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: प्रश्न:- आनंद का मुख्य श्रोत क्या है?

आनंद का मुख्य श्रोत है मनुष्य का अंत:करण। कोई भी आनंद बाहर से भीतर अपने आप नहीं उतरता।वह भीतर का अंत:करण ही कृष्ण है।जो लगातार बाहरी विषयों को आकर्षित करता है खींचता है।बस यही भेद है जो मनुष्य समझ नहीं पाता कृष्ण और आकृषण में।हम आकर्षित होने की क्रिया को समझ नहीं पाते।संवय के भीतर झांक नहीं पाते अपने अंत:करण को कृष्ण को समझ नहीं पाते देख नहीं पाते। क्योंकि जीव की सरंचना ही ऐसी की है प्रकृति ने कि वह बाहरी विषयों को ही देख और समझ पाने में सक्षम है।वह समझ ही नहीं पाता है कि आकृषण हो कैसे रहा है।जबकि आकृषण की सीधी सी व्याख्या है।अगर कोई विषय या वस्तु किसी तरफ खिंचती हो तो कोई शक्ति उसे खींज रही होती है।बस इस कृष्ण को समझना होगा जानना होगा फिर सब समझ आने लगता है कि मैं किसी की तरफ नहीं खिंच रहा।किसी को अपनी तरफ खींच रहा हुं।न जानने की स्थिति में हमें लगता है विषय हमें खींच रहे हैं। जानने पर हमें अनुभव होने लगता है यह सब तो अपने आप हो रहा है न इसे मै ही कर रहा हुं और न ही कोई दुसरा मेरे लिए कर रहा है।और हम उस विषय व कारण से ही मुक्त हो जाते हैं।करता होने पर ही गलत सही पाप पुण्य का असमंजस बना रहता है। मुक्त होने पर ये आभास होने पर कि सब अपने आप हो रहा है आप करता नहीं रहते तो पाप पुण्य आदि विषय भोगों से मुक्त हो जाते हैं।यह मुक्ति ही आनंद है और अंत:करण में ही स्थीत हो जाना ठहर जाना ही परमानन्द है। कृष्णमय बन जाना ही असली आनंद है।

जय श्री कृष्ण
प्रेम से बोलो “जय श्री कृष्ण
विनम्र निवेदन …एक बार श्रीमद्भगवद्गीता अवश्य पढ़े अपने जीवन में । 🙏
परम भगवान श्री कृष्ण सदैव आपकी स्मृति में रहें
श्री कृष्ण शरणं मम
ये महामंत्र नित्य जपें और खुश रहें। 😊
सदैव याद रखें और व्यवहार में आचरण करें। ईश्वर दर्शन अवश्य होंगे।
श्री कृष्ण शरणं मम
श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञान परिवार

साधना

एक क्षण में , एक दिन में , एक साल में सभी समय लाभ हो सकता है। यह साधक पर निर्भर करता है। साधक यह निश्चय कर ले कि आज से साधना में गड़बड़ नहीं होगी फिर उसके अन्दर विकार अवगुण आ ही कैसे सकता है , यदि निश्चय दृढ़ नहीं होगा तभी यह सम्भव है। किसी ब्यक्ति को समुद्र में डूबते समय कोई जहाज का रस्सा मिल जाय तो भला उसे वह क्यों छोड़ेगा , रस्से को छोड़ना ही उसके लिए मृत्यु होगी। उसी प्रकार जो ईश्वर की शरण में निश्छल भाव से सच्चे मन से चला गया जिसे भगवतभक्ति में अध्यात्म में आनन्द आने लगा वह फिर उसे कैसे छोड़ सकता है और सांसारिक सुख क्यों तलाश करेगा।जब मनुष्य को शान्ति एवं आनन्द मार्ग मिल जाय तो कोई भी समझदार ब्यक्ति उस मार्ग को नहीं छोड़ सकता। प्रभु की कृपा है योगक्षेम वहन करने वाले प्रभु बिना मांगे ही हर प्रकार की सहायता करते हैं , तो उनसे बड़ा दाता कौन मिल सकता है।
यदि भूल बस असावधानी के कारण यदि कोई एक बार गिर जाता है तो पुनः पूरी सावधानी से रास्ते पर चलता है , जैसे किसी का दरवाजा नीचा है एक बार सर में चोट लग जाती है तो दोबारा सावधान होकर ही चलता है। प्रभु की दया का प्रभाव अपरिमित है, जो जानने में नहीं आ सकती उसके लिए कुछ भी असम्भव या अदेय नहीं है जो वह न दे सके। जो साधन की कमी प्रतीत होती है , वह प्रभु की दया पर रख दें तो वह एक क्षण में सारी पूर्ति कर सकते हैं । प्रभु की दया का स्वरूप समझने से वह विकसित हो जाती है। अज्ञानता के परदे को हटाने से उसका रहस्य खुल जाता है। वह कृपा प्रत्यक्ष हो जाती है। हर देश , हर काल , हर वस्तु में प्रभु की दया को पूर्ण देखो। न दिखे तो भी देखो अभ्यास से दिखने लगेगा। जैसे विवाह के समय वर कन्या को ध्रुव तारा दिखाया जाता है , यदि बादल हैं तो वैसे ही ध्रुवतारा का स्थान पश्चिमोत्तर दिखाकर मान लिया जाता है कि देख लिए। उसी प्रकार हर क्षण हर वस्तु हर कार्य में प्रभु की विलक्षण कृपा का अनुभव और विश्वास करो। वह कृपा आपको प्रत्यक्ष दिखने लगेगी।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।
यह अलौकिक अर्थात अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है , परन्तु जो पुरुष मुझको ही निरन्तर भजते हैं , वे इस माया का उलंघन कर जाते हैं अर्थात संसार से तर जाते हैं।
प्रभु की दया असीमित है उनकी दया से ही मनुष्य परमपद को प्राप्त कर लेता है फिर उन्हीं का होकर रह जाता है अर्थात संसार के आवागमन ये दाल रोटी , अमीरी गरीबी सभी झंझट से मुक्त होकर उन्हीं में विलीन होकर परम आनन्द में खो जाता है। एक महात्मा एक गृहस्थ के घर गये । गृहस्थ ने कहा कि महाराज बड़ी दया की , किन्तु घर में चार दिन से अन्न का दाना ही नहीं है , हम लोग भूखे बैठे हैं । महात्मा ने कहा कि तुम्हारे समान धनी तो कोई नहीं है। गृहस्थ ने कहा कि महराज आपकी बात समझ में नहीं आई । महात्मा ने एक पत्थर की तरफ संकेत करके कहा कि ये क्या है ? गृहस्थ ने बताया कि यह चटनी पीसने का पत्थर है। महात्मा ने कहा तुम्हारे पास जो लोहे का सामान हो वह ले आओ । उस पत्थर से छूते ही लोहा सोना बन गया। वह पारस पत्थर था। जैसे पारस की बात बताई गई । महात्मा दया करने वाले थे , उस गृहस्थ में श्रद्धा की कमी ही थी । यहाँ प्रभु की दया पारस पत्थर है और हम लोहा उनके स्पर्श उनकी दया से हम अवश्य सोना बन सकते हैं किन्तु उसके लिए हमें उन प्रभु पर पूर्ण श्रद्धा विश्वास बनाये रखने की परम आवश्यकता है। अपनी हर सफलता असफलता में भी उसी की दया का अनुभव करना चाहिए।

क्षमा करें लेख में अगर कही त्रुटी हो तो।

जय श्री कृष्ण
प्रेम से बोलो “जय श्री कृष्ण
विनम्र निवेदन …एक बार श्रीमद्भगवद्गीता अवश्य पढ़े अपने जीवन में । 🙏
परम भगवान श्री कृष्ण सदैव आपकी स्मृति में रहें
श्री कृष्ण शरणं मम
ये महामंत्र नित्य जपें और खुश रहें। 😊
सदैव याद रखें और व्यवहार में आचरण करें। ईश्वर दर्शन अवश्य होंगे।
श्री कृष्ण शरणं मम
श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञान परिवार
[साधना से संबंधितआवश्यक बातें◆
ये बातें छोटी-छोटी तो अवश्य हैं, परन्तु आपको यदि इन बातों का ज्ञान नहीं है तो आपको साधना में असफलता का मुँह देखना पड़ सकता है। अतः इन्हें अवश्य याद रखें —–
१. जिस आसन पर आप अनुष्ठान, पूजा या साधना करते हैं, उसे कभी पैर से नहीं सरकाना चाहिए। कुछ लोगों की आदत होती है कि आसन पर बैठने के पहले खड़े-खड़े ही आसन को पैर से सरका कर अपने बैठने के लिए व्यवस्थित करते हैं। ऐसा करने से आसन दोष लगता है और उस आसन पर की जाने वाली साधनाएँ सफल नहीं होती है। अतः आसन को केवल हाथों से ही बिछाएं।
२. अपनी जप माला को कभी खूँटी या कील पर न टाँगे, इससे माला की सिद्धि समाप्त हो जाती है। जप के पश्चात् या तो माला को किसी डिब्बी में रखे, गौमुखी में रखे या किसी वस्त्र आदि में भी लपेट कर रखी जा सकती है। जिस माला पर आप जाप कर रहे हैं, उस पर किसी अन्य की दृष्टि या स्पर्श न हो, इसलिए उसे साधना के बाद वस्त्र में लपेट कर रखे। इससे वो दोष मुक्त रहेगी। साथ ही कुछ लोगों की आदत होती है कि जिस माला से जप करते हैं, उसे ही दिन भर गले में धारण करके भी रहते हैं। जब तक किसी साधना में धारण करने का आदेश न हो, जप माला को कभी धारण ना करे।
३. साधना के मध्य जम्हाई आना, छींक आना, गैस के कारण वायु दोष होना, इन सभी से दोष लगता है और जाप का पुण्य क्षीण होता है। इस दोष से मुक्ति हेतु आप जप करते समय किसी ताम्र पात्र में थोडा जल तथा कुछ तुलसी पत्र डालकर रखे। जब भी आपको जम्हाई या छींक आए या वायु प्रवाह की समस्या हो तो इसके तुरन्त बाद पात्र में रखे जल को मस्तक तथा दोनों नेत्रों से लगाए, इससे ये दोष समाप्त हो जाता है। साथ ही साधकों को नित्य सूर्य दर्शन कर साधना में उत्पन्न हुए दोषों की निवृत्ति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।इससे भी दोष समाप्त हो जाते हैं, साथ ही यदि साधना काल में हल्का भोजन लिया जाए तो इस प्रकार की समस्या कम ही उत्पन्न होती है।
४. ज्यादातर देखा जाता है कि कुछ लोग बैठे-बैठे बिना कारण पैर हिलाते रहते हैं या एक पैर के पंजे से दूसरे पैर के पंजे या पैर को आपस में अकारण रगड़ते रहते हैं। ऐसा करने से साधकों को सदा बचना चाहिए। क्यूँकि जप के समय आपकी ऊर्जा मूलाधार से सहस्त्रार की ओर बढ़ती है, परन्तु सतत पैर हिलाने या आपस में रगड़ने से वो ऊर्जा मूलाधार पर पुनः गिरने लगती है। क्यूँकि आप देह के निचले हिस्से में मर्दन कर रहे हैं और ऊर्जा का सिद्धान्त है, जहाँ अधिक ध्यान दिया जाए, ऊर्जा वहाँ जाकर स्थिर हो जाती है। इसलिए ही तो कहा जाता है कि जप करते समय आज्ञा चक्र या मणिपुर चक्र पर ध्यान लगाना चाहिए। अतः अपने इस दोष को सुधारे।
५. साधना काल में अकारण क्रोध करने से बचे, साथ ही यथा सम्भव मौन धारण करे और क्रोध में अधिक ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने से बचे। इससे संचित ऊर्जा का नाश होता है और सफलता शंका के घेरे में आ जाती है।
६. साधक जितना भोजन खा सकते हैं, उतना ही थाली में ले। यदि आपकी आदत है अन्न जूठा फेंकने की तो इस आदत में सुधार करे। क्यूँकि अन्नपूर्णा शक्ति तत्त्व है, अन्न जूठा फेंकने वालों से शक्ति तत्त्व सदा रुष्ट रहता है और शक्ति तत्त्व की जिसके जीवन में कमी हो जाए, वो साधना में सफल हो ही नहीं सकता है। क्यूँकि शक्ति ही सफलता का आधार है।
७. हाथ पैर की हड्डियों को बार-बार चटकाने से बचे। ऐसा करने वाले व्यक्ति अधिक मात्रा में जाप नहीं कर पाते हैं, क्यूँकि उनकी उँगलियाँ माला के भार को अधिक समय तक सहन करने में सक्षम नहीं होती है और थोड़े जाप के बाद ही उँगलियों में दर्द आरम्भ हो जाता है। साथ ही पुराणों के अनुसार बार-बार हड्डियों को चटकाने वाला रोगी तथा दरिद्री होता है। अतः ऐसा करने से बचे।
८. मल त्याग करते समय बोलने से बचे। आज के समय में लोग मल त्याग करते समय भी बोलते हैं, गाने गुनगुनाते हैं, गुटखा खाते हैं या मोबाइल से बातें करते हैं। यदि आपकी आदत ऐसी है तो ये सब करने से बचे, क्यूँकि ऐसा करने से जिह्वा संस्कार समाप्त हो जाता है और ऐसी जिह्वा से जपे गए मन्त्र कभी सफल नहीं होते हैं। आयुर्वेद तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से भी ऐसा करना ठीक नहीं है। अतः ऐसा ना करे।
९. यदि आप कोई ऐसी साधना कर रहे है, जिसमें त्राटक करने का नियम है तो आप नित्य बादाम के तैल की मालिश अपने सर में करे और नाक के दोनों नथुनो में एक-एक बूँद बादाम का तेल डाले। इससे सर में गर्मी उत्पन्न नहीं होगी और नेत्रों पर पड़े अतिरक्त भार की थकान भी समाप्त हो जाएगी।साथ ही आँवला या त्रिफला चूर्ण का सेवन भी नित्य करे तो सोने पर सुहागा।
१०. जप करते समय अपने गुप्तांगों को स्पर्श करने से बचे।साथ ही माला को भूमि से स्पर्श न होने दे। यदि आप ऐसा करते हैं तो जाप की तथा माला की ऊर्जा भूमि में समा जाती है।
११. जब जाप समाप्त हो जाए तो आसन से उठने के पहले आसन के नीचे थोड़ा जल डाले और इस जल को मस्तक तथा दोनों नेत्रों पर अवश्य लगाए। ऐसा करने से आपके जप का फल आपके पास ही रहता है। यदि आप ऐसा किये बिना उठ जाते हैं तो आपके जप का सारा पुण्य इन्द्र ले जाते हैं। ये नियम केवल इसलिए ही है कि हम आसन का सम्मान करना सीखें, जिस पर बैठ कर जाप किया, अन्त में उसे सम्मान दिया जाए।
मित्रों, ये कुछ नियम थे, जिनका पालन हर साधक को करना ही चाहिए। क्यूँकि ये छोटी-छोटी त्रुटियाँ हमें सफलता से कोसों दूर फेंक देती है। भविष्य में भी ऐसी कई छोटी-छोटी बातें आपके समक्ष रखने का प्रयत्न किया जाएगा। तब तक आप इन नियमों के पालन की आदत डालने चाहिए l
[शुक्र ग्रह का प्रभाव
.
भारतीय वेदिक ज्योतिष के अनुसार आकर्षण और
प्रेम वासना का प्रतीक शुक्र ग्रह नक्षत्रों के प्रभाव
से व्यक्ति समाज पशु पक्षी और प्रकृति तक
प्रभावित होते हैं। ग्रहों का असर जिस तरह प्रकृति
पर दिखाई देता है ठीक उसी तरह मनुष्यों पर
सामान्यतः यह असर देखा जा सकता है। आपकी
कुंडली में ग्रह स्थिति बेहतर होने से बेहतरफल प्राप्त
होते हैं। वहीं ग्रह स्थिति अशुभ होने की दशा में
अशुभफल भी प्राप्त होते हैं। बलवान ग्रह स्थिति
स्वस्थ सुंदर आकर्षण की स्थितियों का जन्मदाता
बनती है तो निर्बल ग्रह स्थिति शोक संताप
विपत्ति की प्रतीक बनती है। लोगों के मध्य में
आकर्षित होने की कला के मुख्य कारक शुक्र जी है।
कहा जाता है कि शुक्र जिसके जन्मांश लग्नेश केंद्र में
त्रिकोणगत हों वह आकर्षक प्रेम सौंदर्य का प्रतीक
बन जाता है। यह शुक्र जी क्या है और बनाने व
बिगाडने में माहिर शुक्र जी का पृथ्वी लोक में कहां
तक प्रभाव है ।।।
बृहद पराशर होरा शास्त्र में कहा गया है की—-
सुखीकान्त व पुः श्रेष्ठः सुलोचना भृगु सुतः।
काब्यकर्ता कफाधिक्या निलात्मा वक्रमूर्धजः।।।
तात्पर्य यह है कि शुक्र बलवान होने पर सुंदर शरीर,
सुंदर मुख, अतिसुंदर नेत्रों वाला, पढने लिखने का
शौकीन कफ वायु प्रकृति प्रधान होता है।
.
भारतीय वेदिक ज्योतिष में शुक्र ग्रह सप्तम भाव
अर्थात दाम्पत्य सुख का कारक ग्रह माना गया है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शुक्र दैत्यों के गुरु
हैं। ये सभी विद्याओं व कलाओं तथा संजीवनी
विद्या के भी ज्ञाता हैं। यह ग्रह आकाश में
सूर्योदय से ठीक पहले पूर्व दिशा में तथा सूर्यास्त के
बाद पश्चिम दिशा में देखा जाता है। यह कामेच्छा
का प्रतीक है तथा धातु रोगों में वीर्य का पोषक
होकर स्त्री व पुरुष दोनों के जनानांगों पर प्रभावी
रहता है।।शुक्र ग्रह से स्त्री, आभूषण, वाहन, व्यापार
तथा सुख का विचार किया जाता है। शुक्र ग्रह
अशुभ स्थिति में हो तो कफ, बात, पित्त विकार,
उदर रोग, वीर्य रोग, धातु क्षय, मूत्र रोग, नेत्र रोग,
आदि हो सकते हैं वेदिक ज्योतिष शास्त्र में शुक्र ग्रह
बुध, शनि व राहु से मैत्री संबंध रखता है। सूर्य व
चंद्रमा से इसका शत्रुवत संबंध है। मंगल, केतु व गुरु से सम
संबंध है। यह मीन राशि में 27 अंश पर परमोच्च तथा
कन्या राशि में 27 अंश पर परम नीच का होता है।
तुला राशि में 1 अंश से 15 अंश तक अपनी मूल
त्रिकोण राशि तथा तुला में 16 अंश से 30 अंश तक
स्वराशि में स्थित होता है। इसका तुला राशि से
सर्वोत्तम संबंध, वृष तथा मीन राशि से उत्तम संबंध,
मिथुन, कर्क व धनु राशि से मध्यम संबंध, मेष, मकर, कुंभ
से सामान्य व कन्या तथा वृश्चिक राशि से प्रतिकूल
संबंध है।
भरणी, पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ नक्षत्र पर इसका
आधिपत्य है। यह अपने स्थान से सप्तम भाव पर पूर्ण
दृष्टि डालता है। शुक्र जातक को ललित कलाओं,
पर्यटन और चिकित्सा विज्ञान से जोड़ता है। जब
किसी जातक की कुंडली में शुक्र सर्वाधिक
प्रभावकारी ग्रह के रूप में होता है तो शिक्षा के
क्षेत्र में पदाधिकारी, कवि, लेखक, अभिनेता,
गीतकार, संगीतकार, वाद्ययंत्रों का निर्माता,
शृंगार का व्यवसायी बनाता है। जब यही शुक्र जन्म
पत्रिका में सप्तम या 12 वें भाव में वृष राशि में
स्थित रहता है तो यह प्रेम में आक्रामक बनाता है। ये
दोनों भाव विलासिता के हैं।जब यही शुक्र लग्न में है
और शुभ प्रभाव से युक्त है तो व्यक्ति को बहुत सुंदर व
आकर्षक बनाता है। शुक्र ग्रह पत्नी का कारक ग्रह
है। और जब यही शुक्र ग्रह सप्तम भाव में रहकर पाप
प्रभाव में हो और सप्तमेश की स्थिति भी उत्तम न
हो तो पत्नी को रुग्ण या आयु की हानि करता है।
तीसरे भाव पर यदि शुक्र है और स्वगृही या मित्रगृही
हो तो व्यक्ति को दीर्घायु बनाता है। यह भाव
भाई का स्थान होने से और शुक्र स्त्रीकारक ग्रह
होने से बहनों की संख्या में वृद्धि करता है। जब
किसी कुंडली में शुक्र द्वितीय यानी धन व परिवार
भाव में उत्तम स्थिति में बैठा है तो व्यापार से तथा
स्त्री पक्ष अर्थात ससुराल से आर्थिक सहयोग
मिलता है। यदि उत्तम स्थिति में नहीं होता है तो
व्यापार में हानि कराता है तथा ससुराल वाले ही
जातक का धन हड़प लेते हैं। 11 वें भाव में वृष राशिगत
शुक्र के बलवान होने से वाहन सुख अच्छा रहता है।
शुक्र बारहवें भाव में पापग्रह के साथ हो तो अपनी
दशा में धनहानि कराता है।
.
वेदिक ज्योतिष ग्रंथों में बारहवें स्वस्थ शुक्र की बड़ी
महिमा बताई गई है। इस भाव में स्वस्थ शुक्र बड़ी
उन्नति प्रदान करता है। साथ ही शुक्र की दशा बहुत
फलवती व पूर्ण धन लाभ देने वाली होती है। सप्तम
स्थान में पाप प्रभाव युक्त शुक्र जातक को कामुक
बनाता है। ऐसा जातक विवाहित होने पर भी अन्य
स्त्रियों से शारीरिक संबंध बनाता है। यदि शुक्र
बलवान है और चतुर्थ भाव में गुरु की दृष्टि हो अथवा
गुरु चतुर्थ में स्थित हो तो व्यक्ति भूमि, धनसंपत्ति से
युक्त, विभिन्न वाहनों से युक्त, धनी व माननीय
बनाता है। यदि शुक्र बलहीन होता है तो व्यक्ति
अचानक भाग्यहीन हो जाता है। यदि दशम भाव में
शुक्र होता है तो अपनी दशा में नौकरी और संपूर्ण
सुविधाओं को प्रदान करता है। जब शुक्र राहु के
प्रभाव में यदि रहता है तो हानि प्रदान करता है।
यदि किसी व्यक्ति की भौतिक समृद्धि एवं सुखों
का भविष्य ज्ञान प्राप्त करन हो तो उसके लिए
उस व्यक्ति की जन्म कुंडली में शुक्र ग्रह की स्थिति
एवं शक्ति (बल) का अध्ययन करना अत्यंत महत्वपूर्ण
एवं आवश्यक है। अगर जन्म कुंडली में शुक्र की स्थिति
सशक्त एवं प्रभावशाली हो तो जातक को सब
प्रकार के भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। इसके
विपरीत यदि शुक्र निर्बल अथवा दुष्प्रभावित
(अपकारी ग्रहों द्वारा पीड़ित) हो तो भौतिक
अभावों का सामना करना पड़ता है।
इस ग्रह को जीवन में प्राप्त होने वाले आनंद का
प्रतीक माना गया है। प्रेम और सौंदर्य से आनंद की
अनुभूति होती है और श्रेष्ठ आनंद की प्राप्ति स्त्री
से होती है। अत: इसे स्त्रियों का प्रतिनिधि भी
माना गया है और दाम्पत्य जीवन के लिए
ज्योतिषी इस महत्वपूर्ण स्थिति का विशेष अध्ययन
करते हैं।
अगर शक्तिशाली शुक्र (स्वराशि, उच्च राशि का
मूल त्रिकोण) केंद्र में स्थित हो और किसी भी
अशुभ ग्रह से युक्त अथवा दृष्ट न हो तो जन्म कुंडली
के समस्त दुष्प्रभावों (अनिष्ट) को दूर करने की
सामर्थ्य रखता है। किसी कुंडली में जब शुक्र लग्र
द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, नवम, दशम और एकादश भाव में
स्थित हो तो धन, सम्पत्ति और सुखों के लिए अत्यंत
शुभ फलदायक है। सशक्त शुक्र अष्टम भाव में भी
अच्छा फल प्रदान करता है। शुक्र अकेला अथवा शुभ
ग्रहों के साथ शुभ योग बनाता है। चतुर्थ स्थान में
शुक्र बलवान होता है। इसमें अन्य ग्रह अशुभ भी हों
तो भी जीवन साधारणत: सुख कर होता है। स्त्री
राशियों में शुक्र को बलवान माना गया है। यह
पुरुषों के लिए ठीक है किंतु स्त्री की कुंडली में
स्त्री राशि के शुक्र का फल अशुभ मिलता है।
जब कुंडली में शुक्र और चंद्र, एक साथ हो तब सशक्त
होकर केंद्र अथवा त्रिकोण में स्थित हों तो सम्मान
या राजकीय सुख प्राप्त करते हैं। महात्मा गांधी
की कुंडली में इस प्रकार का योग था। शुक्र और बुध
पंचम या नवम भाव में स्थित हो तो जातक को धन,
सम्मान और प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है।
शुक्र की केंद्र में स्वराशि अथवा उच्चराशि में
स्थिति हो तो मालव्य योग होता है। यह योग
जातक को सुंदरता, स्वास्थ्य, विद्वता, धन-दाम्पत्य
सुख, सौभाग्य और सम्मानदायक है। अशुभ ग्रह के
योग से यह योग भंग हो जाता है।
जब किसी कुंडली में शुक्र, बृहस्पति और चंद्र की एक
साथ युति हो एवं केंद्र में ऐसी स्थिति से मृदिका
योग होता है जिसके फलस्वरूप उच्च पद एवं अधिकार
की प्राप्ति होती है। जब शुक्र अशुभ ग्रहों के साथ
या दुस्थानों (6, 8, 12) में स्थित हो तब यह ग्रह
अच्छा फल नहीं देता। सूर्य, मंगल अथवा शनि के साथ
शुक्र की युति होने पर जातक की प्रवृत्ति अनैतिक
कार्यों की ओर होती है किंतु बृहस्पति की दृष्टि
होने पर यह दोष नष्ट हो जाता है।
शुक्र, वाहन का कारक ग्रह है। अत: लग्र में चतुर्थेश के
साथ होने पर वाहन योग बनता है। कामवासना या
यौन सुख पर शुक्र का स्वामित्व माना गया है। अत:
विवाह अथवा यौन सुख के लिए भी इसकी स्थिति
का अध्ययन करना महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है।
अगर यह ग्रह जन्मकुंडली में निर्बल अथवा
दुष्प्रभावित हो तो दाम्पत्य सुख का अभाव रहता
है। सप्तम भाव में शुक्र की स्थिति विवाह के बाद
भाग्योदय की सूचक है। शुक्र पर मंगल के प्रभाव से
जातक का जीवन अनैतिक होता है और शनि का
प्रभाव जीवन में निराशा व वैवाहिक जीवन में
अवरोध, विच्छेद अथवा कलह का सूचक है।
शुक्र अगर दुस्थान में स्थित होकर अशुभ ग्रह से
प्रभावित हो तो जीवनसाथी की शीघ्र हानि और
पंचम, सप्तम और नवम में निर्बल सूर्य के साथ होने पर
वैवाहिक जीवन का अभाव बतलाता है।
दुष्प्रभावित शुक्र प्राय: गंभीर बीमारियों का
कारण भी होता है। शुक्र और मंगल सप्तम भाव में
अशुभ ग्रह द्वारा दृष्ट हों तो संभोगजन्य रोग होता
है।
स्त्री की कुंडली (स्त्री जातक) में शुक्र की अच्छी
स्थिति का महत्व है। अगर स्त्री की कुंडली में लग्र में
शुक्र और चंद्र हो तो उसे अनेक सुख-सुविधाओं की
प्राप्ति होती है। शुक्र और बुध की युति सौंदर्य,
कलाओं में दक्षता और सुखमय दाम्पत्य जीवन की
सूचक है। शुक्र की अष्टम स्थिति गर्भपात को सूचित
करती है और यदि मंगल के साथ युति हो तो वैधव्य
की सूचक है।
.
शुक्र मुख्यतः स्त्रीग्रह] कामेच्छा] वीर्य] प्रेम
वासना] रूप सौंदर्य] आकर्षण] धन संपत्ति] व्यवसाय
आदि सांसारिक सुखों के कारक है। गीत संगीत]
ग्रहस्थ जीवन का सुख] आभूषण] नृत्य] श्वेत और रेशमी
वस्त्र] सुगंधित और सौंदर्य सामग्री] चांदी] हीरा]
शेयर] रति एवं संभोग सुख] इंद्रिय सुख] सिनेमा]
मनोरंजन आदि से संबंधी विलासी कार्य] शैया सुख]
काम कला] कामसुख] कामशक्ति] विवाह एवं
प्रेमिका सुख] होटल मदिरा सेवन और भोग विलास
के कारक ग्रह शुक्र जी माने जाते हैं।

