Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

आर्गेनिक शुगर या वाइट शुगर, जानिए क्या है

ज्यादा बेहतर
आर्गेनिक शुगर या वाइट शुगर, जानिए क्या है ज्यादा बेहतर
अगर आप आर्गेनिक शुगर पर बहुत ज्यादा पैसा खर्च करते हैं, तो एक बार इस आर्टिकल को जरूर पढ ले !!
आप बाजार से सब कुछ आर्गेनिक चीजें लेना चाहते हैं- आर्गेनिक एग्स से लेकर आर्गेनिक फ्रूट्स और वेजिटेबल तक। बेशक आर्गेनिक चीजें हेल्दी होती हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि आप सभी चीजों को आर्गेनिक से बदल दें। खासकर जब बात चीनी खरीदने की होती है। न्यूट्रिशनिस्ट आकांक्षा झालानी आपको बता रही हैं कि आर्गेनिक शुगर खरीदने से आपको क्या फर्क पड़ सकता है।

प्रोसेसिंग

जब बात आर्गेनिक शुगर की होती है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वो अनप्रोसेस्ड हो। शुद्ध कच्ची चीनी में कई कमियां होती हैं, इसलिए बाजार में बिकने से पहले सभी प्रकार की चीनी को प्रोसेसिंग से गुजरना होता है। आर्गेनिक शब्द का इस्तेमाल चीनी को प्राप्त करने के लिए गन्ने के विकास के लिए इस्तेमाल की गई कृषि प्रक्रिया को इंगित करने के लिए किया जाता है। खेत में उगाई गए गन्ने से प्राप्त सफेद चीनी में रासायनिक कीटनाशकों और जड़ी बूटियों का इस्तेमाल किया जाता है। दूसरी ओर, आर्गेनिक चीनी में प्राकृतिक उर्वरकों का इस्तेमाल होता है। इसलिए अगर आपको संभावित कीटनाशक के संदूषण के बारे में चिंता है, तो आपको आर्गेनिक चीनी का चयन करना चाहिए।

पोषक तत्व
कुछ लोग दावा करते हैं कि आर्गेनिक कच्ची चीनी में सफेद चीनी से अधिक पोषक तत्व होते हैं क्योंकि प्राकृतिक गुड़ कार्बनिक चीनी से प्रोसेस्ड नहीं होता है। हालांकि कई आहार विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि सफेद चीनी और कार्बनिक चीनी के पोषण मूल्य में कोई अंतर नहीं है। वास्तव में, दोनों प्रकार की चीनी में एक ही कैलोरी की मात्रा सामान होती है।

फ्लेवर
सफेद चीनी का रिफाइनिंग प्रोसेस लंबा है। इसमें किसी भी अशुद्धता को हटाने और साथ ही चीनी में से गुड़ को हटाने के लिए सल्फर डाइऑक्साइड और कैल्शियम हाइड्रॉक्साइड जैसे कई रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह रिफाइनिंग प्रक्रिया उन तत्वों को हटाती है जो चीनी को स्वाद देते हैं।आर्गेनिक सफेद चीनी को भी इसी तरह प्रोसेस किया जाता है, हालांकि इसकी बनावट बेहतर होती है। आर्गेनिक शुगर और वाइट शुगर में प्राकृतिक गुड़ के कारण स्वाद में अंतर हो सकता है !!
[ गणितज्ञ आर्यभट्ट

आर्यभट (४७६-५५०) प्राचीन भारत के ए ज्योतिषविद ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद् कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 लिखा है। बिहार में वर्तमान पटना का प्राचीन नाम कुसुमपुर था लेकिन

एक अन्य मान्यता के अनुसार उनका जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में हुआ था। उनके वैज्ञानिक कार्यों का समादर राजधानी में ही हो सकता था। अतः उन्होंने लम्बी यात्रा करके आधुनिक पटना के समीप कुसुमपुर में अवस्थित होकर राजसान्निध्य में अपनी रचनाएँ पूर्ण की।

कृतियाँ

आर्यभट द्वारा रचित तीन ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है। दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र। लेकिन जानकारों के अनुसार उन्होने और एक ग्रंथ लिखा था- ‘आर्यभट सिद्धांत’। इस समय उसके केवल ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। उनके इस ग्रंथ का सातवे शतक में व्यापक उपयोग होता था। लेकिन इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।

उन्होंने आर्यभटीय नामक महत्वपूर्ण ज्योतिष ग्रन्थ लिखा, जिसमें वर्गमूल, घनमूल, समान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है। उन्होंने अपने आर्यभटीय नामक ग्रन्थ में कुल ३ पृष्ठों के समा सकने वाले ३३ श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त तथा ५ पृष्ठों में ७५ श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त तथा इसके लिये यन्त्रों का भी निरूपण किया। आर्यभट ने अपने इस छोटे से ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश के तथा विदेश के सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थित कींं।

उनकी प्रमुख कृति, आर्यभटीय, गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है, जिसे भारतीय गणितीय साहित्य में बड़े पैमाने पर उद्धृत किया गया है और जो आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है। आर्यभटीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं। इसमे सतत भिन्न (कँटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण (क्वाड्रेटिक इक्वेशंस), घात श्रृंखला के योग (सम्स ऑफ पावर सीरीज़) और ज्याओं की एक तालिका (Table of Sines) शामिल हैं।

सुर्य-सिद्धांत, खगोलीय गणनाओं पर एक कार्य है जो अब लुप्त हो चुका है, इसकी जानकारी हमें आर्यभट के समकालीन वराहमिहिर के लेखनों से प्राप्त होती है, साथ ही साथ बाद के गणितज्ञों और टिप्पणीकारों के द्वारा भी मिलती है जिनमें शामिल हैं ब्रह्मगुप्त और भास्कर I.

ऐसा प्रतीत होता है कि ये कार्य पुराने सूर्य सिद्धांत पर आधारित है और आर्यभटीय के सूर्योदय की अपेक्षा इसमें मध्यरात्रि-दिवस-गणना का उपयोग किया गया है। इसमे अनेक खगोलीय उपकरणों का वर्णन शामिल है, जैसे कि नोमोन(शंकु-यन्त्र), एक परछाई यन्त्र (छाया-यन्त्र), संभवतः कोण मापी उपकरण, अर्धवृत्ताकार और वृत्ताकार (धनुर-यन्त्र / चक्र-यन्त्र), एक बेलनाकार छड़ी यस्ती-यन्त्र, एक छत्र-आकर का उपकरण जिसे छत्र- यन्त्र कहा गया है और कम से कम दो प्रकार की जल घड़ियाँ- धनुषाकार और बेलनाकार.(पहली घटिका यंत्र)

एक तीसरा ग्रन्थ जो अरबी अनुवाद के रूप में अस्तित्व में है, अल न्त्फ़ या अल नन्फ़ है, आर्यभट के एक अनुवाद के रूप में दावा प्रस्तुत करता है, परन्तु इसका संस्कृत नाम अज्ञात है। संभवतः ९ वी सदी के अभिलेखन में, यह फारसी विद्वान और भारतीय इतिहासकार अबू रेहान अल-बिरूनी द्वारा उल्लेखित किया गया है।

आर्यभटीय ग्रंथ
••••••••••••••••••
मुख्य लेख आर्यभटीय

आर्यभट के कार्य के प्रत्यक्ष विवरण सिर्फ़ आर्यभटीय से ही ज्ञात हैं। आर्यभटीय नाम बाद के टिप्पणीकारों द्वारा दिया गया है, आर्यभट ने स्वयं इसे नाम नहीं दिया होगा; यह उल्लेख उनके शिष्य भास्कर प्रथम ने अश्मकतंत्र या अश्माका के लेखों में किया है। इसे कभी कभी आर्य-शत-अष्ट (अर्थात आर्यभट के १०८)- जो की उनके पाठ में छंदों की संख्या है- के नाम से भी जाना जाता है। यह सूत्र साहित्य के समान बहुत ही संक्षिप्त शैली में लिखा गया है, जहाँ प्रत्येक पंक्ति एक जटिल प्रणाली को याद करने के लिए सहायता करती है। इस प्रकार, अर्थ की व्याख्या टिप्पणीकारों की वजह से है। समूचे ग्रंथ में १०८ छंद है, साथ ही परिचयात्मक १३ अतिरिक्त हैं, इस पूरे को चार पदों अथवा अध्यायों में विभाजित किया गया है :

(1) गीतिकपाद : (१३ छंद) समय की बड़ी इकाइयाँ – कल्प, मन्वन्तर, युग, जो प्रारंभिक ग्रंथों से अलग एक ब्रह्माण्ड विज्ञान प्रस्तुत करते हैं जैसे कि लगध का वेदांग ज्योतिष, (पहली सदी ईसवी पूर्व, इनमेंं जीवाओं (साइन) की तालिका ज्या भी शामिल है जो एक एकल छंद में प्रस्तुत है। एक महायुग के दौरान, ग्रहों के परिभ्रमण के लिए ४.३२ मिलियन वर्षों की संख्या दी गयी है।

(२) गणितपाद (३३ छंद) में क्षेत्रमिति (क्षेत्र व्यवहार), गणित और ज्यामितिक प्रगति, शंकु/ छायाएँ (शंकु -छाया), सरल, द्विघात, युगपत और अनिश्चित समीकरण (कुट्टक) का समावेश है।

(३) कालक्रियापाद (२५ छंद) : समय की विभिन्न इकाइयाँ और किसी दिए गए दिन के लिए ग्रहों की स्थिति का निर्धारण करने की विधि। अधिक मास की गणना के विषय में (अधिकमास), क्षय-तिथियां। सप्ताह के दिनों के नामों के साथ, एक सात दिन का सप्ताह प्रस्तुत करते हैं।

(४) गोलपाद (५० छंद): आकाशीय क्षेत्र के ज्यामितिक /त्रिकोणमितीय पहलू, क्रांतिवृत्त, आकाशीय भूमध्य रेखा, आसंथि, पृथ्वी के आकार, दिन और रात के कारण, क्षितिज पर राशिचक्रीय संकेतों का बढ़ना आदि की विशेषताएं।
इसके अतिरिक्त, कुछ संस्करणों अंत में कृतियों की प्रशंसा आदि करने के लिए कुछ पुष्पिकाएं भी जोड़ते हैं।

आर्यभटीय ने गणित और खगोल विज्ञान में पद्य रूप में, कुछ नवीनताएँ प्रस्तुत की, जो अनेक सदियों तक प्रभावशाली रही। ग्रंथ की संक्षिप्तता की चरम सीमा का वर्णन उनके शिष्य भास्कर प्रथम (भाष्य , ६०० और) द्वारा अपनी समीक्षाओं में किया गया है और अपने आर्यभटीय भाष्य (१४६५) में नीलकंठ सोमयाजी द्वारा।

आर्यभट का योगदान

भारतके इतिहास में जिसे ‘गुप्तकाल’ या ‘स्वर्णयुग’ के नाम से जाना जाता है, उस समय भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की। उस समय मगध स्थित नालन्दा विश्वविद्यालय ज्ञानदान का प्रमुख और प्रसिद्ध केंद्र था। देश विदेश से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए यहाँ आते थे। वहाँ खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार आर्यभट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे।

आर्यभट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धान्त पर बहुत प्रभाव रहा है। भारत में सबसे अधिक प्रभाव केरल प्रदेश की ज्योतिष परम्परा पर रहा। आर्यभट भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन्होंने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने आर्यभटीय ग्रंथ में लिखा है।

उन्होंने एक ओर गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया[क] तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में सबसे पहली बार उदाहरण के साथ यह घोषित किया गया कि स्वयं पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।

आर्यभट ने ज्योतिषशास्त्र के आजकल के उन्नत साधनों के बिना जो खोज की थी,यह उनकी महत्ता है। कोपर्निकस (1473 से 1543 ई.) ने जो खोज की थी उसकी खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले कर चुके थे। “गोलपाद” में आर्यभट ने लिखा है “नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।” इस प्रकार आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। इन्होंने सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग (चतुर्युग) तथा एक चतुर्युग में सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग को समान माना है।

आर्यभट के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है।

आर्यभट ने बड़ी-बड़ी संख्याओं को अक्षरों के समूह से निरूपित करने कीत्यन्त वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया है।

गणित


स्थानीय मान प्रणाली और शून्य
•••••••••••••••••••••••••••••••••••••
स्थान-मूल्य अंक प्रणाली, जिसे सर्वप्रथम तीसरी सदी की बख्शाली पाण्डुलिपि में देखा गया, उनके कार्यों में स्पष्ट रूप से विद्यमान थी। उन्होंने निश्चित रूप से प्रतीक का उपयोग नहीं किया, परन्तु फ्रांसीसी गणितज्ञ जार्ज इफ्रह के मतानुसार- रिक्त गुणांक के साथ, दस की घात के लिए एक स्थान धारक के रूप में शून्य का ज्ञान आर्यभट के स्थान-मूल्य अंक प्रणाली में निहित था।

हालांकि, आर्यभट ने ब्राह्मी अंकों का प्रयोग नहीं किया था; वैदिक काल से चली आ रही संस्कृत परंपरा को निरंतर रखते हुए उन्होंने संख्या को निरूपित करने के लिए वर्णमाला के अक्षरों का उपयोग किया, मात्राओं (जैसे ज्याओं की तालिका) को स्मरक के रूप में व्यक्त करना।

अपरिमेय (इर्रेशनल) के रूप में π
आर्यभट ने पाई ( {\displaystyle \pi } {\displaystyle \pi }) के सन्निकटन पर कार्य किया और संभवतः उन्हें इस बात का ज्ञान हो गया था कि पाई इर्रेशनल है। आर्यभटीयम् (गणितपाद) के दूसरे भाग में वे लिखते हैं:

चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम्।
अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाहः॥

१०० में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर ६२००० जोड़ें। इस नियम से २०००० परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है।
(१०० + ४) * ८ + ६२०००/२०००० = ३.१४१६
इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात ((४ + १००) × ८ + ६२०००) / २०००० = ३.१४१६ है, जो पाँच महत्वपूर्ण आंकडों तक बिलकुल सटीक है।

आर्यभट ने आसन्न (निकट पहुंचना), पिछले शब्द के ठीक पहले आने वाला, शब्द की व्याख्या की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह न केवल एक सन्निकटन है, वरन यह कि मूल्य अतुलनीय (या इर्रेशनल) है। यदि यह सही है, तो यह एक अत्यन्त परिष्कृत दृष्टिकोण है, क्योंकि यूरोप में पाइ की तर्कहीनता का सिद्धांत लैम्बर्ट द्वारा केवल १७६१ में ही सिद्ध हो पाया था।

आर्यभटीय के अरबी में अनुवाद के पश्चात् (पूर्व.८२० ई.) बीजगणित पर मुहम्मद इब्न मूसा अल-ख़्वारिज़्मी की पुस्तक में इस सन्निकटन का उल्लेख किया गया था।

क्षेत्रमिति और त्रिकोणमिति
•••••••••••••••••••••••••••
गणितपाद ६ में, आर्यभट ने त्रिकोण के क्षेत्रफल को इस प्रकार बताया है-

त्रिभुजस्य फलशरीरं समदलकोटि भुजार्धसंवर्गः
इसका अनुवाद यह है : किसी त्रिभुज का क्षेत्रफल, लम्ब के साथ भुजा के आधे के (गुणनफल के) परिणाम के बराबर होता है।

आर्यभट ने अपने काम में द्विज्या (साइन) के विषय में चर्चा की है और उसको नाम दिया है अर्ध-ज्या इसका शाब्दिक अर्थ है “अर्ध-तंत्री”। आसानी की वजह से लोगों ने इसे ज्या कहना शुरू कर दिया। जब अरबी लेखकों द्वारा उनके काम का संस्कृत से अरबी में अनुवाद किया गया, तो उन्होंने इसको जिबा कहा (ध्वन्यात्मक समानता के कारणवश)। चूँकि, अरबी लेखन में, स्वरों का इस्तेमाल बहुत कम होता है, इसलिए इसका और संक्षिप्त नाम पड़ गया ज्ब। जब बाद के लेखकों को ये समझ में आया कि ज्ब जिबा का ही संक्षिप्त रूप है, तो उन्होंने वापिस जिबा का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। जिबा का अर्थ है “खोह” या “खाई” (अरबी भाषा में जिबा का एक तकनीकी शब्द के आलावा कोई अर्थ नहीं है)। बाद में बारहवीं सदी में, जब क्रीमोना के घेरार्दो ने इन लेखनों का अरबी से लैटिन भाषा में अनुवाद किया, तब उन्होंने अरबी जिबा की जगह उसके लेटिन समकक्ष साइनस को डाल दिया, जिसका शाब्दिक अर्थ “खोह” या खाई” ही है। और उसके बाद अंग्रेजी में, साइनस ही साइन बन गया।

