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सुप्रभात मित्रों … ॐ नमः शिवाय !
आज का दिन आप सभी के लिये शुभ हो।

            🕉प्रदक्षिणा🕉

🌷सनातन धर्म की प्रत्येक क्रिया मे वैज्ञानिकता है।
कभी आपने सोचा है कि प्राचीन मंदिरों मे कुंआ या कोई जलाशय क्यों होता है?
कभी इस बात पर विचार किया है कि हम परिक्रमा क्यों लगाते हैं और
यह परिक्रमा एक विशेष दिशा मे ही क्यों होती है?
इन सबके पीछे वैज्ञानिक कारण हैं।

✡इष्टदेव की मूर्ति के चारों ओर वृत्ताकार इस प्रकार घूमना जिसमे देव या मंदिर अपने दक्षिण भाग मे रहे, प्रदक्षिणा कहलाता है।
ऐसा मत है कि यह प्रदक्षिणा (नमस्कार के साथ) एक ‘उपचार’ माना जाता है।
किसी किसी ग्रंथ मे प्रदक्षिणा के विशेष नियम उपलब्ध होते है।
विश्वासरतंत्र मे कहा गया है कि हाथ मे शंख लेकर देवता की प्रदक्षिणा करनी चाहिए।

✡प्रदक्षिणा का अर्थ है परिक्रमा करना।
उत्तरी गोलार्ध मे प्रदक्षिणा घड़ी की सुई की दिशा मे की जाती है।
भारत उत्तर और पूर्वी गोलार्ध मे स्थित है।
इस धरती के उत्तरी गोलार्ध मे यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। अगर आप गौर से देखें तो नल की टोंटी खोलने पर पानी हमेशा घड़ी की सुई की दिशा मे मुडक़र बाहर गिरेगा।
अगर आप दक्षिणी गोलार्ध मे चले जाएं और वहां नल की टोंटी खोलें तो पानी घड़ी की सुई की उलटी दिशा में मुडक़र बाहर गिरेगा।
बात सिर्फ पानी की ही नहीं है, पूरा का पूरा ऊर्जा तंत्र इसी तरह काम करता है।

✡उत्तरी गोलार्ध मे अगर कोई शक्ति स्थान है और आप उस स्थान की ऊर्जा को ग्रहण करना चाहते हैं तो आपको घड़ी की सुई की दिशा मे उसके चारों ओर परिक्रमा लगानी चाहिये।
जब आप घड़ी की सुई की दिशा मे घूमते हैं तो आप कुछ खास प्राकृतिक शक्तियों के साथ घूम रहे होते हैं।

✡कोई भी प्रतिष्ठित धार्मिक स्थान एक भंवर की तरह काम करता है, क्योंकि उसमें एक कंपन होता है और यह अपनी ओर खींचता है।
दोनों ही तरीकों से ईश्वरीय शक्ति और हमारे अंतरतम के बीच एक संपर्क स्थापित होता है।
घड़ी की सुई की दिशा मे किसी प्रतिष्ठित स्थान की परिक्रमा करना इस संभावना को ग्रहण करने का सबसे आसान तरीका है।
विशेष रूप से भूमध्य रेखा से 33 डिग्री अक्षांश तक यह संभावना काफी तीव्र होती है,
क्योंकि यही वह जगह है जहां आपको अत्यधिक लाभ मिल सकता है।

✡”प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं” के अनुसार अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा कहलाता है।
प्रदक्षिणा मे व्यक्ति का दाहिना अंग देवता की ओर होता है। इसे परिक्रमा के नाम से प्राय: जाना जाता है।
‘शब्दकल्पद्रुम’ मे कहा गया है कि देवता को उद्देश्य करके दक्षिणावर्त भ्रमण करना ही प्रदक्षिणा है।

✡प्रदक्षिणा का प्राथमिक कारण सूर्यदेव की दैनिक चाल से संबंधित है।
जिस तरह से सूर्य प्रात: पूर्व मे निकलता है, दक्षिण के मार्ग से चलकर पश्चिम मे अस्त हो जाता है,
उसी प्रकार वैदिक विचारकों के अनुसार अपने धार्मिक कृत्यों को बाधा विघ्नविहीन भाव से सम्पादनार्थ प्रदक्षिणा करने का विधान किया गया।
शतपथ ब्राह्मण मे प्रदक्षिणा मंत्र स्वरूप कहा भी गया है,
सूर्य के समान यह हमारा पवित्र कार्य पूर्ण हो।

✡अगर आप प्रदक्षिणा का अधिक लाभ उठाना चाहते हैं तो आपके बाल गीले होने चाहिए।
इसी तरह और ज्यादा फायदा उठाने के लिए आपके कपड़े भी गीले होने चाहिए।
अगर आपको इससे भी ज्यादा लाभ उठाना है तो आपको इस स्थान की परिक्रमा नग्न अवस्था मे करनी चाहिए।
वैसे, गीले कपड़े पहनकर परिक्रमा करना नंगे घूमने से बेहतर है।