शुक्र की अशुभताः-
यदि आपके जन्मांक में शुक्र जी अशुभ हैं तो आर्थिक
कष्ट] स्त्री सुख में कमी] प्रमेह] कुष्ठ] मधुमेह] मूत्राशय
संबंधी रोग] गर्भाशय संबंधी रोग और गुप्त रोगों की
संभावना बढ जाती है और सांसारिक सुखों में कमी
आती प्रतीत होती है। शुक्र के साथ यदि कोई पाप
स्वभाव का ग्रह हो तो व्यक्ति काम वासना के
बारे में सोचता है। पाप प्रभाव वाले कई ग्रहों की
युति होने पर यह कामवासना भडकाने के साथ साथ
बलात्कार जैसी परिस्थितियां उत्पन्न कर देता है।
शुक्र के साथ मंगल और राहु का संबंध होने की दशा में
यह घेरेलू हिंसा का वातावरण भी बनाता है।
[ जंबू दीप?
क्या् कारण हैं कि वेदों को मानने वाले लोग अब अपने ही देश में भटक रहे हैं ?
वह लोग जिनके कारण ही संपूर्ण विश्व के कथित धर्मों और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई, वह लोग जिनके विश्व दुनिया को ज्ञान, विज्ञान, योग, ध्यान और तत्व ज्ञान मिला।

”सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन।
परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥
यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः।
एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥
द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्।।
(वेदव्यास, महाभारत)

हिंदी में अर्थ है कि सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भांति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखाई देता है। इसके दो अंशों में पिप्पल और दो अंशों में महान शश (खरगोश) दिखाई देता है।
(दो अंशों में पिप्पल का अर्थ पीपल के दो पत्तों और दो अंशों में शश अर्थात खरगोश की आकृति के समान दिखाई देता है। आप कागज पर पीपल के दो पत्तों और दो खरगोश की आकृति बनाइए और फिर उसे उल्टा करके देखिए, आपको धरती का मानचित्र दिखाई देगा। यह श्लोक 5 हजार वर्ष पूर्व लिखा गया था। इसका अर्थ यह है कि लोगों ने चंद्रमा पर जाकर इस धरती को देखा होगा तभी वह बताने में सक्षम हुआ होंगे कि ऊपर से समुद्र को छोड़कर धरती कहाँ-कहाँ नजर आती है और किस तरह की!)

पहले संपूर्ण हिन्दू जाति जंबूद्वीप पर शासन करती थी। फिर उसका शासन घटकर भारतवर्ष तक सीमित हो गया। फिर कुरुओं और पुरुओं की लड़ाई के बाद आर्यावर्त नामक एक नए क्षेत्र का जन्म हुआ जिसमें आज के हिन्दुस्थान के कुछ हिस्से, संपूर्ण पाकिस्तान और संपूर्ण अफगानिस्तान का क्षेत्र था। किंतु लगातार आक्रमण, धर्मांतरण और युद्ध के चलते अब घटते-घटते सिर्फ हिन्दुस्तान बचा है।
यह कहना सही नहीं होगा कि पहले हिन्दुस्थान का नाम भारतवर्ष था और उसके भी पूर्व जम्बू द्वीप था। कहना यह चाहिये कि आज जिसका नाम हिन्दुस्थान है वह भारतवर्ष का एक टुकड़ा मात्र है।
जिसे आर्यावर्त कहते हैं वह भी भारतवर्ष का एक हिस्साभर है और जिसे भारतवर्ष कहते हैं वह तो जंबूद्वीप का एक हिस्सा मात्र है। जंबूद्वीप में पहले देव-असुर और फिर बहुत बाद में कुरुवंश और पुरुवंश की लड़ाई और विचारधाराओं के टकराव के चलते यह जंबूद्वीप कई भागों में बंटता चला गया।

पुराणों और वेदों के अनुसार धरती के सात द्वीप थे – जंबू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौंच, शाक एवं पुष्कर। इसमें से जंबूद्वीप सभी के बीचों-बीच स्थित है।
जंबूद्वीप का वर्णन अब समझते हैं –

जंबूद्वीप: समस्तानामेतेषां मध्य संस्थित:,
भारतं प्रथमं वर्षं तत: किंपुरुषं स्मृतम्‌,
हरिवर्षं तथैवान्यन्‌मेरोर्दक्षिणतो द्विज।

रम्यकं चोत्तरं वर्षं तस्यैवानुहिरण्यम्‌,
उत्तरा: कुरवश्चैव यथा वै भारतं तथा।
नव साहस्त्रमेकैकमेतेषां द्विजसत्तम्‌,
इलावृतं च तन्मध्ये सौवर्णो मेरुरुच्छित:।

भद्राश्चं पूर्वतो मेरो: केतुमालं च पश्चिमे।
एकादश शतायामा: पादपागिरिकेतव: जंबूद्वीपस्य सांजबूर्नाम हेतुर्महामुने।
(विष्णु पुराण)

जंबूद्वीप को बाहर से लाख योजन वाले खारे पानी के वलयाकार समुद्र ने चारों ओर से घेरा हुआ है। जंबूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन है। जंबू (जामुन) नामक वृक्ष की इस द्वीप पर अधिकता के कारण इस द्वीप का नाम जंबूद्वीप रखा गया था।

जंबूद्वीप के 9 खंड थे : इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। इनमें भारतवर्ष ही मृत्युलोक है, शेष देवलोक हैं। इसके चतुर्दिक लवण सागर है। इस संपूर्ण नौ खंड में इसराइल से चीन और रूस से भारतवर्ष का क्षेत्र आता है।

जंबूद्वीप में प्रमुख रूप से 6 पर्वत थे : हिमवान, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत और श्रृंगवान।

त्रेतायुग में अर्थात भगवान राम के काल के हजारों वर्ष पूर्व प्रथम मनु स्वायंभुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने इस भारतवर्ष को बसाया था, तब इसका नाम कुछ और था।

वायु पुराण के अनुसार महाराज प्रियव्रत का अपना कोई पुत्र नहीं था तो उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद ले लिया था जिसका लड़का नाभि था। नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम ऋषभ था। इसी ऋषभ के पुत्र भरत थे तथा इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम ‘भारतवर्ष’ पड़ा।
हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि राम के कुल में पूर्व में जो भरत हुए उनके नाम पर भारतवर्ष नाम पड़ा। यहाँ बता दें कि पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुन्तला के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष नहीं पड़ा। इस भूमि का चयन करने का कारण था कि प्राचीनकाल में जंबूद्वीप ही एकमात्र ऐसा द्वीप था, जहाँ रहने के लिए उचित वातारवण था और उसमें भी भारतवर्ष की जलवायु सबसे उत्तम थी। यहीं विवस्ता नदी के पास स्वायंभुव मनु और उनकी पत्नी शतरूपा निवास करते थे।
राजा प्रियव्रत ने अपनी पुत्री के 10 पुत्रों में से 7 को संपूर्ण धरती के 7 महाद्वीपों का राजा बनाया दिया था और अग्नीन्ध्र को जम्बू द्वीप का राजा बना दिया था। इस प्रकार राजा भरत ने जो क्षेत्र अपने पुत्र सुमति को दिया वह भारतवर्ष कहलाया। भारतवर्ष अर्थात भरत राजा का क्षे‍त्र।

सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।
नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत।
(वायु 31-37, 38)

अब ध्यान से पढ़िये-
जब भी मुंडन, विवाह आदि मंगल कार्यों में मंत्र पड़े जाते हैं तो उसमें संकल्प की शुरुआत में इसका जिक्र आता है :
जंबूद्वीपे भारतखंडे आर्याव्रत देशांतर्गते….अमुक स्थाने गंगा तीरे फलाने नामे फलाने गोत्रे दशमी तीथौ…।