अनिश्चित समीकरण
••••••••••••••••••••••••••
प्राचीन कल से भारतीय गणितज्ञों की विशेष रूचि की एक समस्या रही है उन समीकरणों के पूर्णांक हल ज्ञात करना जो ax + b = cy स्वरूप में होती है, एक विषय जिसे वर्तमान समय में डायोफैंटाइन समीकरण के रूप में जाना जाता है। यहाँ आर्यभटीय पर भास्कर की व्याख्या से एक उदाहरण देते हैं:

वह संख्या ज्ञात करो जिसे ८ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ५ बचता है, ९ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ४ बचता है, ७ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में १ बचता है।
अर्थात, बताएं N = 8x+ 5 = 9y +4 = 7z +1. इससे N के लिए सबसे छोटा मान ८५ निकलता है। सामान्य तौर पर, डायोफैंटाइन समीकरण कठिनता के लिए बदनाम थे। इस तरह के समीकरणों की व्यापक रूप से चर्चा प्राचीन वैदिक ग्रन्थ सुल्ब सूत्र में है, जिसके अधिक प्राचीन भाग ८०० ई.पू. तक पुराने हो सकते हैं। ऐसी समस्याओं के हल के लिए आर्यभट की विधि को कुट्टक विधि कहा गया है। kuṭṭaka कुुट्टक का अर्थ है पीसना, अर्थात छोटे छोटे टुकडों में तोड़ना और इस विधि में छोटी संख्याओं के रूप में मूल खंडों को लिखने के लिए एक पुनरावर्ती कलनविधि का समावेश था। आज यह कलनविधि, ६२१ ईसवी पश्चात में भास्कर की व्याख्या के अनुसार, पहले क्रम के डायोफैंटाइन समीकरणों को हल करने के लिए मानक पद्धति है, और इसे अक्सर आर्यभट एल्गोरिद्म के रूप में जाना जाता है।डायोफैंटाइन समीकरणों का इस्तेमाल क्रिप्टोलौजी में होता है और आरएसए सम्मलेन, २००६ ने अपना ध्यान कुट्टक विधि और सुल्वसूत्र के पूर्व के कार्यों पर केन्द्रित किया।

बीजगणित
••••••••••••••••
आर्यभटीय में आर्यभट ने वर्गों और घनों की श्रेणी के रोचक परिणाम प्रदान किये हैं।

{\displaystyle 1^{2}+2^{2}+\cdots +n^{2}={n(n+1)(2n+1) \over 6}} {\displaystyle 1^{2}+2^{2}+\cdots +n^{2}={n(n+1)(2n+1) \over 6}}
और
{\displaystyle 1^{3}+2^{3}+\cdots +n^{3}=(1+2+\cdots +n)^{2}} {\displaystyle 1^{3}+2^{3}+\cdots +n^{3}=(1+2+\cdots +n)^{2}}
खगोल विज्ञान
आर्यभट की खगोल विज्ञान प्रणाली औदायक प्रणाली कहलाती थी, (श्रीलंका, भूमध्य रेखा पर उदय, भोर होने से दिनों की शुरुआत होती थी।) खगोल विज्ञान पर उनके बाद के लेख, जो सतही तौर पर एक द्वितीय मॉडल (अर्ध-रात्रिका, मध्यरात्रि), प्रस्तावित करते हैं, खो गए हैं, परन्तु इन्हे आंशिक रूप से ब्रह्मगुप्त के खण्डखाद्यक में हुई चर्चाओं से पुनः निर्मित किया जा सकता है। कुछ ग्रंथों में वे पृथ्वी के घूर्णन को आकाश की आभासी गति का कारण बताते हैं।

सौर प्रणाली की गतियाँ
••••••••••••••••••••••••••
प्रतीत होता है कि आर्यभट यह मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी की परिक्रमा करती है। यह श्रीलंका को सन्दर्भित एक कथन से ज्ञात होता है, जो तारों की गति का पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न आपेक्षिक गति के रूप में वर्णन करता है।

अनुलोम-गतिस् नौ-स्थस् पश्यति अचलम् विलोम-गम् यद्-वत्।
अचलानि भानि तद्-वत् सम-पश्चिम-गानि लंकायाम् ॥ (आर्यभटीय गोलपाद ९)

जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते देखता है, बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात भूमध्य रेखा पर) लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता है।
अगला छंद तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक गति के रूप में वर्णित करता है:

उदय-अस्तमय-निमित्तम् नित्यम् प्रवहेण वायुना क्षिप्तस्।
लंका-सम-पश्चिम-गस् भ-पंजरस् स-ग्रहस् भ्रमति ॥ (आर्यभटीय गोलपाद १०)

“उनके उदय और अस्त होने का कारण इस तथ्य की वजह से है कि प्रोवेक्टर हवा द्वारा संचालित गृह और एस्टेरिस्म्स चक्र श्रीलंका में निरंतर पश्चिम की तरफ चलायमान रहते हैं।

लंका (श्रीलंका) यहाँ भूमध्य रेखा पर एक सन्दर्भ बिन्दु है, जिसे खगोलीय गणना के लिए मध्याह्न रेखा के सन्दर्भ में समान मान के रूप में ले लिया गया था।

आर्यभट ने सौर मंडल के एक भूकेंद्रीय मॉडल का वर्णन किया है, जिसमे सूर्य और चन्द्रमा गृहचक्र द्वारा गति करते हैं, जो कि परिक्रमा करता है पृथ्वी की। इस मॉडल में, जो पाया जाता है पितामहसिद्धान्त (ई. 425), प्रत्येक ग्रहों की गति दो ग्रहचक्रों द्वारा नियंत्रित है, एक छोटा मंद (धीमा) ग्रहचक्र और एक बड़ा शीघ्र (तेज) ग्रहचक्र।

पृथ्वी से दूरी के अनुसार ग्रहों का क्रम इस प्रकार है :

चंद्रमा, बुध, शुक्र, सूरज, मंगल, बृहस्पति, शनि और नक्षत्र

ग्रहों की स्थिति और अवधि की गणना समान रूप से गति करते हुए बिन्दुओं से सापेक्ष के रूप में की गयी थी, जो बुध और शुक्र के मामले में, जो पृथ्वी के चारों ओर औसत सूर्य के समान गति से घूमते हैं और मंगल, बृहस्पति और शनि के मामले में, जो राशिचक्र में पृथ्वी के चारों ओर अपनी विशिष्ट गति से गति करते हैं। खगोल विज्ञान के अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार यह द्वि ग्रहचक्र वाला मॉडल टॉलेमी के पहले के ग्रीक खगोल विज्ञानके तत्वों को प्रदर्शित करता है।

आर्यभट के मॉडल के एक अन्य तत्व सिघ्रोका, सूर्य के संबंध में बुनियादी ग्रहों की अवधि, को कुछ इतिहासकारों द्वारा एक अंतर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल के चिन्ह के रूप में देखा जाता है

ग्रहण
••••••
उन्होंने कहा कि चंद्रमा और ग्रह सूर्य के परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं। मौजूदा ब्रह्माण्डविज्ञान से अलग, जिसमे ग्रहणों का कारक छद्म ग्रह निस्पंद बिन्दु राहू और केतु थे, उन्होंने ग्रहणों को पृथ्वी द्वारा डाली जाने वाली और इस पर गिरने वाली छाया से सम्बद्ध बताया। इस प्रकार चंद्रगहण तब होता है जब चंद्रमा पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है (छंद गोला. ३७) और पृथ्वी की इस छाया के आकार और विस्तार की विस्तार से चर्चा की (छंद गोला. ३८-४८) और फिर ग्रहण के दौरान ग्रहण वाले भाग का आकार और इसकी गणना। बाद के भारतीय खगोलविदों ने इन गणनाओं में सुधार किया, लेकिन आर्यभट की विधियों ने प्रमुख सार प्रदान किया था। यह गणनात्मक मिसाल इतनी सटीक थी कि 18 वीं सदी के वैज्ञानिक गुइलौम ले जेंटिल ने, पांडिचेरी की अपनी यात्रा के दौरान, पाया कि भारतीयों की गणना के अनुसार १७६५-०८-३० के चंद्रग्रहण की अवधि ४१ सेकंड कम थी, जबकि उसके चार्ट (द्वारा, टोबिअस मेयर, १७५२) ६८ सेकंड अधिक दर्शाते थे।

आर्यभट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि
••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
३९,९६८.०५८२ किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान ४०,०७५.०१६७ किलोमीटर से केवल ०.२% कम है। यह सन्निकटन यूनानी गणितज्ञ, एराटोसथेंनस की संगणना के ऊपर एक उल्लेखनीय सुधार था,२०० ई.) जिनकी गणना का आधुनिक इकाइयों में तो पता नहीं है, परन्तु उनके अनुमान में लगभग ५-१०% की एक त्रुटि अवश्य थी।

नक्षत्रों के आवर्तकाल
•••••••••••••••••••••••
समय की आधुनिक अंग्रेजी इकाइयों में जोड़ा जाये तो, आर्यभट की गणना के अनुसार पृथ्वी का आवर्तकाल (स्थिर तारों के सन्दर्भ में पृथ्वी की अवधि)) २३ घंटे ५६ मिनट और ४.१ सेकंड थी; आधुनिक समय २३:५६:४.०९१ है। इसी प्रकार, उनके हिसाब से पृथ्वी के वर्ष की अवधि ३६५ दिन ६ घंटे १२ मिनट ३० सेकंड, आधुनिक समय की गणना के अनुसार इसमें ३ मिनट २० सेकंड की त्रुटि है। नक्षत्र समय की धारण उस समय की अधिकतर अन्य खगोलीय प्रणालियों में ज्ञात थी, परन्तु संभवतः यह संगणना उस समय के हिसाब से सर्वाधिक शुद्ध थी।

सूर्य केंद्रीयता
•••••••••••••••
आर्यभट का दावा था कि पृथ्वी अपनी ही धुरी पर घूमती है और उनके ग्रह सम्बन्धी ग्रहचक्र मॉडलों के कुछ तत्व उसी गति से घूमते हैं जिस गति से सूर्य के चारों ओर ग्रह घूमते हैं। इस प्रकार ऐसा सुझाव दिया जाता है कि आर्यभट की संगणनाएँ अन्तर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल पर आधारित थीं, जिसमे ग्रह सूर्य का चक्कर लगाते हैं।

एक समीक्षा में इस सूर्य केन्द्रित व्याख्या का विस्तृत खंडन है। यह समीक्षा बी.एल. वान डर वार्डेन की एक किताब का वर्णन इस प्रकार करती है “यह किताब भारतीय गृह सिद्धांत के विषय में अज्ञात है और यह आर्यभट के प्रत्येक शब्द का सीधे तौर पर विरोध करता है,”.

हालाँकि कुछ लोग यह स्वीकार करते हैं कि आर्यभट की प्रणाली पूर्व के एक सूर्य केन्द्रित मॉडल से उपजी थी जिसका ज्ञान उनको नहीं था।

यह भी दावा किया गया है कि वे ग्रहों की मार्ग अंडाकार मानते थे, हालाँकि इसके लिए कोई भी प्राथमिक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया है।
[ ज्योतिर्लिंग

त्र्यम्बकेश्वर महादेव.. दशम् ज्योतिर्लिंगम्..

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। :उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥1॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
:सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥2॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
:हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये॥3॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रात: पठेन्नर:।
:सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥4॥

#त्र्यम्बकेश्वर #ज्योर्तिलिंग मन्दिर महाराष्ट्र-प्रांत के #नासिक जिले में हैं यहां के निकटवर्ती ब्रह्म गिरि नामक पर्वत से #गोदावरी नदी का उद्गम है। इन्हीं पुण्यतोया गोदावरी के उद्गम-स्थान के समीप असस्थित त्रयम्बकेश्वर-भगवान की भी बड़ी महिमा हैं गौतम ऋषि तथा गोदावरी के प्रार्थनानुसार भगवान शिव इस स्थान में वास करने की कृपा की और त्र्यम्बकेश्वर नाम से विख्यात हुए। मंदिर के अंदर एक छोटे से गंढे में तीन छोटे-छोटे लिंग है, ब्रह्मा, विष्णु और शिव- इन तीनों देवों के प्रतीक माने जाते हैं। शिवपुराण के ब्रह्मगिरि पर्वत के ऊपर जाने के लिये चौड़ी-चौड़ी सात सौ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इन सीढ़ियों पर चढ़ने के बाद 'रामकुण्ड' और 'लष्मणकुण्ड' मिलते हैं और शिखर के ऊपर पहुँचने पर गोमुख से निकलती हुई भगवती गोदावरी के दर्शन होते हैं।

त्र्यंबकेश्‍वर ज्योर्तिलिंग में #ब्रह्मा, #विष्‍णु और #महेश तीनों ही विराजित हैं यही इस ज्‍योतिर्लिंग की सबसे बड़ी विशेषता है। अन्‍य सभी ज्‍योतिर्लिंगों में केवल भगवान शिव ही विराजित हैं।

गोदावरी नदी के किनारे स्थित त्र्यंबकेश्‍वर मंदिर काले पत्‍थरों से बना है। मंदिर का स्‍थापत्‍य अद्भुत है। इस मंदिर के पंचकोशी में कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि की पूजा संपन्‍न होती है। जिन्‍हें भक्‍तजन अलग-अलग मुराद पूरी होने के लिए करवाते हैं।

इस प्राचीन मंदिर का पुनर्निर्माण तीसरे पेशवा बालाजी अर्थात नाना साहब पेशवा ने करवाया था। इस मंदिर का जीर्णोद्धार 1755 में शुरू हुआ था और 31 साल के लंबे समय के बाद 1786 में जाकर पूरा हुआ। कहा जाता है कि इस भव्य मंदिर के निर्माण में करीब 16 लाख रुपए खर्च किए गए थे, जो उस समय काफी बड़ी रकम मानी जाती थी।

गाँव के अंदर कुछ दूर पैदल चलने के बाद मंदिर का मुख्य द्वार नजर आने लगता है। त्र्यंबकेश्वर मंदिर की भव्य इमारत सिंधु-आर्य शैली का उत्कृष्ट नमूना है। मंदिर के अंदर गर्भगृह में प्रवेश करने के बाद शिवलिंग की केवल आर्घा दिखाई देती है, लिंग नहीं। गौर से देखने पर अर्घा के अंदर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। इन लिंगों को त्रिदेव- ब्रह्मा-विष्णु और महेश का अवतार माना जाता है। भोर के समय होने वाली पूजा के बाद इस अर्घा पर चाँदी का पंचमुखी मुकुट चढ़ा दिया जाता है।

त्र्यंबकेश्वर मंदिर और गाँव ब्रह्मगिरि नामक पहाड़ी की तलहटी में स्थित है। इस गिरि को शिव का साक्षात रूप माना जाता है। इसी पर्वत पर पवित्र गोदावरी नदी का उद्गमस्थल है। कहा जाता है-

प्राचीनकाल में त्र्यंबक गौतम ऋषि की तपोभूमि थी। अपने ऊपर लगे गोहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गौतम ऋषि ने कठोर तप कर शिव से गंगा को यहाँ अवतरित करने का वरदान माँगा। फलस्वरूप दक्षिण की गंगा अर्थात गोदावरी नदी का उद्गम हुआ।

गोदावरी के उद्गम के साथ ही गौतम ऋषि के अनुनय-विनय के उपरांत शिवजी ने इस मंदिर में विराजमान होना स्वीकार कर लिया। तीन नेत्रों वाले शिवशंभु के यहाँ विराजमान होने के कारण इस जगह को त्र्यंबक (तीन नेत्रों वाले) कहा जाने लगा। उज्जैन और ओंकारेश्वर की ही तरह त्र्यंबकेश्वर महाराज को इस गाँव का राजा माना जाता है, इसलिए हर सोमवार को त्र्यंबकेश्वर के राजा अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं।

इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना के विषय में शिवपुराण में यह कथा वर्णित है- एक बार महर्षि गौतम के तपोवन में रहने वाले ब्राह्मणों की पत्नियाँ किसी बात पर उनकी पत्नी अहिल्या से नाराज हो गईं। उन्होंने अपने पतियों को ऋषि गौतम का अपकार करने के लिए प्रेरित किया। उन ब्राह्मणों ने इसके निमित्त भगवान्‌ श्रीगणेशजी की आराधना की।

उनकी आराधना से प्रसन्न हो गणेशजी ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा उन ब्राह्मणों ने कहा- ‘प्रभो! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो किसी प्रकार ऋषि गौतम को इस आश्रम से बाहर निकाल दें।’ उनकी यह बात सुनकर गणेशजी ने उन्हें ऐसा वर माँगने के लिए समझाया। किंतु वे अपने आग्रह पर अटल रहे।

