गुरु मन्त्री, शुक्र नेता (कुछ के मत में शुक्र भी मंत्री) तथा शनि की सेवक संज्ञा होती है।
सोमनाथ ज्योतिर्लिंग

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। :उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
:सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
:हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।
:सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥

सोमनाथ मन्दिर भूमंडल में दक्षिण एशिया स्थित भारतवर्ष के पश्चिमी छोर पर #गुजरात राज्य मे, अत्यन्त प्राचीन व ऐतिहासिक सूर्य मन्दिर का नाम है। यह भारतीय इतिहास तथा हिन्दुओं के चुनिन्दा और महत्वपूर्ण मन्दिरों में से एक है। इसे आज भी भारत के १२ ज्योतिर्लिंगों में सर्वप्रथम ज्योतिर्लिंग के रूप में माना व जाना जाता है। गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र के वेरावल बंदरगाह में स्थित इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण स्वयं #चन्द्रदेव ने किया था, जिसका उल्लेख #ऋग्वेद में स्पष्ट है।

यह मंदिर हिंदू धर्म के उत्थान-पतन के इतिहास का प्रतीक रहा है। अत्यंत वैभवशाली होने के कारण इतिहास में कई बार यह मंदिर तोड़ा तथा पुनर्निर्मित किया गया। लोककथाओं के अनुसार यहीं श्रीकृष्ण ने देहत्याग किया था। इस कारण इस क्षेत्र का और भी महत्व बढ जाता है। यह तीर्थ पितृगणों के श्राद्ध, नारायण बलि आदि कर्मो के लिए भी प्रसिद्ध है। चैत्र, भाद्रपद, कार्तिक माह में यहां श्राद्ध करने का विशेष महत्व बताया गया है। इन तीन महीनों में यहां श्रद्धालुओं की बडी भीड़ लगती है। इसके अलावा यहां तीन नदियों हिरण, कपिला और सरस्वती का महासंगम होता है। इस त्रिवेणी स्नान का विशेष महत्व है।

प्राचीन हिन्दू ग्रंथों के अनुसार में बताये कथानक के अनुसार सोम अर्थात् चन्द्र ने, दक्षप्रजापति राजा की २७ कन्याओं से विवाह किया था। लेकिन उनमें से रोहिणी नामक अपनी पत्नी को अधिक प्यार व सम्मान दिया कर होते हुए अन्याय को देखकर क्रोध में आकर दक्ष ने चंद्रदेव को शाप दे दिया कि अब से हर दिन तुम्हारा तेज क्षीण होता रहेगा। फलस्वरूप हर दूसरे दिन चंद्र का तेज घटने लगा। शाप से विचलित और दु:खी सोम ने भगवान शिव की आराधना शुरू कर दी। अंततः शिव प्रसन्न हुए और सोम-चंद्र के श्राप का निवारण किया। सोम के कष्ट को दूर करने वाले प्रभु शिव का स्थापन यहाँ करवाकर उनका नामकरण हुआ “सोमनाथ”।

ऐसी मान्यता है कि श्रीकृष्ण भालुका तीर्थ पर विश्राम कर रहे थे। तब ही शिकारी ने उनके पैर के तलुए में पद्मचिह्न को हिरण की आँख जानकर धोखे में तीर मारा था। तब ही कृष्ण ने देह त्यागकर यहीं से वैकुंठ गमन किया। इस स्थान पर बड़ा ही सुन्दर कृष्ण मंदिर बना हुआ है।

१८६९ में सोमनाथ मंदिर के अवशेष
सर्वप्रथम एक मंदिर ईसा के पूर्व में अस्तित्व में था जिस जगह पर द्वितीय बार मंदिर का पुनर्निर्माण सातवीं सदी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया। आठवीं सदी में सिन्ध के अरबी गवर्नर जुनायद ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी।गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया। इस मंदिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी। अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन १०२४ में कुछ ५,००० साथियों के साथ सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया। ५०,००० लोग मंदिर के अंदर हाथ जोडकर पूजा अर्चना कर रहे थे, प्रायः सभी कत्ल कर दिये गये।

इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया। सन 1297 में जब दिल्ली सल्तनत ने गुजरात पर क़ब्ज़ा किया तो इसे पाँचवीं बार गिराया गया। मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे पुनः 1706 में गिरा दिया। इस समय जो मंदिर खड़ा है उसे भारत के गृह मन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया और पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया।

१९४८ में प्रभासतीर्थ, ‘प्रभास पाटण’ के नाम से जाना जाता था। इसी नाम से इसकी तहसील और नगर पालिका थी। यह जूनागढ़ रियासत का मुख्य नगर था। लेकिन १९४८ के बाद इसकी तहसील, नगर पालिका और तहसील कचहरी का वेरावल में विलय हो गया। मंदिर का बार-बार खंडन और जीर्णोद्धार होता रहा पर शिवलिंग यथावत रहा। लेकिन सन १०२६ में महमूद गजनी ने जो शिवलिंग खंडित किया, वह यही आदि शिवलिंग था। इसके बाद प्रतिष्ठित किए गए शिवलिंग को १३०० में अलाउद्दीन की सेना ने खंडित किया। इसके बाद कई बार मंदिर और शिवलिंग को खंडित किया गया। बताया जाता है आगरा के किले में रखे देवद्वार सोमनाथ मंदिर के हैं। महमूद गजनी सन १०२६ में लूटपाट के दौरान इन द्वारों को अपने साथ ले गया था।

सोमनाथ मंदिर के मूल मंदिर स्थल पर मंदिर ट्रस्ट द्वारा निर्मित नवीन मंदिर स्थापित है। राजा कुमार पाल द्वारा इसी स्थान पर अन्तिम मंदिर बनवाया गया था। सौराष्ट्र के मुख्यमन्त्री उच्छंगराय नवलशंकर ढेबर ने १९ अप्रैल १९४० को यहां उत्खनन कराया था।

इसके बाद भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने उत्खनन द्वारा प्राप्त ब्रह्मशिला पर शिव का ज्योतिर्लिग स्थापित किया है। सौराष्ट्र के पूर्व राजा दिग्विजय सिंह ने ८ मई १९५० को मंदिर की आधारशिला रखी तथा ११ मई १९५१ को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद ने मंदिर में ज्योतिर्लिग स्थापित किया।[3] नवीन सोमनाथ मंदिर १९६२ में पूर्ण निर्मित हो गया। १९७० में जामनगर की राजमाता ने अपने पति की स्मृति में उनके नाम से ‘दिग्विजय द्वार’ बनवाया। इस द्वार के पास राजमार्ग है और पूर्व गृहमन्त्री सरदार बल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा है। सोमनाथ मंदिर निर्माण में पटेल का बड़ा योगदान रहा।

मंदिर के दक्षिण में समुद्र के किनारे एक स्तंभ है। उसके ऊपर एक तीर रखकर संकेत किया गया है कि सोमनाथ मंदिर और दक्षिण ध्रुव के बीच में पृथ्वी का कोई भूभाग नहीं है (आसमुद्रांत दक्षिण ध्रुव पर्यंत अबाधितs ज्योतिर्मार्ग)। इस स्तम्भ को ‘बाणस्तम्भ’ कहते हैं। मंदिर के पृष्ठ भाग में स्थित प्राचीन मंदिर के विषय में मान्यता है कि यह पार्वती जी का मंदिर है।

तीर्थ स्थान और मन्दिर

मन्दिर संख्या १ के प्रांगण में हनुमानजी का मंदिर, पर्दी विनायक, नवदुर्गा खोडीयार, महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा स्थापित सोमनाथ ज्योतिर्लिग, अहिल्येश्वर, अन्नपूर्णा, गणपति और काशी विश्वनाथ के मंदिर हैं। अघोरेश्वर मंदिर नं. ६ के समीप भैरवेश्वर मंदिर, महाकाली मंदिर, दुखहरण जी की जल समाधि स्थित है। पंचमुखी महादेव मंदिर कुमार वाडा में, विलेश्वर मंदिर नं. १२ के नजदीक और नं. १५ के समीप राममंदिर स्थित है। नागरों के इष्टदेव हाटकेश्वर मंदिर, देवी हिंगलाज का मंदिर, कालिका मंदिर, बालाजी मंदिर, नरसिंह मंदिर, नागनाथ मंदिर समेत कुल ४२ मंदिर नगर के लगभग दस किलो मीटर क्षेत्र में स्थापित हैं।

बाहरी क्षेत्र के प्रमुख मन्दिर

सोमनाथ के निकट त्रिवेणी घाट पर स्थित गीता मंदिर व वेरावल प्रभास क्षेत्र के मध्य में समुद्र के किनारे मंदिर बने हुए हैं। शशिभूषण मंदिर, भीड़भंजन गणपति, बाणेश्वर, चंद्रेश्वर-रत्नेश्वर, कपिलेश्वर, रोटलेश्वर, भालुका तीर्थ है। भालकेश्वर, प्रागटेश्वर, पद्म कुंड, पांडव कूप, द्वारिकानाथ मंदिर, बालाजी मंदिर, लक्ष्मीनारायण मंदिर, रूदे्रश्वर मंदिर, सूर्य मंदिर, हिंगलाज गुफा, गीता मंदिर, बल्लभाचार्य महाप्रभु की ६५वीं बैठक के अलावा कई अन्य प्रमुख मंदिर है।

प्रभास खंड में विवरण है कि सोमनाथ मंदिर के समयकाल में अन्य देव मंदिर भी थे।

इनमें शिवजी के १३५, विष्णु भगवान के ५, देवी के २५, सूर्यदेव के १६, गणेशजी के ५, नाग मंदिर १, क्षेत्रपाल मंदिर १, कुंड १९ और नदियां ९ बताई जाती हैं। एक शिलालेख में विवरण है कि महमूद के हमले के बाद इक्कीस मंदिरोंo का निर्माण किया गया। संभवत: इसके पश्चात भी अनेक मंदिर बने होंगे।

सोमनाथ से करीब दो सौ किलोमीटर दूरी पर प्रमुख तीर्थ श्रीकृष्ण की द्वारिका है। यहां भी प्रतिदिन द्वारिकाधीश के दर्शन के लिए देश-विदेश से हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। यहां गोमती नदी है। इसके स्नान का विशेष महत्व बताया गया है। इस नदी का जल सूर्योदय पर बढ़ता जाता है और सूर्यास्त पर घटता जाता है, जो सुबह सूरज निकलने से पहले मात्र एक डेढ फीट ही रह जाता है।

श्रुति :

हर श्रुति के दो खण्ड होते हैं – मन्त्र भाग और ब्राह्मण भाग । श्रुति को समझने के लिए जिनकी जरूरत पड़ती है उन्हें भी विद्या कह दिया जाता है । श्रुतियों का अर्थ करने के लिये व्याकरण की बड़ी जरूरत होती है । शब्द का निर्माण कैसे हुआ ? इसका तात्पर्य क्या है ? प्रत्येक मंत्र में कितने अक्षर , कितनी मात्रायें हैं ? यह जानने के लिये छन्दशास्त्र की जरूरत पड़ेगी , उसे भी जानना पड़ेगा । इसी प्रकार किस – किस मन्त्र का किस प्रकार विनोयोग है , उसे जानने के लिये कल्पसूत्रों की जरूरत है । वेद में कर्तव्य कर्मों को करने के लिये काल बताया है । काल का निर्णय करने के लिये ज्योतिषशास्त्र की जरूरत पड़ेगी। यह भी पता लगाना पड़ता है कि सन्दर्भानुसार शब्द का अर्थ कैसे किया जाये । कई शब्दों के अर्थ संदर्भ के बिना केवल व्याकरण के बल से निर्णीत नहीँ होते । संदर्भों को जाने तब श्रुतियों का अर्थ ठीक लगेगा । ये सब मिलकर छ हो गये, इन्हें वेदाङ्ग कहते हैं ।
इतने ज्ञान से वेद के अक्षरार्थ का पता लग गया लेकिन वेदो का तात्पर्य समझने के लिये ये पर्याप्त नहीं हैं। वेद का तात्पर्य समझने के लिये पुराण , न्याय , धर्मशास्त्र और मीमांसा की जरूरत पड़ती है । पुराण से यहाँ इतिहास – पुराण दोनों का संग्रह है । इतिहास अर्थात् ” ईश्वरी प्रसाद का इतिहास नहीं समझेंगे । बाल्मिकि रामायण और व्यास जी का महाभारत , इन दो को ही हम इतिहास समझते हैं । यहाँ लिखा कि विभेत्यल्पश्रुताद् वेदः मामयं प्रहरिष्यति, जिस व्यक्ति ने वेदाङ्ग , पुराण , न्याय , धर्म- शास्त्र और मीमांसा का अध्ययन गुरु मुख से नहीं किया वह केवल अक्षरार्थ के बल से जब श्रुतियों का अर्थ करता है तो जो वेद संसार के मूल कारण अज्ञान को भी नष्ट करने में समर्थ है , वह भी काँप जाता है । ” अल्पश्रुतात् अर्थात् इन ज्ञानों को प्राप्त किये बिना जो श्रुतियों का अर्थ लगाने जाता है उससे ” वेद ” अर्थात् श्रुति को डर लगता है कि अब यह मेरा वध करने आ गया । आजकल अधिकतर लोग कहते हैं कि वेद ही पढ़ना है तो सीधे पढ़ लें। ऐसे लोगों से वेद ही बेचारा काँपता रहता है कि न जाने कहाँ का कहाँ अर्थ कर जायेंगे । वेद का तात्पर्य बताने में ये चारों शास्त्र भी जरूरी है । इतिहास , पुराण के द्वारा वेद का उपबृंहण करना पड़ता है । पुराण के अन्दर सर्ग , प्रतिसर्ग , मन्वन्तर आदि कथानकों के द्वारा पता लगता है कि वेद के अमुक मन्त्र का क्या तात्पर्य है जिसको उन ऋषियों ने बताया ।