इनमें जंबूद्वीप आज के यूरेशिया के लिए प्रयुक्त किया गया है। इस जंबूद्वीप में भारत खण्ड अर्थात भरत का क्षेत्र अर्थात ‘भारतवर्ष’ स्थित है, जो कि आर्यावर्त कहलाता है।

पद्मनाभ के विभिन्न रूप

(१) शब्दार्थ- पद्मनाभ के २ अर्थ हैं। प्रचलित अर्थ है विष्णु या उनका जाग्रत रूप जगन्नाथ जिनकी नाभि से पद्म निकला और उससे सृष्टि का आरम्भ हुआ। पद्मनाभ का अर्थ ब्रह्मा भी है जिनका जन्म विष्णु के नाभि पद्म से हुआ, उनको पद्मज या पद्मसम्भव कहा गया है। इसका मूल अर्थ माता गर्भ में मनुष्य जन्म से है। नाभि से एक नाल निकलती है जो माता के गर्भ से पोषण प्राप्त करता है। वह नाल कमल नाल जैसा है जो मिट्टी से जल और भोजन लेकर कमल पत्र तथा फूल तक पहुंचाता है। अतिसूक्ष्म तथा विराट् रूप के विभिन्न स्तर के निर्माण में यही शब्दावली प्रयुक्त है। इस कमलनाल को उल्ब या दृश्य जगत के मूल रूप में हिरण्यगर्भ भी कहा गया है।

(२) आध्यात्मिक गर्भनाल-मनुष्य के स्थूल शरीर का जन्म के समय कमल नाल से माता गर्भ में पोषण होता है।

आध्यात्मिक सूक्ष्म नाल-जन्म के बाद भी नाभि के सूक्ष्म चक्र में अष्टदल कमल द्वारा अष्टविध सिद्धियां मिलती हैं।

अग्नि पुराण, अध्याय ३७४-आध्यात्मिक नाभिकमल

द्वादशाङ्गुलविस्तीर्णं शुद्धं विकसितं सितम्। नालमष्टाङ्गुलं तस्य नाभिकन्दसमुद्भवम्॥२०॥

पद्मपत्राष्टकं ज्ञेयमणिमादिगुणाष्टकम्। कर्णिका केशरं नालं ज्ञानवैराग्यमुत्तमम्॥२१॥

विष्णुधर्मश्च तत्कन्दमिति पद्मं विचिन्तयेत्। तद्धर्मज्ञान वैराग्यं शिवैश्वर्यमयं परम्॥२२॥

ज्ञात्वा पद्मासनं सर्वं सर्वदुःखान्तमाप्नुयात्। तत्पद्मकर्णिकामध्ये शुद्धदीपशिखाकृतिम्॥२३॥

अङ्गुष्ठमात्रममलं ध्यायेदोङ्कारमीश्वरम्। कदम्ब गोलकाकारं तारं रूपमिवस्थितम्॥२४॥

ध्यायेद् वा रश्मिजालेन दीप्यमानं समन्ततः। प्रधानं पुरुषातीतं स्थितं पद्मस्थमीश्वरम्॥२५॥

ध्यायेज्जपेच्च सततमोङ्कारं परमक्षरम्। मनःस्थित्यर्थमिच्छन्ति स्थूलध्यानमनुक्रमात्॥२६॥

तद्भूतं निश्चलीभूतं लभेत् सूक्ष्मेऽपि संस्थितम्। नाभिकन्दे स्थितं नालं दशाङ्गुलसमायतम्॥२७॥

(द्रष्टव्य-पुरुष सूक्त-स भूमिं विश्वतो वृत्त्वात्यत्तिष्ठद्दशाङ्गुलम्।)

नालेनाष्टदलं पद्म द्वादशाङ्गुलविस्तृतम्। सकर्णिके केसराले सूर्य्यसोमाग्निमण्डलम्॥२८॥

अग्निमण्डलमध्यस्थः शङ्खचक्रगदाधरः। पद्मी चतुर्भुजो विष्णुरथ वाष्टभुजो हरिः॥२९॥

(३) सूक्ष्म स्तर-सूक्ष्म रूप में ऋषियों से पितर हुये, पितरों से देव-दानव। केवल देवों से सृष्टि हुई, दानवों से नहीं। सौरमण्डल के ३३ धामों के प्राण ३३ देवता हैं। उसी में ९९ असुर कहे गये हैं, जो प्रकाश किरण रूपी इन्द्र के वज्र से मरते हैं। देवों की तुलना में असुर ३ गुणा हैं, अतः कहा गया है कि ४ पाद के पूरुष के ३ पाद अमृत या स्थायी रहे, केवल १ ही पाद से सृष्टि हुई। ४ पाद का अव्यक्त और व्यक्त रूप दीर्घ पू से पूरुष कहा गया है। सृष्ट जगत् का १ ही पाद पुरुष कहा गया है। विराट् जगत् के दृष्ट रूपों का अधिष्ठान उससे बड़ा है अतः उसे भी अधिपूरुष कहा गया है। ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितॄभ्यो देव दानवाः। देवेभ्यश्च जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥ (मनुस्मृति, ३/२०१)

त्रिं॒शद्धाम॒ वि रा॑जति॒ वाक् प॑त॒ङ्गाय॑ धीयते । प्रति॒ वस्तो॒रह॒ द्युभिः॑ ॥

(ऋक् १०/१८९/३, साम ६३२, १३७८, अथर्व ६/३१/३, २०/४८/६, वा. यजु ३/८, तैत्तिरीय सं १/५/३/१)

ये ३० धाम पृथ्वी से बाहर तथा ३ धाम पृथ्वी के भीतर हैं-

पृथिव्यामिमे लोकाः (पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्यौ) प्रतिष्ठिताः(जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद् १/१०/२)

इनके आयतन या प्राण ३३ देव हैं-

ज्योतिस्त्र्यस्त्रिंशः स्तोमानाम् (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १३/७/२)

देवता एव त्रयस्त्रिंशस्यायतनम्। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १०/१/१६)

त्रयस्त्रिंशद्वै देवाः प्रजापतिश्चतुस्त्रिंशः । (शतपथ ब्राह्मण १२/६/१/३७, ४/५/७/२, ताण्ड्य महा ब्राह्मण १०/१/१६, १२/१३/२४)

असु प्राण हैं, इससे असुर हुआ है। उसमें दिवा रूप देव सृजन करते हैं, जो असूर्य्य (अनुत्पादक, सूयते = जन्म देता है) वे असुर हैं।

प्राणो वा असुः (शतपथ ब्राह्मण, ६/६/२/६)

तेनासुनासुरानसृजत। तदसुराणामसुरत्वम्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/३/८/२)

दिवा देवानसृजत नक्तमसुरान् यद्दिवा देवानसृजत तद्देवानां देवत्वं यदसूर्य्यं तदसुराणामसुरत्वम्। (षड्विंश ब्राह्मण, ४/१)

९९ असुर इन्द्र के वज्र से मारे गये-

इन्द्रो दधीचो अस्थभिर्वृत्राण्यप्रतिष्कुतः। जघान नवतिर्नव॥

(ऋग्वेद, १/८४/१३, अथर्व सं २०/१४/१, सामवेद, १/१७६, २/२६३, मैत्रायणी सं. २/१३/६, १५४/१०, काण्व सं. ३९/१२, तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/५/८/१)

यहां मनुष्य के मेरुदण्ड के ३३ अस्थियों जैसे सौरमण्डल के ३३ धाम हैं।

सृष्टि क्रिया में जो केन्द्र स्थान है, वह नाभि है। मनुष्य शरीर में पाचन का केन्द्र नाभि है, जिससे शरीर बनता है। उससे जो निर्माण होता है उसके प्रकार कमल के दल हैं। केन्द्र तथा निर्मित विश्व में दृश्य या अदृश्य सम्बन्ध कमल का नाल है।

वेद में मूल केन्द्र को नाभि तथा उसके निकट भाग को नाभनेदिष्ट कहा है। तेज रूप केन्द्र को हिरण्य, उससे बने लोक या स्थान हिरण्यकशिपु है, हिरण्मय पुरुष है, उसका मार्ग हिरण्यय है। नाभि केन्द्र से अन्य भागों का आकर्षण आदि से सम्बन्ध हिरण्यकेश है।

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे (ऋक्, १०/१२१/१)

हिरण्यं लोके अन्तरा (अथर्व सं. १०/७/२८)

हिरण्मयेन सुवृता रथेन (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३१/१/१९)

हिरण्ययः पन्थान आसन् (अथर्व सं. ५/४/५)

हिरण्याक्षः सविता देव आगात् (ऋक्, १/३५/८, वाज. सं. ३४/२४)-दृश्य निर्माता जिसके केन्द्र में हिरण्य है। उसके निर्माण साधन या अंग हिरण्य हस्त हैं-

हिरण्यहस्तं अश्विना अराणा (ऋक्, १/११७/२४)

हिरण्य केन्द्र से बनी ३ प्रकार की पृथ्वी (पृथ्वी ग्रह, सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड) का शरीर हिरण्यकशिपु है।

हिरण्यकशिपुर्मही (अथर्व सं. ५/७/१०)

हिरण्य या उसकेशरीर का आकाश या क्रिया क्षेत्र हिरण्य-प्राकारा, या हिरण्यवर्णा (लक्ष्मी) है।

हिरण्यवर्णाः परियन्ति यह्वीः (ऋक्, २/३५/९)

हिरण्यवर्णा हरिणीम्, कांसोस्मितां हिरण्यप्राकाराम् (ऋक् खिल ५/८७१)

हिरण्यवर्णा जगती जगम्या (तैत्तिरीय आरण्यक, १०/४२/१)

हिरण्यप्राकारा देवि मां वर (मानव श्रौत सूत्र २/१३/६)

परमाणु का केन्द्र नाभि है जिसके चारों तरफ की रचना कमल दल है। अदृश्य आकर्षण शक्ति कमल नाल है। परमाणु नाभि का भी केन्द्र हिरण्य गर्भ है और नाभि कणों की व्यवस्था कमल है।

(४) आकाश में सृष्टि का आरम्भ-आकाश में मूल तत्त्व सब जगह समान था जिसे रस कहा है-यद्वै तत्सुकृतं रसो वै सः । रसं ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति। (तैत्तिरीय उपनिषद् २/७)

उसमें सबसे पहले हिरण्यगर्भ हुआ जो तेज का केन्द्र था। इसे आधुनिक भाषा में मूल तेज केन्द्र कहते हैं (Primordial Fireball)। इससे पञ्चमहाभूत हुए-क्षितिजलपावक गगन समीरा। पञ्चरचित यह अधम सरीरा। (रामचरितमानस, ४/१०/४)

यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्। सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति। तस्माद् वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः। आकाशाद् वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी। पृथिव्या ओषधयः।ओषधीभ्यो अन्नः। अन्नात् पुरुषः। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/१)

परम व्योम की गुहा हिरण्यगर्भ है। उससे क्रमशः आकाश, वायु, अग्नि, अप्, पृथ्वी-ये ५ महाभूत हुए। ये आकाश के ५ मण्डलों के रूप हैं। अनन्त विश्व प्रायः खाली है, वह आकाश रूप है। उसमें ब्रह्माण्डों से गति या क्रिया का आरम्भ हुआ-वह वायु तत्त्व है। ब्रह्माण्ड में कई स्थानों पर पदार्थ घनीभूत होने से ताप और तेज रूप में ताराओं का जन्म हुआ-वह अग्नि है। केन्द्र अग्नि के बाहर फैला जल जैसा पदार्थ अप् है। उसमें घना सीमाबद्ध पिण्ड पृथ्वी है। पृथ्वी पर जीवन का आरम्भ ओषधि (जो फल पकने के बाद नष्ट हो जाते हैं) हुयी जिसके अन्न से पुरुष होता है। ५ महाभूतों का प्रतीक कलश हुआ। उसका स्थान आकाश है, उसके भीतर जल अप् है, खाली स्थान में वायु है, कलश का शरीर पृथ्वी है तथा उस पर जलता दीप अग्नि है। जीवन के आरम्भ रूप में आम का पल्लव रखते हैं। हिरण्यगर्भ के प्रतीक रूप में स्वर्ण या ताम्र का पैसा डालते समय यह मन्त्र पढ़ा जाता है-

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीमुत द्यां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ (ऋक् १०/१२१/)

पृथ्वी पर सभ्यता के निर्माण तथा विनाश का चक्र हिमयुग का चक्र है। जब जल प्रलय होता है तो विषुव से दूर सभ्यता का केन्द्र होता है। हिमयुग में उत्तरी भाग बर्फ से ढंके होते हैं, तब हिरण्यकशिपु तथा रावण के राज्य विषुव रेखा के निकट रहते हैं। उत्तर में हिमालय से रक्षित होने के कारण भारत की सभ्यता नष्ट नहीं होती और यह ज्ञान का केन्द्र है। भारत का भी केन्द्र वाराणसी हिरण्यगर्भ है। हिरण्य या तेज अर्थ में इसे काशी कहते हैं (काशृ दीप्तौ-पाणिनीय धातुपाठ, १/४३०, ४/५१)। यहां भूतनाथ महादेव का केन्द्रीय स्थान है। इसकी पूर्वी सीमा के नद को हिरण्यबाहु (शोण या सोन) कहते हैं। यहां समवर्तत पहले हुआ था, अतः वर्तते (भोजपुरी अपभ्रंश बाटे) का प्रयोग होता है। बाकी भारत में अस्ति का प्रयोग है। पूर्व में अस्ति का अछि हुआ, पश्चिम में ’आहे’ और ’है’ हुआ।

हिरण्यगर्भ से लोकों के निर्माण का क्रम है-यं क्रन्दसी अवतश्चस्कभाने भियसाने रोदसी अह्वयेथाम्। यस्यासौ पन्था रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥३॥

यस्य द्यौरुर्वी पृथिवी च मही यस्याद उर्वऽन्तरिक्षम्। यस्यासौ सूरो विततो महित्वा कस्मै देवाय हविषा विधेम॥

यस्य विश्वे हिमवन्तो महित्वा समुद्रे यस्य रसामिदाहुः। इमाश्च प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम॥

(ऋक् १०/१२१/४-६, अथर्व ४/२/३-५, ७)

सूर्य से तेज का प्रसार रुदन है। सूर्य जैसे ब्रह्माण्ड के १०० अरब ताराओं का विसर्जन क्रन्दन है। अतः ब्रह्माण्ड का क्षेत्र क्रन्दसी तथा सौरमण्डल रोदसी हुआ। उसके बाद पृथ्वी तथा ३ प्रकार के अन्तरिक्ष बने जिनसे पृथ्वी निर्माण का आरम्भ होने से उनको आदित्य कहा गया-पूरे विश्व का आदित्य अर्यमा, ब्रह्माण्ड का आदित्य वरुण तथा सौरमण्डल का आदित्य मित्र।

तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीरुत द्यून्त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम् ।

ऋतेनादित्या महि वो महित्वं तदर्यमन् वरुण मित्र चारु ॥ (ऋग्वेद २/२७/८)

यहां ३ भूमि की परिभाषा विष्णु पुराण (२/७/३) में दी गयी है-रवि चन्द्रमसोर्यावन्मयूखैरवभास्यते । स समुद्र सरिच्छैला पृथिवी तावती स्मृता ॥

सूर्य चन्द्र दोनों से प्रकाशित पृथ्वी ग्रह है, केवल सूर्य का प्रकाशित भाग सौरमण्डल द्वितीय पृथिवी तथा सूर्य प्रकाश की अन्तिम सीमा ब्रह्माण्ड तृतीय पृथ्वी है। इनके क्षेत्रों के नाम भी पृथ्वी के द्वीपों, समुद्रोम् तथा नदियों जैसे हैं। जैसे सूर्य के चारों तरफ ग्रहों का भ्रमण क्षेत्र पृथ्वी के द्वीपों के नाम पर हैं या ब्रह्माण्ड के केद्रीय घूमते चक्र को आकाशगंगा कहते हैं।

यही वर्णन पुराणों में कुछ भिन्न शब्दों के साथ है-

ब्रह्माण्ड पुराण (१/१/३) आदि कर्त्ता स भूतानां ब्रह्माग्रे समवर्त्तिनाम्॥२५॥

हिरण्यगर्भः सोऽण्डेऽस्मिन् प्रादुर्भूतश्चतुर्मुखः। सर्गे च प्रतिसर्गे च क्षेत्रज्ञो ब्रह्म संमितः॥२६॥

करणैः सह पृच्छन्ते प्रत्याहारैस्त्यजन्ति च। भजन्ते च पुनर्देहांस्ते समाहार सन्धिसु॥२७॥

हिरण्मयस्तु यो मेरुस्तस्योद्धर्तुर्महात्मनः। गर्तोदकं सम्बुदास्तु हरेयुश्चापि पञ्चताः॥२८॥

यस्मिन् अण्ड इमे लोकाः सप्त वै सम्प्रतिष्ठिताः। पृथिवी सप्तभिर्द्वीपः समुद्रैः सह सप्तभिः॥२९॥

गरुड़ पुराण, तृतीय मोक्ष खण्ड, अध्याय ११-

पुरुषाख्यो हरिः साक्षाद् भगवान् पुरुषोत्तमः। शिश्येत्वण्डोदक विष्णुर्नृणां साहस्र वत्सरम्॥१॥

लक्ष्मीश्चोदक रूपेण शय्यारूपेण भोऽण्डज। विद्या तरङ्ग रूपेण वायुरूपेण भोऽण्डज॥२॥

तमोरूपेण सैवासीन्नान्यदासीत्कथञ्चन। आसीद् गर्भोदकं चैव नान्यदासित्कथञ्चन॥३॥

लक्ष्मी सतुष्टाव च हरिं गर्भोदे पक्षिसत्तम। लक्ष्मीधराभ्यां रूपाभ्यां प्रकृतिर्हरिणा तथा॥४॥

शेत श्रुतिस्वरूपेण स्तौति गर्भोदके हरिम्। नारायण नमस्तेऽस्तु शृणु विज्ञापनं मम॥५॥


एवं स्तुतो हरिः कृष्णोइ सुप्रबुद्धोऽपि सर्वदा। उद्बुद्धवन् महाविष्णुरभूदज्ञपरीक्षया॥१८॥