अंततः गणेशजी को विवश होकर उनकी बात माननी पड़ी। अपने भक्तों का मन रखने के लिए वे एक दुर्बल गाय का रूप धारण करके ऋषि गौतम के खेत में जाकर रहने लगे। गाय को फसल चरते देखकर ऋषि बड़ी नरमी के साथ हाथ में तृण लेकर उसे हाँकने के लिए लपके। उन तृणों का स्पर्श होते ही वह गाय वहीं मरकर गिर पड़ी। अब तो बड़ा हाहाकार मचा।

सारे ब्राह्मण एकत्र हो गो-हत्यारा कहकर ऋषि गौतम की भर्त्सना करने लगे। ऋषि गौतम इस घटना से बहुत आश्चर्यचकित और दुःखी थे। अब उन सारे ब्राह्मणों ने कहा कि तुम्हें यह आश्रम छोड़कर अन्यत्र कहीं दूर चले जाना चाहिए। गो-हत्यारे के निकट रहने से हमें भी पाप लगेगा। विवश होकर ऋषि गौतम अपनी पत्नी अहिल्या के साथ वहाँ से एक कोस दूर जाकर रहने लगे। किंतु उन ब्राह्मणों ने वहाँ भी उनका रहना दूभर कर दिया। वे कहने लगे- ‘गो-हत्या के कारण तुम्हें अब वेद-पाठ और यज्ञादि के कार्य करने का कोई अधिकार नहीं रह गया।’ अत्यंत अनुनय भाव से ऋषि गौतम ने उन ब्राह्मणों से प्रार्थना की कि आप लोग मेरे प्रायश्चित और उद्धार का कोई उपाय बताएँ।

तब उन्होंने कहा- ‘गौतम! तुम अपने पाप को सर्वत्र सबको बताते हुए तीन बार पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करो। फिर लौटकर यहाँ एक महीने तक व्रत करो। इसके बाद ‘ब्रह्मगिरी’ की 101 परिक्रमा करने के बाद तुम्हारी शुद्धि होगी अथवा यहाँ गंगाजी को लाकर उनके जल से स्नान करके एक करोड़ पार्थिव शिवलिंगों से शिवजी की आराधना करो। इसके बाद पुनः गंगाजी में स्नान करके इस ब्रह्मगीरि की 11 बार परिक्रमा करो। फिर सौ घड़ों के पवित्र जल से पार्थिव शिवलिंगों को स्नान कराने से तुम्हारा उद्धार होगा।

ब्राह्मणों के कथनानुसार महर्षि गौतम वे सारे कार्य पूरे करके पत्नी के साथ पूर्णतः तल्लीन होकर भगवान शिव की आराधना करने लगे। इससे प्रसन्न हो भगवान शिव ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा। महर्षि गौतम ने उनसे कहा- ‘भगवान्‌ मैं यही चाहता हूँ कि आप मुझे गो-हत्या के पाप से मुक्त कर दें।’ भगवान्‌ शिव ने कहा- ‘गौतम ! तुम सर्वथा निष्पाप हो। गो-हत्या का अपराध तुम पर छल पूर्वक लगाया गया था। छल पूर्वक ऐसा करवाने वाले तुम्हारे आश्रम के ब्राह्मणों को मैं दण्ड देना चाहता हूँ।’

इस पर महर्षि गौतम ने कहा कि प्रभु! उन्हीं के निमित्त से तो मुझे आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। अब उन्हें मेरा परमहित समझकर उन पर आप क्रोध न करें।’ बहुत से ऋषियों, मुनियों और देव गणों ने वहाँ एकत्र हो गौतम की बात का अनुमोदन करते हुए भगवान्‌ शिव से सदा वहाँ निवास करने की प्रार्थना की। वे उनकी बात मानकर वहाँ त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग के नाम से स्थित हो गए। गौतमजी द्वारा लाई गई गंगाजी भी वहाँ पास में गोदावरी नाम से प्रवाहित होने लगीं। यह ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को प्रदान करने वाला है।

इस भ्रमण के समय त्र्यंबकेश्वर महाराज के पंचमुखी सोने के मुखौटे को पालकी में बैठाकर गाँव में घुमाया जाता है। फिर कुशावर्त तीर्थ स्थित घाट पर स्नान कराया जाता है। इसके बाद मुखौटे को वापस मंदिर में लाकर हीरेजड़ित स्वर्ण मुकुट पहनाया जाता है। यह पूरा दृश्य त्र्यंबक महाराज के राज्याभिषेक-सा महसूस होता है। इस यात्रा को देखना बेहद अलौकिक अनुभव है।

‘कुशावर्त तीर्थ की जन्मकथा काफी रोचक है। कहते हैं ब्रह्मगिरि पर्वत से गोदावरी नदी बार-बार लुप्त हो जाती थी। गोदावरी के पलायन को रोकने के लिए गौतम ऋषि ने एक कुशा की मदद लेकर गोदावरी को बंधन में बाँध दिया। उसके बाद से ही इस कुंड में हमेशा लबालब पानी रहता है। इस कुंड को ही कुशावर्त तीर्थ के नाम से जाना जाता है। कुंभ स्नान के समय शैव अखाड़े इसी कुंड में शाही स्नान करते हैं।’- दंत कथा

शिवरात्रि और सावन सोमवार के दिन त्र्यंबकेश्वर मंदिर में भक्तों का ताँता लगा रहता है। भक्त भोर के समय स्नान करके अपने आराध्य के दर्शन करते हैं। यहाँ कालसर्प योग और नारायण नागबलि नामक खास पूजा-अर्चना भी होती है, जिसके कारण यहाँ साल भर लोग आते रहते हैं।

ग्रहों की अवस्था – सूर्य, मंगल एवं शनि की पृष्ठोदय संज्ञा तथा राहु, गुरु, शुक्र एवं बुध की शीर्षोदय संज्ञा होती है तथा ग्रहों की अवस्था में चन्द्रमा शिशु, मंगल बाल, बुध किशोर, शुक्र युवा, गुरु मध्य, सूर्य वृद्ध तथा शनि की अतिवृद्ध अवस्था होती है। कुछ आचार्यों के मत से बुध शिशु, मंगल युवा, शुक्र एवं चन्द्र मध्य अवस्था वाले तथा शेष ग्रह वृद्ध अवस्था वाले होते हैं।
ग्रहों का समयबल विचार — प्रात:काल गुरु एवं बुध, मध्याह्न काल में सूर्य एवं मंगल, अपराह्न में चन्द्रमा एवं शुक्र तथा सन्ध्या समय में शनि एवं राहु बली होते हैं।
ग्रहों की कफादि संज्ञा – मंगल एवं सूर्य की पित्त प्रकृति, चन्द्रमा एवं शुक्र की कफ प्रकृति, गुरु एवं बुध की समधातु तथा शेष शनि एवं राहु वात प्रकृति के होते हैं।
ग्रहों का रस- मंगल सूर्य का कटु (कड़ुवा) रस, चन्द्र तथा शुक्र का नमकीन एवं खट्टा, बुध का कसैला, गुरु का मीठा तथा राहु एवं शनि की तिक्त रस संज्ञा होती है।
ग्रहों की द्विपदादि संज्ञा— गुरु एवं शुक्र की द्विपद संज्ञा, मंगल सूर्य की चतुष्पद संज्ञा, बुध एवं शनि की पक्षी संज्ञा तथा चन्द्र एवं राहु की सरीसृप (सरक कर चलने वाले जीव) संज्ञा मानी गयी है।
ग्रहों की वर्णादि संज्ञा- शुक्र तथा गुरु ब्राह्मण संज्ञक, मंगल और सूर्य क्षत्रिय संज्ञक, बुध एवं चन्द्रमा वैश्य संज्ञक तथा राहु एवं शनि शूद्र संज्ञक होते हैं। कुछ आचार्यों ने चन्द्रमा को वैश्य, बुध को शूद्र तथा शनि और राहु को म्लेच्छ (अन्त्यज) संज्ञक माना है।
ग्रहों की दृष्टि विचार – मंगल तथा सूर्य की उध्र्व दृष्टि, राहु और शनि की अधोदृष्टि, शुक्र और बुध की तिर्यव्â दृष्टि तथा चन्द्रमा एवं गुरु की समदृष्टि होती है।
ग्रहों के तत्त्व विचार- सूर्य एवं मंगल अग्नितत्त्व, चन्द्रमा एवं शुक्र जलतत्त्व, बुध भूमि तत्त्व, गुरु आकाश तत्त्व तथा शनि एवं राहु वायु तत्त्व कारक हैं।
ग्रहों का वस्त्र – सूर्य का मोटा वस्त्र, चन्द्रमा का नूतन, मंगल का जला हुआ, बुध का भीगा हुआ, गुरु का सामान्य, शुक्र का दृढ़ तथा शनि एवं राहु का जीर्णवस्त्र माना गया है।
ग्रहों की धातु – सूर्य का ताम्र, चन्द्रमा का मणि, मंगल का सोना, बुध का मिश्रित धातु, गुरु का सोना, शुक्र का मोती, या चांदी तथा शनि एवं राहु का धातु लोहा माना गया है।
ऋतुओं के स्थायीग्रह – क्रमश: वर्षा ऋतु का स्वामी चन्द्रमा, शरद ऋतु का बुध, हेमन्त का गुरु, शिशिर का शनि एवं राहु, बसन्त का शुक्र तथा ग्रीष्म ऋतु का स्वामी मंगल एवं सूर्य ग्रह हैं। इसी प्रकार सूर्य ६ महीने एक अयन, चन्द्रमा एक मुहूर्त, मंगल-दिन, बुध ऋतु अर्थात् दो मास, गुरु एक महीने का, शुक्र पक्ष यानी १५ दिन तथा शनि एवं राहु १ वर्ष अथवा उससे अधिक समय के स्वामी होते हैं।
ग्रहों की स्थिरादि संज्ञा – सूर्य स्थिर, चन्द्रमा चर, मंगल उग्र, बुध मिश्रित, गुरु मृदु, शुक्र लघु तथा शनि तीक्ष्ण संज्ञक ग्रह हैं। शुक्र एवं चन्द्रमा सजल ग्रह, सूर्य, मंगल एवं शनि शुष्क ग्रह तथा गुरु एवं बुध राश्यानुसार सजल एवं निर्जल दोनों होते हैं।
ग्रहों के नैर्सिगक मैत्री विचार — सूर्य के चन्द्रमा, मंगल तथा गुरु मित्र, बुध सम तथा शुक्र एवं शनि शत्रु हैं। इसी प्रकार चन्द्रमा सूर्य तथा बुध को मित्र, मंगल, गुरु, शुक्र एवं शनि को सम तथा किसी भी ग्रह को शत्रु नहीं मानता है। मंगल सूर्य चन्द्रमा तथा गुरु को मित्र बुध को शत्रु तथा शेष ग्रहों को सम मानता है। बुध सूर्य तथा शुक्र को मित्र, चन्द्रमा को शत्रु तथा शेष ग्रहों को सम मानता है। गुरु तथा सूर्य, चन्द्र तथा मंगल को मित्र, शनि को सम तथा बुध, तथा शुक्र को शत्रु मानता है। शुक्र तथा ग्रह बुध तथा, शनि को मित्र, सूर्य तथा चन्द्र को शत्रु तथा मंगल एवं गुरु को सम मानता है। शनि ग्रह बुध तथा शुक्र को मित्र, गुरु को सम तथा शेष ग्रहों को सम मानता है।
आत्मादि ग्रहों का निरूपण करते हुए वराहमिहिर ने कहा है —
कालात्मा दिन कृन्मनस्तु हिनगु: सत्त्वं कुजोज्ञो वचो।
जीवो ज्ञानसुखे सितश्च मदनो दु:खं दिनेशात्मज:।। (बृहज्जातकम् २।१)
अर्थात् काल पुरुष की आत्मा सूर्य, चन्द्रमा मन, मंगल पराक्रम, बुध वाणी, गुरु ज्ञान एवं सुख, शुक्र काम तथा शनि दु:ख है। अर्थात् जन्म या प्रश्न के समय जो ग्रह जिसके कारक बताये गये हैं उनसे सम्बन्धित तथ्यों की अधिकता देखी जाती है।
सूर्यसिद्धान्त में ग्रहों की आठ प्रकार की गतियों का वर्णन मिलता है। यथा — वक्रा, अनुवक्रा, कुटिला, मन्दा, मन्दतरा, समा, शीघ्रतरा तथा शीघ्रा।
वक्रानुवक्रा कुटिला मन्दा मन्दतरा समा।
तथा शीघ्रतरा शीघ्रा ग्रहाणामष्टधा गति:।। (स्पष्टाधिकार १२)
कुटिला एवं वक्रा पर्याय हैं अत: कुटिला के स्थान पर विकला पाठ अधिक उचित है। कहीं वक्रानुवक्रा विकला यह पाठ मिलता है। होरानुभवदर्पण में कहा गया है कि सूर्य के साथ ग्रह अस्त, पुन: अंशों से आगे निकलने पर उदित गति, सूर्य से दूसरी राशि में ग्रह होने पर शीघ्रा, तीसरी में समा, चौथी में मन्दा, पांचवी एवं छठीं में वक्रा, सातवीं तथा आठवीं में अतिवक्रा, नवीं तथा दशवी में कुटिला (विकला) तथा ग्यारहवीं तथा बारहवीं राशि में रहने पर अतिशीघ्रा गति होती है।
महानिबन्ध नामक ग्रन्थ में काल पुरुष के शरीरावयवों में ग्रह न्यास बताते हुए कहा गया है कि कालपुरुष के मस्तक व मुख में सूर्य, वक्षस्थल व गले में चन्द्रमा, पीठ व पेट में मंगल, हाथ व पैर में बुध, कमर व जांघ में गुरु, गुह्य स्थान में शुक्र तथा घुटनों में शनि को स्थापित करके, गोचर वश अथवा जन्म कुण्डली के अनुसार इन इन अंगों का शुभाशुभ फल जानना चाहिए।
किस कार्य में किस ग्रह के बल का विचार करना चाहिए – विवाह तथा उत्सव में गुरु का, राजदर्शन में सूर्य का, युद्ध में मंगल का, विद्याभ्यास में बुध का, यात्रा में शुक्र का, दीक्षा (मन्त्र ग्रहण) में शनि का तथा समस्त कार्यों में चन्द्रमा का बल देखना चाहिए —
उद्वाहे चोत्सवे जीव: सूर्यो भूपालदर्शने
संग्रामे धरणी पुत्रो विद्याभ्यासे बुधो बली।
यात्रायां भार्गव: प्रोक्त: दीक्षायां च शनैश्चर:।
चन्द्रमा सर्वकार्येषु प्रशस्तो गृह्यते बुधै:।।
(बृहद्दैवज्ञरञ्जनम् ३२।४४,४५)
वशिष्ठ और गर्ग ऋषि ने भी इन्हीं कार्यों में उक्त ग्रहों का बली होना स्वीकार किया है। प्रत्येक ग्रह कितने समय में एक राशि का भोग पूर्ण करता है। इन सन्दर्भ में कर्णप्रकाशकार का मत अवलोकनीय है। शनि एक राशि २१/२ (ढाई) वर्ष में, राहु ११/२ (डे़ढ़) वर्ष में, मंगल ११/२ (डेढ़) मास में, सूर्य, बुध एवं शुक्र १ (एक) मास में तथा चन्द्रमा २१/४ (सवा दो) दिन में एक राशि का भोग करता है। यथा —
सौरी सुन्दरि साद्र्धमब्दयुगलं वर्षं समासं गुरु
राहुर्मास दशाष्टकं तु कथितं मासं सपक्षं कुज:।
सूर्य: शुक्रबुधास्त्रयोऽपि कथिता मासैकतुल्या ग्रहा
श्चन्द्र: पादयुतं दिनद्वयमिति प्रोत्तेâति राशिस्थिति:।। (वही ३२।६०)
ग्रहों की दृष्टि – प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से सप्तम स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है। पूर्ण दृष्टि के अतिरिक्त तीन अन्य प्रकार की भी दृष्टि होती है। तीन चौथाई, दो चौथाई (आधी) तथा एक चौथाई दृष्टि। ग्रह अपने स्थान से ४, ८ स्थानों पर तीन चौथाई दृष्टि, ५, ९ स्थान पर आधी दृष्टि तथा ३, १० स्थानों पर एक चौथाई दृष्टि से देखते हैं। शनि, गुरु तथा मंगल की विरोध दृष्टियाँ हैं। शनि सप्तम के अतिरिक्त ३, १० स्थानों पर पूर्ण दृष्टि डालता है। गुरु सप्तम के अतिरिक्त ५, ९ स्थानों पर पूर्ण दृष्टि तथा मंगल सप्तम के अतिरिक्त ४, १० स्थानों पर पूर्ण दृष्टि डालता है। यथा —
पश्यन्ति सप्तमं सर्वे शनि जीव कुजा पुन:।
विशेषत: त्रिदश त्रिकोण चतुरष्टमम् ।।
इन दृष्टियों के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर ग्रहों की दृष्टि बिल्कुल नहीं होती।
ग्रहों की विफलता – सूर्य के साथ चन्द्रमा, पांचवें भाव में गुरु, चतुर्थ भाव में बुध, सप्तम भाव में शनि, छठें शुक्र तथा दूसरे मंगल यदि स्वगृही, उच्चादि या मूल त्रिकोण के न हों तो फल देने में असमर्थ अर्थात् विफल हो जाते हैं। यथा —
सभानुरिन्दु शशिजश्चतुर्थे गुरु: सुते भूमिसुत: कुटुम्बे।
भृगु: सपत्ने रविज: कलत्रे विलग्नतस्ते विफला भवन्ति।।
(जातक पारिजात २।७२)
जो ग्रह जिस भाव का कारक है यदि अकेला उस भाव में हो तो भाव को बिगाड़ता है – कारको भावनाशाय।
दीप्तादि अवस्था — ग्रहों की दीप्तादि दश अवस्थायें होती हैं। १. दीप्त, २. मुदित, ३. स्वस्थ, ४. शान्त, ५. शक्त, ६. प्रपीड़ित, ७. दीन, ८. खल, ९. विकल तथा १०. भीत।
दीप्त: प्रमुदित: स्वस्थ: शान्त: शक्त: प्रपीडित:।
दीन: खलस्तु विकलो भीतोऽवस्था दश क्रमात् ।।
(जातकपारिजात २।१६)
अपने उच्च अथवा मूल त्रिकोण में रहने वाला ग्रह दीप्त कहलाता है। अपने गृह में स्थित स्वस्थ, मित्रगृह में मुदित, शुभग्रह के वर्ग में स्थित ग्रह शान्त, स्पुâटरश्मि जालों से अत्यन्त शुद्ध ग्रह शक्त, ग्रहों से पराजित प्रपीड़ित, शत्रु की राशि में दीन, पापग्रह की राशि में खल, अस्तग्रह विकल तथा नीच राशि में स्थित होने पर भीत होता है।
ग्रहों का वास स्थान – सूर्य का देवालय, चन्द्रमा का जलाशय, मंगल का अग्नि स्थान (रसोई घर), बुध का क्रीड़ाभूमि, गुरु का भण्डार स्थान, शुक्र का शयन स्थान, शनि का ऊसर भूमि तथा राहु का गृह एवं केतु का कोण स्थान वास स्थल कहे गये हैं।
सम्पूर्ण भारतवर्ष में ग्रहों का स्थान किस प्रदेश में है इसका विभाग जातक पारिजात में इस प्रकार र्विणत है—
लज्र से कृष्णा नदी तक मंगल का प्रदेश, कृष्णानदी से गौतमी नदी पर्यन्त शुक्र का, गौतमी से विन्ध्य पर्वत तक गुरु का, विन्ध्य से गंगा नदी तक बुध का और गंगा से हिमालय पर्यन्त शनि का प्रदेश है। सूर्य का स्थान देवभूमि मेरु पर्वत तथा चन्द्रमा का समुद्रतटीय प्रदेश जानना चाहिए। यथा —
लंकादिकृष्णासरिदन्तमार: सितस्ततो गौतमिकान्त भूमि:।
विन्ध्यान्तमार्य: सुरनिम्नगान्तं बुध: शनि: स्यात्तुहिनाचलान्त:।।
(जातक पारिजात २।२५)
एक आदमी ने भगवान से पूछा : “मैं इतना गरीब क्यों हूँ?”,
भगवान ने कहा :” तुम गरीब हो क्योंकि तुमने देना नहीं सीखा ” !
आदमी ने कहा :
“परन्तु मेरे पास तो देने के लिए कुछ भी नहीं है”।भगवान ने कहा :
“तुम्हारा चेहरा: एक मुस्कान दे सकता है. तुम्हारा मुँह: किसी की प्रशंसा कर सकता है या दूसरों को सुकून पहुंचाने के लिए दो मीठे बोल बोल सकता है , तुम्हारे हाथ : किसी ज़रूरतमंद की सहायता कर सकते हैं . . .और तुम कहते हो तुम्हारे पास देने के लिए कुछ भी नहीं ? !!
पाने का हक उसी को है . .
जो देना जानता है ….!
[सत्य की बात करो, न्याय की बात करो, शास्त्र की बात करो तो सब कहने लगते हैं कि तुम पुराने खयालों के हो, तुम मनुवादी हो, तुम जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हो, तुम्हारे ही कारण देश गुलाम हुआ, तुम जैसों के ही कारण हिंदुओं का नाश हुआ है,,,,,, आदि-आदि।