जन्म कुण्डली में लग्न के अनुसार फल

मेष लग्न-जन्म के समय यदि मेष लग्न हो तो जातक का औसत कद, सुघड़ शरीर, तीव्र स्वभाव, लालिमापूर्ण आंखें, महत्वाकांक्षी, साहसी, कमजोर टांगे, स्त्रीप्रिय, अभिमानी तथा अस्थिर धनवाला होता है।
इस लग्न पर क्रूर ग्रहों का प्रभाव हो तो व्यक्ति आवेशात्मक व झगड़ालू हो जाता है। ये लोग प्राय: स्थिर स्वभाव के नहीं होते, अत: जीवन में ये बार-बार काम बदलते हैं। फिर भी इनमें वला की कार्य कुशलता तथा कभी निराश न होने का गुण होता है। इनका स्वभाव प्राय: गरम होता है तथा ये अपने ऊपर पड़ी जिम्मेदारी को जल्दी ही निबटाना पसन्द करते हैं अर्थात् काम में विलम्ब करना इनका स्वभाव नहीं होता है। ये भोजन के शौकीन होते हैं, लेकिन फिर भी कम भोजन कर पाते हैं तथा जल्दी भोजन करना इनका स्वभाव होता है। कभी कभी इनके नाखूनों में विकार देखा जाता हैं ये लोग साहसिक कामों में अपनी प्रतिभा का विस्तार कर सकते हैं।

वृष लग्न-इस लग्न में जातक मध्यम शरीर, चर्बी रहित तथा शौकीन स्वभाव के होते हैं। ये प्राय: सुदर्शन व्यक्तित्व के स्वामी होते हैं तथा कई स्त्रियों से भोग करने की लालसा रखते हैं। प्राय: रंग खुलता गेहुआं तथा बाल चमकदार होते हैं। इनकी जांघें मजबूत तथा इनकी चाल मस्तानी होती है। इनमें धैर्य खूब होता है, इसीलिए बहुत जल्दी ये लोग उत्तेजित नहीं होते हैं। यथासम्भव क्रोधित होने पर ये लोग खूंखार हो जाते हैं। ये लोग प्राय: प्रबल इच्छा शक्ति रखते हैं तथा जीवन में बहुत सफलता प्राप्त करते हैं। ये जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाते। ये धन कमाते हैं तथा संसार के सारे सुखों को भोगना चाहते हैं। इनके जीवन का मध्य भाग काफी सुखपूर्वक व्यतीत होता है। इनके यहां कन्या सन्तान की अधिकता होती है।

मिथुन लग्न-मिथुन लग्न में उत्पन्न बालक लम्बे कद व चमकीले नेत्रों वाला होता है। इनकी भुजाएं प्राय: लम्बी देखी गयी हैं। ये लोग प्राय: खुश मिजाज व चिन्तारहित होते हैं। ये लोग प्राय: प्राचीन शास्त्रों में रुचि रखते हैं। तथा कुशल वक्ता होते हैं। अपनी बात को प्रभावी ढंग से पेश करना इनकी विशेषता होती है। इनकी नाम लम्बी व ऊंची होती है। ये लोग स्त्रियों या अपने से कम उम्र के लोगों से दोस्ती रखते हैं। इनकी एकतरफा निर्णय करने की शक्ति कुछ कम होती है। ये लोग कई व्यवसाय कर सकते हैं। स्वभावत: भावुक होते हैं तथा भावावेश में कभी अपना नुकसान सहकर भी परोपकार करते हैं। ये लोग उच्च बौद्धिक स्तर के होते हैं। तथा शीघ्र धनी बनने के चक्कर में कभी कभी सट्टा या लॉटरी का शौक पाल लेते हैं। इनकी मध्य अवस्था प्राय: संघर्षपूर्ण होती है। ये लोग कवित्व शक्ति से भी पूर्ण होते हैं।

कर्क लग्न-इन लग्न के लोग छोटे कद वाले होते हैं। इनका शरीर प्राय: मोटापा लिए होता है तथा जलतत्व राशि होने के कारण जल्दी सर्दी की पकड़ में आ जाते हैं। इनके फेफड़े कमजोर होते है। इन्हें नशीले पदार्थों का शौक होता है। इनका जीवन प्राय: परिवर्तनशील होता है। पूर्वावस्था में इन्हें संघर्ष करना पड़ता है। इनकी कल्पना शक्ति अच्छी होती है तथा लेखन का इन्हें शौक होता है। आवेश इनकी कमजोरी होती है तथा जीवन में ये तेज रफ्तार से दौड़ना चाहते हैं। ये लोग प्राय: मध्यावस्था में धन व सम्मान अर्जित करते हैं तथा स्वयं को कुछ श्रेष्ठ मानते हैं। इनकी स्मरण-शक्ति भी अद्भुत देखी गई है। ये लोग प्राय: बातूनी होते हैं। यदि सप्तम स्थान पर शुभ ग्रहों का प्रभाव न हो तो इनका वैवाहिक जीवन सुखी नहीं होता। गृहस्थ जीवन से ये बहुत लगाव रखते हैं। धन जमा करना इनका स्वप्न होता है। इन्हें अच्छी चीजों का शौक होता है। इनकी विचारधारा कभी बहुत शूरतापूर्ण तथा कभी बहुत भीरू होती है। जीवन के तीसरे पहर में इन्हें विरासत में धन-सम्पत्ति भी प्राप्त होती है।

सिंह लग्न-इस लग्न के जातक तीक्ष्ण स्वभाव वाले तथा क्रोधी होते हैं। इनका कद मध्यम व व्यक्तित्व रौबीला होता है, इन्हें पेट व दांत के रोग होने की सम्भावना रहती है। महत्वाकांक्षा बहुत होती है। ये लोग अपनी बात से बहुत हठी होते हैं तथा उच्चाधिकार प्राप्त होने पर ये खूब रौब जमाते हैं। इनका वैवाहिक जीवन प्राय: सुखी नहीं होता। ये लोग राजनीति में भी पड़ते हैं। ये लोग दूसरों पर अधिक विश्वास रखते हैं। प्राय: कृपालु व उदार-हृदय वाले ये लोग बहुत न्यायप्रिय होते हैं। माता के ये अधिक दुलारे होते हैं। इन्हें अभक्ष्य भक्षण का भी शौक होता है। पुत्र कम होते हैं। तथा सन्तान भी कम होती हैं।

कन्या लग्न- इस लग्न के व्यक्ति प्राय: मोटे नहीं होते तथा इनकी तोंद कम निकलती है। ये लोग समय-चतुर तथा बुद्घिमान होते हैं। औपचारिक शिक्षा में इनकी अभिरुचि कम होती है। ये लोग दुनियादारी में काफी तेज होते हैं। ये लोग शास्त्र के अर्थ को समझने वाले, गणित प्रेमी, चिकित्सा या ज्योतिष का शौक रखने वाले तथा गुणी होते हैं। ये लोग विवाह देर से करते हैं तथा विवाह के बाद गृहस्थी में रम जाते हैं। इनकी भौंहे आपस में मिली होती हैं। ये श्रृंगार प्रिय होते हैं। इनका झुकाव धन इकट्ठा करने की तरफ अधिक होता है। ये परिवर्तनशील स्वभाव के होते हैं। अत: ये हरफनमौला बनने का प्रयास करते हैं। यदि कमजोर लग्न हो तो भाग्यहीन होते हैं तथा बली लग्न में संघर्ष के बाद अच्छी सफलता पाते हैं। इन्हें यात्राओं का बहुत शौक होता है। इनकी अभिरुचियों में स्त्रीत्व का प्रभाव पाया जाता है।

तुला लग्न-इन लग्न के लोगों का व्यक्तित्व शानदार तथा आकर्षक होता है। इनकी नाक लम्बी व रंग गोरा होता है। ये मूल रूप से बड़े धार्मिक, सत्यवादी, इन्द्रियों को वश में करने वाले तथा तीव्र बुद्घि वाले होते हैं। ये धीर गम्भीर स्वभाव रखते हैं। यदि अष्टम स्थान तथा वृहस्पति पर शुभ प्रभाव हो तो ये सांसारिक होते हुए भी मानवीय मूल्यों की मिसाल होते हैं। क्रूर प्रभाव पड़ने से प्राय: तेज, चालक व शारीरिक श्रम करने वाले हो जाते हैं। इन लोगों में वैरागय की भावना भी जाग सकती है। ये लोग प्राय: सांसारिक सम्बन्धों को अधिक विस्तार नहीं देते है तथा प्राय: अपने परिवार के विरोध का सामना करते हैं। इनकी कल्पना शक्ति व विचारों का स्तर सामान्यत: उन्नत होता है। ये लोकप्रियता प्राप्त करते हैं। कई बड़े सत्पुरुषों का जन्म तुला लग्न में हुआ है। महात्मा गांधी व विवेकानन्द तुला लग्न के व्यक्ति थे। तुला लग्न के व्यक्ति बहुत प्रेममय होते हैं। ये लोग प्राय: लेखक, उपदेशक, व्यापारी आदि भी पाए जाते हैं।

वृश्चिक लग्न-इन लग्न के लोग संतुलित शरीर के होते हैं तथा इनके घुटने व पिंडलियां गोलाई लिए होती हैं। ये लोग अपनी बात पर अड़ जाते हैं, प्राय: ये बिना सोचे समझे भी बात को पकड़ कर अड़ते हैं। यद्यपि इनकी कल्पना शक्ति तीव्र होती है तथा ये बुद्धिमान भी होते हैं लेकिन अपने निकटवर्ती धोखेबाज को भी नहीं पहचान पाते। अक्सर ठगे जाने पर अक्लमंदी दिखाते हैं। इन्हें असानी से किसी तरफ भी मोड़ा जा सकता है। ये कामुक स्वभाव के होते हैं तथा अपनी स्त्री के अतिरिक्त भी अन्य स्त्रियों से शारीरिक सम्बन्ध रखते हैं। दिखने में सरल होते हैं लेकिन अनेक फलितवेत्ता इस बात से सहमत हैं। कि इनमें छिपे तौर पर पाप करने की प्रवृत्ति होती है। स्वभावत: ये खर्चीले स्वभाव के होते हैं, लेकिन अधिकांश खर्च अपने आराम व शौक पर करते हैं। इनका घरेलू जीवन अक्सर अस्त व्यस्त होता है, यदि शुभ प्रभाव से युक्त लग्न हो तो इनकी रुचि गुप्त विद्याओं की तरफ हो जाती है। शुभ प्रभाव वाले लग्न में उत्पन्न होने पर ये कुशल प्रशासक भी होते हैं।

धनु लग्न-ये लोग अच्छे शारीरिक गठन वाले होते हैं। शुभ प्रभाव होने पर ये लोग काफी सुन्दर होते हैं। लग्न पर बुरा प्रभाव होने पर इनके दॉत व नाक मोटे हो जाते हैं। ये परिश्रमी तथा धैर्यवान होते हैं। ये लोग जल्दी निर्णय नहीं ले पाते तथा काफी सोच विचार के उपरान्त ही कोई काम करते हैं। ये जोशीले व आलस्य रहित होते हैं अत: जीवन में ये काफी आगे बढ़ते हैं। ये लोग अक्सर सत्यवादी तथा ईमानदार होते हैं लेकिन शनि, राहु, मंगल का प्रभाव लग्न पर हो तो ये प्राय: स्वार्थी व धोखेबाज भी बन जाते हैं। तब इनकी कथनी व करनी में बहुत अन्तर होता है। प्राय: ये लोग धनी तथा भाग्यशाली होते हैं।

मकर लग्न-इस लग्न के लोग लम्बे कद के निकलते हैं। इनका शारीरिक विकास धीरे-धीरे होता है। ये दिखने में कठोर व्यक्तित्व वाले होते हैं। ये लोग दूसरों की बात को बड़े ध्यान से सुनते हैं तथा सुन-सुनकर ही बहुत कुछ सीखते हैं। इनकी सहन शक्ति बहुत होती है। ये लोग हर एक बात को बड़े व्यावहारिक दृष्टिकोण से देखते हैं। ये लोग धीरे-धीरे सन्तोष से अपना काम करते है। यदि लग्न पर अशुभ प्रभाव हो तो ये लोग धोखेबाज, जेब कतरे, चोर तथा दादागिरी दिखाने वाले हो जाते हैं। इसके विपरीत शुभ प्रभाव होने पर ये ईमानदार तथा कर्तव्यनिष्ठ होते हैं। ये लोग अन्धभक्ति करने वाले, स्रेह से सब कुछ न्यौछावर करने वाले तथा शक्ति से वश में न होने वाले होते हैं। ये लोग बहुत परिश्रमी होते हैं। तथा सबके प्रति बड़ा सेवा भाव रखते हैं। यदि इनके स्वाभिमान की रक्षा होती रहे तो बड़े-बड़े दान-पुण्य के महान कार्य कर देते हैं। ये अड़ियल होते हैं। तथा मुसीबत का सीना तान कर सामना करते हैं। प्राय: ये पुरानी विचार धाराओं को मानने वाले होते हैं।