तस्य नाभेरभूत् पद्मं सौवर्ण भुवनाश्रयम्। तत् प्राकृतं च विज्ञेयं भूदेवी त्वभिमानिनी॥१९॥

अनन्त सूर्यवच्चैव प्रकाशकरमीरितम्। चिदानन्दमयो विष्णुस्तस्माद् भिन्नो न संशयः॥२०॥


ब्रह्माण्डं ह्यसृजत् तत्र सर्वलोक विधायकम्। प्रलये मुक्तिहीनश्च सुप्त इत्युच्यते बुधः॥२४॥

तस्य समिवत्रिवं च नज्ञातव्या खगेश्वर। प्रलयोऽपि महाभाग ब्रह्मवाय्वोर्न चास्ति हि॥२५॥

वृत्तिरूपं परं ज्ञानं पाद्यार्घ्यं नात्र संशयः। इन्द्रियाणामुपरतिः सुप्तिरित्यौच्यते बुधैः॥२६॥


अतो ज्ञानादिकं नास्ति ब्रह्मणः परमेष्ठिनः। पद्माद्धिरण्मयाज्जातो ब्रह्मा तु चतुराननः॥४५॥

पद्मपुराण, सृष्टि खण्ड, अध्याय ३४-

द्यौः स चन्द्रार्कनक्षत्रा सपर्वतमहीद्रुमाः। सलिलार्णव संमग्नं त्रैलोक्यं सचराचरम्॥१०५॥

एकमेव सदा ह्यासीत्सर्व मेकमिवाम्बरम्। पुनर्भूः सह लक्ष्म्या च विष्णोर्जठरमाविशत्॥१०६॥

तानि गृह्य महातेजाः प्रविश्य सलिलार्णवे। सुप्त्वा वारिकृतात्मा च बहुवर्ष शतानि च॥१०७॥

विष्णौ सुप्ते ततो ब्रह्मा विवेश जठरं ततः। बहुस्रोतं च तं ज्ञात्वा महायोगी समाविशत्॥१०८॥

नाभ्यां विष्णोः समुत्पन्नं पद्मं हेमविभूषितम्। स तु निर्गम्य वै ब्रह्मा योगी भूत्वा महाप्रभुः॥१०९॥

सिसृक्षुः पृथिवीं वायुं पर्वतांश्च महीरुहान्। तदन्तरा प्रजाः सर्वा मनुष्यांश्च सरीसृपान्॥११०॥

जरायुजाण्डजान् सर्वान् ससर्ज स महातपाः। तस्य गात्र समुत्पन्नः कैटभो मधुना सह॥१११॥

दानवौ द्वौ महावीरौ घोरौ लब्धवरौ तदा। दृष्ट्वा प्रजापतिं तत्र क्रोधाविष्टौ बभूवुतुः॥११२॥

वेगेन महता भोक्तुं स्वयम्भुवमधावताम्। दृष्ट्वा सत्त्वानि सर्वाणि निःसरन्ति पृथक् पृथक्॥११३॥

ब्रह्मणा योद्धुकामौ तौ विष्णुना तु तदा हतौ। ब्रह्मणा संस्तुतो विष्णुर्हत्वा तौ मधुकैटभौ॥११४॥

पृथिवीं वर्धयामास स्थित्यर्थं मेदसा तयोः। मेदोगन्धा तु धरणी मेदिनीत्यभिधीयते॥११५॥

अध्याय ३९-पद्मनाभ्युद्भवं चैकं समुपादितवांस्ततः। सहस्रवर्णं विरजं भास्कराभं हिरण्मयम्॥१५३॥

हुताशन-ज्वलित शिखोज्ज्वलप्रभं, समुत्थितं शरदमलार्क तेजसम्।

विराजते कमलमुदार वर्चसं, महात्मनस्तनुरुह चारु शैवलम्॥१५४॥

अध्याय ४०-पुलस्त्य उवाच

अथ योगवतां श्रेष्ठमसृजद् भूरिवर्चसम्। स्रष्टारं सर्वलोकानां ब्रह्माणं सर्वतोमुखम्॥१॥

तस्मिन् हिरण्मये पद्मे बहु योजन विस्तृते। सर्व तेजो गुणमये पार्थिवैर्लक्षणैर्वृते॥२॥

तच्च पद्म पुरा भूतं पृथिवीरूपमुत्तमम्। नारायण समुद्भूतं प्रवदन्ति महर्षयः॥३॥

यत् पद्मं सार सा देवी पृथिवी परिकथ्यते। ये पद्मकेसरा मुख्यास्तान्दिव्यान् पर्वतान् विदुः॥४॥

हिमवन्तं च नीलं च मेरुं निषधमेव च। कैलासं शृङ्गवन्तं च तथाद्रिं गन्धमादनम्॥५॥

पुण्यं त्रिशिखरं चैव कान्तं मन्दरमेव च। उदारं पिञ्जरं चैव विन्ध्यमस्तं च पर्वतम्॥६॥


यानि पर्णानि पद्मस्य भूरि पूर्वाणि पार्थिव। ते दुर्गमाः शैल चिता म्लेच्छदेशाः प्रकीर्तिताः॥११॥


चतुर्दिशासु संख्याताश्चत्वारः सलिलाकराः। एवं नारायणस्यार्थे महीपुष्कर सम्भवा॥१४॥

कूर्मपुराण (१/४)-एक काल समुत्पन्नं जल बुद्बुदवच्च तत्। विशेषेभ्योऽण्डमभवत् बृहत् तदुदके शयम्॥३६॥

तस्मिन् कार्यस्य करणं संसिद्धिः परमेष्ठिनः। प्राकृतेऽण्डे विवृत्तः स क्षेत्रज्ञो ब्रह्म-संज्ञितः॥३७॥

स वै शरीरी प्रथमः स वै पुरुष उच्यते। आदि कर्त्ता स भूतानां ब्रह्माग्रे समवर्तत॥३८॥

यमाहुः पुरुषं हंसं प्रधानात् परतः स्थितम्। हिरण्यगर्भं कपिलं छन्दो-मूर्तिं सनातनम्॥३९॥

मेरुरुल्बमभूत् तस्य जरायुश्चापि पर्वताः। गर्भोदकं समुद्राश्च तस्यास परमात्मनः॥४०॥

ब्रह्माण्ड पुराण (१/१/३) आदि कर्त्ता स भूतानां ब्रह्माग्रे समवर्त्तिनाम्॥२५॥

हिरण्यगर्भः सोऽण्डेऽस्मिन् प्रादुर्भूतश्चतुर्मुखः। सर्गे च प्रतिसर्गे च क्षेत्रज्ञो ब्रह्म संमितः॥२६॥

करणैः सह पृच्छन्ते प्रत्याहारैस्त्यजन्ति च। भजन्ते च पुनर्देहांस्ते समाहार सन्धिसु॥२७॥

हिरण्मयस्तु यो मेरुस्तस्योद्धर्तुर्महात्मनः। गर्तोदकं सम्बुदास्तु हरेयुश्चापि पञ्चताः॥२८॥

यस्मिन् अण्ड इमे लोकाः सप्त वै सम्प्रतिष्ठिताः। पृथिवी सप्तभिर्द्वीपः समुद्रैः सह सप्तभिः॥२९॥

विष्णु पुराण (२/२)-

भद्राश्वं पूर्वतो मेरोः केतुमालं च पश्चिमे। वर्षे द्वे तु मुनिश्रेष्ठ तयोर्मध्यमिलावृतः।२४।

भारताः केतुमालाश्च भद्राश्वाः कुरवस्तथा। पत्राणि लोकपद्मस्य मर्यादाशैलबाह्यतः।४०।

मत्स्य पुराण ११३-चातुर्वर्ण्यस्तु सौवर्णो मेरुश्चोल्बमयः स्मृतः।१२।

नाभीबन्धनसम्भूतो ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः। पूर्वतः श्वेतवर्णस्तु ब्राह्मण्यं तस्य तेन वै।१४।

पीतश्च दक्षिणेनासौ तेन वैश्यत्वमिष्यते।भृङ्गिपत्रनिभश्चैव पश्चिमेन समन्वितः।

पार्श्वमुत्तरतस्तस्य रक्तवर्णं स्वभावतः। तेनास्य क्षत्रभावः स्यादिति वर्णाः प्रकीर्तिताः।१६।

मध्ये त्विलावृतं नाम महामेरोः समन्ततः।१९।

मध्ये तस्य महामेरुर्विधूम इव पावकः। वेद्यर्थं दक्षिणं मेरोरुत्तरार्धं तथोत्तरम्।२०।

ब्रह्माण्डपुराण (१/२/१५)-चतुर्वर्णश्च सौवर्णो मेरुश्चारुतमः स्मृतः। द्वात्रिंशच्च सहस्राणि विस्तीर्णः स च मूर्द्धनि॥१६॥

नाभि बन्धन सम्भूतो ब्रह्मणोऽव्यक्त जन्मनः। पूर्वतः श्वेत वर्णश्च ब्राह्मणस्तस्य तेन तत्॥१८॥

पार्श्वमुत्तरतस्तस्य रक्त वर्णः स्वभावतः। तेनास्य क्षत्र भावस्तु मेरोर्नानार्थ कारणात्॥१९॥

पीतश्च दक्षिणे नासौतेन वैश्यत्वमिष्यते। भृङ्ग पत्र निभश्चापि पश्चिमेन समाचितः॥२०॥

तेनास्य शूद्रभावः स्यादिति वर्णाः प्रकीर्त्तिताः। वृत्तः स्वभावतः प्रोक्तो वर्णतः परिमाणतः॥२१॥

भागवत पुराण (५/२४/७)- उपवर्णितं भूमेर्यथा संनिवेशावस्थानं अमवनेरत्यधस्तात् सप्त भूविवरा एकैकशो योजनायुतान्तरेणायामं विस्तारेणोपक्लृप्ता अतलं वितलं सुतलं तलातलं महातलं रसातलं पातालमिति॥७॥

(५) विभिन्न मण्डलों के कमल-सम्पूर्ण विश्व में कहां पर नाभि है, यह कहना कठिन है। उस समय आकाश भी नहीं था। पहले आकाश बना। उस समय देव भी नहीं थे अतः कोई नहीं कह सकता कि सृष्टि का केन्द्र कहां पर था (नासदीय सूक्त, ऋग्वेद, १०/१२९/१-७)। आकाश का हर विन्दु केन्द्र कहा जा सकता है। उससे बने ब्रह्माण्डों के मूल रूप (अर्यमा) ही पद्म था, जिसके सहस्र या अनन्त दल थे। उनके बीच प्रकाश या आकर्षण का सम्बन्ध कमल नाल है।

परमेष्ठी मण्डल-सबसे बड़ी रचना होने के कारण परमेष्ठी (परम ईंट) है। पूर्ण विश्व रूपी ब्रह्म का अण्ड होने से ब्रह्माण्ड है। इसका केन्द्र कृष्ण है अर्थात् सभी को आकर्षित करता है। प्रकाश को भी आकर्षित करने के कारण इसे कृष्ण विवर (Black hole) कहते हैं। इसके आकर्षण से ही यह लोक (रजसा = लोक या गतिशील) वर्तमान है। यहां से गति का आरम्भ हुआ अतः यह वायु तत्त्व है।

आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।

हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥

(ऋक्, १/३५/२, वाज. सं. ३३/४३, ३४/३१, तैत्तिरीय सं. ३/४/११/२, मैत्रायणी सं. ४/१२/६, १९६/१६,)

कृष्णेन = कृष्ण के द्वारा। आकर्षण अर्थ तो स्पष्ट है। काला रंग भी अर्थ होता है, इस अर्थ में कृष्ण विवर है।

आ (कृष्णेन) = कृष्ण के सभी तरफ।

रजसा वर्तमानो-लोक वर्तमान या स्थित है। इमे वै लोका रजांसि (वाज. सं. ११/६, शतपथ ब्राह्मण, ६/३/१/१८)।

मूल केन्द्र की दिशा को ही मूल नक्षत्र कहा जाता है। इसका पूरा नाम मूल बर्हणी है, अर्थात् इसी मूल से बढ़ा है। बर्हणी का अर्थ बढ़नी (भोजपुरी) या झाड़ू भी करते हैं। अतः कहते हैं कि मूल नक्षत्र में जन्म लेने वाला झाड़ू की तरह अपने परिवार का सफाया कर देता है। मूलमेषामवृक्षामेति। तन्मूलबर्हणी (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/५/२/८) निर्ऋत्यै मूलबर्हणी (तैत्त्रीय ब्राह्मण, १/५/१/४, ३/१/२/३)। ऋत का अर्थ सत् का विस्तार है, निर्ऋत का अर्थ शून्य है अर्थात् कुछ नहीं दीखता है।

निवेशयन् अमृतं मर्त्यं च-इस लोक में अमृत तथ मर्त्य दोनों है। सौर मण्डल स्थित तीनों लोक मर्त्य या पुराण भाषा में कृतक है। उससे बड़े ब्रह्माण्ड तथ बड़े तप और सत्य लोक अमृत या मकृतक हैं (अपेक्षाकृत अधिक स्थायी) हैं। ब्रह्माण्ड के भीतर मर्त्य भाग केवल जनः लोक (ब्रह्माण्ड विस्तार) है। त्रैलोक्यमेतत् कृतकं मैत्रेय परिपठ्यते। जनस्तपस्तथ सत्यमिति चाकृतकं त्रयम्॥ (विष्णु पुराण, २/७/१९)

हिरण्ययेन = तेजयुक्त

सविता = सूर्य

रथेन = सौर मण्डल के शरीर या विस्तार से। इसकी परिभाषा तेज के अनुसार ही है। जहां तक सूर्य का तेज अधिक (ब्रह्माण्ड तुलना में) है, वहां तक सूर्य की वाक् (क्षेत्र) है और उसकी माप ३० धाम है।

त्रिं॒शद्धाम॒ वि रा॑जति॒ वाक् प॑त॒ङ्गाय॑ धीयते । प्रति॒ वस्तो॒रह॒ द्युभिः॑ ॥ (ऋक् १०/१८९/३, साम ६३२, १३७८, अथर्व ६/३१/३, २०/४८/६, वा. यजु ३/८, तैत्तिरीय सं १/५/३/१)

पृथ्वी से आरम्भ कर प्रत्येक धाम २-२ गुणा है-…द्वात्रिंशतं वै देवरथाह्न्यन्ययं लोकस्तं समन्तं पृथिवी द्विस्तावत्पर्येति तां समन्तं पृथिवीं द्विस्तावत्समुद्रः पर्येति….. (बृहदारण्यक उपनिषद् ३/३/२)

मूल से सूर्य तक ३०,००० प्रकाश वर्ष तक आकर्षण सम्बन्ध को ३०,००० योजन या शिवलिंग कहा गया है-भागवत पुराण (५/२५)- अस्य मूलदेशे त्रिंशद् योजन सहस्रान्तर आस्ते या वै कला भगवतस्तामसी समाख्यातानन्त इति सात्वतीया द्रष्टृ दृश्ययोःसङ्कर्षणमहमित्यभिमान लक्षणं यं सङ्कर्षणमित्याचक्ष्यते॥१॥यस्येदं क्षितिमण्डलं भगवतोऽनन्तमूर्तेः सहस्रशिरस एकस्मिन्नेव शीर्षाणि ध्रियमाणं सिद्धार्थ इव लक्ष्यते॥२॥

सौरमण्डल में सूर्य केन्द्र ही नाभि है। पृथ्वी कमल है, जिसका सूर्य से कई प्रकार का सम्बन्ध है। सूर्य के आकर्षण में पृथ्वी अपनी कक्षा में बन्धी है। इस रूप में सूर्य विष्णु है, जिसके ३ पद सूर्य के ३ क्षेत्र हैं-१०० योजन (सूर्य व्यास) तक ताल, १००० योजन तक तेज (सौर वायु) तथ उसके बाद प्रकाश। परम पद ब्रह्माण्ड है, जिसकी सीमा तक सूर्य विन्दु रूप में दीख सकता है। सूर्य से प्रकाश तथा विद्युत् कण (सौर वायु) आने से पृथ्वी पर जीवन है। हर मनुष्य का सूर्य से रश्मि अनुसार सम्बन्ध है जिससे बुद्धि नियन्त्रित होती है। यह प्रकाश गति से१ मुहूर्त में ३ बार जा कर लौट आता है। ये ४ प्रकार के सम्बन्ध कमल नाल है। अतः इससे उत्पन्न ब्रह्मा भी चतुर्मुखी हैं।

ब्रह्मसूत्र (४/२/१७-२०)-१-तदोकोऽग्रज्वलनं तत्प्रकाशितद्वारो विद्यासामर्थ्यात्तच्छेषगत्यनुस्मृतियोगाच्च हार्दानुगृहीतः शताधिकया।

२. रश्म्यनुसारी। ३. निशि नेति चेन सम्बन्धस्य यावद्देहभावित्वाद्दर्शयति च। ४. अतश्चायनेऽपि दक्षिणे।

रूपं रूपं मघवाबोभवीति मायाः कृण्वानस्तन्वं परि स्वाम्।

त्रिर्यद्दिवः परिमुहूर्त्तमागात् स्वैर्मन्त्रैरनृतुपा ऋतावा॥(ऋग्वेद ३/५३/८)

त्रिर्ह वा एष (मघवा=इन्द्रः, आदित्यः = सौर प्राणः) एतस्या मुहूर्त्तस्येमां पृथिवीं समन्तः पर्य्येति। (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद् १/४४/९)

पृथ्वी को आकाश में पद्म कहा गया है। इसका एक अर्थ है कि इस पर हम पद रखते हैं या चलते है। सहस्र दल कमल मानने पर इस का १ दल या व्यास का १००० भाग १ योजन है। ४ दल मानने पर उत्तरी गोलार्ध के ४ भाग ४ दल हैं जिनके पौराणिक श्लोक ऊपर उद्धृत हैं-भारत, केतुमाल, भद्राश्व, कुरु। इसी प्रकार ४ दल दक्षिण में हैं। उत्तर का भारत दल विषुव रेखा से उत्तर ध्रुव तक तथा उज्जैन से पूर्व और पश्चिम ४५-४५ अंश तक है। इसमें विषुव से उत्तर द्रुव तक आकाश के ७ लोकों की तरह ७ लोक हैं। बाकी ७ दल (३ उत्तर, ४ दक्षिण) ७ तल हैं।