क्या विचित्र है ! लोगों की समझ कितनी निम्न हो गई है !

जो हितकारी है पर आचरण में थोड़ा कठिन है ; वह बुरा लगता है।
जो अहितकर है पर क्षणिक सुख देकर परिणाम में भयंकर दुःख देने वाला है ; वह लोगों को अच्छा लग रहा है।

दरअसल इन फर्जी सुधारवादी, बुद्धिवादियों के कारण ही देश-धर्म पर सर्वथा संकट आये हैं, इन्होंने संकट से लड़ रहे आस्तिक समाज के मन में ऐसा भ्रम डाला कि यह संकट नहीं है प्रत्युत् यही मानवता है, और यही सबके लिए उचित है ; जिसके परिणामस्वरूप आज अधिकतर लोग अपने विनाश को ही अपना कल्याण मानकर जी रहे हैं।

इससे होगा क्या ? मन बहलाने के लिए संतुष्ट दिखने का नाटक कितना भी कर लें, किन्तु जो शाश्वत् सुख है, शाश्वत् शांति है, उससे बहुत दूर अवश्य चले जायेंगे।

ग्रहबल

यदि अशुभ ग्रह के ऊपर शुभग्रह की दृष्टि हो तो शुभ फल देता है। जिस ग्रह पर पापग्रह अथवा शत्रुग्रह की दृष्टि हो वह निष्फल है। यदि ग्रह नीच, अस्त अथवा शत्रुक्षेत्री हो तो सम्पूर्ण फल व्यर्थ है। उच्च अथवा स्वक्षेत्री ग्रह यदि ६-८-१२ स्थानों में भी स्थित हो तब भी दुष्ट फल नहीं देते हैं, यदि उच्च अथवा स्वक्षेत्री न हो तथा पूर्वोक्त स्थानों में बैठें हों तो दोषकारी हैं। यदि बृहस्पति उच्च, स्वक्षेत्री, मित्रक्षेत्री अथवा वर्गोत्तम नवांश का होकर ४-८-१२ स्थानों में भी हो तो शुभ है, परन्तु नीच अथवा शत्रुक्षेत्री शुभ स्थानों में भी बैठा हो तो शुभ नहीं है।
वक्री अथवा उच्च का ग्रह बड़ा बलवान होता है। यदि पापग्रह वक्री हो तो बहुत अशुभ फल देता है, शुभग्रह वक्री हो तो बहुत शुभ फल देता है। स्वक्षेत्री, उच्च, मूलत्रिकोण के ग्रह अनिष्ट फल नहीं देते हैं। जिस ग्रह पर बृहस्पति की पूर्ण दृष्टि हो वह अनिष्ट फल नहीं देता है। पुरुष ग्रह पुरुष राशि में बलवान होते हैं। स्त्री ग्रह स्त्री राशि में बलवान होते हैं। जो ग्रह उच्च, मित्रक्षेत्री, स्वक्षेत्री, अपने नवांश का अथवा सौम्य ग्रह से दृष्ट हो वह ग्रह बलवान है। क्षीण चन्द्रमा, सूर्य, मङ्गल, शनि तथा इनसे युक्त बुध भी पापग्रह है। जो ग्रह उदित स्वक्षेत्री, मित्रक्षेत्री, मित्रवर्गी अथवा मित्रदृष्ट हो वह ग्रह बलवान होता है।
जो ग्रह अपने मूलत्रिकोण, उच्च, मित्रनवांश आदि में हों, वे बलवान होते हैं। शुक्र एवं चन्द्रमा स्त्रीराशि में, शेष ग्रह पुरुष राशि में, सब ग्रह केन्द्र में, चन्द्रमा, शनि एवं मंगल रात में, बुध रात-दिन दोनों में, शेष ग्रह दिन में, पापग्रह कृष्णपक्ष में, शुभग्रह शुक्ल पक्ष में, बुध, सूर्य तथा शनि दिन के तीन भागों में, चन्द्रमा, शुक्र एवं मंगल रात्रि के तीन भागों में, बृहस्पति रात-दिन दोनों में, बुध-बृहस्पति लग्न में, शुक्र-चन्द्रमा सुखस्थान में, शनि सप्तम स्थान में, सूर्य- मंगल दशम स्थान में, वर्ष, मास, दिन तथा होरा के स्वामी, सूर्य एवं चन्द्रमा उत्तरायण में, शेष ग्रह अच्छी किरण वाले वक्री चाल से रहित, युद्ध में जय पाये हुए बलवान होते हैं। इस प्रकार नाना प्रकार के बल से युक्त ग्रह बलवान होते हैं। इससे विपरीत निर्बल होते हैं।
सूर्य, बुध तथा शुक्र प्राय: एक मास पर्यन्त एक राशि में रहते हैं। मंगल डेढ़ महीना, बृहस्पति १३ महीना, शनि ३० महीना, राहु-केतु १८ महीना, चन्द्रमा सवा दो दिन एक राशि में रहते हैं। वक्री अथवा शीघ्री होने से कभी-कभी बुध आदि ग्रहों में अन्तर पड़ जाता है। सूर्य कभी एक राशि को २९ दिन में पार कर लेता है, कभी उसे ३२ दिन भी लग जाते हैं। चन्द्रमा कभी दो दिन में एक राशि को पार कर लेता है, कभी उसे ढाई दिन भी लग जाता है। मंगल जब स्तम्भन में होता है तो इसे २००, २५० दिन तक एक राशि में लग जाते हैं। परन्तु उसके अनन्तर अतिचार होता है उसमें ३० या ३५ दिन में एक राशि का भोग कर लेता है।
[♦️❇️❇️❇️❇️❇️❇️❇️❇️❇️❇️❇️♦️

🚸”इन्सान की सोच ही जीवन
का आधार हैं” !!”🚸

         ✍️✍️

तीन राहगीर रास्ते पर एक पेड़ के नीचे मिले | तीनो लम्बी यात्रा पर निकले थे | कुछ देर सुस्ताने के लिए पेड़ की घनी छाया में बैठ गए | तीनो के पास दो झोले थे एक झोला आगे की तरफ और दूसरा पीछे की तरफ लटका हुआ था |

तीनो एक साथ बैठे और यहाँ-वहाँ की बाते करने लगे जैसे कौन कहाँ से आया? कहाँ जाना हैं? कितनी दुरी हैं ? घर में कौन कौन हैं ?ऐसे कई सवाल जो अजनबी एक दुसरे के बारे में जानना चाहते हैं |

तीनो यात्री कद काठी में सामान थे पर सबके चेहरे के भाव अलग-अलग थे | एक बहुत थका निराश लग रहा था जैसे सफ़र ने उसे बोझिल बना दिया हो | दूसरा थका हुआ था पर बोझिल नहीं लग रहा था और तीसरा अत्यन्त आनंद में था | एक दूर बैठा महात्मा इन्हें देख मुस्कुरा रहा था |

तभी तीनो की नजर महात्मा पर पड़ी और उनके पास जाकर तीनो ने सवाल किया कि वे मुस्कुरा क्यूँ रहे हैं | इस सवाल के जवाब में महात्मा ने तीनो से सवाल किया कि तुम्हारे पास दो दो झोले हैं इन में से एक में तुम्हे लोगो की अच्छाई को रखना हैं और एक में बुराई को बताओ क्या करोगे ?

एक ने कहा मेरे आगे वाले झोले में, मैं बुराई रखूँगा ताकि जीवन भर उनसे दूर रहू | और पीछे अच्छाई रखूँगा | दुसरे ने कहा- मैं आगे अच्छाई रखूँगा ताकि उन जैसा बनू और पीछे बुराई ताकि उनसे अच्छा बनू | तीसरे ने कहा मैं आगे अच्छाई रखूँगा ताकि उनके साथ संतुष्ट रहूँ और पीछे बुराई रखूँगा और पीछे के थैले में एक छेद कर दूंगा जिससे वो बुराई का बोझ कम होता रहे हैं और अच्छाई ही मेरे साथ रहे अर्थात वो बुराई को भूला देना चाहता था |

यह सुनकर महात्मा ने कहा – पहला जो सफ़र से थक कर निराश दिख रहा हैं जिसने कहा कि वो बुराई सामने रखेगा वो इस यात्रा के भांति जीवन से थक गया हैं क्यूंकि उसकी सोच नकारात्मक हैं उसके लिए जीवन कठिन हैं |

दूसरा जो थका हैं पर निराश नहीं, जिसने कहा अच्छाई सामने रखूँगा पर बुराई से बेहतर बनने की कोशिश में वो थक जाता हैं क्यूंकि वो बेवजह की होड़ में हैं |

तीसरा जिसने कहा वो अच्छाई आगे रखता हैं और बुराई को पीछे रख उसे भुला देना चाहता हैं वो संतुष्ट हैं और जीवन का आनंद ले रहा हैं |इसी तरह वो जीवन यात्रा में खुश हैं |

✳️Moral Of This Story :
👇👇

जीवन में जब तक व्यक्ति दूसरों में बुराई को ढूंढेगा वो खुश नहीं रह सकता, जीवन भी एक यात्रा हैं जिसमे सकारात्मक सोच जीवन को ख़ुशहाल बनाती हैं | जीवन में क्रोध सबसे बड़ा बोझ हैं और क्षमा सबसे सुन्दर और सरल रास्ता जो जीवन को बोझहीन बनाता हैं |

࿇ ══━━━━✥ ✥━━━━══ ࿇
[जोड़ों के दर्द और अर्थराइटिस में आराम दिलाती है दालचीनी, जानें कैसे करना है प्रयोग

अर्थराइटिस में दालचीनी के प्रयोग से जोड़ों के दर्द से जल्दी राहत मिलती है।
दालचीनी में दर्द और सूजन को खत्म करने के गुण होते हैं।
तत्काल राहत ही नहीं, दालचीनी धीरे-धीरे गठिया को ठीक कर देती है।
अर्थराइटिस या गठिया के कारण जोड़ों और हड्डियों में दर्द बना रहता है। आमतौर पर इस दर्द का असर घुटनों, कोहनी, उंगलियों और तलवों में ज्यादा होता है। कई बार दर्द के साथ-साथ जोड़ों में सूजन भी होती है। इस दर्द के कारण व्यक्ति को उठने-बैठने और चलने में भी परेशानी होने लगती है। इस तरह के दर्द में बार-बार दवाओं के प्रयोग से बेहतर है कि आप आयुर्वेद में बताए गए आसान घरेलू उपायों का प्रयोग करें। अर्थराइटिस में दालचीनी के प्रयोग से जोड़ों के दर्द से जल्दी राहत मिलती है।

1. दर्द से तुरंत राहत के लिए दालचीनी पेस्ट:- दालचीनी पाऊडर में कुछ बूंदे पानी की मिला लें। इसका एक गाढ़ा पेस्ट तैयार कर लें। इस पेस्ट को जोड़ों पर लगाएं और फिर मुलायम कपड़े से ढंक दें, ताकि वो लंबे समय तक लगा रहे। दालचीनी में दर्दनिवारक और सूजनरोधी गुण होते हैं। इसलिए इसके प्रयोग से अर्थराइटिस के कारण होने वाली सूजन और दर्द दोनों में फायदा मिलता है

2. दर्द से तुरंत राहत के लिए दालचीनी पेस्ट:- दालचीनी पाऊडर में कुछ बूंदे पानी की मिला लें। इसका एक गाढ़ा पेस्ट तैयार कर लें। इस पेस्ट को जोड़ों पर लगाएं और फिर मुलायम कपड़े से ढंक दें, ताकि वो लंबे समय तक लगा रहे। दालचीनी में दर्दनिवारक और सूजनरोधी गुण होते हैं। इसलिए इसके प्रयोग से अर्थराइटिस के कारण होने वाली सूजन और दर्द दोनों में फायदा मिलता

3. दालचीनी और शहद:- डेढ़ चम्मच दालचीनी पाऊडर और एक चम्मच शहद मिला लें। रोज़ सुबह खाली पेट एक कप गर्म पानी के साथ इसका सेवन करें। इससे गठिया के दर्द में राहत मिलती है और जोड़ों में जमा यूरिक एसिड कम होता है, जिससे अर्थराइटिस धीरे-धीरे कम होने लगता है। एक सप्ताह में इसका असर दिखना शुरू हो जाएगा।

4. सप्ताह में 2 बार पिएं ये स्पेशल चाय:- गठिया की समस्या को धीरे-धीरे जड़ से मिटाना है, तो आपको सप्ताह में दो बार स्पेशल चाय पीनी चाहिए। इस चाय को बनाने के लिए 250 ग्राम दूध व उतने ही पानी में दो लहसुन की कलियां, एक-एक चम्मच सौंठ या हरड़ तथा एक-एक दालचीनी और हरी इलायची डालकर उसे अच्छी तरह से धीमी आंच पर पकाएं। जब पानी जल जाए, तो उस दूध को पियें, गठिया रोगियों को जल्द फायदा होगा।

5. गठिया को कम करने के लिए जरूरी बातें:- अर्थराइटिस व्यक्ति के जोड़ों, आंतरिक अंग और त्वचा को नुकसान पहुंचा सकता है। घरेलू नुस्खे के अलावा अर्थराइटिस से राहत पाने के लिए इन बातों का भी ध्यान रखना जरूरी है।
अपना वजन कम रखें क्योंकि ज्यादा वज़न से आपके घुटने तथा कूल्हों पर दबाव पड़ता है।

6. सुबह गरम पानी से नहाएं।:-

7.कसरत तथा जोड़ों को हिलाने से भी धीरे-धीरे ये समस्या दूर होती है।:-

https://youtu.be/6tM2oMiPM4Q


[कान के सभी रोगों में

हफ्ते मे एक बार खाना खाने से पहले कान के अंदर गुनगुने सरसों के तेल की 2-4 बूंदे डाल लें। ऐसा करने से कान में कभी भी कोई परेशानी नही होती। कानों के अंदर तेल डालने से कान के अंदर का मैल फूलकर बाहर निकल आता है। अगर 7 से 15 दिन में 1-2 बार 2-3 बूंदे तेल की कान में डाली जाये तो कभी बहरेपन होने का डर नही रहता और दांत भी मजबूत रहते हैं।

https://youtu.be/6tM2oMiPM4Q


: अच्छीनींदकेलिएउपाय

पूरे दिन तरोताजा और उर्जा से भरपूर रहने के लिए जरूरी है कि आप रातभर अच्छी और सुकून भरी नींद लें लेकिन चिंता, सोने का स्थान और परिस्थितियां आपकी नींद में बाधक हो सकती हैं!