कुम्भ लग्न-इस लग्न के व्यक्ति पूरे लम्बे कद तथा लम्बी गरदन वाले होते हैं। ये लोग बहुत सन्तुलित स्वभाव वाले तथा एकान्त प्रिय देखे गए हैं। संघर्ष करने की इनमें क्षमता होती है। ये लोग अपने सिद्घान्त के लिए सब कुछ दांव पर लगा सकते हैं। इनका कभी कभी थोड़े समय के लिए बहुत भाग्योदय हो जाता है। ये लोग बीस वर्ष के उपरान्त ही सफलता पाना शुरू करते हैं। इनके काम रातों रात सम्पन्न नहीं होते, अपितु मेहनत से करने पड़ते हैं। इन्हें अपनी बात समझाकर अपने ढंग से चलाना बड़ा मुश्किल कार्य होता है। लेकिन बात समझ में आने पर ये पूरी ईमानदारी व तत्परता से उसे मान लेंगे। इन्हें जीवन में प्राय: हर सिरे से असन्तोष होता है। ये लोग अपने असन्तोष को कभी कभी संघर्ष की शक्ल में या विद्रोह के रूप में प्रकट करते हैं। शारीरिक कष्ट सहने की इनमें अद्भुत क्षमता पाई जाती है। इनका विवाह थोड़ी देर से तथा अक्सर बेमेल होता है। ये लोग सबको अपने ढंग से चलाने का प्रयास करते हैं। प्राय: इनका भाग्योदय स्थायी नहीं होता है। फिर भी ये अपने क्षेत्र में बहुत प्रसिद्ध होते हैं।

मीन लग्न-इन लग्न के व्यक्ति प्राय: नाटे देखे जाते हैं। इनका माथा औसत शरीर के अनुपात में थोड़ा बड़ा दिखता है। ये लोग जीवन में बेचैनी अनुभव करते हैं तथा कभी कभी दार्शनिकता की तरफ झुक जाते हैं। ये लोग अस्थिर स्वभाव के होते हैं। इनमें अभिनेता, कवि, चिकित्सक, अध्यापक, या संगीतकार बनने योग्य गुण होते हैं। इन्हें प्राय: पैतृक सम्पत्ति प्राप्त होती है तथा ये लोग उसे बढ़ाने की पूरी कोशिश करते हैं। भीतरी तौर पर ये लोग दब्बू तथा डरपोक होते हैं।
इन्हें सन्तान अधिक होती है। तथा ये स्वभाव से उद्यमी नहीं होते हैं। इन्हें जीवन में अचानक हानि उठानी पड़ती है। यदि वृहस्पति अशुभ स्थानों में अशुभ प्रभाव में हो तो प्रारम्भिक अवस्था में इनके जीवन की सम्भावना क्षीण होती हैं।

इस तरह हमने जाना कि जन्म लग्न मानव स्वभाव व उसके व्यक्तित्व की संरचना में बड़ा योगदान करता है। लग्न पर प्रभाव से उपर्युक्त गुणों में न्यूनता या अधिकता देखी जाती है। यदि लग्नेश बलवान होकर शुभ स्थानों में शुभ ग्रहों से दृष्ट या युत हो तो बहुत से दोषों को दूर कर देता है।

श्रीमद्भगवद्गीता का जीवनदायी सन्देश –

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः |
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||२.२३||
अन्वय और अनुवाद :– न = नहीं; एनम् = इस आत्मा को; छिन्दन्ति = काट सकते; शस्त्राणि = शस्त्र; न = नहीं; एनम् = इसको; दहति = जला सकती; पावकः = अग्नि; न = नहीं; च = और; एनम् = इसको; क्लेदयन्ति = गला सकता है; आप: = जल; न = नहीं; शोषयति = सुखा सकता; मारुतः = वायु | ||२.२३||

अर्थात् – “इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते; इसको आग नहीं जला सकती; इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता |” ||२.२३||

भावार्थ/ व्याख्या – पूर्व श्लोक में जिस प्रकार कोई मनुष्य पुराने वस्त्र का परित्याग करके नवीन वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार अनश्वर आत्मा द्वारा अष्टधा अपरा प्रकृति से निर्मित देहरूपी वस्त्र (बाह्य आवरण) पुनः-पुनः धारण करना कथन करने के उपरान्त अब इस श्लोक में ह्रषीकेश आत्मपुरुष श्रीकृष्ण का उपदेश है कि यह जो इस देहरूप में स्थित अनश्वर आत्मा है, इसको शस्त्र नहीं काट सकते; आग इसको जला नहीं सकता; जल इसे गला नहीं सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकता |

कठोपनिषद् वाणी में श्रुति द्वारा अनश्वर आत्मा को सहज ही समझ में नहीं आने वाला और अतिसूक्ष्म होना कथन किया गया है – ‘न हि सुविज्ञेयमणुरेष धर्मः |’ (कठ.उप. १.१.२१) अर्थात् ‘यह आत्मा सहज ही समझ में आने वाला नहीं है, कारण कि यह अतिसूक्ष्म है |” तथा श्वेताश्वतरोपनिषद् में श्रुतिकथन आया है कि-

वालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च |
भागो जीवः स विज्ञेय: स चानन्त्याय कल्पते || (श्वेता.उप. ५.९)

अर्थात् – “’बाल की नोक के (अग्रभाग के) सौवें भाग का पुनः सौवाँ भाग कल्पना किये जाने पर जो भाग (दशहजारवां भाग) होता है वह जीव है अर्थात् वह देहस्थ जीवात्मा (आत्मा) रूपमें ‘अङ्गुष्ठमात्र पूर्णपुरुष परमात्मा है | (स विज्ञेयः) वह दशहजारवां अंश जाना जाने योग्य है अर्थात् वह आत्म-साक्षात्कार किया जाने योग्य है, और वह (दशहजारवां भाग) असीम अन्तरहित भाग वाला होने में समर्थ है |’

इस प्रकार उपनिषद् वाणी में वर्णन किया गया अनश्वर आत्मा का समस्त देहरूप में समाया हुआ यह जो अतिसूक्ष्म से भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वरुप है; अप्रमेय शाश्वत अव्यय पुरातन स्वरूप है और जो सहज ही जानने या समझने में आता नहीं है; उसे ही यहाँ पर सहज बोधगम्यता को अपनाकर सदगुरुदेव ह्रषीकेश श्रीकृष्ण का उपदेश है कि वस्त्र की भांति देहरूप को धारण करने वाला इस प्रकार का यह जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वरूप को धारण करने वाला अवयवरहित आत्मा है इसे तलवार आदि शस्त्र काट नहीं सकते | इसे अग्नि जला कर भस्मीभूत कर नहीं सकता | जल इसे गला कर या सड़ा कर नष्ट नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकता अर्थात् इस आत्मा को सुखाकर या उड़ाकर अपने साथ ले जा नहीं सकता |

इस प्रकार का यह अविनाशी आत्मा है; अतः इस रहस्य को जानकर तू शोक मत कर | अपने ही कथन को और अधिक स्पष्ट करते हुए –

ह्रषीकेश सदगुरुदेव श्रीकृष्ण आगे कहते हैं .. | [क्रमशः – ४९]
[पारद शिवलिंग

पारद (पारा) को रसराज कहा जाता है। पारद से बने शिवलिंग की पूजा करने से बिगड़े काम भी बन जाते हैं। धर्मशास्त्रों के अनुसार पारद शिवलिंग साक्षात भगवान शिव का ही रूप है इसलिए इसकी पूजा विधि-विधान से करने से कई गुना फल प्राप्त होता है तथा हर मनोकामना पूरी होती है। घर में पारद शिवलिंग सौभाग्य, शान्ति, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के लिए अत्यधिक सौभाग्यशाली है। दुकान, ऑफिस व फैक्टरी में व्यापारी को बढाऩे के लिए पारद शिवलिंग का पूजन एक अचूक उपाय है। शिवलिंग के मात्र दर्शन ही सौभाग्यशाली होता है। इसके लिए किसी प्राणप्रतिष्ठा की आवश्कता नहीं हैं। पर इसके ज्यादा लाभ उठाने के लिए पूजन विधिक्त की जानी चाहिए।

पूजन की विधि ……………………

सर्वप्रथम शिवलिंग को सफेद कपड़े पर आसन पर रखें।
स्वयं पूर्व-उत्तर दिशा की ओर मुँह करके बैठ जाए।
अपने आसपास जल, गंगाजल, रोली, मोली, चावल, दूध और हल्दी, चन्दन रख लें।
सबसे पहले पारद शिवलिंग के दाहिनी तरफ दीपक जला कर रखो।
थोडा सा जल हाथ में लेकर तीन बार निम्न मन्त्र का उच्चारण करके पी लें।
प्रथम बार ॐ मुत्युभजाय नम:
दूसरी बार ॐ नीलकण्ठाय: नम:
तीसरी बार ॐ रूद्राय नम:
चौथी बार ॐशिवाय नम:
हाथ में फूल और चावल लेकर शिवजी का ध्यान करें और मन में ”ॐ नम: शिवायका 5 बार स्मरण करें और चावल और फूल को शिवलिंग पर चढ़ा दें। इसके बाद ॐ नम: शिवाय का निरन्तर उच्चारण करते रहे। फिर हाथ में चावल और पुष्प लेकर ''ॐ पार्वत्यै नम: मंत्र का उच्चारण कर माता पार्वती का ध्यान कर चावल पारा शिवलिंग पर चढ़ा दें।
इसके बाद ॐ नम: शिवाय का निरन्तर उच्चारण करें।
फिर मोली को और इसके बाद बनेऊ को पारद शिवलिंग पर चढ़ा दें।
इसके पश्चात हल्दी और चन्दन का तिलक लगा दे।
चावल अर्पण करे इसके बाद पुष्प चढ़ा दें।
मीठे का भोग लगा दे।
भांग, धतूरा और बेलपत्र शिवलिंग पर चढ़ा दें।
फिर अन्तिम में शिव की आरती करे और प्रसाद आदि ले लो।
जो व्यक्ति इस प्रकार से पारद शिवलिंग का पूजन करता है इसे शिव की कृपा से सुख समृद्धि आदि की प्राप्ति होती है।

लाभ……………………..

इसे घर में स्थापित करने से भी कई लाभ हैं, जो इस प्रकार हैं…………………

  • पारद शिवलिंग सभी प्रकार के तन्त्र प्रयोगों को काट देता है.
  • पारद शिवलिंग जहां स्थापित होता है उसके १०० फ़ीट के दायरे में उसका प्रभाव होता है. इस प्रभाव से परिवार में शांति और स्वास्थ्य प्राप्ति होती है.
  • पारद शिवलिंग शुद्ध होना चाहिये, हस्त निर्मित होना चाहिये, स्वर्ण ग्रास से युक्त होना चाहिये, उसपर फ़णयुक्त नाग होना चाहिये. कम से कम सवा किलो का होना चाहिये.
  • य़दि बहुत प्रचण्ड तान्त्रिक प्रयोग या अकाल मृत्यु या वाहन दुर्घटना योग हो तो ऐसा शुद्ध पारद शिवलिंग उसे अपने ऊपर ले लेता है. ऐसी स्थिति में यह अपने आप टूट जाता है, और साधक की रक्षा करता है.
  • पारद शिवलिंग की स्थापना करके साधना करने पर स्वतः साधक की रक्षा होती रहती है.विशेष रूप से महाविद्या और काली साधकों को इसे अवश्य स्थापित करना चाहिये.
  • पारद शिवलिंग को घर में रखने से सभी प्रकार के वास्तु दोष स्वत: ही दूर हो जाते हैं साथ ही घर का वातावरण भी शुद्ध होता है।
  • पारद शिवलिंग साक्षात भगवान शिव का स्वरूप माना गया है। इसलिए इसे घर में स्थापित कर प्रतिदिन पूजन करने से किसी भी प्रकार के तंत्र का असर घर में नहीं होता और न ही साधक पर किसी तंत्र क्रिया का प्रभाव पड़ता है।
  • यदि किसी को पितृ दोष हो तो उसे प्रतिदिन पारद शिवलिंग की पूजा करनी चाहिए। इससे पितृ दोष समाप्त हो जाता है।
  • अगर घर का कोई सदस्य बीमार हो जाए तो उसे पारद शिवलिंग पर अभिषेक किया हुआ पानी पिलाने से वह ठीक होने लगता है।
  • पारद शिवलिंग की साधना से विवाह बाधा भी दूर होती है।