मनुष्य रूप में ७ ब्रह्मा का वर्णन महाभारत शान्ति पर्व अध्याय ३४८-३४९ में है। प्रथम ब्रह्मा का निवास पुष्कर में था जो उज्जैन से १२ अंश या १ मुहूर्त पश्चिम था (विष्णुपुराण, २/८/२९)। अभी इसे बुखारा कहते है। इसके विपरीत दिशा में पुष्कर द्वीप (दक्षिण अमेरिका) है।

त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत। मूर्ध्नो विश्वस्य वाधतः॥ (ऋक्, ६/१६/१३)

कुंडली में कुछ लक्षण ऐसे होते हैं जिनका सीधा सम्बन्ध किसी ख़ास योग या ग्रह से होता है, जैसे कि।

  • अगर आपको अचानक धन हानि होने लगे ! आपके पैसे खो जाएँ, बरकत न रहे, दमा या सांस की बीमारी हो जाए, त्वचा सम्बन्धी रोग उत्पन्न हों, कर्ज उतर न पाए, किसी कागजात पर गलत दस्तखत से नुक्सान हो तो आप पर बुध ग्रह का कुप्रभाव चल रहा है ! इसके लिए बुधवार को किन्नरों को हरे वस्त्र दान करें और गाय को हरा चारा इसी दिन खिलाएं !
  • अगर बुजुर्ग लोग आपसे बार बार नाराज होते हैं, जोड़ों मैं तकलीफ है, शरीर मैं जकरण या आपका मोटापा बढ़ रहा है, नींद कम है, पढने लिखने में परेशानी है किसी ब्रह्मण से वाद विवाद हो जाए अथवा पीलिया हो जाए तो समझ लेना चाहिए की गुरु का अशुभ प्रभाव आप पर पढ़ रहा है ! अगर सोना गम हो जाए पीलिया हो जाए या पुत्र पर संकट आ जाए तो निस्संदेह आप पर गुरु का अशुभ प्रभाव चल रहा है ! ऐसी स्थिति में केसर का तिलक वीरवार से शुरू करके 27 दिन तक रोज लगायें, सामान्य अशुभता दूर हो जाएगी किन्तु गंभीर परिस्थितियों में जैसे अगर नौकरी चली जाए या पुत्र पर संकट, सोना चोरी या गम हो जाए तो बृहस्पति के बीज मन्त्रों का जाप करें या करवाएं ! तुरंत मदद मिलेगी ! मंत्र का प्रभाव तुरंत शुरू हो जाता है !
  • अगर आपको वहम हो जाए, जरा जरा सी बात पर मन घबरा जाए, आत्मविश्वास मैं कमी आ जाए, सभी मित्रों पर से विशवास उठ जाए, ब्लड प्रेशर की बीमारी हो जाए, जुकाम ठीक न हो या बार बार होने लगे, आपकी माता की तबियत खराब रहने लगे ! अकारण ही भय सताने लगे और किसी एक जगह पर आप टिक कर ना बैठ सकें, छोटी छोटी बात पर आपको क्रोध आने लगे तो समझ लें की आपका चन्द्रमा आपके विपरीत चल रहा है ! इसके लिए हर सोमवार का व्रत रखें और दूध या खीर का दान करें !
  • अगर आपकी स्त्रियों से नहीं बनती, किसी स्त्री से धोखा या मान हानि हो जाए, किसी शुभ काम को करते वक्त कुछ न कुछ अशुभ होने लगे, आपका रूप पहले जैसा सुन्दर न रहे ! लोग आपसे कतराने लगें ! वाहन को नुक्सान हो जाए ! नीच स्त्रियों से दोस्ती, ससुराल पक्ष से अलगाव तथा शूगर हो जाए तो आपका शुक्र बुरा प्रभाव दे रहा है ! उपाय के लिए महालक्ष्मी की पूजा करें, चीनी, चावल तथा चांदी शुक्रवार को किसी ब्राह्मण की पत्नी को भेंट करें, बड़ी बहन को वस्त्र दें, २१ ग्राम का चांदी का बिना जोड़ का कड़ा शुक्रवार को धारण करें ! अगर किसी के विवाह में देरी या बाधाएं आ रही हों तो जिस दिन रिश्ता देखने जाना हो उस दिन जलेबी को किसी नदी मैं प्रवाहित करके जाएँ ! इन में से किसी भी उपाय को करने से आपका शुक्र शुभ प्रभाव देने लगेगा ! किसी सुहागन को सुहाग का सामन देने से भी शुक्र का शुभ प्रभाव होने लगता है ! ध्यान रहे, शुक्रवार को राहुकाल में कोई भी उपाय न करें !
  • अगर आपके मकान मैं दरार आ जाए ! घर में प्रकाश की मात्रा कम हो जाए ! जोड़ों में दर्द रहने लगे विशेषकर घुटनों और पैरों में या किसी एक टांग पर चोट, रंग काला हो जाए, जेल जाने का डर सताने लगे, सपनों मैं मुर्दे या शमशान घात दिखाई दे, अंकों मैं मोतिया उतर आये, गठिया की शिकायत हो जाए, परिवार का कोई वरिष्ठ सदस्य गंभीर रूप से बीमार या मृत्यु को प्राप्त हो जाए तो आप पर शनि का कुप्रभाव है जिसके निवारण के लिए शनिवार को सरसों का तेल लोहे के कटोरे में डाल कर अपना मुह उसमे देख कर किसी काले वर्ण वाले ब्राह्मण को दान में दें ! ऐसा हर शनिवार करें ! बीमारी की अवस्था में किसी गरीब, बीमार व्यक्ति को दवाई दिलवाएं !
  • अगर आपके बाल झड जाएँ और आपकी हड्डियों के जोड़ों मैं कड़क कड़क की आवाज आने लगे, पिता से झगडा हो जाए, मुकदमा या कोर्ट केस मैं फंस जाएँ, आपकी आत्मा दुखी हो जाए, आलसी प्रवृत्ति हो जाये तो आपको समझ लेना चाहिए की सूर्य का अशुभ प्रभाव आप पर हो रहा है ! ऐसी दशा मैं सबसे अच्छा उपाय है की हर सुबह लाल सूर्य को मीठा डालकर अर्ध्य दें ! इनकम टैक्स का भुगतान कर दें व् पिता से सम्बन्ध सुधरने की कोशिश करें !
  • आपको खून की कमी हो जाए, बार बार दुर्घटना होने लगे या चोट लगने लगे, सर मैं चोट, आग से जलना, नौकरी मैं शत्रु पैदा हो जाएँ या ये पता न चल सके की कौन आपका नुक्सान करने की चेष्टा कर रहा है, व्यर्थ का लड़ाई झगडा हो, पुलिस केस, जीवन साथी के प्रति अलगाव नफरत या शक पैदा हो जाए, आपरेशन की नौबत आ जाए, कर्ज ऐसा लगने लगे की आसानी से ख़त्म नहीं होगा तो आप पर मंगल ग्रह क्रुद्ध हैं ! हनुमान जी की यथासंभव उपासना शुरू कर दें ! हनुमान जी के छार्नों मैं से तिलक लेकर माथे पर प्रतिदिन लगायें, अति गंभीर परिस्थितियों मैं रक्त दान करें तो जो रक्त आपका आपरेशन, चोट या दुर्घटना आदि के कारण निकलना है, नहीं होगा।
    [: महामृत्युंजय मंत्र पौराणिक महात्म्य एवं विधि
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    महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना कई तरीके से होती है। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। मंत्र में दिए अक्षरों की संख्या से इनमें विविधता आती है।

मंत्र निम्न प्रकार से है
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एकाक्षरी👉 मंत्र- ‘हौं’ ।
त्र्यक्षरी👉 मंत्र- ‘ॐ जूं सः’।
चतुराक्षरी👉 मंत्र- ‘ॐ वं जूं सः’।
नवाक्षरी👉 मंत्र- ‘ॐ जूं सः पालय पालय’।
दशाक्षरी👉 मंत्र- ‘ॐ जूं सः मां पालय पालय’।

(स्वयं के लिए इस मंत्र का जप इसी तरह होगा जबकि किसी अन्य व्यक्ति के लिए यह जप किया जा रहा हो तो ‘मां’ के स्थान पर उस व्यक्ति का नाम लेना होगा)

वेदोक्त मंत्र👉
महामृत्युंजय का वेदोक्त मंत्र निम्नलिखित है-

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌ ॥

इस मंत्र में 32 शब्दों का प्रयोग हुआ है और इसी मंत्र में ॐ’ लगा देने से 33 शब्द हो जाते हैं। इसे ‘त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र कहते हैं। श्री वशिष्ठजी ने इन 33 शब्दों के 33 देवता अर्थात्‌ शक्तियाँ निश्चित की हैं जो कि निम्नलिखित हैं।

इस मंत्र में 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 वषट को माना है।

मंत्र विचार
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इस मंत्र में आए प्रत्येक शब्द को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि शब्द ही मंत्र है और मंत्र ही शक्ति है। इस मंत्र में आया प्रत्येक शब्द अपने आप में एक संपूर्ण अर्थ लिए हुए होता है और देवादि का बोध कराता है।

शब्द बोधक
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‘त्र’ ध्रुव वसु ‘यम’ अध्वर वसु
‘ब’ सोम वसु ‘कम्‌’ वरुण
‘य’ वायु ‘ज’ अग्नि
‘म’ शक्ति ‘हे’ प्रभास
‘सु’ वीरभद्र ‘ग’ शम्भु
‘न्धिम’ गिरीश ‘पु’ अजैक
‘ष्टि’ अहिर्बुध्न्य ‘व’ पिनाक
‘र्ध’ भवानी पति ‘नम्‌’ कापाली
‘उ’ दिकपति ‘र्वा’ स्थाणु
‘रु’ भर्ग ‘क’ धाता
‘मि’ अर्यमा ‘व’ मित्रादित्य
‘ब’ वरुणादित्य ‘न्ध’ अंशु
‘नात’ भगादित्य ‘मृ’ विवस्वान
‘त्यो’ इंद्रादित्य ‘मु’ पूषादिव्य
‘क्षी’ पर्जन्यादिव्य ‘य’ त्वष्टा
‘मा’ विष्णुऽदिव्य ‘मृ’ प्रजापति
‘तात’ वषट
इसमें जो अनेक बोधक बताए गए हैं। ये बोधक देवताओं के नाम हैं।

शब्द वही हैं और उनकी शक्ति निम्न प्रकार से है-

शब्द शक्ति 👉 ‘त्र’ त्र्यम्बक, त्रि-शक्ति तथा त्रिनेत्र ‘य’ यम तथा यज्ञ
‘म’ मंगल ‘ब’ बालार्क तेज
‘कं’ काली का कल्याणकारी बीज ‘य’ यम तथा यज्ञ
‘जा’ जालंधरेश ‘म’ महाशक्ति
‘हे’ हाकिनो ‘सु’ सुगन्धि तथा सुर
‘गं’ गणपति का बीज ‘ध’ धूमावती का बीज
‘म’ महेश ‘पु’ पुण्डरीकाक्ष
‘ष्टि’ देह में स्थित षटकोण ‘व’ वाकिनी
‘र्ध’ धर्म ‘नं’ नंदी
‘उ’ उमा ‘र्वा’ शिव की बाईं शक्ति
‘रु’ रूप तथा आँसू ‘क’ कल्याणी
‘व’ वरुण ‘बं’ बंदी देवी
‘ध’ धंदा देवी ‘मृ’ मृत्युंजय
‘त्यो’ नित्येश ‘क्षी’ क्षेमंकरी
‘य’ यम तथा यज्ञ ‘मा’ माँग तथा मन्त्रेश
‘मृ’ मृत्युंजय ‘तात’ चरणों में स्पर्श

यह पूर्ण विवरण ‘देवो भूत्वा देवं यजेत’ के अनुसार पूर्णतः सत्य प्रमाणित हुआ है।

महामृत्युंजय के अलग-अलग मंत्र हैं। आप अपनी सुविधा के अनुसार जो भी मंत्र चाहें चुन लें और नित्य पाठ में या आवश्यकता के समय प्रयोग में लाएँ।

मंत्र निम्नलिखित हैं
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तांत्रिक बीजोक्त मंत्र
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ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ ॥

संजीवनी मंत्र अर्थात्‌ संजीवनी विद्या
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ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूर्भवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनांन्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ।

महामृत्युंजय का प्रभावशाली मंत्र
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ॐ ह्रौं जूं सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥

महामृत्युंजय मंत्र जाप में सावधानियाँ
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महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है। लेकिन इस मंत्र के जप में कुछ सावधानियाँ रखना चाहिए जिससे कि इसका संपूर्ण लाभ प्राप्त हो सके और किसी भी प्रकार के अनिष्ट की संभावना न रहे।
अतः जप से पूर्व निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए।

  1. जो भी मंत्र जपना हो उसका जप उच्चारण की शुद्धता से करें।
  2. एक निश्चित संख्या में जप करें। पूर्व दिवस में जपे गए मंत्रों से, आगामी दिनों में कम मंत्रों का जप न करें। यदि चाहें तो अधिक जप सकते हैं।
  3. मंत्र का उच्चारण होठों से बाहर नहीं आना चाहिए। यदि अभ्यास न हो तो धीमे स्वर में जप करें।
  4. जप काल में धूप-दीप जलते रहना चाहिए।
  5. रुद्राक्ष की माला पर ही जप करें।
  6. माला को गोमुखी में रखें। जब तक जप की संख्या पूर्ण न हो, माला को गोमुखी से बाहर न निकालें।
  7. जप काल में शिवजी की प्रतिमा, तस्वीर, शिवलिंग या महामृत्युंजय यंत्र पास में रखना अनिवार्य है।
  8. महामृत्युंजय के सभी जप कुशा के आसन के ऊपर बैठकर करें।
  9. जप काल में दुग्ध मिले जल से शिवजी का अभिषेक करते रहें या शिवलिंग पर चढ़ाते रहें।
  10. महामृत्युंजय मंत्र के सभी प्रयोग पूर्व दिशा की तरफ मुख करके ही करें।
  11. जिस स्थान पर जपादि का शुभारंभ हो, वहीं पर आगामी दिनों में भी जप करना चाहिए।
  12. जपकाल में ध्यान पूरी तरह मंत्र में ही रहना चाहिए, मन को इधर-उधरन भटकाएँ।
  13. जपकाल में आलस्य व उबासी को न आने दें।
  14. मिथ्या बातें न करें।
  15. जपकाल में स्त्री सेवन न करें।
  16. जपकाल में मांसाहार त्याग दें।

कब करें महामृत्युंजय मंत्र जाप?
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महामृत्युंजय मंत्र जपने से अकाल मृत्यु तो टलती ही है, आरोग्यता की भी प्राप्ति होती है। स्नान करते समय शरीर पर लोटे से पानी डालते वक्त इस मंत्र का जप करने से स्वास्थ्य-लाभ होता है।
दूध में निहारते हुए इस मंत्र का जप किया जाए और फिर वह दूध पी लिया जाए तो यौवन की सुरक्षा में भी सहायता मिलती है। साथ ही इस मंत्र का जप करने से बहुत सी बाधाएँ दूर होती हैं, अतः इस मंत्र का यथासंभव जप करना चाहिए।

निम्नलिखित स्थितियों में इस मंत्र का जाप कराया जाता है।
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(1) ज्योतिष के अनुसार यदि जन्म, मास, गोचर और दशा, अंतर्दशा, स्थूलदशा आदि में ग्रहपीड़ा होने का योग है।
(2) किसी महारोग से कोई पीड़ित होने पर।
(3) जमीन-जायदाद के बँटबारे की संभावना हो।
(4) हैजा-प्लेग आदि महामारी से लोग मर रहे हों।
(5) राज्य या संपदा के जाने का अंदेशा हो।
(6) धन-हानि हो रही हो।
(7) मेलापक में नाड़ीदोष, षडाष्टक आदि आता हो।
(8) राजभय हो।
(9) मन धार्मिक कार्यों से विमुख हो गया हो।
(10) राष्ट्र का विभाजन हो गया हो।
(11) मनुष्यों में परस्पर घोर क्लेश हो रहा हो।
(12) त्रिदोषवश रोग हो रहे हों।

महामृत्युंजय मंत्र जप विधि
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महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायी है। महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। काम्य उपासना के रूप में भी इस मंत्र का जप किया जाता है। जप के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता है। यहाँ हमने आपकी सुविधा के लिए संस्कृत में जप विधि, विभिन्न यंत्र-मंत्र, जप में सावधानियाँ, स्तोत्र आदि उपलब्ध कराए हैं। इस प्रकार आप यहाँ इस अद्‍भुत जप के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

महामृत्युंजय जपविधि – (मूल संस्कृत में)

कृतनित्यक्रियो जपकर्ता स्वासने पांगमुख उदहमुखो वा उपविश्य धृतरुद्राक्षभस्मत्रिपुण्ड्रः । आचम्य । प्राणानायाम्य। देशकालौ संकीर्त्य मम वा यज्ञमानस्य अमुक कामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजय मंत्रस्य अमुक संख्यापरिमितं जपमहंकरिष्ये वा कारयिष्ये।
॥ इति प्रात्यहिकसंकल्पः॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॐ गुरवे नमः।
ॐ गणपतये नमः। ॐ इष्टदेवतायै नमः।
इति नत्वा यथोक्तविधिना भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कुर्यात्‌।

भूतशुद्धिः विनियोगः
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ॐ तत्सदद्येत्यादि मम अमुक प्रयोगसिद्धयर्थ भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च करिष्ये। ॐ आधारशक्ति कमलासनायनमः। इत्यासनं सम्पूज्य। पृथ्वीति मंत्रस्य। मेरुपृष्ठ ऋषि;, सुतलं छंदः कूर्मो देवता, आसने विनियोगः।