✡इसका कारण यह है कि शरीर बहुत जल्दी सूख जाता है, जबकि कपड़े ज्यादा देर तक गीले रहते हैं।
ऐसे मे किसी शक्ति स्थान की परिक्रमा गीले कपड़ों मे करना सबसे अच्छा है,
क्योंकि इस तरह आप उस स्थान की ऊर्जा को सबसे अच्छे सुचालक तरीके से ग्रहण कर पाएंगे।

✡यही कारण है कि पहले हर मंदिर मे एक जल कुंड जरूर होता था,
जिसे आमतौर पर कल्याणी कहा जाता था।
ऐसी मान्यता है कि पहले आपको कल्याणी मे एक डुबकी लगानी चाहिए और फिर गीले कपड़ों मे मंदिर भ्रमण करना चाहिए,
जिससे आप उस प्रतिष्ठित जगह की ऊर्जा को सबसे अच्छे तरीके से ग्रहण कर सकें। लेकिन आज ज्यादातर कल्याणी या तो सूख गए हैं या गंदे हो गए हैं।

✡शास्त्रों के अनुसार पूजा के समय भगवान की परिक्रमा से अक्षय पुण्य मिलता है और पाप नष्ट होते हैं।
इस परंपरा के पीछे धार्मिक महत्व के साथ ही वैज्ञानिक महत्व भी है।
जिन मंदिरों मे पूरे विधि विधान के साथ देवी-देवताओं की मूर्ति स्थापित की जाती है,
वहां मूर्ति के आसपास दिव्य शक्ति हमेशा सक्रिय रहती है।
मूर्ति की परिक्रमा करने से उस शक्ति से हमें भी ऊर्जा मिलती है।
इस ऊर्जा से मन शांत होता है। जिस दिशा में घड़ी की सुई घुमती है, उसी दिशा मे परिक्रमा करनी चाहिए,
क्योंकि दैवीय ऊर्जा का प्रवाह भी इसी प्रकार रहता है।

✡‘कर्म लोचन’ नामक ग्रंथ मे लिखा गया है कि
“एका चण्ड्या रवे: सप्त तिस्र: कार्या विनायके।
हरेश्चतस्र: कर्तव्या: शिवस्यार्धप्रदक्षिणा।”
अर्थात दुर्गाजी की एक, सूर्य की सात, गणेशजी की तीन, विष्णु भगवान की चार एवं शिवजी की आधी प्रदक्षिणा करनी चाहिए।

  1. श्रीकृष्ण की 3 परिक्रमा करनी चाहिए।
  2. देवी की 1 परिक्रमा करनी चाहिए।
  3. भगवान विष्णुजी एवं उनके सभी अवतारों की चार परिक्रमा करनी चाहिए।
  4. श्रीगणेशजी और हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है।
  5. शिवजी की आधी परिक्रमा करनी चाहिए, क्योंकि शिवजी के अभिषेक की धारा को लाघंना अशुभ माना जाता है।

✡परिक्रमा करते समय ध्यान रखने योग्य बातें –

  1. जिस देवी-देवता की परिक्रमा की जा रही है,
    उनके मंत्रों का जप करना चाहिए।
  2. भगवान की परिक्रमा करते समय मन मे बुराई, क्रोध, तनाव जैसे भाव नहीं होना चाहिए।
  3. परिक्रमा नंगे पैर ही करना चाहिए।
  4. परिक्रमा करते समय बातें नहीं करना चाहिए।
    शांत मन से परिक्रमा करें।
  5. परिक्रमा करते समय तुलसी, रुद्राक्ष आदि की माला पहनेंगे तो बहुत शुभ रहता है।

जिन देवताओं की प्रदक्षिणा का विधान नही प्राप्त होता है, उनकी 3 प्रदक्षिणा की जा सकती है।
लिखा गया है कि “यस्त्रि: प्रदक्षिणं कुर्यात् साष्टांगकप्रणामकम्।
दशाश्वमेधस्य फलं प्राप्रुन्नात्र संशय:॥”

परिक्रमा प्रारंभ करने के पश्चात बीच मे रुकना नहीं चाहिये।
परिक्रमा वहीं पूर्ण करें, जहां से प्रारंभ की गई थी।
परिक्रमा बीच मे रोकने से वह पूर्ण नहीं मानी जाती।
परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत न करें।
जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें।
इस प्रकार परिक्रमा करने से अभीष्ट एवं पूर्ण लाभ की प्राप्ति होती है।

✡परिक्रमा पूर्ण करने के पश्चात भगवान को दंडवत प्रणाम करना चाहिए।
जो लोग तीन प्रदक्षिणा साष्टांग प्रणाम करते हुए करते हैं, वे दश अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करते हैं।
जो लोग सहस्रनाम का पाठ करते हुए प्रदक्षिणा करते हैं, वे सप्त द्वीपवती पृथ्वी की परिक्रमा का पुण्य प्राप्त करते हैं।

!! ॐ सुरभ्यै नमः !!

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