शुद्ध पारद शिवलिंग की पहचान*

पारद शिवलिंग पारा अर्थात Mercury का बना होता है. आज कल बाजार में पारद शिवलिंग बने बनाए मिलते है. ये सर्वथा अशुद्ध एवं किन्ही विशेष परिस्थितियों में हानि कारक भी होते है. जैसे सुहागा एवं ज़स्ता के संयोग से बना शिवलिंग भी पारद शिवलिंग जैसा ही लगता है. इसी प्रकार एल्युमिनियम से बना शिवलिंग भी पारद शिवलिंग जैसा ही लगता है. किन्तु उपरोक्त दोनों ही शिवलिंग घर में या पूजा के लिए नहीं रखने चाहिए. इससे रक्त रोग, श्वास रोग एवं मानसिक विकृति उत्पन्न होती है. अतः ऐसे शिवलिंग या इन धातुओ से बने कोई भी देव प्रतिमा घर या पूजा के स्थान में नहीं रखने चाहिए.
पारद शिव लिंग का निर्माण क्रमशः तीन मुख्या धातुओ के रासायनिक संयोग से होता है. “अथर्वन महाभाष्य में लिखा है क़ि-“द्रत्यान्शु परिपाकेनलाब्धो यत त्रीतियाँशतः. पारदम तत्द्वाविन्शत कज्जलमभिमज्जयेत. उत्प्लावितम जरायोगम क्वाथाना दृष्टोचक्षुषः तदेव पारदम शिवलिंगम पूजार्थं प्रति गृह्यताम. अर्थात अपनी सामर्थ्य के अनुसार कम से कम कज्जल का बीस गुना पारद एवं मनिफेन (Magnesium) के चालीस गुना पारद, लिंग निर्माण के लिए परम आवश्यक है. इस प्रकार कम से कम सत्तर प्रतिशत पारा, पंद्रह प्रतिशत मणि फेन या मेगनीसियम तथा दस प्रतिशत कज्जल या कार्बन तथा पांच प्रतिशत अंगमेवा या पोटैसियम कार्बोनेट होना चाहिए.ऐसे पारद शिवलिंग को आप केवल बिना पूजा के अपने घर में रख सकते है. यदि आप चाहें तो इसकी पूजा कर सकते है. किन्तु यदि अभिषेक करना हो तो उसके बाद इस शिवलिंग को पूजा के बाद घर से बाहर कम से कम चालीस हाथ की दूरी पर होना चाहिए. अन्यथा इसके विकिरण का दुष्प्रभाव समूचे घर परिवार को प्रभावित करेगा. किन्तु यदि रोज ही नियमित रूप से अभिषेक करना हो तो इसे घर में स्थायी रूप से रखा जा सकता है. ऐसे व्यक्ति बहुत बड़े तपोनिष्ठ उद्भात्त विद्वान होते है. यह साधारण जन के लिए संभव नहीं है. अतः यदि घर में रखना हो तो उसका अभिषेक न करे.
पारद शिवलिंग यदि कोई अति विश्वसनीय व्यक्ति बनाने वाला हो तो उससे आदेश या विनय करके बनवाया जा सकता है. वैसे भी इसका परीक्षण किया जा सकता है. यदि इस शिवलिंग को अमोनियम हाईड्राक्साइड से स्पर्श कराया जाय तो कोई दुर्गन्ध नहीं निकलेगा. किन्तु पोटैसियम क्लोरेट से स्पर्श कराया जाय तो बदबू निकलने लगेगी. यही नहीं पारद शिव लिंग को कभी भी सोने से स्पर्श न करायें नहीं तो यह सोने को खा जाता है.
यद्यपि पारद शिवलिंग एवं इसके साथ रखे जाने वाले दक्षिणा मूर्ती शंख की बहुत ही उच्च महत्ता बतायी गयी है. विविध धर्म ग्रंथो में इसकी भूरी भूरी प्रशंसा की गयी है. किन्तु यदि इसके निर्माण की विश्वसनीयता पर तनिक भी संदेह हो तो इसका परित्याग ही सर्वथा अच्छा है. अतः सामान्य रूप से बाज़ार में मिलाने वाले पारद शिवलिंग के नाम पर कोई शिवलिंग तब तक न खरीदें जब तक आप उसकी शुद्धता पर आश्वस्त न हो जाएँ.

अब मैं पार्थिव पारद शिवलिंग के निर्माण के तत्वों एवं उसकी प्रक्रिया के बारे में बताना चाहूँगा………..

  • अबरताल- इसका अंग्रेजी या वैज्ञानिक नाम आर्सेनिक है. यह एक प्रकार का विष भी है. किन्तु पारे के मिश्रण से यह एक बहुत ही शक्तिशाली विषघ्न भी बन जाता है. पारे के साथ यह बहुत ही आसानी से घुल मिल जाता है. तथा बहुत ही शीघ्र पारा ठोस रूप धारण कर लेता है. कहा भी गया है कि “ पार्थिव पारदो लिंगम श्नोश्रेयमभिशंसितम“. अर्थात अबरताल के संयोग से बना शिवलिंग सर्वपाप ह़र होता है. किन्तु आर्सेनिक को प्राकृतिक अवस्था में ही होना चाहिए. अन्यथा शोधित आर्सेनिक लवणीकृत (आक्सी डेनटीफायिड) हो जाता है. जो हानिकारक होता है. यदि आर्सेनिक का कणीय अयन 122 : 2200 का हो तों ऐसे आर्सेनिक का पारे के साथ संयोग सर्वोत्तम माना जाता है. ऐसे शिवलिंग का वजन तीन छटाक से किसी भी हालत में ज्यादा नहीं होना चाहिए.
    *मृगालक…………….. इसे अंग्रेजी या विज्ञान क़ी भाषा में फास्फोरस कहते है. फास्फोरस एक अति शीघ्र ज्वलन शील पदार्थ होता है. किन्तु प्राकृतिक अवस्था में यह सुषुप्त होता है. पारद के साथ यह थोड़ी कठिनाई से मिलता है. इसीलिए इसमें हाडकेशर या जिल्कोनाईट मिला दिया जाता है. मृगालक के साथ पारद शिवलिंग बनाना थोड़ा कठिन होता है. क्योकि इसे पिघलाने में विस्फोट का भय ज्यादा होता है. शास्त्रों में इसे त्रिताप ह़र कहा गया है.& “विनश्यते त्रयो तापा मृग लिंगम परिपासते” पारद शिवलिंग के लिये मृगालक का कणीय अयन 988 : 453 होना चाहिए. इस शिवलिंग का वजन किसी भी अवस्था में एक पाँव से ज्यादा नहीं होना चाहिए.
    *अपन्हुत…………… इसका दूसरा नाम तूतफेन भी है. इसका अंग्रेजी नाम क्युप्रिकमेटासाईड भी है. यह पारद शिवलिंग का सबसे उत्कृष्ट स्वरुप है. जिस घर में इस लिंग क़ी पूजा होगी वहां कलिकाल अपना कोई भी प्रभाव नहीं ड़ाल सकता है पारद शिवलिंग निर्माण में अपन्हुत का कणीय अयन 2400 : 3600 का होना चाहिए. इसके वजन का कोई प्रमाण नहीं है. पौराणिक कथन के अनुसार लंका में रावण ने पांच सहस्र प्रस्थ वजन का शिवलिंग विश्वकर्मा से बनवाया था. एक प्रस्थ में पांच किलो होता है. यही कारण है कि लंका एक अभेद्य दुर्ग बन गया था.
    *जिरायत………………. इसका एक नाम पहाडी सुहागा भी है. अंग्रेजी में इसे ट्राईडेनियम कहते है. यह बहुत ही आसानी से बन जाता है. कारण यह है कि यह बहुत हलके ताप पर भी पारा में मिल जाता है. इसे अक्सर लोग घरो में शौकिया तौर पर रखते है. इसका न तों कोई लाभ है और न ही कोई हानि. यह बहुत ही चमकीला होता है. किन्तु पानी के संयोग होने से यह शिवलिंग यह एक बदबूदार गंध उत्पन्न करता है. अतः इसे पूजा करने के लिये नहीं रखा जाता है. इसे शीशे के मर्तबान में रखना चाहिए. खुले में इसे नहीं रखना चाहिए. ज्यादा आर्द्र स्थान पर इसे नहीं रखना चाहिए. यह एक अति तीव्र हींग शोधक पदार्थ भी है.
  • वज्रदंती……………. यह अभ्रक या Ore का अशुद्ध रूप है यह शिवलिंग बहुत कठिनाई से बनता है. वर्त्तमान समय में यह शिवलिंग बनवाना बहुत ही महँगा है. कारण यह है कि वज्रदंती आज अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक अति प्रतिबंधित या सुरक्षित धातु हो गयी है. सरकार क़ी अनुमति से ही इसे खरीदा जाता है. इसका कणीय अयन 23 :12 का होना चाहिए. इसका वजन घर के प्रयोग के लिये दो छटाक से ज्यादा नहीं होना चाहिए. बाहर स्थापना के लिये इसके वजन का कोई प्रमाण नहीं है.( पुराणों में कहा गया है कि जब इन्द्र भगवान राक्षसो से पराजित होकर स्वर्ग से निकाल दिये गये तों उनकी पत्नी शची ने माता कालिका से इस विपदा के निवारण का उपाय पूछा. माता कालिका ने कहा कि हे इन्द्रानी यदि तुम पृथ्वी पर किसी भी तीर्थ क्षत्र में वज्रदंती पारद शिवलिंग क़ी स्थापना कर दो तों राक्षस बिना किसी युद्ध के स्वयं ही भय भीत होकर स्वर्ग छोड़ कर पाताल में भाग जायेगें. तब इन्द्रानी ने भगवान त्वष्टा से विनय कर के वज्रदंती के पारद शिवलिंग का निर्माण कराया था. तथा उसे प्रभास क्षेत्र में स्थापित किया था. जिसके प्रभाव से राक्षस स्वर्ग छोड़ कर पलायित हो गये थे.)
  • कज्जल…………. यह एक प्रकार का ठोस कालिख होता है. इसे नौसादर एवं एवं तूतिया जलाकर बनाते है. इसे अंग्रेजी में जिंककार्बेट कहते है. इस शिवलिंग का प्रयोग तांत्रिक काम के लिये ज्यादा करते है. यह एक अति प्रचलित पारद शिवलिंग का रूप है. इसके निर्माण में कम से कम 70 हिस्सा पारा एवं 30 हिस्सा काज़ल होना चाहिए. काज़ल बहुत ही आसानी से पारा में मिल जाता है. यह बना बनाया बाजार में जहां तहाँ मिल जाता है. किन्तु उसमें पारा बहुत ही कम होता है. प्रायः देखने में आया है कि ऐसे शिवलिंग में पारा मात्र 10 प्रतिशत ही होता है. इसमें कज्जल का कणीय अयन 190 ; 30 का होना चाहिए. इसका वजन तीन छटाक से ज्यादा नहीं होना चाहिए. (महाराजा बलि ने भगवान विष्णु क़ी आज्ञा से पाताल में एक करोड़ कज्जल पारद शिवलिंग का निर्माण कराया था. राजा मुचुकुन्द ने अपने गुरु आचार्य अभिन्नदोह के आदेश से अनार्यगत या यायावर प्रदेश में अपनी ऊंचाई का कज्जल शिवलिंग बनवाया था.

    संसार में करोड़ों व्यक्ति प्रतिदिन ईश्वर की पूजा करते हैं , चाहे वे ईश्वर को ठीक प्रकार से समझते हैं या नहीं समझते ; ईश्वर के आदेश संदेश संविधान को समझते हैं या नहीं समझते; फिर भी अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार अपने अपने ढंग से ईश्वर की पूजा तो करते हैं ।
    संसार के लोगों में से कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि ईश्वर की पूजा का हमारे आचरण के साथ भी गहरा संबंध है. यदि हम ईश्वर की पूजा उपासना ध्यान समाधि आदि का अभ्यास करते हैं , तो हमारा आचरण भी उत्तम होना चाहिए. सच्चाई और ईमानदारी से दूसरों के साथ व्यवहार करना चाहिए. किसी के साथ भी अन्याय नहीं करना चाहिए.
    परंतु कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि ईश्वर की पूजा एक अलग कार्य है, और व्यवहार आचरण बिल्कुल अलग कार्य है . ईश्वर की पूजा के साथ हमारे आचरण व्यवहार का कोई संबंध नहीं है. ऐसे लोग व्यवहार में झूठ छल कपट चोरी बेईमानी रिश्वतखोरी इत्यादि सब प्रकार के पाप कर्म करते हैं. सुबह शाम थोड़ी अगरबत्ती जलाकर या किसी भी रूप में ईश्वर की पूजा करके यह मान लेते हैं , कि हमारा काम पूरा हो गया.
    इनका विचार सत्य नहीं है । वेदों के अनुसार सत्य यही है कि जो आप ईश्वर की पूजा करते हैं , और उससे लाभ उठाना चाहते हैं , यह तभी हो पाएगा , जब आप पहले अपने व्यवहार को शुद्ध करें । सच्चाई और ईमानदारी से सब के साथ न्याय पूर्वक व्यवहार करें। दूसरों को सुख देवें, किसी को अनावश्यक दुख ना देवें, अपने शरीर मन आत्मा को शुद्ध करें । तभी आपको ईश्वर की पूजा का कुछ लाभ हो सकता है , अन्यथा नहीं

वेदवाणी चारों ही वर्ण को ‘श्रुति ज्ञान’ का अधिकारी घोषित करती है | वेद ज्ञान के लिए किसी को भी अपात्र घोषित नहीं करती |

यजुर्वेद अध्याय २६ (छब्बीस ) का मन्त्र क्रमांक २ (दो) – ब्राह्मण, क्षत्रिय , वैश्य, शूद्र, प्रिय मित्र और अमित्र सबको ही वेद ज्ञान का पात्र घोषित करता है | तथा अनुशासन करता है कि मनुष्यगण भी सब लोगों के मध्य वेदज्ञान का प्रचार प्रसार करें । ऐसे में किसी को अपात्र कहना धर्म सम्मत नहीं |

महर्षि पाणिनि शिक्षासंहिता में “छन्द” अर्थात “वेद ऋचा” को वेद पुरुष का पैर घोषित करते हैं- “छंदः पादौ तु वेदस्य ।” जिनकी सहायता से यह ‘वेद पुरुष’ अर्थात वेदवर्णीत “विराट पुरुष” अपनी विश्व यात्रा सम्पन्न करता है |

पुरुषसूक्त की प्रथम वेद ऋचा उस विराट पुरुष को (वेदपुरुष को) सम्पूर्ण भूमि को ही आच्छादित करके स्थित रहनेवाला अर्थात सम्पूर्ण विश्व में अपनी व्यापकता को प्राप्त करना बतलाती है |

विश्वधरा पर सर्वत्र मिलने वाले शिवलिंग तथा वृषभ और श्रीराम प्रतिमा के अवशेष तथा मक्का स्थित शिवलिंग इस बात को प्रमाणित करते हैं ।

अतः विचार करने की जरुरत है कि केवल ब्राह्मण वर्ग तक सिमित होकर यह वेदज्ञान किस प्रकार विश्वव्यापी रहा होगा ? या पुनः विश्वव्यापी हो जायेगा ?