(1). योगा व ध्यान करें :- अगर कोई व्यक्ति नियमित रुप से योगा व ध्यान करता है तो उसे रात में नींद नहीं आने की समस्या होने की संभावना कम होती है! योगा आपके शरीर की थकान व तनाव को कम करता है जिससे आप अच्छी नींद ले सकते हैं!

(2). चाय व कॉफी का परहेज करें :- सोने से पहले या शाम के समय ज्यादा कॉफी या चाय नहीं पीएं क्योंकि चाय और कॉफी में कुछ ऐसे तत्व होते हैं, जिनसे उत्तेजना बढ़ती है और मस्तिष्क को जागृत कर देती है! ऐसे में नींद नहीं आने की समस्या हो सकती है!

(3). सोने का समय तय करे :- अपने सोने व जागने का समय तय करें, इससे जब आपको आदत हो जाएगी तो अपने आप उस समय आपको नींद आने लगेगी! रात में ज्यादा देर तक नहीं जागें इससे नींद गायब हो जाती है इस कारण हानिकारक एडेरेनाइन हार्मोन का उत्पादन बढ़ जाता है! इसका नतीजा यह निकलता है कि आपको नींद ही नहीं आती है! तय समय पर खुद को सोने के लिए तैयार करें!

(4). टीवी से जरा दूरी बनायें :- सोने से आधे घंटे पहले टीवी व कंप्यूटर के पास नहीं बैठे क्योंकि टीवी और कंप्यूटर की स्क्रीन से आने वाली रोशनी हमारे शरीर को ये एहसास दिलाती रहती है कि अभी दिन है! इस कारण हमारा शरीर सोने के लिए तैयार नहीं हो पाता! सोने से पहले आप किताबें पढ़ सकते हैं!

(5). म्‍यूजिक थेरेपी :- संगीत में जादू होता है! ये मन की थकान को कम करता है, जिससे शरीर की थकान भी कम हो जाती है! सोने से पहले मधुर कीर्तन सुनें, नींद जल्दी आती है!

(6). पंजो की मसाज करें :- खुद को अच्छी नींद के लिए पंजो का मसाज भी करें! दिनभर की थकान के बाद जब आपके पैरों में मसाज किया जाता है तो इससे आपको आराम मिलता है और नींद अच्छी मिलती है।

https://youtu.be/6tM2oMiPM4Q


उच्च रक्तचाप का आयुर्वेदिक इलाज

  1. प्रतिदिन प्रातः काल तुलसी के पांच पत्ते तथा 2 कालि मिर्च खाने से वातरोग का नाश होता है तथा तुलसी के पांच पत्ते खाली पेट सेवन करने से रक्तचाप भी सामान्य होता है !
  2. मखानों का नियमित सेवन करने से ब्लड प्रेशर , कमर और घुटनों का दर्द नियंत्रित रहता है !
  3. शिमला मिर्च का सेवन उच्च रक्तचाप के रोगियों के लिए बेहद फायदेमंद होता है !
  4. लौकी का रस उच्च रक्तचाप में लाभप्रद होता है !
  5. कच्चा प्याज़ ब्लड प्रेशर को नार्मल करंता है और बंद खून की धमनियों को खोलता है जिससे दिल की कोई बीमारी नही होती !
  6. हाई बी.पी वालो को चुकंदर के जूस पीने से एक घंटे में शरीर नार्मल हो जाता है !
  7. रक्तचाप को काबू में रखने में खीरा भी कारगर है ! इसमें मौजूद पोटैशियम उच्च और निम्न , दोनों तरह के रक्तचाप को नियंत्रित रखता है

https://youtu.be/6tM2oMiPM4Q


[: चौरासी लाख योनियों का रहस्य

हिन्दू धर्म में पुराणों में वर्णित ८४००००० योनियों के बारे में आपने कभी ना कभी अवश्य सुना होगा। हम जिस मनुष्य योनि में जी रहे हैं वो भी उन चौरासी लाख योनियों में से एक है। अब समस्या ये है कि कई लोग ये नहीं समझ पाते कि वास्तव में इन योनियों का अर्थ क्या है? ये देख कर और भी दुःख होता है कि आज की पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी इस बात पर व्यंग करती और हँसती है कि इतनी सारी योनियाँ कैसे हो सकती है।

कदाचित अपने सीमित ज्ञान के कारण वे इसे ठीक से समझ नहीं पाते। गरुड़ पुराण में योनियों का विस्तार से वर्णन दिया गया है। तो आइये आज इसे समझने का प्रयत्न करते हैं।

सबसे पहले ये प्रश्न आता है कि क्या एक जीव के लिए ये संभव है कि वो इतने सारे योनियों में जन्म ले सके? तो उत्तर है – हाँ। एक जीव, जिसे हम आत्मा भी कहते हैं, इन ८४००००० योनियों में भटकती रहती है। अर्थात मृत्यु के पश्चात वो इन्ही ८४००००० योनियों में से किसी एक में जन्म लेती है। ये तो हम सब जानते हैं कि आत्मा अजर एवं अमर होती है इसी कारण मृत्यु के पश्चात वो एक दूसरे योनि में दूसरा शरीर धारण करती है।

अब प्रश्न ये है कि यहाँ “योनि” का अर्थ क्या है? अगर आसान भाषा में समझा जाये तो योनि का अर्थ है जाति (नस्ल), जिसे अंग्रेजी में हम स्पीशीज (Species) कहते हैं। अर्थात इस विश्व में जितने भी प्रकार की जातियाँ है उसे ही योनि कहा जाता है। इन जातियों में ना केवल मनुष्य और पशु आते हैं, बल्कि पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, जीवाणु-विषाणु इत्यादि की गणना भी उन्ही ८४००००० योनियों में की जाती है।

आज का विज्ञान बहुत विकसित हो गया है और दुनिया भर के जीव वैज्ञानिक वर्षों की शोधों के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस पृथ्वी पर आज लगभग ८७००००० (सतासी लाख) प्रकार के जीव-जंतु एवं वनस्पतियाँ पाई जाती है। इन ८७ लाख जातियों में लगभग २-३ लाख जातियाँ ऐसी हैं जिन्हे आप मुख्य जातियों की उपजातियों के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं।

अर्थात अगर केवल मुख्य जातियों की बात की जाये तो वो लगभग ८४ लाख है। अब आप सिर्फ ये अंदाजा लगाइये कि हमारे हिन्दू धर्म में ज्ञान-विज्ञान कितना उन्नत रहा होगा कि हमारे ऋषि-मुनियों ने आज से हजारों वर्षों पहले केवल अपने ज्ञान के बल पर ये बता दिया था कि ८४००००० योनियाँ है जो कि आज की उन्नत तकनीक द्वारा की गयी गणना के बहुत निकट है।

हिन्दू धर्म के अनुसार इन ८४ लाख योनियों में जन्म लेते रहने को ही जन्म-मरण का चक्र कहा गया है। जो भी जीव इस जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है, अर्थात जो अपनी ८४ लाख योनियों की गणनाओं को पूर्ण कर लेता है और उसे आगे किसी अन्य योनि में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती है, उसे ही हम “मोक्ष” की प्राप्ति करना कहते है।

मोक्ष का वास्तविक अर्थ जन्म-मरण के चक्र से निकल कर प्रभु में लीन हो जाना है। ये भी कहा गया है कि सभी अन्य योनियों में जन्म लेने के पश्चात ही मनुष्य योनि प्राप्त होती है।

मनुष्य योनि से पहले आने वाले योनियों की संख्या ८०००००० (अस्सी लाख) बताई गयी है। अर्थात हम जिस मनुष्य योनि में जन्मे हैं वो इतनी विरली होती है कि सभी योनियों के कष्टों को भोगने के पश्चात ही ये हमें प्राप्त होती है। और चूँकि मनुष्य योनि वो अंतिम पड़ाव है जहाँ जीव अपने कई जन्मों के पुण्यों के कारण पहुँचता हैं, मनुष्य योनि ही मोक्ष की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना गया है।

विशेषकर कलियुग में जो भी मनुष्य पापकर्म से दूर रहकर पुण्य करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति की उतनी ही अधिक सम्भावना होती है। किसी भी अन्य योनि में मोक्ष की प्राप्ति उतनी सरल नहीं है जितनी कि मनुष्य योनि में है। किन्तु दुर्भाग्य ये है कि लोग इस बात का महत्त्व समझते नहीं हैं कि हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि हमने मनुष्य योनि में जन्म लिया है।

एक प्रश्न और भी पूछा जाता है कि क्या मोक्ष पाने के लिए मनुष्य योनि तक पहुँचना या उसमे जन्म लेना अनिवार्य है? इसका उत्तर है – नहीं। हालाँकि मनुष्य योनि को मोक्ष की प्राप्ति के लिए सर्वाधिक आदर्श योनि माना गया है क्यूंकि मोक्ष के लिए जीव में जिस चेतना की आवश्यकता होती है वो हम मनुष्यों में सबसे अधिक पायी जाती है।

इसके अतिरिक्त कई गुरुजनों ने ये भी कहा है कि मनुष्य योनि मोक्ष का सोपान है और मोक्ष केवल मनुष्य योनि में ही पाया जा सकता है। हालाँकि ये अनिवार्य नहीं है कि केवल मनुष्यों को ही मोक्ष की प्राप्ति होगी, अन्य जंतुओं अथवा वनस्पतियों को नहीं। इस बात के कई उदाहरण हमें अपने वेदों और पुराणों में मिलते हैं कि जंतुओं ने भी सीधे अपनी योनि से मोक्ष की प्राप्ति की। महाभारत में पांडवों के महाप्रयाण के समय एक कुत्ते का जिक्र आया है जिसे उनके साथ ही मोक्ष की प्राप्ति हुई थी, जो वास्तव में धर्मराज थे।

महाभारत में ही अश्वमेघ यज्ञ के समय एक नेवले का वर्णन है जिसे युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ से उतना पुण्य नहीं प्राप्त हुआ जितना एक गरीब के आंटे से और बाद में वो भी मोक्ष को प्राप्त हुआ। विष्णु एवं गरुड़ पुराण में एक गज और ग्राह का वर्णन आया है जिन्हे भगवान विष्णु के कारण मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। वो ग्राह पूर्व जन्म में गन्धर्व और गज भक्त राजा थे किन्तु कर्मफल के कारण अगले जन्म में पशु योनि में जन्मे।

ऐसे ही एक गज का वर्णन गजानन की कथा में है जिसके सर को श्रीगणेश के सर के स्थान पर लगाया गया था और भगवान शिव की कृपा से उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई। महाभारत की कृष्ण लीला में श्रीकृष्ण ने अपनी बाल्यावस्था में खेल-खेल में “यमल” एवं “अर्जुन” नमक दो वृक्षों को उखाड़ दिया था। वो यमलार्जुन वास्तव में पिछले जन्म में यक्ष थे जिन्हे वृक्ष योनि में जन्म लेने का श्राप मिला था। अर्थात, जीव चाहे किसी भी योनि में हो, अपने पुण्य कर्मों और सच्ची भक्ति से वो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

एक और प्रश्न पूछा जाता है कि क्या मनुष्य योनि सबसे अंत में ही मिलती है। तो इसका उत्तर है – नहीं। हो सकता है कि आपके पूर्वजन्मों के पुण्यों के कारण आपको मनुष्य योनि प्राप्त हुई हो लेकिन ये भी हो सकता है कि मनुष्य योनि की प्राप्ति के बाद किये गए आपके पाप कर्म के कारण अगले जन्म में आपको अधम योनि प्राप्त हो।

इसका उदाहरण आपको ऊपर की कथाओं में मिल गया होगा। कई लोग इस बात पर भी प्रश्न उठाते हैं कि हिन्दू धर्मग्रंथों, विशेषकर गरुड़ पुराण में अगले जन्म का भय दिखा कर लोगों को डराया जाता है। जबकि वास्तविकता ये है कि कर्मों के अनुसार अगली योनि का वर्णन इस कारण है ताकि मनुष्य यथासंभव पापकर्म करने से बच सके।

हालाँकि एक बात और जानने योग्य है कि मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत ही कठिन है। यहाँ तक कि सतयुग में, जहाँ पाप शून्य भाग था, मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत कठिन थी। कलियुग में जहाँ पाप का भाग १५ है, इसमें मोक्ष की प्राप्ति तो अत्यंत ही कठिन है।

हालाँकि कहा जाता है कि सतयुग से उलट कलियुग में केवल पाप कर्म को सोचने पर उसका उतना फल नहीं मिलता जितना करने पर मिलता है। और कलियुग में किये गए थोड़े से भी पुण्य का फल बहुत अधिक मिलता है। कई लोग ये समझते हैं कि अगर किसी मनुष्य को बहुत पुण्य करने के कारण स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो इसी का अर्थ मोक्ष है, जबकि ऐसा नहीं है।

स्वर्ग की प्राप्ति मोक्ष की प्राप्ति नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति केवल आपके द्वारा किये गए पुण्य कर्मों का परिणाम स्वरुप है। स्वर्ग में अपने पुण्य का फल भोगने के बाद आपको पुनः किसी अन्य योनि में जन्म लेना पड़ता है। अर्थात आप जन्म और मरण के चक्र से मुक्त नहीं होते। रामायण और हरिवंश पुराण में कहा गया है कि कलियुग में मोक्ष की प्राप्ति का सबसे सरल साधन “राम-नाम” है।

पुराणों में ८४००००० योनियों का गणनाक्रम दिया गया है कि किस प्रकार के जीवों में कितनी योनियाँ होती है। पद्मपुराण के ७८/५ वें सर्ग में कहा गया है:

जलज नवलक्षाणी,
स्थावर लक्षविंशति
कृमयो: रुद्रसंख्यकः
पक्षिणाम् दशलक्षणं
त्रिंशलक्षाणी पशवः
चतुरलक्षाणी मानव

अर्थात,
जलचर जीव – ९००००० (नौ लाख)
वृक्ष – २०००००० (बीस लाख)
कीट (क्षुद्रजीव) – ११००००० (ग्यारह लाख)
पक्षी – १०००००० (दस लाख)
जंगली पशु – ३०००००० (तीस लाख)
मनुष्य – ४००००० (चार लाख)
इस प्रकार ९००००० + २०००००० + ११००००० + १०००००० + ३०००००० + ४००००० = कुल ८४००००० योनियाँ होती है।