आसनः
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ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च धारय माँ देवि पवित्रं कुरु चासनम्‌।
गन्धपुष्पादिना पृथ्वीं सम्पूज्य कमलासने भूतशुद्धिं कुर्यात्‌।
अन्यत्र कामनाभेदेन। अन्यासनेऽपि कुर्यात्‌।
पादादिजानुपर्यंतं पृथ्वीस्थानं तच्चतुरस्त्रं पीतवर्ण ब्रह्मदैवतं वमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। जान्वादिना भिपर्यन्तमसत्स्थानं तच्चार्द्धचंद्राकारं शुक्लवर्ण पद्मलांछितं विष्णुदैवतं लमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌।
नाभ्यादिकंठपर्यन्तमग्निस्थानं त्रिकोणाकारं रक्तवर्ण स्वस्तिकलान्छितं रुद्रदैवतं रमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। कण्ठादि भूपर्यन्तं वायुस्थानं षट्कोणाकारं षड्बिंदुलान्छितं कृष्णवर्णमीश्वर दैवतं यमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। भूमध्यादिब्रह्मरन्ध्रपर्यन्त माकाशस्थानं वृत्ताकारं ध्वजलांछितं सदाशिवदैवतं हमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्‌। एवं स्वशरीरे पंचमहाभूतानि ध्यात्वा प्रविलापनं कुर्यात्‌। यद्यथा-पृथ्वीमप्सु। अपोऽग्नौअग्निवायौ वायुमाकाशे। आकाशं तन्मात्राऽहंकारमहदात्मिकायाँ मातृकासंज्ञक शब्द ब्रह्मस्वरूपायो हृल्लेखार्द्धभूतायाँ प्रकृत्ति मायायाँ प्रविलापयामि, तथा त्रिवियाँ मायाँ च नित्यशुद्ध बुद्धमुक्तस्वभावे स्वात्मप्रकाश रूपसत्यज्ञानाँनन्तानन्दलक्षणे परकारणे परमार्थभूते परब्रह्मणि प्रविलापयामि।तच्च नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सच्चिदानन्दस्वरूपं परिपूर्ण ब्रह्मैवाहमस्मीति भावयेत्‌। एवं ध्यात्वा यथोक्तस्वरूपात्‌ ॐ कारात्मककात्‌ परब्रह्मणः सकाशात्‌ हृल्लेखार्द्धभूता सर्वमंत्रमयी मातृकासंज्ञिका शब्द ब्रह्मात्मिका महद्हंकारादिप-न्चतन्मात्रादिसमस्त प्रपंचकारणभूता प्रकृतिरूपा माया रज्जुसर्पवत्‌ विवर्त्तरूपेण प्रादुर्भूता इति ध्यात्वा। तस्या मायायाः सकाशात्‌ आकाशमुत्पन्नम्‌, आकाशाद्वासु;, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अदभ्यः पृथ्वी समजायत इति ध्यात्वा। तेभ्यः पंचमहाभूतेभ्यः सकाशात्‌ स्वशरीरं तेजः पुंजात्मकं पुरुषार्थसाधनदेवयोग्यमुत्पन्नमिति ध्यात्वा। तस्मिन्‌ देहे सर्वात्मकं सर्वज्ञं सर्वशक्तिसंयुक्त समस्तदेवतामयं सच्चिदानंदस्वरूपं ब्रह्मात्मरूपेणानुप्रविष्टमिति भावयेत्‌ ॥
॥ इति भूतशुद्धिः ॥

अथ प्राण-प्रतिष्ठा
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विनियोगःअस्य श्रीप्राणप्रतिष्ठामंत्रस्य ब्रह्माविष्णुरुद्रा ऋषयः ऋग्यजुः सामानि छन्दांसि, परा प्राणशक्तिर्देवता, ॐ बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, क्रौं कीलकं प्राण-प्रतिष्ठापने विनियोगः।

डं. कं खं गं घं नमो वाय्वग्निजलभूम्यात्मने हृदयाय नमः।
ञं चं छं जं झं शब्द स्पर्श रूपरसगन्धात्मने शिरसे स्वाहा।
णं टं ठं डं ढं श्रीत्रत्वड़ नयनजिह्वाघ्राणात्मने शिखायै वषट्।
नं तं थं धं दं वाक्पाणिपादपायूपस्थात्मने कवचाय हुम्‌।
मं पं फं भं बं वक्तव्यादानगमनविसर्गानन्दात्मने नेत्रत्रयाय वौषट्।
शं यं रं लं हं षं क्षं सं बुद्धिमानाऽहंकार-चित्तात्मने अस्राय फट्।
एवं करन्यासं कृत्वा ततो नाभितः पादपर्यन्तम्‌ आँ नमः।
हृदयतो नाभिपर्यन्तं ह्रीं नमः।
मूर्द्धा द्विहृदयपर्यन्तं क्रौं नमः।
ततो हृदयकमले न्यसेत्‌।
यं त्वगात्मने नमः वायुकोणे।
रं रक्तात्मने नमः अग्निकोणे।
लं मांसात्मने नमः पूर्वे ।
वं मेदसात्मने नमः पश्चिमे ।
शं अस्थ्यात्मने नमः नैऋत्ये।
ओंषं शुक्रात्मने नमः उत्तरे।
सं प्राणात्मने नमः दक्षिणे।
हे जीवात्मने नमः मध्ये एवं हदयकमले।
अथ ध्यानम्‌रक्ताम्भास्थिपोतोल्लसदरुणसरोजाङ घ्रिरूढा कराब्जैः
पाशं कोदण्डमिक्षूदभवमथगुणमप्यड़ कुशं पंचबाणान्‌।
विभ्राणसृक्कपालं त्रिनयनलसिता पीनवक्षोरुहाढया
देवी बालार्कवणां भवतुशु भकरो प्राणशक्तिः परा नः ॥

॥ इति प्राण-प्रतिष्ठा ॥

संकल्प
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तत्र संध्योपासनादिनित्यकर्मानन्तरं भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कृत्वा प्रतिज्ञासंकल्प कुर्यात ॐ तत्सदद्येत्यादि सर्वमुच्चार्य मासोत्तमे मासे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रो अमुकशर्मा/वर्मा/गुप्ता मम शरीरे ज्वरादि-रोगनिवृत्तिपूर्वकमायुरारोग्यलाभार्थं वा धनपुत्रयश सौख्यादिकिकामनासिद्धयर्थ श्रीमहामृत्युंजयदेव प्रीमिकामनया यथासंख्यापरिमितं महामृत्युंजयजपमहं करिष्ये।

विनियोग
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अस्य श्री महामृत्युंजयमंत्रस्य वशिष्ठ ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः श्री त्र्यम्बकरुद्रो देवता, श्री बीजम्‌, ह्रीं शक्तिः, मम अनीष्ठसहूयिर्थे जपे विनियोगः।

अथ यष्यादिन्यासः
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ॐ वसिष्ठऋषये नमः शिरसि।
अनुष्ठुछन्दसे नमो मुखे।
श्री त्र्यम्बकरुद्र देवतायै नमो हृदि।
श्री बीजाय नमोगुह्ये।
ह्रीं शक्तये नमोः पादयोः।

॥ इति यष्यादिन्यासः ॥

अथ करन्यासः
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ॐ ह्रीं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्रायं शूलपाणये स्वाहा अंगुष्ठाभ्यं नमः।
ॐ ह्रीं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय तर्जनीभ्याँ नमः।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ओं नमो भगवते रुद्राय चन्द्रशिरसे जटिने स्वाहा मध्यामाभ्याँ वषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरान्तकाय हां ह्रीं अनामिकाभ्याँ हुम्‌।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्योर्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजुः साममन्त्राय कनिष्ठिकाभ्याँ वौषट्।
ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृताम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्निवयाय ज्वल ज्वल माँ रक्ष रक्ष अघारास्त्राय करतलकरपृष्ठाभ्याँ फट् ।

॥ इति करन्यासः ॥

अथांगन्यासः
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ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ॐ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा हृदयाय नमः।
ॐ ह्रौं ओं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः यजामहे ॐ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये माँ जीवय शिरसे स्वाहा।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः सुगन्धिम्पुष्टिवर्द्धनम्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय चंद्रशिरसे जटिने स्वाहा शिखायै वषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बन्धनात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरांतकाय ह्रां ह्रां कवचाय हुम्‌।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मृत्यार्मुक्षीय ॐ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजु साममंत्रयाय नेत्रत्रयाय वौषट्।
ॐ ह्रौं ॐ जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः मामृतात्‌ ॐ नमो भगवते रुद्राय अग्नित्रयाय ज्वल ज्वल माँ रक्ष रक्ष अघोरास्त्राय फट्।
॥ इत्यंगन्यासः ॥

अथाक्षरन्यासः
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त्र्यं नमः दक्षिणचरणाग्रे।
बं नमः,
कं नमः,
यं नमः,
जां नमः दक्षिणचरणसन्धिचतुष्केषु ।
मं नमः वामचरणाग्रे ।
हें नमः,
सुं नमः,
गं नमः,
धिं नम, वामचरणसन्धिचतुष्केषु ।
पुं नमः, गुह्ये।
ष्टिं नमः, आधारे।
वं नमः, जठरे।
र्द्धं नमः, हृदये।
नं नमः, कण्ठे।
उं नमः, दक्षिणकराग्रे।
वां नमः,
रुं नमः,
कं नमः,
मिं नमः, दक्षिणकरसन्धिचतुष्केषु।
वं नमः, बामकराग्रे।
बं नमः,
धं नमः,
नां नमः,
मृं नमः वामकरसन्धिचतुष्केषु।
त्यों नमः, वदने।
मुं नमः, ओष्ठयोः।
क्षीं नमः, घ्राणयोः।
यं नमः, दृशोः।
माँ नमः श्रवणयोः ।
मृं नमः भ्रवोः ।
तां नमः, शिरसि।
॥ इत्यक्षरन्यास ॥

अथ पदन्यासः
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त्र्यम्बकं शरसि।
यजामहे भ्रुवोः।
सुगन्धिं दृशोः ।
पुष्टिवर्धनं मुखे।
उर्वारुकं कण्ठे।
मिव हृदये।
बन्धनात्‌ उदरे।
मृत्योः गुह्ये ।
मुक्षय उर्वों: ।
माँ जान्वोः ।
अमृतात्‌ पादयोः।
॥ इति पदन्यास ॥

मृत्युञ्जयध्यानम्‌
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हस्ताभ्याँ कलशद्वयामृतसैराप्लावयन्तं शिरो,
द्वाभ्याँ तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्याँ वहन्तं परम्‌ ।
अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकांतं शिवं,
स्वच्छाम्भोगतं नवेन्दुमुकुटाभातं त्रिनेत्रभजे ॥
मृत्युंजय महादेव त्राहि माँ शरणागतम्‌,
जन्ममृत्युजरारोगैः पीड़ित कर्मबन्धनैः ॥
तावकस्त्वद्गतप्राणस्त्वच्चित्तोऽहं सदा मृड,
इति विज्ञाप्य देवेशं जपेन्मृत्युंजय मनुम्‌ ॥

अथ बृहन्मन्त्रः
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ॐ ह्रौं जूं सः ॐ भूः भुवः स्वः। त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्‌। उर्व्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्‌। स्वः भुवः भू ॐ। सः जूं ह्रौं ॐ ॥

समर्पण
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एतद यथासंख्यं जपित्वा पुनर्न्यासं कृत्वा जपं भगन्महामृत्युंजयदेवताय समर्पयेत।
गुह्यातिगुह्यगोपता त्व गृहाणास्मत्कृतं जपम्‌।
सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत्प्रसादान्महेश्वर ॥

॥ इति महामृत्युंजय जप विधि ।।
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[((( दान की महिमा ))))
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एक समय की बात है। एक नगर में एक कंजूस राजेश नामक व्यक्ति रहता था।
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उसकी कंजूसी सर्वप्रसिद्ध थी। वह खाने, पहनने तक में भी कंजूस था।
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एक बार उसके घर से एक कटोरी गुम हो गई। इसी कटोरी के दुःख में राजेश ने 3 दिन तक कुछ न खाया। परिवार के सभी सदस्य उसकी कंजूसी से दुखी थे।
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मोहल्ले में उसकी कोई इज्जत न थी, क्योंकि वह किसी भी सामाजिक कार्य में दान नहीं करता था।
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एक बार उस राजेश के पड़ोस में धार्मिक कथा का आयोजन हुआ। वेदमंत्रों व् उपनिषदों पर आधारित कथा हो रही थी।
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राजेश को सद्बुद्धि आई तो वह भी कथा सुनने के लिए सत्संग में पहुँच गया।
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वेद के वैज्ञानिक सिद्धांतों को सुनकर उसको भी रस आने लगा क्योंकि वैदिक सिद्धान्त व्यावहारिक व् वास्तविकता पर आधारित एवं सत्य-असत्य का बोध कराने वाले होते है।
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कंजूस को ओर रस आने लगा। उसकी कोई कदर न करता फिर भी वह प्रतिदिन कथा में आने लगा।
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कथा के समाप्त होते ही वह सबसे पहले शंका पूछता। इस तरह उसकी रूचि बढती गई।
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वैदिक कथा के अंत में लंगर का आयोजन था इसलिए कथावाचक ने इसकी सूचना दी कि कल लंगर होगा।
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इसके लिए जो श्रद्धा से कुछ भी लाना चाहे या दान करना चाहे तो कर सकता है।
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अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार सभी लोग कुछ न कुछ लाए। कंजूस के हृदय में जो श्रद्धा पैदा हुई वह भी एक गठरी बांध सर पर रखकर लाया।
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भीड़ काफी थी। कंजूस को देखकर उसे कोई भी आगे नहीं बढ़ने देता। इस प्रकार सभी दान देकर यथास्थान बैठ गए।
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अब कंजूस की बारी आई तो सभी लोग उसे देख रहे थे। कंजूस को विद्वान की ओर बढ़ता देख सभी को हंसी आ गई क्योंकि सभी को मालूम था कि यह महाकंजूस है।
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उसकी गठरी को देख लोग तरह-तरह के अनुमान लगते ओर हँसते। लेकिन कंजूस को इसकी परवाह न थी।
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कंजूस ने आगे बढ़कर विद्वान ब्राह्मण को प्रणाम किया। जो गठरी अपने साथ लाया था, उसे उसके चरणों में रखकर खोला तो सभी लोगों की आँखें फटी-की-फटी रह गई।
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कंजूस के जीवन की जो भी अमूल्य संपत्ति गहने, जेवर, हीरे-जवाहरात आदि थे उसने सब कुछ को दान कर दिया।
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उठकर वह यथास्थान जाने लगा तो विद्वान ने कहा, महाराज ! आप वहाँ नहीं, यहाँ बैठिये।
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कंजूस बोला, पंडित जी ! यह मेरा आदर नहीं है, यह तो मेरे धन का आदर है, अन्यथा मैं तो रोज आता था और यही पर बैठता था, तब मुझे कोई न पूछता था।
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ब्राह्मण बोला, नहीं, महाराज! यह आपके धन का आदर नहीं है, बल्कि आपके महान त्याग (दान) का आदर है।
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यह धन तो थोड़ी देर पहले आपके पास ही था, तब इतना आदर-सम्मान नहीं था जितना की अब आपके त्याग (दान) में है इसलिए आप आज से एक सम्मानित व्यक्ति बन गए है।
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मनुष्य को कमाना भी चाहिए और दान भी अवश्य देना चाहिए। इससे उसे समाज में सम्मान और इष्टलोक तथा परलोक में पुण्य मिलता है।

 ((((((( जय जय श्री राधे )))))))

[राशि के अनुसार करें पौधारोपण अंबिका ज्योतिष केंद्र उज्जैन = मेष (मंगल)- चंदन, केशर, कनेर वृषभ ={ शुक्र}- गुलर, शतावरी, कृष्ण हरिद्रा मिथुन={ बुध)- दूर्वा, पवित्री ,तुलसी कर्क={ चंद्र}- सफेद फूल वाले, गन्ना सिंह ={सूर्य}- आंकड़ा, नारियल, बदाम, लाल फूल वाले कन्या ={बुध}- मेहंदी, लंबी बेले, (सब्जी वाली), नाग, बेल तुला ={शुक्र}- सुगंधित फूल, और औषधि पौधे वृश्चिक ={मंगल}- लाल चंदन, पारस पीपल धनु={ गुरु)- पीपल, नीम, सोनापाली ,विष्णुकांता मकर ={शनि}- खेजड़ी, वट, बरगद ,पलाश ,महुआ कुंभ={ शनि}- आंवला,शमी ,पारस पीपल मीन={ गुरु}- पीपल, नागरमोथा, पीली हरिद्रा ,सूर्यमु अगर इन 6 चीजों को रातभर भिगोकर खाएंगे, तो बीमारियों से रहेंगे कोसों दूर

  1. मुनक्का -इसमें मैग्नीशियम, पोटेशियम और आयरन काफी मात्रा में होते हैं। मुनक्के का नियमित सेवन कैंसर कोशिकाओं में बढ़ोतरी को रोकता है। इससे हमारी स्किन भी हेल्दी और चमकदार रहती है। एनीमिया और किडनी स्टोन के मरीजों के लिए भी मुनक्का फायदेमंद है। 
  2. काले चने -इनमें फाइबर्स और प्रोटीन की पर्याप्त मात्रा होती हैं जो कब्ज दूर करने में सहायक होते है। 
  3. बादाम -इसमें मैग्नीशियम होता है जो हाई बीपी के रोगियों के लिए फायदेमंद होता है। कई अध्ययनों में पाया गया है कि नियमित रूप से भीगी हुई बादाम खाने से खराब कोलेस्ट्रॉल का लेवल कम हो जाता है। 
  4. किशमिश -किशमिश में आयरन और एंटीऑक्सीडेंट्स भरपूर मात्रा में होते हैं। भीगी हुई किशमिश को नियमित रूप से खाने से स्किन हेल्दी और चमकदार बनती है। साथ ही शरीर में आयरन की कमी भी दूर होती है। 
  5. खड़े मूंग -इनमें प्रोटीन, फाइबर और विटामिन बी भरपूर मात्रा में होता है। इनका नियमित सेवन कब्ज दूर करने में बहुत फायदेमंद होता है। इसमें पोटेशियम और मैग्नेशियम भी भरपूर मात्रा में होने की वजह से डॉक्टरस हाई बीपी के मरीजों को इसे रेगुलर खाने की सलाह देते है। 
  6. मेथीदाना -इनमें फाइबर्स भरपूर मात्रा में होते हैं जो कब्ज को दूर कर आंतों को साफ रखने में मदद करते हैं। डायबिटीज के रोगियों के लिए भी मेथीदाने फायदेमंद हैं। साथ ही इनका सेवन महिलाओं में पीरियड्स के दौरान होने वाले दर्द को भी कम करता हैं।

https://youtu.be/6tM2oMiPM4Q


श्रावण मास में व्रत रखने से पहले बरतें ये 5 जरूरी सावधानियां

श्रावण मास में हजारों, लाखों लोग व्रत-उपवास रखते हैं। अगर आपने भी इस सावन उपवास करने की ठानी हैं, तो पहले जान लें कि कौन सी सावधानियां आपको इसे करने के दौरान बरतनी चाहिए –