क्या भारत के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र यह वर्ण व्यवस्था है ? यदि नहीं तो हम भारतीय किस आधार पर यह कहते हैं कि – भारत कभी विश्व गुरु था या पुनः विश्वगुरु बनेगा ?

जिस प्रकार हम किसी मुल्यावान वस्तु को रात्रीकाल में सुरक्षित रखने का प्रयास करते हैं और उस अमुल्य निधी को सुरक्षित रखकर निश्चिंत अवस्था में रात्रीकाल व्यतीत कर देते हैं; उसी प्रकार की यह विगत रात्रीकाल की व्यवस्था रही है – इस भारतभूमि पर – उस विराटपुरुष की ।

ऐसे में वेदज्ञान को पुनः वर्ग विशेष तक सीमित करना तो दिवास्वप्न देखना ही सिद्ध होता है ।

महर्षि वेद व्यास सबको ब्रह्म का प्रकट रूप कहते हुए चारों ही वर्ण को ब्राह्मण कहते है | अतः आज की आवश्यकता है कि वेद वाणी के श्रुति-ज्ञान से किसी को भी अपात्र न माना जावे |

उपनिषद्वाणी में श्रुति इस धरा पर सब मनुष्यों को उस परमात्मा के पति-पत्नी रूप की संतान होना कथन करती है । पति-पत्नी दोनों को परस्पर अर्द्धबृगल अर्थात गेँहू के दाने या खजूर के बीज के समान आधा बंटा हुआ होना कथन करती है । (बृहदारण्यकोपनिषद १.४.३)

इस अवस्था में क्या ईश्वरीय वाणी को – किसी एक वर्ग या समुदाय के लिए सिमित माना जा सकता है ? यह सब करना तो धर्म विरोधी कार्य करना होगा ।

अतः कालपुरुष की अब यह अपेक्षा है कि – चारों ही शंकराचार्य पीठ द्वारा – अब इस विश्वधरा पर सर्वविध वेदवाणी का चतुर्दिक प्रचार – प्रसार किया जाय ।
<<<ॐ>>>
|| प्राणमय कोष सी साधना ||
प्राण द्वारा ही श्रद्धा, निष्ठा, दृढ़ता एकाग्रता और भावना प्राप्त होती है विधा, चतुराई, अनुभव, दुरदर्शिता, साहस, लगन, जीवन शक्ति, ओज, पुष्टि, पराक्रम, पुरुषार्थ, सब प्राणशक्ति के ही रूप है
उपनिषद का वचन है कि “नायमात्मा बलहीनेन सभ्य: ” अर्थात वह आत्मा बलहीनो को प्राप्त नही होता! योगियों ने प्राणायाम को भी विशेष स्थान दिया है
प्राणायाम से सुर्यचक्र (ह्रदय स्थलमें)का विकास होता है सुर्यचक्र आमाशय का वह भाग जहाँ पेट व पसलिया मिलती है
बौद्ध धर्म मे” जन” नामक प्राणायाम का काफी प्रचार रहा है युनान मे प्लेटो से पहले एवं जापान मे विद्वान “हकुइन देशी ” ने प्राणायाम का खुब प्रचार किया है
प्राणायाम से शरीर कि सुक्ष्म क्रिया पद्धति को उपर अदृश्य रूप से विज्ञान सम्मत प्रभाव पडता है जिससे रक्त संचार, नाडी ,संचालन, पाचन क्रिया, स्नायविक दृढ़ता , प्रगाढनिद्रा, स्फूर्ति व मानसिक विकास होता है
प्राणायाम मे श्वास खीचने को पूरक बिहार निकालने को रेचक और श्वास रोकने को कुंभक कहते है कुंभक का समय पूरक-रेचक कि आधा होता है
श्वास को भीतर रोकें उसको अन्तः कुंभक तथा रेचक करने के बाद कुछ देर श्वास रोके उसको बाह्यकुंभक कहते है
श्वास खेंचते समय भावना करें कि परमात्मा या दिव्य प्रकाश मेरे शरीर मे प्रविष्ट हो रहा है फिर श्वास रोके ओर यह भावना करे कि मेरे पाप कर्मों से उत्पन्न बाये कोख मे स्थित पाप पुरूष जल गया है मेरी समस्त व्याधि व विकार जलकर भस्म हो गये है फिर श्वास बाहर छोड़े हुये भावना करे कि समस्त पाप विकार पीडा भस्मीभूत होकर बाहर निकल गये है फिर पुनः श्वास रोककर भावना करे कि मेरा शरीर पुष्ट व वज्र के समान हो गया है
ऐसा प्राणायाम संध्या समय ५ बार अवश्य करे इससे “भूत शुद्धि” कि क्रिया भी पूर्ण हो जाती है प्राणमय कोष सी भूमिका को पार करते हुये दस तरह के प्राणों को संशोधित करना पडता है
प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान ये महाप्राण है नाग, कूर्म, कृकल , देवदत्त, धनञ्जय ये लघु प्राण है
पानी मे जैसे भ्रमर पडता है वैसे ही सूक्ष्म शरीर मे भ्रमर है जिन का प्राण से साथ संमिश्रण होने से विशेष क्रिया हो जाती है
महाप्राणों “ओजस” और लघूप्राणों को रेतस् कहते है
जैसे मस्तिष्क मे अगला भाग बडा व पिछला भाग छोटा मस्तिष्क रूप मे जाना जाता है वैसे ही महाप्राण व लघूप्राण एक दुसरे के पूरक है
प्राण वायु का निवास ह्रदय है उसी के पास नाग वायु है अपान गुदा एवं मूत्राशय के बीच मूलाधार के निकट है उसी के निकट कूर्मलघू प्राण है समान व कृकल दोनो नाभि मे रहते है उदान व देवदत्त या स्थान कण्ठ है व्यान व धनञ्जय मे आकाश तत्त्व का मिश्रण होने से सम्पूर्ण शरीर नें व्याप्त है
ऐसा माना जाता है कि प्राण द्वारा शब्द व मस्तिष्क या पोषण होता है अपान मे मलमुत्र स्वेद आदि का विसर्जन होता है समान से पाचन परिवाक वउष्णता का संचार होता है उदान विविध वस्तुयें बाहर से भीतर ग्रहण करता है व्यान रक्त संचार करता है
कूर्म से पलक छपकने की प्रतिक्रिया, नाग से डकार आती है कृकल सेछींक ओर देवदत्त से जंभाइ आती है धनञ्जय शरीर या पोषण करता है
प्राण पर अधिकार करके योगी लंबे समय तक की समाथि ( निष्प्राण के समान ) लगा लेते है फिर जब चाहे अपनी ह्रदय सी धड़कन चालु कर समाधि तोड देते है
🌹वर्षा ऋतु में स्वास्थ्य-सुरक्षा

🌻1. वर्षा ऋतु में रसायन के रूप में 100 ग्राम हरड चूर्ण में 10-15 ग्राम सेंधा नमक मिला के रख लें । दो- ढाई ग्राम रोज सुबह ताजे जल के साथ लेना हितकर है ।

🌻2. हरड चूर्ण में दो गुना पुराना गुड मिलाकर चने के बराबर गोलियाँ बना लें । 2-2 गोलियाँ दिन में 1-2 बार चूसें । यह प्रयोग वर्षाजन्य सभी तकलीफों में लाभदायी है ।

🌻3. वर्षाजन्य सर्दी, खाँसी, जुकाम, ज्वर आदि में अदरक व तुलसी के रस में शहद मिलाकर लेने से व उपवास रखने से आराम मिलता है । एंटीबायोटिक्स लेने की आवश्यकता नहीं पडती ।

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🌹मल-मूत्र त्यागने संबंधी कुछ जरूरी बातें

🌻क्या करें

🌹१] प्रात: ५ से ७ बजे के बीच जीवनीशक्ति बड़ी आँतों में होती है अत: उस समय मल-त्याग हेतु जरुर जायें |

🌼२] शौच के समय टोपी या कपड़े से सिर व कान ढककर रखने चाहिए | उस समय दाँत भींचकर रखने से दाँत मजबूत बनते हैं |

🌻३] शौच व पेशाब के समय मुँह से श्वास लेने से श्वासनली में हानिकारक कीटाणु प्रवेश करते हैं अत: श्वास नाक से ही लें |

🌹४] शौच के बाद स्नान तथा पेशाब के बाद हाथ-पैर व मुँह धोकर, कुल्ला करके शुद्धि करनी चाहिए | शौच के समय पहने हुए कपड़े भी धो लेने चाहिए |

🌹क्या न करें

🏵१] मल-मूत्र का वेग आने पर उसे रोकना नहीं चाहिए | मल-आवेग रोकने से सिरदर्द, पिंडलियों में ऐंठन, सर्दी-जुकाम, अफरा आदि तथा मूत्र-आवेग रोकने से मूत्राशय, गुदा, नाभि-स्थान, अंडकोष, शिश्नेन्द्रिय व सिर में दर्द आदि समस्याएँ होती हैं |

🌼२] मल-मूत्र के वेग को रोककर या मल त्यागने के तुरंत बाद भोजन न लें |

🌻३] वेग न आने पर जोर लगाकर मल-त्याग करने से बवासीर की समस्या हो सकती है | अत: मल-त्याग के समय जोर न लगाये |

🌻४] पेशाब करने के तुरंत बाद पानी न पियें, न ही पानी पीने के तुरंत बाद पेशाब करें |
-ऋषिप्रसाद-

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🌻सिर में रूसी (Dandruff) होनेपर

🌻 पहला प्रयोगः 250 ग्राम छाछ में 10 ग्राम गुड़ डालकर सिर धोने से अथवा नींबू का रस लगाकर सिर धोने से रूसी दूर होती है।

🌻 दूसरा प्रयोगः आधी कटोरी दही में दो चम्मच बेसन मिलाकर बालों की जड़ में लेप करें। 20 मिनट बाद सिर धो लें। रूसी दूर होकर बाल चमक उठेंगे।

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🌹ह्रदयाघात ( हार्ट – अटैक ) का अचूक उपाय

🌻एक चुटकी दालचीनी के चूर्ण को एक कप दूध में समभाग पानी मिलाकर तब तक उबालें, जब तक पानी वाष्पीभूत न हो जाय | फिर मिश्री मिलाकर पी लें, इससे ह्रदयाघात ( हार्ट – अटैक ) से सुरक्षा होगी और नाड़ियों के अवरोध ( ब्लॉकेज ) भी खुल जायेंगे |

स्त्रोत – ऋषिप्रसाद – सितम्बर २०१५ से 

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🌹सर्दी ( नाक से पानी बहना ) ठीक करने के लिए आयुर्वेदिक उपाय

🌻सामग्री –
2 कप पानी।
1-1.5 इंच अदरक क टुकड़े।
2 काली मिर्च।
5-6 तुलसी के पत्ते।
4 लौंग।
1 चम्मच शहद।

🌹सबसे पहले अदरक, तुलसी के पत्ते और लौंग को क्रश कर लें।
अब इसमें पानी मिलाएं और इस मिश्रण को गर्म होने के लिए रख दें। इसे तब तक उबालें जब तक पानी आधा न हो जाये। अब मिश्रण को छान लें और शहद मिलाकर इसे पी जाएँ।
पूरे दिन में इस काढ़े को एक या दो बार ज़रूर पियें।

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🌹स्वस्थ रहने के लिए स्वास्थ्यरक्षक कुछ नियम जान लें-

🌻ब्रह्ममुहूर्त में उठें (सूर्योदय से लगभग दो घंटे पूर्व ब्रह्ममुहूर्त होता है।)

🌻सुबह नींद से उठकर बासी पानी पियें। हो सके तो ताँबें के बर्तन में रखा हुआ पानी पियें। इससे पेट की तमाम बीमारियाँ दूर हो जाती हैं। कब्ज अनेक बीमारियों की जड़ है, वह इस प्रयोग से दस दिन में ठीक हो जाती है। गर्मी के दिनों में पानी ज्यादा पियें। इससे लू से बचाव होता है।

🌻सुबह सूर्योदय से पूर्व स्नान करें और सर्वप्रथम अपने सिर पर पानी डालें फिर पैरों पर पानी डालें क्योंकि पहले पैरों पर पानी डालने से पैरों की गर्मी सिर पर चढ़ती है।

🌻सदैव सूती एवं स्वच्छ वस्त्र पहनें। कृत्रिम (सिंथैटिक) कपड़े न पहनें। ये कपड़े जीवनशक्ति का ह्रास करते हैं।

🌻चौबीस घंटों में केवल दो बार भोजन करें। अगर तीसरी बार करते हों तो बहुत सावधान रहें, हलका नाश्ता करें।

🌻किसी को वायु और गैस की तकलीफ ज्यादा हो तो उसे आलु, चावल और चने की दाल आदि का परहेज रखना चाहिए। ये वायु करते हैं। वायु का रोगी दूध पिये तो एक-दो काली मिर्च डालकर पियें।

🌻सामान्य रूप से भी चावल, आलू आदि ज्यादा न खायें नहीं तो आगे जाकर बुढ़ापे में जोड़ों का दर्द पकड़ लेगा। जो बीमारी होने वाली है, उससे बचने के लिए पहले से ही सावधान रहें।

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…आँसु….एक सहज प्रार्थना है।तुम्हें अगर प्रभु का नाम सुनकर आँसु आते हैं, अगर तुम्हें उसके नाम को लेकर आँसु आते हैं तो जिन्दगी के यही पल सार्थक हैं, मंगलदायी हैं । ये पल प्रभु की कृपा हैं, ये पल उसकी करुणा का प्रसाद हैं ।