जैन धर्म में भी जीवों की ८४००००० योनियाँ ही बताई गयी है। सिर्फ उनमे जीवों के प्रकारों में थोड़ा भेद है। जैन धर्म के अनुसार:
पृथ्वीकाय – ७००००० (सात लाख)
जलकाय – ७००००० (सात लाख)
अग्निकाय – ७००००० (सात लाख)
वायुकाय – ७००००० (सात लाख)
वनस्पतिकाय – १०००००० (दस लाख)
साधारण देहधारी जीव (मनुष्यों को छोड़कर) – १४००००० (चौदह लाख)
द्वि इन्द्रियाँ – २००००० (दो लाख)
त्रि इन्द्रियाँ – २००००० (दो लाख)
चतुरिन्द्रियाँ – २००००० (दो लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (त्रियांच) – ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (देव) – ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (नारकीय जीव) – ४००००० (चार लाख)

पञ्च इन्द्रियाँ (मनुष्य) – १४००००० (चौदह लाख) इस प्रकार
७०००००
७०००००
७०००००
७०००००
१००००००
१४०००००
२०००००
२०००००
२०००००
४०००००
४०००००
४०००००
+१४०००००
= कुल ८४०००००

अतः अगर आगे से आपको कोई ऐसा मिले जो ८४००००० योनियों के अस्तित्व पर प्रश्न उठाये या उसका मजाक उड़ाए, तो कृपया उसे इस शोध को पढ़ने को कहें। साथ ही ये भी कहें कि हमें इस बात का गर्व है कि जिस चीज को साबित करने में आधुनिक/पाश्चात्य विज्ञान को हजारों वर्षों का समय लग गया, उसे हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने सहस्त्रों वर्षों पूर्व ही सिद्ध कर दिखाया था। जय ब्रह्मदेव।
[बच्चे का जन्म किस पाये में*

बच्चे का जन्म किस पाये में
किसी परिवार में बच्चे का जन्म होना परिवार में वंश वृद्धि का परिचायक है 1 बच्चे के जन्म के साथ ही बच्चे की स्वस्थता जानने के उपरांत सबसे पहले सबका यही प्रश्न होता है कि
बच्चे का जन्म किस पाये में हुआ है
*शास्त्रों में मुख्य रूप से चार पायों का वर्णन मिलता है ।

1. चांदी का पाया 2. ताँबे का पाया 3. सोने का पाया 4. लोहे का पाया

हर पाये में जन्मे बालक का शुभाशुभ फल भिन्न होता है
बालक/बालिका का जन्म किस पाये में हुआ है ये निम्न विधि से आसानी से जाना जा सकता है

*जन्म पत्रिका में लग्न से चन्द्रमा किस भाव में है ये देखा जाता है जैसे
जन्म लग्न से *चन्द्रमा यदि पहले, छठे या ग्यारहवें भाव* में हो तो बच्चे का जन्म सोने के पाये में हुआ है

यदि दो, पांच या नौवें भाव में चन्द्रमा है तो बच्चे का जन्म चाँदी के पाये में हुआ है

जन्म लग्न से चन्द्रमा यदि तीसरे , सातवें या दसवें भाव में हो तो बच्चे का जन्म ताम्बे के पाये में हुआ है

जन्म लग्न से चन्द्रमा यदि चौथे, आठवें या बारहवें भाव में हो तो बच्चे का जन्म लोहे के पाये में हुआ है

इस तरीके से कुंडली में देखकर आसानी से बताया जा सकता है की बच्चे का जन्म किस पाये में हुआ है
अब प्रश्न आता है कि किस पाये का क्या फल होता है

तो अगर बच्चा चांदी के पाये में हुआ है तो बच्चा परिवार में सुख समृद्धि लेकर आता है
बच्चा सुखों में पलता है
परिवार का मान सम्मान में वृद्धि होती है माता पिता की तरक्की होती है

अगर बच्चा सोने के पाये में पैदा हुआ है तो ज्यादा शुभ नहीं है ऐसा बच्चा रोगी होता है तथा बचपन में ही इस बच्चे की दवाये शुरू हो जाती हैं परिवार की शुखशान्ति भंग हो जाती है
पिता को शत्रुओं का सामना करना पड़ता है और धन हानि भी हो सकती है इसकी शांति के लिए बच्चे के वजन के बराबर गेहू का दान करना चाहिए अगर संपन्न हो तो सोने का दान भी किया जा सकता है ।

ताम्बे के पाये में उत्पन्न बच्चा पिता के व्यापार में वृद्धि और सुखसमृद्धि लेकर आता है

लोहे के पाये में पैदा हुआ बच्चा परिवार के लिए भारी होता है बच्चा रोगी रहता है पिता के लिए बच्चा विशेषतया भारी होता है परिवार में कोई शोकप्रद घटना होती है
[🌹पहले मुर्गी पैदा हुई या अण्डा ?🌹
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
👉यह एक रहस्यात्मक एवं आध्यात्मिक प्रश्न है जिसका उत्तर समझने के लिए आध्यात्मिक परक होना चाहिए ।
👉सृष्टि रचना से पूर्व समस्त आत्माओं के आत्मा एक पूर्ण परमात्मा ही थे–न दृष्टा था न दृश्य ।
👉सृष्टि काल में अनेक वृत्तियों के भेद से जो अनेकता दिखायी देती है वह भी वही थेक्योंकि उनकी इच्छा अकेले रहने की थी ।वेही दृष्टा होकर देखने लगे,परन्तु दृश्य उन्हें दिखायी नहीं पडा,क्योंकि वेहीउस समय अद्वितीय रूप से प्रकाशित हो रहे थे ।ऐसी अवस्था में वे अपने को असत् के समान समझने लगे ।वस्तुतः वे असत् नही थे क्योंकि उनकी शक्तियाँ सोई हुई थीं।उनके ज्ञान का लोप नही हुआ था ।
| 👉यह दृष्टा और दृश्य का अनुसंधान करने वाली शक्ति ही कार्य कारण स्वरूप माया है ।इस भावाभावरूप अनिर्वचनीय माया के द्वारा ही वह परमात्मा इस विश्व का निर्माण किया है ।
👉कालशक्ति से जब यह त्रिगुण मयी माया शक्षोभ को प्राप्त हुई ,तबउन इनद्रियातीत चिन्मय परमात्मा ने अपने अंश रूप से उसमें चिदाभास रूप बीज स्थापित किया ।
👉तब काल की प्रेरणा से उस अव्यक्त माया से महत्तत्वप्रकट हुआ।तत्पश्चात चिदाभास, गुण और काल के अधीन उस महत्तत्व ने परमात्मा की दृष्टि फडने पर इस विश्व की रचना के लिए अपना रूपांतरण किया ।
👉महततत्वकेविकृत होने पर अहंकार की उत्पत्ति हुई –जो कार्य, कारण ,और कर्ता रूप होने के कारण भूत इन्द्रिय और मन का कारण है ।
👉उसी क्रम मे इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता हुए, शब्दादि तन्मात्रायें,रूप रसगंध शब्द स्पर्शादि सहितपृथ्वीआदि महाभूतों को उत्पन्न किया ।
👉 ये सब महतत्तव के अभिमानी विकार ,विक्षेप और चेतनांश विशिष्ट देवगणादि परमात्मा के ही अंश हैं किन्तु पृथक पृथक रहने के कारण जब वे विश्व रचना रूप अपने कार्य में सफल नहीं हुए,तब जगत् केआदि कारण परमात्मा ने काल अदृष्ट और सत्वादिगुणों के सहित उनमें प्रवेश किया ।फिर परमात्मा के प्रवेश से क्षुब्ध और आपस में मिले हुए उन तत्वों से एक जड अण्ड उत्पन्न हुआ।
👉उस अण्ड से इस विराट पुरुष की अभिव्यक्ति हुई ।इस अण्ड कानाम विशेष है।इसी के अन्तर्गत परमात्मा के स्वरूप भूत चौदहो भुवनों (भू:भुव:आदि )का विस्तार हुआ ।यह चरोंओर क्रमशः एक दूसरे से दस गुना जल अग्नि वायु आकाश अहंकार और महतत्तव -इनछै आवरणोंघिरा हुआ है । इन सबके बाहर सातवां आवरण प्रकृति का है।
| 👉कारणमय जल में स्थित उस तेजोमय अण्ड से उठकर उस विराटपुरुषने पुनः उसमें प्रवेश किया और उसमे कई प्रकार के छिद्र करके शरीर के अंगमुखादि उत्पन्न किये। लेकिन वह उठ नहीं सका, जब चित्त के अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञने चित्त के सहित हृदय में प्रवेश किया तो वह विराट पुरुष उठकर खड़ा हो गया ।
👉जब पूर्वोक्त विराट पुरुष ब्रम्हाण्ड रूपी अण्डे कोफोडकर निकलाऔर स्थान की इच्छा से उस शुद्ध संकलपुरुष ने अत्यंत पवित्र जल की सृष्टि की।
👉विराट पुरुष नर से उत्पन्न होने के कारण जल कानाम नार पडा और उस अपने किये हुए नार में वह पुरुष एक हजार वर्षों तक रहा इसी से उसका नाम नारायण हुआ ।
👉उन अद्वितीय भगवान नारायण ने योग निद्रा से जाग कर अनेक होने की इच्छा की तब अपनी माया से उन्होंने अपने सुवर्णमय वीर्य कोतीन भागों में विभक्त कर दिया ।यही अधि दैव ,अध्यात्म और अधिभूत हैं।
👉उसी क्रम ब्रम्हाजी आदि की उत्पत्ति तथा उनके द्वारा शरीर तथ मन से शरीर रचना हुई ।
👉उसी क्रम में कश्यपकी कई पत्नियों से जरायुज पिण्डज स्वेदज तथा उद्भिजों की उत्पत्ति हुई ।
👉 इसलिए यह स्पष्ट है कि सबसे पहले ब्रम्हाण्ड रुपी अण्डे की उत्पत्ति हुई है बाद में सब की उत्पत्ति उसी से हुई है ।
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️

: नयी सुबह

समस्याएं इतनी ताक़तवर नहीं हो सकती जितना हम इन्हें मान लेते हैं ,
कभी सुना है ,, कि “अंधेरों ने सुबह ही ना होने दी हो”

“एक ही जगह ऊर्जा लगाने की शक्ति”

बचपन में एक काम हर कोई करता है लैंस से सूरज की किरणों के जरिये कागज में आग लगाना. शायद याद होगा हम सभी को. क्या कभी हमने सोचा है कि अगर हम कागज को बिना लैंस के सूरज की किरणों के सामने रखते हैं तो वो नहीं जलता. जी हाँ जलता ही नहीं।
क्योँ ????
क्योँकि सूरज की किरणें पूरी पृथ्वी पर फैली हुई होती हैं. पर मित्रों जब हम इन्ही फैली हुई किरणों को लैंस के जरिये “एक जगह इकट्ठा” करते हैं तो आग लग जाती है.

मित्रों इसी तरह “अपने को सूर्य” और “अपने विचारों को किरण” समझिए. अब देखिये कि जब तक हमारे विचार रूपी किरण इधर उधर भटकते रहेंगे तब तक हमारे काम सफल नहीं हो पाएंगे, पर हमने एक बात हमेशा देखी है कि जब भी हम इंसानों ने अपनी सारी की सारी किरण रूपी विचार एक जगह पर लगाए तो हमने बड़े से बड़े काम को चुटकियों में हल कर लिया. जी हाँ मित्रों हमें ये समझना पड़ेगा कि जब भी हम कोई काम करें तो उसे proper तरीके तक लाने के लिए अपना तन, मन और जूनून पूरी तरह लगा दें, सफलता मिलने से हमें कोई नहीं रोक सकता.

मित्रों उस काम के लिए इस कदर जुनूनी हो जाएँ जैसे पानी के अन्दर हम सांस लेने के लिए तड़प जाते हैं.

मित्रों अपनी सारी की सारी किरण रूपी ऊर्जा एक जगह पर ले कर कोई भी काम करें. जिस प्रकार लैंस के जरिये सूर्य की किरणों ने एक जगह आ कर कागज में आग लगा दी वैसे ही हम अपने अंदर की सारी की सारी ऊर्जा एक जगह लगा कर अपने भारत के स्वर्णीम गौरव को वापिस लाकर एक दिन विश्व गुरु अवश्य बनेंगे.

मित्रों किसी ने सही कहा है :-

समस्याएं इतनी ताक़तवर नहीं हो सकती जितना हम इन्हें मान लेते हैं ,
कभी सुना है ,, कि
“अंधेरों ने सुबह ही ना होने दी हो”

जय हिन्द
जय भारत

प्रपन्नता :

प्रपन्नता से अर्थात पूर्ण शरणागति के भाव में जब भक्त भगवत प्रपन्न होता है तो भगवन उसे तत्काल , अविलम्ब प्राप्त हो जाते है , यहाँ मै द्रोपदी जी का दृस्टान्त देना चाहूंगा…!!!

जब द्रोपदी जी कौरवो की सभा में निर्वस्त्र की जा रही थी तो उन्होंने सबसे सहायता की अपेक्षा की , वहा बैठे हुए एक से बढ़कर एक धीर वीर जैसे भीष्म जी , द्रोणाचार्य ,इत्यादि सभी मौन बैठे रहे , किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा….!!

फिर द्रोपदी ने आर्त भाव से भगवान की तीन श्लोको में प्रार्थना की…

गोविंदद्वारकावासिन कृष्ण गोपी जनप्रियः ll
कौरवैरविभूतां माम् किं न जानासि केशव ll

भावार्थ : हे गोविन्द , हे द्वारकावाशी , हे कृष्ण , हे गोपी जनप्रिय , हे केशव, मै कौरवो के द्वारा अविभूत की जा रही हू, क्या आप नहीं जानते हो ..!!

हे नाथ , हे रमानाथ, ब्रज नाथार्तिनाशन ll
कौरवार्णव मग्नाम् माम् उद्धरस्व जनार्दनः ll

भावार्थ : हे नाथ , हे रमानाथ ,हे ब्रजनाथ , हे आर्तिनाशन ,हे जनार्दन , मै कौरव रुपी समुद्र में डूब रही हू ,आप मेरा उद्धार कीजिये …!!!

कृष्ण कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वभावने ll
प्रपन्नाम् पाहि गोविन्द कुरु मध्येव्वसीदितीम ll

भावार्थ : हे कृष्ण , हे महयोगिन ,हे विश्वात्मन् , हे विश्वभावन ,हे गोविन्द मै आपके प्रपन्न हू , मेरी रक्षा कीजिये ..!!

और जब भगवान ने जैसे ही “प्रपन्नाम पाहि ” सुनते है ………तो देखिये ..,यहाँ महाभारत कार बहुत ही अच्छा लिखते है कहते है … कि “याज्ञशैन्याः वचः श्रुत्वा कृष्णो गह्वरितोभवत्”
याज्ञशैनी जी के इन वचनो को सुनकर भगवान कृष्ण गह्वरित हो गए, गह्वरित अर्थात भावुक हो गए…!! तो उस समय भगवान श्री कृष्ण दोपहर के भोजन उपरांत शैया पर विश्राम कर रहे थे , भगवान् तत्काल अपनी शैया को त्यागकर दो चरणो में द्वारका से कौरवो की सभा में पहुँच गए ..

त्यक्त्वा शैयाशनम् पद्भ्यां कृपालु: कृपयाभ्यगात ll

और फिर भगवान ने उसी कौरवो की सभा में वस्त्रावतार धारण किया और द्रोपदी की रक्षा की यहाँ तुलसीदास जी पंक्तिया देखिये ….!!