1 उपवास कर ही रहे हैं तो इसके पूरे फायदे लीजिए और ऑइली फूड से दूरी बनाएं। उपवास का असली फायदा फलाहार में ही है। ज्यादा से ज्यादा फलाहार और तरह पदार्थों का सेवन करें और स्वस्थ व ऊर्जावान बने रहें।

2 अगर आप फलाहार में फ्राय की हुई चीजें खा ही रहे हैं, तो हल्का और कम तेल का खाना खाएं जो आसानी से पच भी जाए और शरीर को ऊर्जा भी देता रहे।

3 जिस दिन उपवास खोल रहे हैं उसे दिन खास तौर से इस बात का ध्यान रखें, कि हल्का भोजन लें। उपवास के बाद एक बार में अधिक या भारी भोजन लेने से पाचन तंत्र व आंतों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

4 उपवास के दौरान अत्यधिक शारीरिक मेहनत से बचें। इससे आपकी कैलोरी जल्दी खर्च होती है और भूख भी तेजी से लगती है। इस स्थि‍ति में आपको चक्कर भी आ सकते हैं।

5 उपवास के समय मानसिक रूप से भी तनाव मुक्त रहने का प्रयास करें और गुस्सा या उत्तेजना से बचें। इससे आपको ब्लडप्रेशर संबंधी समस्या हो सकती है।

https://youtu.be/6tM2oMiPM4Q


[जोड़ों में होने लगे अकड़न, तो हो सकती है प्रोटीन की कमी

1 पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन नहीं लेने से जोड़ों में मौजूद तरल पदार्थ का निर्माण कम होता है, जिससे लचीलापन कम हो जाता है और जोड़ों में अकड़न के साथ मांसपेशि‍यों में भी दर्द की समस्या बढ़ने लगती है।

2 शरीर में प्रोटीन की कमी से सफेद रक्त कोशि‍काओं की संख्या कम होती जाती है और हीमाग्लोबिन भी कम हो सकता है। इन कारणों से आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम होती है।

3 प्रोटीन की कमी से रक्त में शर्करा का स्तर कम होता है, जिससे शारीरिक कमजोरी महसूस होने के साथ ही थकावट जैसी परेशानियां पैदा होती है। इसके अलावा आपको बार-बार भूख लगने का कारण भी प्रोटीन की कमी हो सकती है।

4 आपके सौंदर्य के लिहाज से भी प्रोटीन बेहद जरूरी है। अगर सही मात्रा में प्रोटीन नहीं लिया गया, तो इसका असर आपके बाल और नाखूनों पर भी नकारात्मक होता है।

5 अगर आप बार-बार बीमार पड़ रहे हैं और शारीरिक दर्द की समस्या से गुजर रहे हैं, तो इसका कारण भी प्रोटीन की कमी हो सकती है, क्योंकि आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आने का एक बड़ा कारण यह भी है।

https://youtu.be/6tM2oMiPM4Q


[इन 5 में से कोई 1 भी बीमारी हो, तो व्रत रखने से करें परहेज

1 अगर आपके शरीर में शर्करा का स्तर असंतुलित है या आप डायबिटीज के मरीज हैं, तो आपको उपवास बिल्कुल नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह शर्करा के स्तर को असंतुलित कर आपकी सेहत को काफी हद तक बिगाड़ सकता है।

2 अगर हाल ही में आपका कोई ऑपरेशन या सर्जरी हुई है, तो आपको उपवास करने से बचना चाहिए क्योंकि उसके पुन: संरक्षण में आपको पर्याप्त पोषण और ऊर्जा की आवश्यकता होगी।

3 अगर आपके शरीर में खून की कमी है, तो व्रत-उपवास करने से बचें और आयरन से भरपूर खाद्य पदार्थों का सेवन करें। खून की कमी होने पर उपवास करना सेहत से खिलवाड़ हो सकता है।

4 अगर आप हार्ट, किडनी, फेफड़े या लिवर संबंधित बीमारी से ग्रस्त हैं, तो उपवास करने से बचें, क्योंकि इससे आपकी आंतरिक शारीरिक व्यवस्थाएं गड़बड़ा जाएंगी और सेहत को इसका खामियाजा चुकाना होगा।

5 गर्भावस्था या मां बनने पर भी आापका व्रत-उपवास रखना न केवल आपकी सेहत को, बल्कि शिशु की सेहत को नुकसान पहुंचा सकता है। अगर इस समय व्रत करना ही पड़े, तो भरपूर पोषण युक्त आहार लें।

https://youtu.be/6tM2oMiPM4Q

छोड़दोमानसिक_गुलामी

गर्वकरोअपनेसनातनधर्म_पर:-

पृथ्वी को सूर्य की एक परिक्रमा पूर्ण करने में 365 दिन, 5 घण्टे, 48 मिनीट और 46 सेकेण्ड लगते है। इस अंतर को समाप्त करने के लिए ईसाइयों के वर्तमान calendar में 4 वर्षों के अंतराल में लीप वर्ष मनाकर उसमें 1 दिन बढ़ाया जाता है। लेकिन इसप्रकार 4 वर्षों में 44 मिनीट अतिरिक्त पकड़े जाते है, जिसका ध्यान इस calendar के निर्माताओं ने नहीं रखा है। इस कारण से यह क्रम इसीप्रकार चलता रहा तो 1000 वर्षों के बाद लगभग 8 दिन अतिरिक्त पकड़े होंगे। और लगभग 10,000 वर्षों के बाद लगभग 78 दिन अतिरिक्त पकड़ लिए गए होंगे। इसका सीधा-सीधा अर्थ यह है की दस हज़ार वर्षों के बाद 1st Jan. शीत ऋतु की जगह वसंत ऋतु में होली के आसपास आएगी। यह सीधा-सादा गणित है। परंतु लाखों वर्षों से चली आ रही हमारी राम नवमी आज भी वसंत ऋतु में ही आती है, दशहरा व दिवाली शरद ऋतु में ही आते है। क्योंकि हमारे पुरखे खगोल और गणित में भी बहुत ही निपुण थे। अत: उन्होंने इस गणित व खगोल विज्ञान के आधार पर ही हज़ारों वर्षों में आनेवाले ग्रहणों का स्थान, दिन तथा समय भी exact लिख रखा है। इसलिए आग्रह है की कई बार बदली ईसाइयों की दक़ियानूसी वाली कालगणना छोड़िए तथा स्वाभिमान के साथ अपने पुरखों की वैज्ञानिक कालगणना अपनाइए जो अक्षरश: अचूक व बेजोड़ है।

कुंडली से जानिए पूर्वजन्म के रहस्य ।

हिंदू धर्म में पुनर्जन्म की मान्यता है। हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार प्राणी का केवल शरीर नष्ट होता है, आत्मा अमर है। आत्मा एक शरीर के नष्ट हो जाने पर दूसरे शरीर में प्रवेश करती है, इसे ही पुनर्जन्म कहते हैं। पुनर्जन्म के सिद्धांत को लेकर सभी के मन ये जानने की जिज्ञासा अवश्य रहती है कि पूर्वजन्म में वे क्या थे साथ ही वे ये भी जानना चाहते हैं, वर्तमान शरीर की मृत्यु हो जाने पर इस आत्मा का क्या होगा?

भारतीय ज्योतिष में इस विषय पर भी काफी शोध किया गया है। उसके अनुसार किसी भी व्यक्ति की कुंडली देखकर उसके पूर्व जन्म और मृत्यु के बाद आत्मा की गति के बारे में जाना जा सकता है। परलोक और पुनर्जन्मांक पुस्तक में इस विषय पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला गया है।

उसके अनुसार शिशु जिस समय जन्म लेता है। उस समय, स्थान व तिथि को देखकर उसकी जन्म कुंडली बनाई जाती है। उस समय के ग्रहों की स्थिति के अध्ययन के फलस्वरूप यह जाना जा सकता है कि बालक किस योनि से आया है और मृत्यु के बाद उसकी क्या गति होगी। आगे इस संबंध में कुछ विशेष योग बताए जा रहे हैं।

          पूर्वजन्म योनि विचार 

1- जिस व्यक्ति की कुंडली में चार या इससे अधिक ग्रह उच्च राशि के अथवा स्व राशि के हों तो उस व्यक्ति ने उत्तम योनि भोगकर यहां जन्म लिया है, ऐसा ज्योतिषियों का मानना है।

2- लग्न में उच्च राशि का चंद्रमा हो तो ऐसा व्यक्ति पूर्वजन्म में सद् विवेकी वणिक था, ऐसा मानना चाहिए।

3- लग्नस्थ गुरु इस बात का सूचक है कि जन्म लेने वाला पूर्वजन्म में वेदपाठी ब्राह्मण था। यदि जन्मकुंडली में कहीं भी उच्च का गुरु होकर लग्न को देख रहा हो तो बालक पूर्वजन्म में धर्मात्मा, सद्गुणी एवं विवेकशील साधु अथवा तपस्वी था, ऐसा मानना चाहिए।

4- यदि जन्म कुंडली में सूर्य छठे, आठवें या बारहवें भाव में हो अथवा तुला राशि का हो तो व्यक्ति पूर्वजन्म में भ्रष्ट जीवन व्यतीत करना वाला था, ऐसा मानना चाहिए।

5- लग्न या सप्तम भाव में यदि शुक्र हो तो जातक पूर्वजन्म में राजा अथवा सेठ था व जीवन के सभी सुख भोगने वाला था, ऐसा समझना चाहिए।

6- लग्न, एकादश, सप्तम या चौथे भाव में शनि इस बात का सूचक है कि व्यक्ति पूर्वजन्म में शुद्र परिवार से संबंधित था एवं पापपूर्ण कार्यों में लिप्त था।

7- यदि लग्न या सप्तम भाव में राहु हो तो व्यक्ति की पूर्व मृत्यु स्वभाविक रूप से नहीं हुई, ऐसा ज्योतिषियों का मत है।

8- चार या इससे अधिक ग्रह जन्म कुंडली में नीच राशि के हों तो ऐसे व्यक्ति ने पूर्वजन्म में निश्चय ही आत्महत्या की होगी, ऐसा मानना चाहिए।

9- कुंडली में स्थित लग्नस्थ बुध स्पष्ट करता है कि व्यक्ति पूर्वजन्म में वणिक पुत्र था एवं विविध क्लेशों से ग्रस्त रहता था।

10- सप्तम भाव, छठे भाव या दशम भाव में मंगल की उपस्थिति यह स्पष्ट करती है कि यह व्यक्ति पूर्वजन्म में क्रोधी स्वभाव का था तथा कई लोग इससे पीडि़त रहते थे।

11- गुरु शुभ ग्रहों से दृष्ट हो या पंचम या नवम भाव में हो तो जातक पूर्वजन्म में संन्यासी था, ऐसा मानना चाहिए।

12- कुंडली के ग्यारहवे भाव में सूर्य, पांचवे में गुरु तथा बारहवें में शुक्र इस बात का सूचक है कि यह व्यक्ति पूर्वजन्म में धर्मात्मा प्रवृत्ति का तथा लोगों की मदद करने वाला था, ऐसा ज्योतिषियों का मानना है।

        मृत्यु उपरांत गति विचार 

मृत्यु के बाद आत्मा की क्या गति होगी या वह पुन: किस रूप में जन्म लेगी, इसके बारे में भी जन्म कुंडली देखकर जाना जा सकता है। आगे इसी से संबंधित कुछ योग बताए जा रहे हैं।

1- कुंडली में कहीं पर भी यदि कर्क राशि में गुरु स्थित हो तो जातक मृत्यु के बाद उत्तम कुल में जन्म लेता है।

2- लग्न में उच्च राशि का चंद्रमा हो तथा कोई पापग्रह उसे न देखते हों तो ऐसे व्यक्ति को मृत्यु के बाद सद्गति प्राप्त होती है।

3- अष्टमस्थ राहु जातक को पुण्यात्मा बना देता है तथा मरने के बाद वह राजकुल में जन्म लेता है, ऐसा विद्वानों का कथन है।

7- अष्टम भाव पर शुभ अथवा अशुभ किसी भी प्रकार के ग्रह की दृष्टि न हो और न अष्टम भाव में कोई ग्रह स्थित हो तो जातक ब्रह्मलोक प्राप्त करता है।

8- लग्न में गुरु-चंद्र, चतुर्थ भाव में तुला का शनि एवं सप्तम भाव में मकर राशि का मंगल हो तो जातक जीवन में कीर्ति अर्जित करता हुआ मृत्यु उपरांत ब्रह्मलीन होता है अर्थात उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

9- लग्न में उच्च का गुरु चंद्र को पूर्ण दृष्टि से देख रहा हो एवं अष्टम स्थान ग्रहों से रिक्त हो तो जातक जीवन में सैकड़ों धार्मिक कार्य करता है तथा प्रबल पुण्यात्मा एवं मृत्यु के बाद सद्गति प्राप्त करता है।

10- अष्टम भाव को शनि देख रहा हो तथा अष्टम भाव में मकर या कुंभ राशि हो तो जातक योगिराज पद प्राप्त करता है तथा मृत्यु के बाद विष्णु लोक प्राप्त करता है।

11- यदि जन्म कुंडली में चार ग्रह उच्च के हों तो जातक निश्चय ही श्रेष्ठ मृत्यु का वरण करता है।

12- ग्यारहवे भाव में सूर्य-बुध हों, नवम भाव में शनि तथा अष्टम भाव में राहु हो तो जातक मृत्यु के पश्चात मोक्ष प्राप्त करता है।

         विशेष योग 

1- बारहवां भाव शनि, राहु या केतु से युक्त हो फिर अष्टमेश (कुंडली के आठवें भाव का स्वामी) से युक्त हो अथवा षष्ठेश (छठे भाव का स्वामी) से दृष्ट हो तो मरने के बाद अनेक नरक भोगने पड़ेंगे, ऐसा समझना चाहिए।

2- गुरु लग्न में हो, शुक्र सप्तम भाव में हो, कन्या राशि का चंद्रमा हो एवं धनु लग्न में मेष का नवांश हो तो जातक मृत्यु के बाद परमपद प्राप्त करता है।

3- अष्टम भाव को गुरु, शुक्र और चंद्र, ये तीनों ग्रह देखते हों तो जातक मृत्यु के बाद श्रीकृष्ण के चरणों में स्थान प्राप्त करता है , ऐसा ज्योतिषियों का मत है।
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“महर्षि अगस्त्य” ने बैटरी निर्माण की विधि का आविष्कार किया था।
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समान्यतः हम मानते हैं की विद्युत बैटरी काआविष्कार बेंजामिन फ़्रेंकलिन ने किया था किन्तु आपको यह जानकार सुखद आश्चर्य होगा की बैटरी के बारे में अगस्त्य संहिता में महर्षि अगस्त्य ने बैटरी निर्माण की विधि का वर्णन किया था। राव साहब कृष्णाजी वझे ने १८९१ में पूना से इंजीनियरिंग की परीक्षा पास की। भारत में विज्ञान संबंधी ग्रंथों की खोज के दौरान उन्हें उज्जैन में दामोदर त्र्यम्बक जोशी के पास अगस्त्य संहिता के कुछ पन्ने मिले। यह शक संवत्‌ १५५० के करीब के थे। आगे चलकर इस संहिता के पन्नों में उल्लिखित वर्णन को पढ़कर नागपुर में संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे डा. एम.सी. सहस्रबुद्धे को आभास हुआ कि यह वर्णन डेनियल सेल से मिलता-जुलता है। अत: उन्होंने नागपुर में इंजीनियरिंग के प्राध्यापक श्री पी.पी. होले को वह दिया और उसे जांचने को कहा। अगस्त्य संहिता में एक सूत्र हैः
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।
छादयेच्छिखिग्री वेन चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्त त:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञतिम्‌॥
एक मिट्टी का पात्र (Earthen pot) लें, उसमें ताम्र पट्टिका (copper sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगायें, ऊपर पारा (mercury‌) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो, उससे मित्रावरुणशक्ति का उदय होगा।
उपर्युक्त वर्णन के आधार पर श्री होले तथा उनके मित्र ने तैयारी चालू की तो शेष सामग्री तो ध्यान में आ गई, परन्तु शिखिग्रीवा समझ में नहीं आया। संस्कृत कोष में देखने पर ध्यान में आया कि शिखिग्रीवा याने मोर की गर्दन। अत: वे और उनके मित्र बाग गए तथा वहां के प्रमुख से पूछा, क्या आप बता सकते हैं, आपके zoo में मोर कब मरेगा, तो उसने नाराज होकर कहा क्यों? तब उन्होंने कहा एक प्रयोग के लिए उसकी गरदन की आवश्यकता है।
यह सुनकर उसने कहा ठीक है।आप एक एप्लीकेशन दे जाइये इसके कुछ दिन बाद एक आयुर्वेदाचार्य से बात हो रही थी।उनको यह सारा घटनाक्रम सुनाया तो वे हंसने लगे और उन्होंने कहा, यहां शिखिग्रीवा का अर्थ मोर की गरदन नहीं अपितु उसकी गरदन के रंग जैसा पदार्थ कॉपरसल्फेट है यह जानकारी मिलते ही समस्या हल हो गई और फिर इस आधार पर एक सेल बनाया और डिजीटल मल्टीमीटर द्वारा उसको नापा। उसका open circuit voltage था १.३८ वोल्ट और short circuit current था २३ मिली एम्पीयर. प्रयोग सफल होने की सूचना डा. एम.सी. सहस्रबुद्धे को दी गई।इस सेल का प्रदर्शन ७ अगस्त, १९९० को स्वदेशी विज्ञान संशोधन संस्था (नागपुर) के चौथे वार्षिक सर्वसाधारण सभा में अन्य विद्वानों के सामने हुआ। तब विचार आया कि यह वर्णन इलेक्ट्रिक सेल का है।पर इसका आगे का संदर्भ क्या है इसकी खोज हुई और आगे ध्यान में आया ऋषि अगस्त ने इसके आगे की भी बातें लिखी हैं-
अनेन जलभंगोस्ति प्राणो दानेषु वायुषु।
एवं शतानां कुंभानांसंयोगकार्यकृत्स्मृ॥
अगस्त्य कहते हैं सौ कुंभों की शक्ति का पानी पर प्रयोग करेंगे, तो पानी अपने रूप को बदल कर प्राण वायु (Oxygen)तथा उदान वायु (Hydrogen) में परिवर्तित हो जाएगा। उदान वायु को वायु प्रतिबन्धक वस्त्र में रोका जाए तो यह विमान विद्या में काम आता है।
फिर लिखा गया हैः
वायुबन्धकवस्त्रेण
निबद्धो यानमस्तके
उदान : स्वलघुत्वे बिभर्त्याकाशयानकम्‌। (अगस्त्य संहिता शिल्प शास्त्र सार)अर्थात् उदान वायु (हाइड्रोजन) को बन्धक वस्त्र (Air Tight Cloth) द्वारा निबद्ध किया जाए तो वह विमान विद्या (Aerodynamics) के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।राव साहब वो थे जिन्होंने भारतीय वैज्ञानिक ग्रंथ और प्रयोगों को ढूंढ़ने में अपना जीवन लगाया उन्होंने अगस्त्य संहिता एवं अन्य ग्रंथों के आधार पर विद्युत भिन्न-भिन्न प्रकार से उत्पन्न होती हैं इस आधार उसके भिन्न-भिन्न नाम रखे
(१) तड़ित्‌-रेशमी वस्त्रों के घर्षण से उत्पन्न।
(२) सौदामिनी-रत्नों के घर्षण से उत्पन्न।
(३) विद्युत-बादलों के द्वारा उत्पन्न।
(४) शतकुंभी-सौ सेलों या कुंभों से उत्पन्न।
(५) हृदनि- हृद या स्टोर की हुई बिजली।
(६) अशनि-चुम्बकीय दण्ड से उत्पन।
अगस्त्य संहिता में विद्युत्‌ का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पालिश चढ़ाने की विधि निकाली।अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव Battery Bone कहते हैं।
कृत्रिमस्वर्णरजतलेप: सत्कृतिरुच्यते। -शुक्र नीति
यवक्षारमयोधानौ सुशक्तजलसन्निधो॥
आच्छादयति तत्ताम्रं
स्वर्णेन रजतेन वा।
सुवर्णलिप्तं तत्ताम्रं
शातकुंभमिति स्मृतम्‌॥ ५ (अगस्त्य संहिता)
अर्थात्‌-कृत्रिम स्वर्ण अथवा रजत के लेप को सत्कृति कहा जाता है। लोहे के पात्र में सुशक्त जल अर्थात तेजाब का घोल इसका सानिध्य पाते ही यवक्षार (सोने या चांदी का नाइट्रेट) ताम्र को स्वर्ण या रजत से ढंक लेता है। स्वर्ण से लिप्त उस ताम्र को शातकुंभ अथवा स्वर्ण कहा जाता है।स्पष्ट है कि यह आज के विद्युत बैटरी का सूत्र (Formula for Electric Battery) ही है साथ ही यह प्राचीन भारत में विमान विद्या होने की भी पुष्टि करता है।