आँसुओं को रोकना मत, उनको बहने देना, उन आँसुओं में बहुत कुछ कूडा़ कर्कट तुम्हारा बह जाएगा । तुम पीछे तरोताजा अनुभव करोगे । जैसे कि कोई स्नान हो गया हो । आँखों से कंजूसी मत करना, बहने दो इन आँसुओं को, ये आँसु भीतर उठती किसी रसधार की खबर हैं । बस, इतना ख्याल रहे कि इन आँसुओं को अपनी मस्ती जरुर बना लेना । इन आँसुओं को अपना रस, अपना आनन्द बनाना है ।

उस प्रभु के लिए यही तुम्हारी सरल, सहज और निर्मल प्रार्थना है ।

जय श्री कृष्ण🙏​​​​​​🙏

प्रतीक्षा, परीक्षा और समीक्षा।
प्रतीक्षा- भक्ति के मार्ग में प्रतीक्षा बहुत आवश्यक है। प्रभु जरूर आयेंगे, कृपा करेंगे, ऐसा विश्वास रखते हुए प्रतीक्षा करें। बहुत बड़ी प्रतीक्षा के बाद शबरी की कुटिया में प्रभु आये थे।
परीक्षा- संसार की परीक्षा करते रहें। इस संसार में सब अपने कारणों से जी रहे हैं। किसी के भी महत्वाकांक्षा के मार्ग पर बाधा बनोगे वही तुम्हारा अपना, पराया हो जायेगा। संसार का तो प्रेम भी छलावा है। संसार को जितना जल्दी समझ लो तो अच्छा है ताकि प्रभु के मार्ग पर तुम जल्दी आगे बढ़ो।
समीक्षा- अपनी समीक्षा रोज करते रहो, आत्मचिन्तन करो। जीवन उत्सव कैसे बने? प्रत्येक क्षण उल्लासमय कैसे बने? जीवन संगीत कैसे बने, यह चिन्तन जरूर करना। कुछ छोड़ना पड़े तो छोड़ने की हिम्मत करना और कुछ पकड़ना पड़े तो पकड़ने की हिम्मत रखना। अपनी समीक्षा से ही आगे के रास्ते दिखेंगे।

जय श्री कृष्णा🙏🙏
: एक बार एक व्यक्ति, एक हाथी को रस्सी से बांध कर ले जा रहा था | एक दूसरा व्यक्ति इसे देख रहा था | उसे बढ़ा आश्चर्य हुआ की इतना बढ़ जानवर इस हलकी से रस्सी से बंधा जा रहा है दूसरे व्यक्ति ने हाथी के मालिक से पूछा ” यह कैसे संभव है की इतना बढ़ा जानवर एक हलकी सी रस्सी को नहीं तोड़ पा रहा और तुम्हरे पीछे पीछे चल रहा है|

हाथी के मालिक ने बताया जब ये हाथी छोटे होते हैं तो इन्हें रस्सी से बांध दिया जाता है उस समय यह कोशिश करते है रस्सी तोड़ने की पर उसे तोड़ नहीं पाते | बार बार कोशिश करने पर भी यह उस रस्सी को नहीं तोड़ पाते तो हाथी सोच लेते है की वह इस रस्सी को नही तोड़ सकते और बढे होने पर कोशिश करना ही छोड़ देते है।

  *"हम भी ऐसी बहुत सी नकारात्मक बातें अपने दिमाग में बैठा लेते हैं की हम नहीं कर सकते | और एक ऐसी ही रस्सी से अपने को बांध लेते हैं जो सच में होती ही नहीं है |"*

!!Զเधे Զเधे!!🙏🙏

साधना

!! मंत्र जप की विधि !!

मंत्र जप से तो हम सभी परिचित हैं | किसी भी मंत्र को बार बार दोहराना या उच्चारण ही मंत्र जप कहलाता है | हम सभी कभी न कभी, जाने अनजाने किसी न किसी समय पर मन्त्र का उच्चारण करते हैं | यही जप है | आज हम इसे और विस्तार से स्पस्ट करने का प्रयाश करेंगे |
हमारी धार्मिक पुस्तकों में जगह जगह मंत्र जप से होने वाले लाभ का वर्णन किया जाता है | अक्सर वर्णन मिलता है की इस मंत्र का इतना जप कीजिये | तो ये इसका फल मिलेगा, इत्यादि | हमारे धर्म शाश्त्र इस के गुणगान से भरे पड़े हैं |

मगर क्या बात है की वो फल लोगों को नहीं मिल पाता है | ज्यादातर लोगों की ये शिकायत रहती है, की मंत्र काम नहीं करता है | और ये जो सब पुरश्चरण (निश्चित संख्या में जप का अनुष्ठान) आदि का जो वर्णन हमारे शास्त्रों में किया गया है | वो केवल कपोल कल्पना है|इस प्रकार उन लोगों का जप से विश्वास ही उठ जाता है |

क्या वो लोग झूंठ बोल रहे हैं ? नहीं बिलकुल नहीं |
वो सत्य ही बोल रहे हैं | क्योंकि उन्हें ऐसा कुछ अनुभव नहीं हुआ है | और जब तक स्वयं को कोई अनुभव न हो तब तक चाहे सारी दुनिया उसे प्रमाणित करे वो सत्य नहीं है |

फिर क्या हमारे शास्त्र झूंठ बोल रहे है, की ऐसा करने से ये होगा, और ऐसा करने से ये होगा ? नहीं बिलकुल नहीं |
ये शत प्रितिशत सत्य है की जप का फल मिलता है | और जो भी अनुष्ठान आदि का वर्णन शास्त्रों में किया गया है वो पूर्णत सत्य है |
तब प्रश्न उठता है की कैसे दोनों सच्चे हो सकते हैं ?
मैं बताता हूँ | साधक इसलिए सच्चा है | क्योंकि उसने अपनी पूरी सामर्थ्य लगाकर जप किया | जो जो भी शास्त्रों में” और उसके गुरु ने ” बताया गया था | वो सब उसने किया | निश्चित शंख्या में जप, हवन, तर्पण व और सभी क्रियाएं | मगर उसके बाद भी जिस तरह के फल का वर्णन जगह जगह किया जाता है | उसे वो फल नहीं मिला | तो वो कहेगा की ऐसा कुछ नहीं होता, और ये सब बकवास है | वो झूंठ नहीं बोल रहा है | जो अनुभव हुआ है, वही वो बोल रहा है | और मात्र अनुभव ही सत्य है | बाकि सब झूंठ है | उसे अनुभव नहीं हुआ तो उसने इस सबको बेकार मान लिया | उसके बाद वो निराश हो गया | और फिर ये मार्ग ही छोड़ देता है | इसके बाद यदि कोई और भी उससे कुछ इस सम्बन्ध में पूछेगा | तो स्वाभाविक बात है की वो बोलेगा नहीं ये सब बकवास है | वो साधक तो साधना से विमुख हो ही चुका है |
इसमें किसी का दोष नहीं है | मात्र सही तरह से तरह से जप नहीं कर पाने की वजह से ऐसा है | हम मन्त्र जप के बारे में थोडा और स्पष्ट करते हैं !!

!! मंत्र जप में आने वाले विघ्न !!

किसी भी जप के समय हमारा मन हमें सबसे ज्यादा परेशान करता है, और निरंतर तरह तरह के विचार अपने मन में चलते रहेंगे | यही मन का स्वभाव है और वो इसी सब में उलझाये रखेगा | तो सबसे पहले हमें मन से उलझना नहीं है | बस देखते जाना है न विरोध न समर्थन, आप निरंतर जप करते जाइये | आप भटकेंगे बार बार और वापस आयेंगे | इसमें कोई नयी बात नहीं है ये सभी के साथ होता है | ये सामान्य प्रिक्रिया है | इसके लिए हमें माला से बहुत मदद मिलती है | मन हमें कहीं भटकाता है मगर यदि माला चलती रहेगी तो वो हमें वापस वहीँ ले आएगी | ये अभ्याश की चीज है जब आप अभ्याश करेंगे तो ही जान पाएंगे !!

!! मंत्र जप के प्रकार !!

सामान्यतया जप के तीन प्रकार माने जाते हैं जिनका वर्णन हमें हमारी पुस्तकों में मिला है, वो हैं :-

१. वाचिक जप :- वह होता है जिसमें मन्त्र का स्पष्ट उच्चारण किया जाता है।

२. उपांशु जप- वह होता है जिसमें थोड़े बहुत जीभ व होंठ हिलते हैं, उनकी ध्वनि फुसफुसाने जैसी प्रतीत होती है।
३. मानस जप- इस जप में होंठ या जीभ नहीं हिलते, अपितु मन ही मन मन्त्र का जाप होता है।
मगर जब हम मंत्र जप प्रारंभ करते हैं तो हम जप की कई अलग अलग विधियाँ या अवश्था पाते हैं !!

सबसे पहले हम मंत्र जप, वाचिक जप से प्रारंभ करते हैं | जिसमे की हम मंत्र जप बोलकर करते हैं, जिसे कोई पास बैठा हुआ व्यक्ति भी सुन सकता है | ये सबसे प्रारंभिक अवश्था है | सबसे पहले आप इस प्रकार शुरू करें | क्योंकि शुरुआत में आपको सबसे ज्यादा व्यव्धान आयेंगे | आपका मन बार बार दुनिया भर की बातों पर जायेगा | ऐसी ऐसी बातें आपको साधना के समय पर याद आएँगी | जो की सामान्यतया आपको याद भी नहीं होंगी | आपके आस पास की छोटी से छोटी आवाज पर आपका धयान जायेगा | जिन्हें की आप सामान्यतया सुनते भि नहीं हैं | जिससे की आपको बहुत परेशानी होगी | तो उन सब चीजों से अपना ध्यान हटाने के लिए आप जोर जोर से जप शुरू करेंगे | बोल बोलकर जप करते समय आपके जप की गति भी तेज़ हो जाएगी |

ये बात ध्यान देने की है की जितना भी आप बाहर जप करेंगे | उतना ही जप की गति तेज रहेगी और जैसे जैसे आप जितना अन्दर डूबते जायेंगे | उतनी ही आपकी गति मंद हो जाएगी | ये स्वाभाविक है, इसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकता है | आप यदि प्रयाश करें तो बोलते हुए भी मंद गति में जप कर सकते हैं | मगर अन्दर तेज गति में नहीं कर सकते हैं |

अगली अवश्था आती है जब हमारी वाणी मंद होती जाती है | ये तब ही होता है जब आप पहली अवश्था में निपुण हो जाते हैं | जब आप बोल बोलकर जप करने में सहज हो गए और आपके मन में कोई विचार आपको परेशां नहीं कर रहा है तो दूसरी अवश्था में जाने का समय हो गया है | इसमें नए लोगों को समय लगेगा | मगर प्रयाश से वो स्थिती जरूर आएगी | तो जब आप सहज हो जाएँ तो सबसे पहले क्या करना है की अपनी ध्वनी को धीमा कर दें | और जैसे कोई फुसफुसाता है उस अवश्था में आ जाएँ | अब यदि कोई आपके पास बैठा भी है तो उसे ये पता चलेगा की आप कुछ फुसफुसा रहे हैं | मगर शब्द स्पस्ट नहीं जान पायेगा | जब आप पहली से दूसरी अवश्था में आते हैं तो फिर से आपको व्यवधान परेशान करेंगे | तो आप लगे रहिये, और ज्यादा परेशान हों तो फिर पहली अवश्था में आ जाएँ, और बोल बोलकर शुरू कर दें जब शांत हो जाएँ तो आवाज को धीमी कर दें और दूसरी अवश्था में आ जाएँ | थोडा समय आपको वहां पर अभ्यस्त होने में लगेगा |
जैसे ही आप वहां अभ्यस्त हुए तो धीमे से अपने होंठ भी बंद कर दें |
ये तीसरी अवश्था है जहाँ पर आपके अब होंठ भी बंद हो गए हैं | मात्र आपकी जिह्वा जप कर रही है | अब आपके पास बैठा हुआ व्यक्ति भी आपका जप नहीं सुन सकता है | मगर यहाँ भी वही दिक्कत आती है की जैसे ही आप होंठ बंद करते हैं तो आपका ध्यान दूसरी बातों पर जाने लगता है | मन भटकने लगता है | तो यहाँ भी आपको वही सूत्र अपनाना है की होंठों को हिलाकर जप करना शुरू कर दीजिये | जो की आपका अभ्यास पहले ही बन चूका है और जब शांत हो जाएँ तो चुपके से होंठ बंद कर लीजिये, और अन्दर शुरू हो जाइये | इसी तरह आपको अभ्याश करना होगा | मन आपको बहकता है तो आप मन को बहकाइए | और एक अवश्था से दूसरी अवश्था में छलांग लगाते जाइये |

इसके बाद चोथी अवश्था आती है मानस जप या मानसिक जप की | जब आपको कुछ समय हो जायेगा होठों को बंद करके जप करते हुए और आप इसके अभ्यस्त हो जायेंगे | भाइयों इस अवश्था तक पहुँचने में काफी समय लगता है | सब कुछ आपके अभ्याश व प्रयाश पर निर्भर करता है | तो उसके बाद आप अपनी जीभ को भी बंद कर देंगे | ये करना थोडा मुश्किल होता है क्योंकि जैसे ही आपकी जीभ चलना बंद होगी | तो आपका मन फिर सक्रीय हो जायेगा | और वो जाने कहाँ कहाँ की बातें आपके सामने लेकर आएगा | तो यहाँ भी वही युक्ति से काम चलेगा की जीभ चलाना शुरू कर दें | जब वहां आकाग्र हो जाये और फिर उसे बंद कर दें, और अन्दर उतर जाएँ और मन ही मन जप शुरू कर दें | धीरे धीरे आप यहाँ पर अभ्यस्त हो जायेंगे और निरंतर मन ही मन जप चलता रहेगा | इस अवश्था में आप कंठ पर रहकर जप करते रहते हैं |