सभा सभा सद निरखि पट पकरि उठायो हाथ ll
तुलसी धर्यो ग्यारहयों वसन रूप यदुनाथ ll

पायो अनुशासन दुःशासन करि कोप धायो, द्रुपद सुता को चीर गयो वीर भारी है ll
भीष्म, करण ,द्रोण, बैठे अधीर, अनेक वीर, भामिनी की ओर कोउ नेकी न निहारी है ll
सुनत पुकार धाय द्वारका ते यदुराई, बढ़त दुकूल देख भुजबल हारि है ll
सारी बीच नारी है, कि नारी बीच सारी है, सारी ही कि नारी है, कि नारी ही कि सारी है ll
[📌 शौच

  1. बार बार आता है
  2. खाना खाते ही जाना पड़ता है
  3. खाते तो बहुत है लेकिन खाया पिया नहीं लगता

शौच …
मल त्याग यह एक सामान्य प्रक्रिया है और हर इन्सान औसतन दिन में एक या दो बार मल त्याग करता है|
अगर यह प्रक्रिया सही से न हो तो संग्रहनी रोग बन जाती है l
जिसमें पेट में जलने वाली अग्नि मंद हो जाती है और भोजन सही से नहीं पचता और वो बिना पचे ही थोडा थोडा करके बाहर निकलने लगता हैl
इसमे जल्दी इलाज न करवाने से आंते भी खराब हो सकती हैं और IBS Disease शुरू हो सकती है l
इस रोग से आपके शरीर का Digestive System कमजोर हो जाता है, जो खाना खाते है उसका रस नहीं बन पाता है, जिससे शारीरिक और मानसिक कमजोरी होने लगती हैl
जीर्ण अवस्था मे अल्सर होने का डर भी रहता है।

Symptoms

  1. शरीर में बहुत ज्यादा गर्मी होना
  2. पेट में हल्का हल्का दर्द रहना
  3. धीरे धीरे य़ह गर्मी का लीवर तक पहुंचाना
  4. खाने का रस ना बनना, खाना शरीर को न लगना

Treatments

बेल और सोंठ
एक कच्चा बेल ले और इसका गूदा निकाल ले और इसमें सोंठ मिलाकर दोनों को अच्छी तरह घोटे और इसमें पुराने गुड को मिलाएं l अब इस मिश्रण का रोजाना सुबह शाम सेवन करे | ऐसा करने से आपको बहुत जल्दी इस रोग में आराम मिलेगा।

Fiber Intake
इस बीमारी में आपको fiber युक्त आहार का सेवन अधिक से अधिक करना चहिये| जैसे की रागी, जों, चने के आटे में चौकर , हरी सब्जियां, फल इत्यादि| अधिक fiber लेने से दोनों बड़ी और छोटी आंत की अच्छी सफाई होती है, वहाँ मांसपेशियां मजबूत होती है और आपका पाचन सही होने लगता है l
बार बार शौच आने की समस्या खत्म हो जाती है|

छाछ
पेट की किसी भी समस्या में छाछ बहुत कारगर होता है क्योकि इसका स्वाभाव ठंडा होता है और साथ में इसका Probiotic सभी तरह के इन्फेक्शन को खत्म कर देता है| एक ग्लास छाछ में एक चम्मच जीरा वाला नमक और इतनी ही मात्रा में पुदीने का पाउडर मिला कर सेवन करे जिससे आपको इस रोग में आराम मिलेगा|

Good Life Style – Fast Foods से बचे
अधिक मात्रा में फास्ट फ़ूड का सेवन जिस मे AjinoMotto Chemical होता है आपकी आंतों की मांसपेशियों को कमज़ोर करता है जिससे कब्ज और पेट की समस्या बढ़ जाती है और आपका पेट एक बार में सही से साफ़ नहीं हो पाता|
प्रयास हो की Dinner न करे, साँझ 6 – 6.30 बजे कुछ हल्का खा ले बस l

पानी
अधिक से अधिक पिया पानी मल को नर्म करता है जो की इस समस्या का बहुत बढ़िया इलाज है| आप रोजाना कम से कम 5 s 6 लीटर पानी पियें जिससे पेट साफ़ होगा और फसा हुआ मल धीरे-धीरे बाहर निकला आएगा और आपको आराम मिलेगा|

उपवास – Fasting
प्रयास हो कि हफ्ते मे 1 दिन या महीने मे कम s कम 2 दिन तो जरूर से उपवास हो l यथाशक्ति, यथास्थिति जितना मन हो, उतना प्रयास करे l दिन में 1 बार खाना खाने से शुरू कर सकते हैं l

Naturopathy की बस्ती, धोती आदि प्रक्रियाओं का सहारा ले l

Allopathic Treatment इसमे आंशिक राहत दे सकता है, वो भी सिर्फ दर्द से l इसका इलाज सिर्फ Naturopath से ही सम्भव है l

📌स्वस्थ भारत हर्षित भारत 🚩🚩
🌴🎋🌿🍀🌷🍁☘🌾🍃🌲
[Rujuta Diwekar is the highest paid dietician in India.
She is the one who took care of junior Ambani and caused him to lose 108 kgs.

Her advice to diabetics:

  1. Eat fruits grown locally….. Banana, Grapes, Chikoo, Mangoes.
    All fruits have FRUCTOSE, so it doesn’t matter that you are eating a mango over an Apple. Mango comes from Konkan and Apple from Kashmir. So Mango is more local to you.

Eat all the above fruits in DIABETES as the FRUCTOSE will eventually manage your SUGAR.

  1. Choose Seed oils rather than Veggie oils. Like choose oils from groundnut, mustard, coconut & til. Don’t choose chakachak packing oils, like olive, rice bran etc.
    Go for kachchi ghani oils than refined oils.
  2. (Rujuta spends max time talking about GHEE and its benefits)
    Eat GHEE daily. How much GHEE we should eat depends on the food. A few foods need more GHEE, then eat more and vice versa. Eat ample GHEE. It REDUCES cholesterol !.
  3. Include COCONUT. Either scraped coconut over food like poha, khandvi or chutney with idli and dosa.
    Coconut has ZERO CHOLESTEROL and it makes your WAIST SLIM.
  4. Don’t eat oats, cereals for breakfast. They are packaged food and we just don’t need them. Also they are tasteless and boring, and why our day start with boring stuff?
    Breakfast should be poha, upma, idli, dosa, paratha.
  5. Farhaan Akhtar’s New ad of biscuits– “fibre in every bite…!”
    ..Even ghar ka kachara has fibre… likewise oats have fibre! Don’t chose them for fibre. Instead of oats, eat poha, upma, idli, dosa.
  6. No JUICES till you have teeth in your mouth to chew veggies and fruits.
  7. SUGARCANE is the real DETOX – drink fresh juice or eat the sugarcane.
  8. For pcos, thyroid – do strength training and weight training and avoid all packaged food
  9. RICE – eat regular WHITE RICE. NO NEED of Brown rice. Brown rice needs 5-6 whistles to cook. While it tires your pressure cooker, then why do you want to tire your tummy?

Rice is not high in GI index. Rice has medium GI index and by eating it with daal / dahi / kadhi we bring its GI index further down.

If we take ghee over this daal chawal then the GI INDEX is brought further down !
Rice has some rich minerals and you can eat it even three times a day.

  1. How much should we eat? – eat more if you are more hungry, and less if you’re not.. let your stomach be your guide.
  2. We can eat rice and chapati together or only rice if you wish. It depends on your hunger. Eat RICE in ALL THREE MEALS without any fear.
  3. Food shouldn’t make you scared like eating rice and ghee. Food should make you FEEL GOOD.
  4. NEVER look at CALORIES. Look at NUTRIENTS.
  5. No bread, biscuits, cakes, pizza, pasta
  6. Ask yourself is this the food my Nani & Dadi ate? If yes, then eat without fear !
  7. Eat as per your season. Eat pakoda, fafda, jalebi in monsoon. Your hunger is as per the season. A few seasons we need fried food, so eat them.
  8. When not to have chai / tea. Don’t drink tea as the first thing in morning or when you are hungry –rest, you can have it 2-3 times a day and with sugar.
  9. NO GREEN tea please! No green, yellow, purple, blue tea…
  10. Eat ALL of your TRADITIONAL foods.
  11. Strictly NO to packaged foods / drinks.
  12. Exercise / Walk
    to digest & stay healthy.
http://m.hindustantimes.com/health-and-fitness/nutritionist-rujuta-diwekar-on-why-you-shouldn-t-skip-rice-ghee-and-sugar/story-AYmmiMAULc1Kd7gnagcZGJ.html


प्रत्येक व्यक्ति सम्मान चाहता है , अथवा यूं कहें कि यथा योग्य व्यवहार चाहता है। जैसी जिसकी योग्यता हो , वैसा वह उतना दूसरों से सम्मान चाहता है । यदि दूसरे लोग उसकी योग्यता अनुसार उसकी बात सुनते हैं , उसकी बातों पर ध्यान देते हैं , उससे उचित व्यवहार करते हैं , तब तो वह प्रसन्न रहेगा। यदि दूसरे लोग उसकी योग्यता अनुसार उसकी बात नहीं सुनते, उसकी बातों पर ध्यान नहीं देते , उसके निर्देश आदेश का पालन नहीं करते , तो उस व्यक्ति को दुख होगा और वह दूसरे लोगों को मूर्ख समझेगा। परिणाम यह होगा कि आपस में दूरी बढ़ती जाएगी और हो सकता है , कुछ समय के बाद उनका आपस में संबंध भी टूट जाए .
तो ऐसी समस्याओं से बचने के लिए बुद्धिमत्ता का व्यवहार यही है, कि जो जितना योग्य हो उसके साथ वैसा उचित व्यवहार करना चाहिए।
यदि कोई आप से बड़ा है, बुद्धिमान है, अनुभवी है , आपसे अधिक ज्ञानी है , तो उसकी बात पर उतना ही अधिक ध्यान देना चाहिए । उसका उतना ही सम्मान अधिक करना चाहिए , और उसके निर्देश आदेश का पालन करके उससे लाभ उठाना चाहिए। अन्यथा वह आपको मूर्ख समझ कर आप से कुछ ही समय बाद संबंध तोड़ देगा । तब आप को बहुत हानियां उठानी पड़ेंगी –
[: जय महादेव

शयन के नियम :-

  1. सूने तथा निर्जन घर में अकेला नहीं सोना चाहिए। देव मन्दिर और श्मशान में भी नहीं सोना चाहिए। (मनुस्मृति)
  2. किसी सोए हुए मनुष्य को अचानक नहीं जगाना चाहिए। (विष्णुस्मृति)
  3. विद्यार्थी, नौकर औऱ द्वारपाल, यदि ये अधिक समय से सोए हुए हों, तो इन्हें जगा देना चाहिए। (चाणक्यनीति)
  4. स्वस्थ मनुष्य को आयुरक्षा हेतु ब्रह्ममुहुर्त में उठना चाहिए। (देवीभागवत) बिल्कुल अँधेरे कमरे में नहीं सोना चाहिए। (पद्मपुराण)
  5. भीगे पैर नहीं सोना चाहिए। सूखे पैर सोने से लक्ष्मी (धन) की प्राप्ति होती है। (अत्रिस्मृति) टूटी खाट पर तथा जूठे मुँह सोना वर्जित है। (महाभारत)
  6. “नग्न होकर/निर्वस्त्र” नहीं सोना चाहिए। (गौतम धर्म सूत्र)
  7. पूर्व की ओर सिर करके सोने से विद्या, पश्चिम की ओर सिर करके सोने से प्रबल चिन्ता, उत्तर की ओर सिर करके सोने से हानि व मृत्यु तथा दक्षिण की ओर सिर करके सोने से धन व आयु की प्राप्ति होती है। (आचारमय़ूख)
  8. दिन में कभी नहीं सोना चाहिए। परन्तु ज्येष्ठ मास में दोपहर के समय 1 मुहूर्त (48 मिनट) के लिए सोया जा सकता है। (दिन में सोने से रोग घेरते हैं तथा आयु का क्षरण होता है)
  9. दिन में तथा सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सोने वाला रोगी और दरिद्र हो जाता है। (ब्रह्मवैवर्तपुराण)
  10. सूर्यास्त के एक प्रहर (लगभग 3 घण्टे) के बाद ही शयन करना चाहिए।
  11. बायीं करवट सोना स्वास्थ्य के लिये हितकर है।
  12. दक्षिण दिशा में पाँव करके कभी नहीं सोना चाहिए। यम और दुष्ट देवों का निवास रहता है। कान में हवा भरती है। मस्तिष्क में रक्त का संचार कम को जाता है, स्मृति- भ्रंश, मौत व असंख्य बीमारियाँ होती है।
  13. हृदय पर हाथ रखकर, छत के पाट या बीम के नीचे और पाँव पर पाँव चढ़ाकर निद्रा न लें।
  14. शय्या पर बैठकर खाना-पीना अशुभ है।
  15. सोते सोते पढ़ना नहीं चाहिए। (ऐसा करने से नेत्र ज्योति घटती है )
  16. ललाट पर तिलक लगाकर सोना अशुभ है। इसलिये सोते समय तिलक हटा दें।

इन १६ नियमों का अनुकरण करने वाला यशस्वी, निरोग और दीर्घायु हो जाता है।

जय महादेव
: “अमावस्या और पूर्णिमा का रहस्य”।


हिन्दू धर्म में पूर्णिमा, अमावस्या और ग्रहण के रहस्य को उजागर किया गया है। इसके अलावा वर्ष में ऐसे कई महत्वपूर्ण दिन और रात हैं,जिनका धरती और मानव मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उनमें से ही माह में पड़ने वाले 2 दिन सबसे महत्वपूर्ण हैं ~ पूर्णिमा और अमावस्या। पूर्णिमा और अमावस्या के प्रति बहुत से लोगों में डर है। खासकर अमावस्या के प्रति ज्यादा डर है। वर्ष में 12 पूर्णिमा और 12 अमावस्या होती हैं। सभी का अलग-अलग महत्व है।
||
माह के 30 दिन को चन्द्र कला के आधार पर 15-15 दिन के 2 पक्षों में बांटा गया है ~ ‘शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष’। शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन को पूर्णिमा कहते हैं और कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन को अमावस्या।
||
यदि शुरुआत से गिनें तो 30 तिथियों के नाम निम्न हैं~पूर्णिमा(पुरणमासी), प्रतिपदा (पड़वा), द्वितीया (दूज), तृतीया (तीज), चतुर्थी (चौथ), पंचमी (पंचमी), षष्ठी (छठ), सप्तमी (सातम), अष्टमी (आठम), नवमी (नौमी), दशमी (दसम), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी (बारस), त्रयोदशी (तेरस), चतुर्दशी (चौदस) और अमावस्या (अमावस)।
||
अमावस्या पंचांग के अनुसार माह की 30वीं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है, जिस दिन कि चंद्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता। हर माह की पूर्णिमा और अमावस्या को कोई न कोई पर्व अवश्य मनाया जाता, ताकि इन दिनों व्यक्ति का ध्यान धर्म की ओर लगा रहे..!!
||
‘लेकिन इसके पीछे आखिर रहस्य क्या है’..??
नकारात्मक और सकारात्मक शक्तियां :धरती के मान से 2 तरह की शक्तियां होती हैं- ‘सकारात्मक और नकारात्मक’, दिन और रात, अच्छा और बुरा आदि। हिन्दू धर्म के अनुसार धरती पर उक्त दोनों तरह की शक्तियों का वर्चस्व सदा से रहता आया है। हालांकि कुछ मिश्रित शक्तियां भी होती हैं, जैसे संध्या होती है तथा जो दिन और रात के बीच होती है। उसमें दिन के गुण भी होते हैं और रात के गुण भी।
||
इन प्राकृतिक और दैवीय शक्तियों के कारण ही धरती पर भांति-भांति के जीव-जंतु, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों, निशाचरों आदि का जन्म और विकास हुआ है। इन शक्तियों के कारण ही मनुष्यों में देवगुण और दैत्य गुण होते हैं।
||
हिन्दुओं ने सूर्य और चन्द्र की गति और कला को जानकर वर्ष का निर्धारण किया गया। 1 वर्ष में सूर्य पर आधारित 2 अयन होते हैं- पहला उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन। इसी तरह चंद्र पर आधारित 1 माह के 2 पक्ष होते हैं ~ शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
||
इनमें से वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं, तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य और पितर आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। अच्छे लोग किसी भी प्रकार का धार्मिक और मांगलिक कार्य रात में नहीं करते जबकि दूसरे लोग अपने सभी धार्मिक और मांगलिक कार्य सहित सभी सांसारिक कार्य रात में ही करते हैं।
||
पूर्णिमा का विज्ञान :पूर्णिमा की रात मन ज्यादा बेचैन रहता है और नींद कम ही आती है। कमजोर दिमाग वाले लोगों के मन में आत्महत्या या हत्या करने के विचार बढ़ जाते हैं। चांद का धरती के जल से संबंध है। जब पूर्णिमा आती है तो समुद्र में ज्वार-भाटा उत्पन्न होता है, क्योंकि चंद्रमा समुद्र के जल को ऊपर की ओर खींचता है। मानव के शरीर में भी लगभग 85 प्रतिशत जल रहता है। पूर्णिमा के दिन इस जल की गति और गुण बदल जाते हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार इस दिन चन्द्रमा का प्रभाव काफी तेज होता है इन कारणों से शरीर के अंदर रक्त में न्यूरॉन सेल्स क्रियाशील हो जाते हैं और ऐसी स्थिति में इंसान ज्यादा उत्तेजित या भावुक रहता है। एक बार नहीं, प्रत्येक पूर्णिमा को ऐसा होता रहता है तो व्यक्ति का भविष्य भी उसी अनुसार बनता और बिगड़ता रहता है।
||
जिन्हें मंदाग्नि रोग होता है या जिनके पेट में चय-उपचय की क्रिया शिथिल होती है, तब अक्सर सुनने में आता है कि ऐसे व्यक्ति भोजन करने के बाद नशा जैसा महसूस करते हैं और नशे में न्यूरॉन सेल्स शिथिल हो जाते हैं जिससे दिमाग का नियंत्रण शरीर पर कम, भावनाओं पर ज्यादा केंद्रित हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों पर चन्द्रमा का प्रभाव गलत दिशा लेने लगता है। इस कारण पूर्णिमा व्रत का पालन रखने की सलाह दी जाती है।
||
कुछ मुख्य पूर्णिमा :कार्तिक पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा आदि।
||
चेतावनी :~
इस दिन किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए। इसके शरीर पर ही नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं। जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, पूर्णिमा और प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई है।
‘अमावस्या’ :~
वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। जब दानवी आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं, तब मनुष्यों में भी दानवी प्रवृत्ति का असर बढ़ जाता है इसीलिए उक्त दिनों के महत्वपूर्ण दिन में व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को धर्म की ओर मोड़ दिया जाता है।
||
अमावस्या के दिन भूत-प्रेत, पितृ, पिशाच, निशाचर जीव-जंतु और दैत्य ज्यादा सक्रिय और उन्मुक्त रहते हैं। ऐसे दिन की प्रकृति को जानकर विशेष सावधानी रखनी चाहिए। प्रेत के शरीर की रचना में 25 प्रतिशत फिजिकल एटम और 75 प्रतिशत ईथरिक एटम होता है। इसी प्रकार पितृ शरीर के निर्माण में 25 प्रतिशत ईथरिक एटम और 75 प्रतिशत एस्ट्रल एटम होता है। अगर ईथरिक एटम सघन हो जाए तो प्रेतों का छायाचित्र लिया जा सकता है और इसी प्रकार यदि एस्ट्रल एटम सघन हो जाए तो पितरों का भी छायाचित्र लिया जा सकता है।
||
ज्योतिष में चन्द्र को मन का देवता माना गया है। अमावस्या के दिन चन्द्रमा दिखाई नहीं देता। ऐसे में जो लोग अति भावुक होते हैं, उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। लड़कियां मन से बहुत ही भावुक होती हैं। इस दिन चन्द्रमा नहीं दिखाई देता तो ऐसे में हमारे शरीर में हलचल अधिक बढ़ जाती है। जो व्यक्ति नकारात्मक सोच वाला होता है उसे नकारात्मक शक्ति अपने प्रभाव में ले लेती है।
||
धर्मग्रंथों में चन्द्रमा की 16वीं कला को ‘अमा’ कहा गया है। चन्द्रमंडल की ‘अमा’ नाम की महाकला है जिसमें चन्द्रमा की 16 कलाओं की शक्ति शामिल है। शास्त्रों में अमा के अनेक नाम आए हैं, जैसे अमावस्या, सूर्य-चन्द्र संगम, पंचदशी, अमावसी, अमावासी या अमामासी। अमावस्या के दिन चन्द्र नहीं दिखाई देता अर्थात जिसका क्षय और उदय नहीं होता है उसे अमावस्या कहा गया है, तब इसे ‘कुहू अमावस्या’ भी कहा जाता है। अमावस्या माह में एक बार ही आती है। शास्त्रों में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है। अमावस्या सूर्य और चन्द्र के मिलन का काल है। इस दिन दोनों ही एक ही राशि में रहते हैं।
||
कुछ मुख्य अमावस्या :भौमवती अमावस्या, मौनी अमावस्या, शनि अमावस्या, हरियाली अमावस्या, दिवाली अमावस्या, सोमवती अमावस्या, सर्वपितृ अमावस्या।
||
चेतावनी :इस दिन किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए। इसके शरीर पर ही नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं। जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, अमावस्या और प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई है..!
[ सती प्रथा एक काल्पनिक प्रथा थी और कभी भी हिंदुओं में चलन ने नहीं थी इसे साबित करने में 30 सेकंड से अधिक का समय नहीं लगेगा।