जय अखन्ड सत्य सनातन राष्ट्रम🚩

📚📚📚📚🖌🖌📚📚📚📚कभी सोचा है क्यों कहते हैं बोल ‘बम’ ?

हम क्यों बोलें ‘बम’ ? क्या है इसका अर्थ ?

‘बम’ सृष्टि -प्रक्रिया की शुरुआत का नाद है जो अखिल ब्रह्माण्ड में गूँजता है. … एक उदाहरण : निषेचन के समय जब शुक्राणु डिम्बाणु से टकराता है तो ‘बम’ का नाद गूँजता है.

Macrocosm से लेकर Microcosm के प्रत्येक स्तर पर जब भी Masculine ( Positive) Shiva का Feminine से मिलन होकर physical body ( शरीर ) का सूत्रपात होता है तो ‘बम’ का नाद गूँजता है. इसे शिव-शक्ति सायुज्य भी कहते हैं.

श्रावण में वर्षा की शुरुआत fertility का प्रतीक है.

‘बम’ नाद विकास का, furtherance का प्रतीक है.

ग्रह दोष दूर करे औषधियों से।

यदि किसी की कुण्डली में कोई ग्रह कमजोर है जिस कारण उसके जीवन में कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है और वह जातक हमेशा परेशान रहता है। ऐसे जातकों को रत्न पहने की सलाह दी जाती है। किन्तु बहुत से जातक आर्थिक विपन्नता के कारण रत्न धारण नहीं कर पाते है, तो उन लोगों के लिए ज्योतिष में जड़ पहनने का प्रावधान है। जैसे रत्न पहनने से व्यक्ति की कुण्डली में कमजोर ग्रह बलवान होकर सकारात्मक उर्जा देने लगता है जिससे उसके जीवन में आने वाली बाधाओं में कमी आती है। ठीक उसी प्रकार से ग्रह से सम्बन्धित पेड़ की जड़ को अभिमंत्रित करके पहने से कमजोर ग्रह मजबूत होकर शुभ फल देने लगता है। आईये हम जानते है कि ग्रहो को बलवान करने के लिए कौन से पेड़ की जड़ धारण करके अधिक से अधिक लाभ प्राप्त किया जाये।

सूर्य- सूर्य की अशुभता को दूर करने के लिए किसी शुभ मुहूर्त में बेल की जड़ को खोदकर तत्पश्चात उसे सूर्य मन्त्र से अभिमन्त्रित करके लाल कपड़े में लपेट कर दाहिनी भुजा में बांधने से सूर्य अच्छा फल देने लगता है।

चन्द्र- चन्द्र को बलवान करने के लिए किसी शुभ मुहूर्त में खिरनी की जड़ खोदकर तत्पश्चात उसे अभिमन्त्रित करके सफेद कपड़े में लपेटकर दिन सोमवार को लाकेट में भरकर गले में धारण करने से चन्द्र अशुभता में कमी आती है।

मंगल- मंगल ग्रह को मजबूत करने के लिए अनन्तमूल या खेर की जड़ को शुद्ध करके लाल कपड़े में लपेटकर दिन मंगलवार को दाहिने भुजा में बांधने से मंगल ग्रह मजबूत होकर शुभ फल देने लगता है।

बुध- बुध ग्रह बलवान करने के लिए किसी शुभ मुहूर्त में विधारा की जड़ खोदकर तत्पश्चात उसे शुद्ध करके हरे रंग के धागे में लपेट कर गले में धारण करने से बुध ग्रह से सम्बन्धित अच्छा फल प्राप्त होने लगता है।

गुरू- गुरू ग्रह को मजबूत करने के लिए किसी अच्छे मुहूर्त में केले की जड़ को खोदकर तत्पश्चात उसे अभिमन्त्रित करके पीले कपड़े में बांधकर दिन गुरूवार को दाहिने भुजा में बाॅधने से गुरू ग्रह की अशुभता में कमी आती है।

शुक्र- शुक्र ग्रह को स्ट्रांग करने के लिए गूलर की जड़ को शुद्ध करके दिन शुक्रवार किसी लाकेट में डालकर पहनने से शुक्र ग्रह बलवान होकर अच्छे फल देने लगता है।

शनि- शनि देव को खुश करने के लिए शमी पेड़ की जड़ को किसी अच्छे मूहूर्त में शुद्ध करके नीले कपड़े में बाॅधकर धारण करने से शनि देव कृपा बरसने लगती है।

राहु- राहु की अच्छी कृपा पाने के लिए सफेद चन्दन का टुकड़ा नीले धागे में बांधने से राहु की अशुभता में आती है और लाभ होने लगता है।

केतु- केतु की अशुभता दूर करने के लिए अश्वंगधा पेड़ की जड़ को किसी शुभ मुहूर्त में अभिमन्त्रित करके नीले धागे में लपेट कर गले में धारण करने से केतु का शुभ फल मिलने लगता है।
[बीज मन्त्रों के रहस्य
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शास्त्रों में अनेकों बीज मन्त्र कहे हैं, आइये बीज मन्त्रों का रहस्य जाने

१👉 “क्रीं” इसमें चार वर्ण हैं! [क,र,ई,अनुसार] क–काली, र–ब्रह्मा, ईकार–दुःखहरण।
अर्थ👉 ब्रह्म-शक्ति-संपन्न महामाया काली मेरे दुखों का हरण करे।

२👉 “श्रीं” चार स्वर व्यंजन [श, र, ई, अनुसार]=श-महालक्ष्मी, र-धन-ऐश्वर्य, ई तुष्टि, अनुस्वार– दुःखहरण।
अर्थ👉 धन- ऐश्वर्य सम्पति, तुष्टि-पुष्टि की अधिष्ठात्री देवी लाष्मी मेरे दुखों का नाश कर।

३👉 “ह्रौं” [ह्र, औ, अनुसार] ह्र-शिव, औ-सदाशिव, अनुस्वार–दुःख हरण।
अर्थ👉 शिव तथा सदाशिव कृपा कर मेरे दुखों का हरण करें।

४👉 “दूँ” [ द, ऊ, अनुस्वार]-द दुर्गा, ऊ–रक्षा, अनुस्वार करना।
अर्थ👉 माँ दुर्गे मेरी रक्षा करो, यह दुर्गा बीज है।

५👉 “ह्रीं” यह शक्ति बीज अथवा माया बीज है।
[ह,र,ई,नाद, बिंदु,] ह-शिव, र-प्रकृति,ई-महामाया, नाद-विश्वमाता, बिंदु-दुःख हर्ता।
अर्थ👉 शिवयुक्त विश्वमाता मेरे दुखों का हरण करे।

६👉 “ऐं” [ऐ, अनुस्वार]– ऐ- सरस्वती, अनुस्वार-दुःखहरण।
अर्थ👉 हे सरस्वती मेरे दुखों का अर्थात अविद्या का नाश कर।

७👉 “क्लीं” इसे काम बीज कहते हैं![क, ल,ई अनुस्वार]-क-कृष्ण अथवा काम,ल-इंद्र,ई-तुष्टि भाव, अनुस्वार-सुख दाता।

अर्थ👉 कामदेव रूप श्री कृष्ण मुझे सुख-सौभाग्य दें।

८👉 “गं” यह गणपति बीज है। [ग, अनुस्वार] ग-गणेश, अनुस्वार-दुःखहरता।
अर्थ👉 श्री गणेश मेरे विघ्नों को दुखों को दूर करें।

९👉 “हूँ” [ ह, ऊ, अनुस्वार]-ह–शिव, ऊ- भैरव, अनुस्वार– दुःखहरता] यह कूर्च बीज है।
अर्थ👉 असुर-सहारक शिव मेरे दुखों का नाश करें।

१०👉 “ग्लौं” [ग,ल,औ,बिंदु]-ग-गणेश, ल-व्यापक रूप, आय-तेज, बिंदु-दुखहरण।
अर्थात👉 व्यापक रूप विघ्नहर्ता गणेश अपने तेज से मेरे दुखों का नाश करें।

११👉 “स्त्रीं” [स,त,र,ई,बिंदु]-स-दुर्गा, त-तारण, र-मुक्ति, ई-महामाया, बिंदु-दुःखहरण।
अर्थात👉 दुर्गा मुक्तिदाता, दुःखहर्ता,, भवसागर-तारिणी महामाया मेरे दुखों का नाश करें।

१२👉 “क्षौं” [क्ष,र,औ,बिंदु] क्ष-नरीसिंह, र-ब्रह्मा, औ-ऊर्ध्व, बिंदु-दुःख-हरण।
अर्थात👉 ऊर्ध्व केशी ब्रह्मस्वरूप नरसिंह भगवान मेरे दुखों कू दूर कर।

१३👉 “वं” [व्, बिंदु]व्-अमृत, बिंदु दुःखहरत।
[इसी प्रकार के कई बीज मन्त्र हैं] [शं-शंकर, फरौं-हनुमत, दं-विष्णु बीज, हं-आकाश बीज,यं अग्नि बीज, रं-जल बीज, लं पृथ्वी बीज, ज्ञं–ज्ञान बीज, भ्रं भैरव बीज।
अर्थात👉 हे अमृतसागर, मेरे दुखों का हरण कर।

१४👉 कालिका का महासेतु👉 “क्रीं”,
त्रिपुर सुंदरी का महासेतु👉 “ह्रीं”,
तारा का👉 “हूँ”,
षोडशी का👉 “स्त्रीं”,
अन्नपूर्णा का👉 “श्रं”,
लक्ष्मी का “श्रीं”

१५👉 मुखशोधन मन्त्र निम्न हैं।
गणेश👉 ॐ गं
त्रिपुर सुन्दरी👉 श्रीं ॐ श्रीं ॐ श्रीं ॐ।
तारा👉 ह्रीं ह्रूं ह्रीं।
स्यामा👉 क्रीं क्रीं क्रीं ॐ ॐ ॐ क्रीं क्रीं क्रीं।
दुर्गा👉 ऐं ऐं ऐं।
बगलामुखी👉 ऐं ह्रीं ऐं।
मातंगी👉 ऐं ॐ ऐं।
लक्ष्मी👉 श्रीं।
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दिशाशूल क्या होता है ?💥

क्यों बड़े बुजुर्ग तिथि देख कर आने जाने की रोक टोक करते हैं ?

आज की युवा पीढ़ी भले हि उन्हें आउटडेटेड कहे ..लेकिन बड़े सदा बड़े हि रहते हैं ..इसलिए आदर करे उनकी बातों का ;
दिशाशूल समझने से पहले हमें दस दिशाओं के विषय में ज्ञान होना आवश्यक है|

हम सबने पढ़ा है कि दिशाएं ४ होती हैं|

१) पूर्व
२) पश्चिम
३) उत्तर
४) दक्षिण

परन्तु जब हम उच्च शिक्षा ग्रहण करते हैं तो ज्ञात होता है कि वास्तव में
दिशाएँ दस होती हैं |
१) पूर्व
२) पश्चिम
३) उत्तर
४) दक्षिण
५) उत्तर – पूर्व
६) उत्तर – पश्चिम
७) दक्षिण – पूर्व
८) दक्षिण – पश्चिम
९) आकाश
१०) पाताल
हमारे सनातन धर्म के ग्रंथो में सदैव १० दिशाओं का ही वर्णन किया गया है,
जैसे हनुमान जी ने युद्ध इतनी आवाज की किउनकी आवाज दसों दिशाओं में सुनाई
दी | हम यह भी जानते हैं कि प्रत्येक दिशा के देवता होते हैं |

दसों दिशाओं को समझने के पश्चात अब हम बात करते हैं वैदिक ज्योतिष की |
ज्योतिष शब्द “ज्योति” से बना है जिसका भावार्थ होता है “प्रकाश” |
वैदिक ज्योतिष में अत्यंत विस्तृत रूप में मनुष्य के जीवन की हर
परिस्तिथियों से सम्बन्धित विश्लेषण किया गया है कि मनुष्य यदि इसको तनिक
भी समझले तो वह अपने जीवन में उत्पन्न होने वाली बहुत सी समस्याओं से बच
सकता है और अपना जीवन सुखी बना सकता है |

दिशाशूल क्या होता है ? दिशाशूल वह दिशा है जिस तरफ यात्रा नहीं करना
चाहिए | हर दिन किसी एक दिशा की ओर दिशाशूल होता है |

१) सोमवार और शनिवार को पूर्व
२) रविवार और शुक्रवार को पश्चिम
३) मंगलवार और बुधवार को उत्तर
४) गुरूवार को दक्षिण
५) सोमवार और गुरूवार को दक्षिण-पूर्व
६) रविवार और शुक्रवार को दक्षिण-पश्चिम
७) मंगलवार को उत्तर-पश्चिम
८) बुधवार और शनिवार को उत्तर-पूर्व

परन्तु यदि एक ही दिन यात्रा करके उसी दिन वापिस आ जाना हो तो ऐसी दशा
में दिशाशूल का विचार नहीं किया जाता है | परन्तु यदि कोई आवश्यक कार्य
हो ओर उसी दिशा की तरफ यात्रा करनी पड़े, जिस दिन वहाँ दिशाशूल हो तो यह
उपाय करके यात्रा कर लेनी चाहिए –

रविवार – दलिया और घी खाकर
सोमवार – दर्पण देख कर
मंगलवार – गुड़ खा कर
बुधवार – तिल, धनिया खा कर
गुरूवार – दही खा कर
शुक्रवार – जौ खा कर
शनिवार – अदरक अथवा उड़द की दाल खा कर

साधारणतया दिशाशूल का इतना विचार नहीं किया जाता परन्तु यदि व्यक्ति के
जीवन का अति महत्वपूर्ण कार्य है तो दिशाशूल का ज्ञान होने से व्यक्ति
मार्ग में आने वाली बाधाओं से बच सकता है | आशा करते हैं कि आपके जीवन
में भी यह गायन उपयोगी सिद्ध होगा तथा आप इसका लाभ उठाकर अपने दैनिक जीवन
में सफलता प्राप्त करेंगे |

       


[: 🌻भारतीय ज्योतिष 🌻
ग्रहो का प्रभाव और उनका निर्धारण —

भारतीय आचार्यो ने ग्रहो से फल ज्ञात करने से पूर्व ग्रहो को सगुण रूप मे मान लिया ।सूर्य चन्द्र गुरू शुक। बुध और शनि को देवता के रूप मे माना और —
सूर्य –चन्द्रमा –राजा माना गया
मंगल –सेनापति
बुध —युवराज
गुरू -शुक —मंत्री
राहु -केतु —-सेना का प्रतिनिधित्व और शनि को भृत्य माना है ।
पांच तत्वो भी इनका सम्बन्ध जोड़ा गया है ।यह ग्रह हमारे शरीर का भी संचालन करते है ।जिससे हमारे शरीर पर भी इनका प्रभाव पडता है ।ग्रहो के द्वारा हमारे शरीर का संचालन होता है । सूर्य। –आंखो मे स्थित होकर देखने की शक्ति देता है ।आमाशय मे बैठकर पाचन क्रिया संचालित करता है ।
चन्द्रमा —प्रभाव क्षेत्र मन है।यह जल तत्व को संचारित करता है । मंगल –रक्त संचार की क्रिया संपादित करता है ।
बुध–जीव की बुद्धि तथा हृदय का नियंत्रक है । शुक्र–का निवास जीभ तथा जननेन्द्रिय पर है ।
शनिराहु और केतु -इन तीनो का नियंत्रण उदर की क्रिया संचालित करने मे रहता है । _शनि–प्राणवायु के स्नायु मंडल का स्वामी होता है । राहु–का स्थान नाभि से चार अंगुल नीचे है । जंहा पिंडलियो मै बैठकर चलने की शक्ति प्रदान करता है ।
केतु–का निवास पाचन तंत्र और पांव के तलवो मे होता है ।इस प्रकार यह पाचन शक्ति और चलने की शक्ति को नियंत्रित करता है ।

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