इसके बाद किताबों में कोई और वर्णन नहीं मिलता है | मगर मार्ग यहाँ से आगे भी है | और असली अवश्था यहाँ के बाद ही आनी है |

इसके बाद आप और अन्दर डूबते जायेंगे | अन्दर और अन्दर धीरे धीरे | निरंतर अन्दर जायेंगे | लगभग नाभि के पास आप जप कर रहे होंगे | और धीरे धीरे जैसे जैसे आप वहां पर अभ्यस्त होंगे तो आप एक अवश्था में पाएंगे की मैं जप कर ही नहीं रहा हूँ |

बल्कि वो उठ रहा है | वो अपने आप उठ रहा है | नाभि से उठ रहा है | आप अलग है | हाँ आप देख रहे हैं की मैं जपने वाला हूँ ही नहीं | वो स्वयं उठ रहा है | आपका कोई प्रयाश उसके लिए नहीं है | आप अलग होकर मात्र द्रष्टा भाव से उसे देख रहे हैं और महसूस कर रहे हैं | ये शायद जप की चरम अवश्था है | निरंतर जप चल रहा है | वो स्वत है और आप द्रष्टा हैं | इसी अवश्था को अजपाजप कहा गया है | जिस अवश्था में आप जप नहीं कर रहें हैं मगर वो स्वयं चल रहा है |
धीरे धीरे इस अवश्था में आप देखेंगे कि आप कुछ और काम भी कर रहे हैं | तो भी जब भी आप ध्यान देंगे तो वो स्वयं चल रहा है | और यदि नहीं चल रहा है, तो जब भी आपका ध्यान वहां जाये | तो आप मानसिक जप शुरू कर दें | तो उस अवश्था में पहुँच जायेंगे |
शास्त्रों में जप के सभी फल इसी अवश्था के लिए कहे गए हैं | आप इस अवश्था में जप कीजिये और सभी फल आपको मिलेंगे | जप और ध्यान यहाँ पर एक ही हो जाते हैं | जैसे जैसे आप उस पर धयान देंगे तो आगे कुछ नहीं करना है | बस उस में एकाकार हो जाइये | और मंजिल आपके सामने होगी !!

!! आपका प्रयास !!

सबसे अच्छा तरीका है कि आप जिस भी मंत्र का जप करते हैं | उसे कंठस्थ करें और जब भी आपके पास समय हो तभी आप अन्दर ही अन्दर जप शुरू कर दें | आप आसन पर नियम से जो जप करते हैं | उसे करते रहें उसी प्रकार | बस थोडा सा अतिरिक्त प्रयास शुरू कर दें |

कई सारे लोग कहेंगे की हमें समय नहीं मिलता है आदि आदि | कितना भी व्य्शत व्यक्ति हो वो कुछ समय के लिए जरूर फ्री होता है | तो आपको बस सचेत होना है | अपने मन को आप निर्देश दें और ध्यान दें | बस जैसे ही आप फ्री हों तो जप शुरू | और कुछ करने की जरूरत ही नहीं है | बस यही नियम और धीरे धीरे आप दुसरे कम ध्यान वाले कार्यों को करते हुए भी जप करते रहेंगे | निरंतर उस जप में डूबते जाइये |

जब आप सोने के लिए बिस्तर पर जाये तो अपने सभी कर्म अपने इष्ट को समर्पित करें | अपने आपको उन्हें समर्पित करें | और मन ही मन जप शुरू कर दें | और धीरे धीरे जप करते हुए ही सो जाएँ | शुरू शुरू में थोडा परेशानी महसूस करेंगे मगर बस प्रयास निरंतर रखें | इससे क्या होगा की आपका शरीर तो सो जायेगा | मगर आपका सूक्ष्म शरीर जप करता रहेगा | आपकी नींद भी पूरी हो गयी और साधना भी चल रही है |

जैसे ही सुबह आपकी ऑंखें खुलें तो अपने इष्ट का ध्यान करें | और विनती करें की प्रभु आज मुझसे कोई गलत कार्य न हो | और यदि आज कोई ऐसी अवश्था आये तो आप मुझे सचेत कर देना और मुझे मार्ग दिखाना | इसके बाद मानसिक जप शुरू कर दें | सभी और नित्य कार्यों को करते हुए इसे निरंतर रखें | फिर जब जब आप कोई गलत निर्णय लेने लगेंगे तो आपके भीतर से आवाज आएगी | धीरे धीरे आप अपने आपमें में परिवर्तन महसूस करेंगे | और धीरे धीरे आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ जायेंगे !!

मगर ये एक दिन में नहीं होगा | बहुत प्रयाश करना होगा | निरंतर चलना होगा | तभी मंजिल मिलेगी | इसलिए अपने आपको तैयार कीजिये और साधना में डूब जाइये | आपको सब कुछ मिलेगा

हवन

अग्निवास का मुहूर्त जानना – होम,यज्ञ या हवन आदि में

(भू रुदन, भू रजस्वला, भू शयन, भू हास्य, किस पक्ष मे शुभ कार्य न करे, यज्ञ कुंड के प्रकार, कितना हवन किया जाए?)

कोई भी अनुष्ठान के पश्चात हवन करने का शास्त्रीय विधान है और हवन करने हेतु भी कुछ नियम बताये गए हैं जिसका अनुसरण करना अति – आवश्यक है , अन्यथा अनुष्ठान का दुष्परिणाम भी आपको झेलना पड़ सकता है ।

इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात है हवन के दिन ‘अग्नि के वास ‘ का पता करना ताकि हवन का शुभ फल आपको प्राप्त हो सके ।

1- जिस दिन आपको होम करना हो, उस दिन की तिथि और वार की संख्या को जोड़कर 1 जमा (1 जोड़ ) करें फिर कुल जोड़ को 4 से भाग देवें- अर्थात् शुक्ल प्रतिपदा से वर्तमान तिथि तक गिनें तथा एक जोड़े , रविवारसे दिन गिने पुनः दोनों को
जोड़कर चार का भाग दें।

-यदि शेष शुन्य (0) अथवा 3 बचे, तो अग्नि का वास पृथ्वी पर होगा और इस दिन होम करना कल्याणकारक होता है ।

-यदि शेष 2 बचे तो अग्नि का वास पाताल में होता है और इस दिन होम करने से धन का नुक्सान होता है ।

-यदि शेष 1बचे तो आकाश में अग्नि का वास होगा, इसमें होम करने से आयु का क्षय होता है ।

अतः यह आवश्यक है की होम में अग्नि के वास का पता करने के बाद ही हवन करें ।

शास्त्रीय विधान के अनुसार वार की गणना रविवार से तथा तिथि की गणना शुक्ल-पक्ष की प्रतिपदा से करनी चाहिए तदुपरांत गृह के ‘मुख-आहुति-चक्र ‘ का विचार करना चाहिए ।

मान लो आज हम कृष्ण पक्ष की चौथी तिथि मे चल रहे है तो ।

शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक 15 तिथि तो कुल योग आया 15 + 4 + 1 = 20

आज कौन सा दिन हैं और इस दिन को रविवार से गिने । मानलो आज बुधवार हैं तो रविवार से गिनने पर बुधवार 3 आया । कुल योग 20 + 3 = 23/4 कर दे तो शेष कितना बचा । 4 – 23 / 5

– 20 । 3 को शेष कहा जायेगा । परिणाम इस प्रकार से होंगे ।

• शेष 0 तो अग्नि का निवास पृथ्वी पर ।

• शेष 1 तो अग्नि का निवास आकाश मे ।

• शेष 2 तो अग्नि का निवास पाताल मे ।

• शेष 3 बचे तो पृथ्वी पर माने ।

पृथ्वी पर अग्नि वास सुख कारी होता हैं । आकाश मे प्राणनाश और पाताल मे धन नाश होता हैं । मतलब हमें वह तिथि चुनना हैं जिस तिथि मे शेष 3 बचे ।

वह तिथि ही लाभकारी होगी । प्रज्वलित अग्नि के आकार को देख कर कई नाम रखे गए हैं । पर अभी उनसे हमें सरोकार नही हैं । इस तरह से अग्नि वास का पता हमें लगाना हैं।

भू रुदन :-
हर महीने की अंतिम घडी, वर्ष का अंतिम् दिन, अमावस्या, हर मंगल वार को भू रुदन होता हैं । अतः इस काल को शुभ कार्य भी नही लिया जाना चाहिए ।

यहाँ महीने का मतलब हिंदी मास से हैं और एक घडी मतलब 24 मिनिट हैं । अगर ज्यादा गुणा न किया जाए तो मास का अंतिम दिन को इस आहुति कार्य के लिए न ले।

भू रजस्वला :-

इस का बहुत ध्यान रखना चाहिए ।यह तो हर व्यक्ति जानता हैं की मकरसंक्रांति लगभग कब पड़ती हैं । अगर इसका लेना देना मकर राशि से हैं तो इसका सीधा सा तात्पर्य यह हैं की हर महीने एक सूर्य संक्रांति पड़ती ही हैं और यह एक हर
महीने पड़ने वाला विशिष्ट साधनात्मक महूर्त होता हैं ।

तो जिस भारतीय महीने आपने आहुति का मन बनाया हैं ठीक उसी महीने पड़ने वाली सूर्य संक्रांति से (हर लोकलपंचांग मे यह दिया होता हैं । लगभग 15 तारीख के आस पास यह दिन होता हैं । मतलब सूर्य संक्रांति को एक मान कर गिना जाए
तो 1, 5, 10, 11, 16, 18, 19 दिन भू रजस्वला होती हैं ।

भू शयन :-

आपको सूर्य संक्रांति समझ मे आ गयी हैं तो किसी भी महीने की सूर्य संक्रांती से 5, 7, 9, 15, 21 या 24 वे दिन को भू शयन माना
जाया हैं ।

सूर्य जिस नक्षत्र पर हो उस नक्षत्र से आगे गिनने पर 5, 7,9, 12, 19, 26 वे नक्षत्र मे पृथ्वी शयन होता हैं । इस तरह से यह भी
काल सही नही हैं ।

अब समय हैं यह जानने का कि भू हास्य क्या है ?
भू हास्य :- तिथि मे पंचमी ,दशमी ,पूर्णिमा ।

वार मे – गुरु वार ।

नक्षत्र मे – पुष्य, श्रवण मे पृथ्वी हसती हैं ।
अतः इन दिनों का प्रयोगकिया जाना चाहिए ।

गुरु और शुक्र अस्त :- यह दोनों ग्रह कब अस्त होते हैं और कब उदित ।

आप लोकल पंचांग मे बहुत ही आसानी से देख सकते हैं और इसका निर्धारण कर सकते हैं । अस्त होने का सीधा सा मतलब हैं की ये ग्रह सूर्य के कुछ ज्यादा समीप हो गए और अब अपना असर नही दे पा रहे हैं ।

क्यूंकी इन दोनों ग्रहो का प्रत्येक शुभ कार्य से सीधा लेना देना हैं । अतः इनके अस्त होने पर शुभ कार्य नही किये जाते हैं और इन दोनों के उदय रहने की अवस्था मे शुभ कार्य किये
जाना चाहिये ।

आहुति कैसे दी जाए :-

• आहुति देते समय अपने सीधे हाँथ के मध्यमा और

का सहारा ले कर उसे प्रज्ज्वलित अग्नि मे ही छोड़ा जाए ।

• आहुति हमेशा झुक कर डालना चाहिए वह भी इसतरह से की पूरी आहुति अग्नि मे ही गिरे ।

• जब आहुति डाली जा रही हो तभी सभी एक साथ स्वाहा शब्द बोले ।

(यह एक शब्द नही बल्कि एक देवी का नाम है )

• जिन मंत्रो के अंतमे स्वाहा शब्द पहले से हैं उसमे फिर से पुनःस्वाहा शब्द न बोले यह ध्यान रहे।

वार :- रविवार और गुरुवार सामन्यतः सभी यज्ञों के लिए श्रेष्ठ दिवस हैं । शुकल पक्ष मे यज्ञ आदि कार्य कहीं ज्यादा उचित हैं ।

किस पक्ष मे शुभ कार्य न करे :-

ग्रंथ कार कहते हैं की जिस पक्ष मे दो क्षय तिथि हो मतलब वह पक्षः 15 दिन का न हो कर 13 दिन का ही हो जायेगा उस पक्ष मे समस्त शुभ कार्य वर्जित हैं ।

ठीक इसी तरह अधि़क मास या मल मास मे भी यज्ञ कार्य वर्जित हैं ।

किस समय हवन आदि कार्य करें :- सामान्यतः आपको इसके लिए पंचांग देखना होगा । उसमे वह दिन कितने समय का हैं । उस दिन मान के नाम से बताया जाता हैं ।

उस समय के तीन भाग कर दे और प्रथम भाग का उपयोग यज्ञ अदि कार्यों के लिए किया जाना चाहिए । साधारण तौर से यही अर्थ हुआ की की दोपहर से पहले यज्ञ आदि कार्य प्रारंभ हो जाना चहिये ।

हाँ आप राहु काल आदि का ध्यान रख सकते हैं और रखना ही चहिये क्योंकि यह समय बेहद अशुभ माना जाता हैं ।

यज्ञ कुंड के प्रकार :-

यज्ञ कुंड मुख्यत: आठ प्रकार के होते हैं और सभी का प्रयोजन अलग अलग होताहैं ।

  1. योनी कुंड – योग्य पुत्र प्राप्ति हेतु ।
  2. अर्ध चंद्राकार कुंड – परिवार मे सुख शांति हेतु । पर पतिपत्नी दोनों को एक साथ आहुति देना पड़ती हैं ।
  3. त्रिकोण कुंड – शत्रुओं पर पूर्ण विजय हेतु ।
  4. वृत्त कुंड – जन कल्याण और देश मे शांति हेतु ।
  5. सम अष्टास्त्र कुंड – रोग निवारण हेतु ।
  6. सम षडास्त्र कुंड – शत्रुओ मे लड़ाई झगडे करवाने हेतु ।
  7. चतुष् कोणा स्त्र कुंड – सर्व कार्य की सिद्धि हेतु ।
  8. पदम कुंड – तीव्रतम प्रयोग और मारण प्रयोगों से बचने हेतु ।

तो आप समझ ही गए होंगे की सामान्यतः हमें
चतुर्वर्ग के आकार के इस कुंड का ही प्रयोग करना हैं ।

ध्यान रखने योग्य बाते :-

अबतक आपने शास्त्रीय बाते समझने का
प्रयास किया यह बहुत जरुरी हैं । क्योंकि इसके बिना सरल बाते पर आप गंभीरता से विचार नही कर सकते । सरल विधान का यह मतलब कदापि नही की आप गंभीर बातों को ह्र्द्यगम ना करें ।

पर जप के बाद कितना और कैसे हवन किया जाता हैं ? कितने लोग और किस प्रकार के लोग कीआप सहायता ले सकते हैं ?