सती शब्द संस्कृत के #सत से बना है मतलब #सत्य या सच्चा। महिलाओं के संदर्भ में #सती का अर्थ हुआ #सच्ची_पत्नी या वफादार पत्नी।

सती अनुसुइया की कहानी याद हो जिसमे उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु और महेश को बच्चा बना दिया था। अनुसुइया कोई जादूगर नहीं थी। उन्होंने तीनो देवों को अपने सतीत्व की शक्ति से बच्चा बना दिया। जिसका अर्थ हुआ कि अनुसुइया जिंदा रहते हुए भी सती थी पर ईसाई मिशनरियों और वामपंथी इतिहासकारों ने प्रचारित किया कि हिंदुओं में पत्नी, चिता पर जल कर मर जाती थी उसे सती कहते थे।

जबकि सती शब्द की अर्थ के अनुसार किसी भी वफादार “जिंदा” पत्नी को सती कहा जा सकता है।

दूसरा उदाहरण सावित्री का जिन्होंने अपने सतीत्व के बल पर यमराज से अपने पति को जिंदा करवा लिया। मतलब सावित्री भी जिंदा होते हुए सती थी।
अहिल्या और माता सीता भी सती थी पर इन दोनों ने भी जल कर आत्मदाह नहीं किया।

माद्री को कई लेखों में अम्बेडकरवादियों द्वारा सती दिखाया गया जबकि सच्चाई कुछ और है। दुर्वासा का पांडु को शाप था कि जिस दिन पांडु अपनी पत्नी से सहवास करेंगे उनकी उसी दिन मौत हो जाएगी। पाण्डु ने इसीलये अपनी पत्नियों से दूरी बना के रखी क्योंकि वे मरना नहीं चाहते थे पर एक दिन माद्री नदी से नहा कर बिना कपड़ों के निकली और उन्हें देख कर पांडु ने अपना संयम खो दिया और पाण्डु ने माद्री से सहवास किया इसके बाद पाण्डु का देहांत हुआ। माद्री ने ने खुद को पाण्डु की मौत का जिम्मेदार मान का आत्महत्या की जिसे भीमटों और ईसाईयों ने हिंदुओं की सती प्रथा कह के झूठा प्रचार किया।

शिव की पत्नी सती ने भी सतीत्व नहीं किया बल्कि झगड़े के परिणाम स्वरूप अग्निकुंड में कूद कर आत्महत्या की।

इतिहास में कई विधवाएं हुयीं पर किसी ने आत्मदाह नहीं किया। रावण की विधवा पत्नी मंदोदरी, राम की तीनों माताएं विधवा थी, पर आत्मदाह नहीं किया। अंग्रेज़ो से आने से पहले शिवजी की माता जीजाबाई ने भी विधवा होते हुए आत्मदाह नहीं किया।

राजस्थान में क्षत्रिय राजपूत परिवार की महिलाओं ने युद्ध मर मारे गए अपने पतियों के वियोग में आत्महत्याएं की जो सिर्फ राज परिवार तक सीमित था यानी साधारण क्षत्रियों की महिलाएं भी आत्मदाह नहीं करतीं थीं। इतिहास में कोई सबूत नहीं कि ब्राह्मणों और वैश्यों की महिलाओं भी कभी इस तथाकथित सती प्रथा का पालन किया पर इतिहास में सम्पूर्ण हिंदुओं की प्रथा बात कर हिन्दू समाज को बदनाम किया गया है। हिन्दू भी अपने बचाव में कहते फिरते हैं कि सती प्रथा अतीत में होती थी, अब तो नहीं होता। जबकि उन्हें कहना चाहिए कि सती प्रथा कभी थी ही नहीं

सती का उल्लेख किसी भी हिन्दू धर्म की पुस्तक में नहीं मिलता, किसी वेद में भी नहीं, यहां तक की मनुस्मृति में भी नहीं। इतनी नकारात्मकता हिन्दू धर्म के खिलाफ 2000 साल पुराने जोशुआ प्रोजेक्ट के अन्तर्गत सोच समझ कर फैलायी गई है ताकि हिन्दू अपने धर्म पर शर्मिंदा महसूस हों और हिन्दू धर्म छोड़ें ताकि ईसाईयत में उनका धर्मान्तरण आसान ही।

सभी धर्मपरस्त हिन्दू समय एक मनोवैज्ञानिक युद्ध के मैदान में हैं; #दुश्मन, हिन्दू समाज व धर्म को खत्म करना चाहता है और इस मनोवैज्ञानिक युद्ध मे दुश्मन को हराने में हमारा सबसे बड़ा हथियार होगा हमारा “#ज्ञान”।
🌹 HARE KRISHNA 🌹

गाय से जुड़ी कुछ रोचक जानकारी ।

1. गौ माता जिस जगह खड़ी रहकर आनंदपूर्वक चैन की सांस लेती है । वहां वास्तु दोष समाप्त हो जाते हैं ।

2. जिस जगह गौ माता खुशी से रभांने लगे उस जगह देवी देवता पुष्प वर्षा करते हैं ।

3. गौ माता के गले में घंटी जरूर बांधे ; गाय के गले में बंधी घंटी बजने से गौ आरती होती है ।

4. जो व्यक्ति गौ माता की सेवा पूजा करता है उस पर आने वाली सभी प्रकार की विपदाओं को गौ माता हर लेती है ।

5. गौ माता के खुर्र में नागदेवता का वास होता है । जहां गौ माता विचरण करती है उस जगह सांप बिच्छू नहीं आते ।

6. गौ माता के गोबर में लक्ष्मी जी का वास होता है ।

7. गौ माता कि एक आंख में सुर्य व दूसरी आंख में चन्द्र देव का वास होता है ।

8. गौ माता के दुध मे सुवर्ण तत्व पाया जाता है जो रोगों की क्षमता को कम करता है।

9. गौ माता की पूंछ में हनुमानजी का वास होता है । किसी व्यक्ति को बुरी नजर हो जाये तो गौ माता की पूंछ से झाड़ा लगाने से नजर उतर जाती है ।

10. गौ माता की पीठ पर एक उभरा हुआ कुबड़ होता है , उस कुबड़ में सूर्य केतु नाड़ी होती है । रोजाना सुबह आधा घंटा गौ माता की कुबड़ में हाथ फेरने से रोगों का नाश होता है ।

11. एक गौ माता को चारा खिलाने से तैंतीस कोटी देवी देवताओं को भोग लग जाता है ।

12. गौ माता के दूध घी मख्खन दही गोबर गोमुत्र से बने पंचगव्य हजारों रोगों की दवा है । इसके सेवन से असाध्य रोग मिट जाते हैं ।

13. जिस व्यक्ति के भाग्य की रेखा सोई हुई हो तो वो व्यक्ति अपनी हथेली में गुड़ को रखकर गौ माता को जीभ से चटाये गौ माता की जीभ हथेली पर रखे गुड़ को चाटने से व्यक्ति की सोई हुई भाग्य रेखा खुल जाती है ।

14. गौ माता के चारो चरणों के बीच से निकल कर परिक्रमा करने से इंसान भय मुक्त हो जाता है ।

15. गौ माता के गर्भ से ही महान विद्वान धर्म रक्षक गौ कर्ण जी महाराज पैदा हुए थे।

16. गौ माता की सेवा के लिए ही इस धरा पर देवी देवताओं ने अवतार लिये हैं ।

17. जब गौ माता बछड़े को जन्म देती तब पहला दूध बांझ स्त्री को पिलाने से उनका बांझपन मिट जाता है ।

18. स्वस्थ गौ माता का गौ मूत्र को रोजाना दो तोला सात पट कपड़े में छानकर सेवन करने से सारे रोग मिट जाते हैं ।

19. गौ माता वात्सल्य भरी निगाहों से जिसे भी देखती है उनके ऊपर गौकृपा हो जाती है ।

20. काली गाय की पूजा करने से नौ ग्रह शांत रहते हैं । जो ध्यानपूर्वक धर्म के साथ गौ पूजन करता है उनको शत्रु दोषों से छुटकारा मिलता है ।

21. गाय एक चलता फिरता मंदिर है । हमारे सनातन धर्म में तैंतीस कोटि देवी देवता है ,हम रोजाना तैंतीस कोटि देवी देवताओं के मंदिर जा कर उनके दर्शन नहीं कर सकते पर गौ माता के दर्शन से सभी देवी देवताओं के दर्शन हो जाते हैं ।

22. कोई भी शुभ कार्य अटका हुआ हो बार बार प्रयत्न करने पर भी सफल नहीं हो रहा हो तो गौ माता के कान में कहिये रूका हुआ काम बन जायेगा !

23. गौ माता सर्व सुखों की दातार है ।

हे मां आप अनंत ! आपके गुण अनंत ! इतना मुझमें सामर्थ्य नहीं कि मैं आपके गुणों का बखान कर सकूं ।

जय गाय माता की
🌹 🌹

🍒🍒🍒🍒🍒🍒🍓
: 🌇🌇🌇🌇🌇🌇🌇🌇🌇 👉2 लघु सत्य घटनाएँ-
🌹🌹🌹चरित्र🌹🌹🌹
👉नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति बनने के बाद, अपने सुरक्षा कर्मियों के साथ एक रेस्तरां में खाना खाने गए । सबने अपनी अपनी पसंद के खाना का आर्डर दिया और खाना के आने का इंतजार करने लगे ।
*उसी समय मंडेला की सीट के सामने एक व्यक्ति भी अपने खाने आने का इंतजार कर रहा था । मंडेला ने अपने सुरक्षा कर्मी को कहा उसे भी अपनी टेबल पर बुला लो । ऐसा ही हुआ, खाना आने के बाद सभी खाने लगे, *वो आदमी भी अपना खाना खाने लगा, पर उसके हाथ खाते हुए कांप रहे थे।
खाना खत्म कर वो आदमी सिर झुका कर होटल से निकल गया । उस आदमी के खाना खा के जाने के बाद मंडेला के सुरक्षा अधिकारी ने मंडेला से कहा कि वो व्यक्ति शायद बहुत बीमार था, खाते वक़्त उसकी हाथ लगातार कांप रहे थे और वह कांप भी रहा था ।
मंडेला ने कहा नहीं ऐसा नहीं है । वह उस जेल का जेलर था, जिसमें मुझे रखा गया था । कभी मुझे जब यातनाएं दी जाती और मै कराहते हुवे पानी मांगता तो ये मेरे ऊपर पेशाब करता था ।

*मंडेला ने कहा *मै अब राष्ट्रपति बन गया हूं, उसने समझा कि मै भी उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करूंगा । पर मेरा यह चरित्र नहीं है । मुझे लगता है बदले की भावना से काम करना विनाश की ओर ले जाता है । वहीं धैर्य और सहिष्णुता की मानसिकता हमें विकास की ओर ले जाती है*
(2)
*पुण्य की कमाई*
” टिकट कहाँ है ? ” — टी सी ने बर्थ के नीचे छिपी लगभग तेरह – चौदह साल की लडकी से पूछा ।”
नहीं है साहब।
“काँपती हुई हाथ जोड़े लडकी बोली।
“तो गाड़ी से उतरो।” टी सी ने कहा ।
इसका टिकट मैं दे रहीं हूँ।…………पीछे से ऊषा भट्टाचार्य की आवाज आई जो पेशे से प्रोफेसर थी ।
“तुम्हें कहाँ जाना है ?” लड़की से पूछा” पता नहीं मैम ! “” तब मेरे साथ चल बैंगलोर तक ! “”
तुम्हारा नाम क्या है ? “” चित्रा
“बैंगलोर पहुँच कर ऊषाजी ने चित्रा को अपनी एक पहचान के स्वंयसेवी संस्थान को सौंप दिया । और अच्छे स्कूल में एडमीशन करवा दिया। जल्द ही ऊषा जी का ट्रांसफर दिल्ली होने की वजह से चित्रा से कभी-कभार फोन पर बात हो जाया करती थी ।करीब बीस साल बाद ऊषाजी को एक लेक्चर के लिए सेन फ्रांसिस्को (अमरीका) बुलाया गया । लेक्चर के बाद जब वह होटल का बिल देने रिसेप्सन पर गई तो पता चला पीछे खड़े एक खूबसूरत दंपत्ति ने बिल भर दिया था ।”तुमने मेरा बिल क्यों भरा ? ? “”
मैम, यह बम्बई से बैंगलोर तक के रेल टिकट के सामने कुछ नहीं है ।
“”अरे चित्रा ! ! ? ? ? . . . .
चित्रा कोई और नहीं इंफोसिस फाउंडेशन की चेयरमैन सुधा मुर्ति थी, एवं इंफोसिस के संस्थापक श्री नारायण मूर्ति जी की पत्नी थी।
यह उन्ही की लिखी पुस्तक “द डे आई स्टाॅप्ड ड्रिंकिंग मिल्क” से लिया गया कुछ अंश
कभी कभी आपके द्वारा भी की गई सहायता किसी की जिन्दगी बदल सकती है।
अगर कुछ कमाना है तो पुण्य अर्जित कीजिये क्योंकि यही वो मार्ग है जो स्वर्ग तक जाता है.
🐄🐄🐄🐄🙏🐄🐄🐄🐄
: एक डॉक्टर के क्लिनिक मे लिखी हुई एक बेहतरीन लाइन……!

दवा मे कोई खुशी नही है और खुशी जैसी कोई दवा नही है…..!

    *🙏🏻 सुप्रभात 🙏🏻*

Recommended Articles

Leave A Comment