कितना हवन किया जाना हैं ? हवन करते समय किन किन बातों का ध्यान रखना हैं ? क्या कोई और सरल उपाय भी जिसमे हवन ही न करना पड़े ?

किस दिशा की ओर मुंह करके बैठना हैं ? किस प्रकार की अग्नि का आह्वान करना हैं ? किस प्रकार की हवन सामग्री का उपयोग करना हैं ?

दीपक कैसे और किस चीज का लगाना हैं ? कुछ और आवश्यक सावधानी ? आदि बातों के साथ अब कुछ बेहद सरल बातों को अब हम देखेगे ।

जब शास्त्रीय गूढता युक्त तथ्य हमने समंझ लिए हैं तो अब सरल बातों और किस तरह से करना हैं पर भी कुछ विषद चर्चा की आवश्यकता हैं ।

  1. कितना हवन किया जाए?
    शास्त्रीय नियम
    तो दसवे हिस्सा का हैं ।

इसका सीधा मतलब की एक अनुष्ठान मे
1,25,000 जप या 1250 माला मंत्र जप अनिवार्य हैं और इसका दशवा हिस्सा होगा 1250/10 =125 माला हवन मतलब लगभग 12,500 आहुति ।

(यदि एक माला मे 108 की जगह सिर्फ100 गिनती ही माने तो) और एक आहुति मे मानलो 15 second लगे तब कुल 12,500 *
15 = 187500 second मतलब 3125 minute मतलब 52 घंटे लगभग।

तो किसी एक व्यक्ति के लिए इतनी देर आहुति दे पाना क्या संभव हैं ?

  1. तो क्या अन्य व्यक्ति की सहायता ली जा सकती हैं? तो इसका
    उतर
    हैं हाँ । पर वह सभी शक्ति मंत्रो से दीक्षित हो या अपने ही गुरु भाई बहिन हो तो अति उत्तम हैं ।

जब यह भी न संभव हो तो गुरुदेव के श्री चरणों मे अपनी असमर्थता व्यक्त कर मन ही मन
उनसे आशीर्वाद लेकर घर के सदस्यों की सहायता ले सकते हैं ।

  1. तो क्या कोई और उपाय नही हैं ? यदि दसवां हिस्सा संभव न हो तो शतांश हिस्सा भी हवन
    किया जा सकता हैं ।

मतलब 1250/100 = 12.5 माला मतलब लगभग 1250 आहुति = लगने वाला समय = 5/6 घंटे ।यह एक साधक के लिए संभव हैं ।

  1. पर यह भी हवन भी यदि संभव ना हो तो ? कतिपय साधक किराए के मकान मे या फ्लेट मे रहते हैं वहां आहुति देना भी संभव नही हैं तब क्या ?

गुरुदेव जी ने यह भी विधान सामने रखा की साधक यदि कुल जप संख्या का एक चौथाई हिस्सा जप और कर देता हैं संकल्प ले कर की मैं दसवाँ हिस्सा हवन नही कर पा रहा हूँ ।

इसलिए यह मंत्र जप कर रहा हूँ तो यह भी संभव हैं । पर इस केस मे शतांश जप नही चलेगा इस बात का ध्यान रखे ।

  1. श्त्रुक स्त्रुव :- ये आहुति डालने के काम मे आते हैं । स्त्रुक 36 अंगुल लंबा और स्त्रुव 24 अंगुल लंबा होना चाहिए ।

इसका मुंह आठ अंगुल और कंठ एक अंगुल का होना चाहिए । ये दोनों स्वर्ण रजत पीपल आमपलाश की लकड़ी के बनाये जा सकते हैं ।

  1. हवन किस चीज का किया जाना चाहिये ?

• शांति कर्म मे पीपल के पत्ते, गिलोय, घी का ।

• पुष्टि क्रम मे बेलपत्र चमेली के पुष्प घी ।

• स्त्री प्राप्ति के लिए कमल ।

• दरिद्रयता दूर करने के लिये दही और घी का ।

• आकर्षण कार्यों मे पलाश के पुष्प या सेंधा नमक से ।

• वशीकरण मे चमेली के फूल से ।

• उच्चाटन मे कपास के बीज से ।

• मारण कार्य मे धतूरे के बीज से हवन किया जा ना चाहिए ।

  1. दिशा क्या होना चाहिए ?

साधरण रूप से जो हवन कर रहे हैं वह कुंड के पश्चिम मे बैठे और उनका मुंह पूर्व
दिशा की ओर होना चाहिये । यह भी विशद व्याख्या चाहता हैं । यदि षट्कर्म किये
जा रहे हो तो ;

• शांती और पुष्टि कर्म मे पूर्व दिशा की ओर हवन कर्ता का मुंह रहे ।

• आकर्षण मे उत्तर की ओर हवन कर्ता मुंह रहे और यज्ञ कुंड वायु कोण मे हो ।

• विद्वेषण मे नैरित्य दिशा की ओर मुंह रहे यज्ञ कुंड वायु कोण मे रहे ।

• उच्चाटन मे अग्नि कोण मे मुंह रहे यज्ञ कुंड वायु कोण मे रहे ।

• मारण कार्यों मे – दक्षिण दिशा मे मुंह और दक्षिण दिशा मे हवन हुंड हो ।

  1. किस प्रकार के हवन कुंड का उपयोग किया जाना चाहिए ?

• शांति कार्यों मे स्वर्ण, रजत या ताबे का हवन कुंड होना चाहिए ।

• अभिचार कार्यों मे लोहे का हवन कुंड होना चाहिए।

• उच्चाटन मे मिटटी का हवन कुंड ।

• मोहन कार्यों मे पीतल का हवन कुंड ।

• और ताबे का हवन कुंड मे प्रत्येक कार्य मे उपयोग की या जा सकता हैं ।

  1. किस नाम की अग्नि का आवाहन किया जाना चाहिए ?

• शांति कार्यों मे वरदा नाम की अग्नि का आवाहन किया जाना चहिये ।

• पुर्णाहुति मे मृडा नाम की ।

• पुष्टि कार्योंमे बल द नाम की अग्नि का ।

• अभिचार कार्योंमे क्रोध नाम की अग्नि का ।

• वशीकरण मे कामद नाम की अग्नि का आहवान किया जाना चहिये ।

  1. कुछ ध्यान योग बाते :-

• नीम या बबुल की लकड़ी का प्रयोग ना करें ।

• यदि शमशान मे हवन कर रहे हैं तो उसकी कोई भी चीजे अपने घर मे न लाये ।

• दीपक को बाजोट पर पहले से बनाये हुए चन्दन के त्रिकोण पर ही रखे ।

• दीपक मे या तो गाय के घी का या तिल का तेल का प्रयोग करें ।

• घी का दीपक देवता के दक्षिण भाग मे और तिल का तेल का दीपक देवता के बाए ओर लगाया जाना चाहिए ।

• शुद्ध भारतीय वस्त्र पहिन कर हवन करें ।

• यज्ञ कुंड के ईशान कोण मे कलश की स्थापना करें ।

• कलश के चारो ओर स्वास्तिक का चित्र अंकित करें ।

• हवन कुंड को सजाया हुआ होना चाहिए ।
: सिर्फ ऐसी ही मिल सकेगी जल्द सफलता

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एक पुजारी कई दिनों से यज्ञ कर रहे थे, लेकिन उन्हें अग्निदेव के दर्शन नहीं दे रहे थे। तभी उस गांव में राजा विक्रमादित्य पहुंचे। पुजारी का उतरा चेहरा देखकर उन्होंने पुजारी का हाल-चाल पूछा। राजा उनकी परेशानी समझ चुके थे।

फिर राजा ने समझाया, ‘यज्ञ ऐसे नहीं करते हैं।’ राजा ने अपना मुकुट उतार कर जमीन पर रखा और संकल्प लिया, ‘यदि आज शाम तक अग्निदेव प्रकट नहीं हुए। तो आज से मैं मुकुट धारण नहीं करूंगा। चाहे प्रजा में कितना भी अनाचार फैल जाए।’

राजा की यह प्रतिज्ञा सुन प्रजावत्सल अग्निदेव चिंतित हो गए। वे शाम से पहले ही प्रकट हो गए। पुजारी ने उन्हें प्रणाम किया। और उनसे कहा, ‘मैं इतने दिनों से प्रयत्न कर रहा था, तब आप क्यों नहीं आए? जबकि राजा के मुकुट उतारते ही आप स्वयं प्रकट हो गए।’

अग्निदेव बोले, ‘वास्तव में राजा ने जो किया वह दृढ़ता और संकल्प से किया। दृढ़ता और संकल्प से किया गया कार्य सदा ही जल्दी ही सफलता मिलती है। इसीलिए में तत्काल प्रकट हो गया।’

🌹🙏🏻🚩 जय सियाराम 🚩🙏🏻🌹
🚩🙏🏻 जय श्री महाकाल 🙏🏻🚩
🌹🙏🏻 जय श्री पेड़ा हनुमान 🙏🏻🌹
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🌺अपशकुन🌺
🌺कुछ ईश्वरीय संकेत

🌺घर के परिसर में बिल्ली या बिलाव का रोना, आपस में झगड़ा करना, घर में क्लेश या विपत्ति का सूचक है।
🌺यदि घर के मुख्य द्वार से सांप का प्रवेश होता है तो, यह गृहस्वामी या गृहस्वामिनी के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
🌺यदि घर में कोई चोट खाया, घायल पक्षी या, उसका कोई कटा हुआ अंग आँगन में गिरता है तो, समझ लीजिए कि महासंकट आने वाले है।
🌺घर में यदि कुतिया प्रसव करती है तो यह गृहस्वामी के लिए अच्छा संकेत नहीं है, इसके कारण शत्रु की वृद्धि होती है तथा अपने ही परिवार में मतभेद होने लगते है।
🌺यदि घर में कौवा, गिद्ध, चील या कबूतर नित्य बैठते है और छह मास तक लगातार निवास बनाए हुए है, तो गृहस्वामी पर नाना प्रकार की विपत्ति आने का सूचक होता है।
🌺यदि घर में काले रंग के चूहे बहुत अधिक तादाद में दिन और रात भर घूमते रहते हो तो, समझ लीजिए कि किसी रोग या शत्रु का आक्रमण होने वाला है।
🌺यदि घर की छत पर, दीवार पर या घर के
किसी भी कोने में लाल रंग की चींटिया घुमती या रेंगती हुई दिखाई दे, तो संपत्ति का क्षय होता है.या संपत्ति का कोई नुक्सान हो जाता है. और यदि पंख वाली चींटियां हो तो घर में बिना किसी कारण के क्लेश की स्थिति उत्पन्न होने लगती है।
🌺यदि पालतू गाय अपना दूध पीती हो या अत्यधिक
सिर हिलाती हो, तो घर के गृहस्वामी के ऊपर कर्ज
बढ़ता है और भाग्य खराब होने लगता है।
🌺यदि किसी खुशी के कार्य पर घर में आग लग जाय
तो धन हानि की संभावना बन जाती है।
🌺यदि घर में बने मंदिर की कोई मूर्ति या चित्र अपने
आप खंडित हो या जल जाए, या जमीन पर हाथ से छूट कर टूट जाए तो, यह संकेत पूरे परिवार के लिए अशुभ होता है। तथा इसके कारण समाज में मान हानि और कलंक लगता है। घर में विवाह आदि शुभ कार्योंमें अनावश्यक बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है।
🌺रसोईघर मे प्लेटफार्म का चटकना या टूटना, चाकले का टूटना या तड़कजाना दरिद्रता की निशानी होती है।
🌺यदि घर में दूध बार बार जमीन पर गिरता हो, तो किसी भी कारण से घर में क्लेश और विवाद की स्थिति बनती है।
🌺यदि सुबह या शाम के समय कौवा मांस या हड्डी लाकर गिराता है तो कोई अमंगल होने वाला है या बिमारी, चोट आदि पर धन खर्च होगा।
🌺यदि कोई भी पक्षी घर में किसी भी समय कोई
लोहे का टुकड़ा गिराता है तो, यह अशुभ संकेत होता है।जिसके कारण अचानक कारावास होने की पूरी संभावना बनती है ।
🌺यदि जिस दिन नए घर में प्रवेश करना हो, उसी दिन सूर्योदय के समय कोई भी पशु रोता है तो उस दिन गृह प्रवेश टाल दें यह संकेत शुभ नहीं होता है।

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