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तान,गान,नृत्य कला शिवजी का स्वरूप

  "  सत सृष्टि तांडव रचयिता नटराज राज नमो नमः "

  ज्यादातर लोकमान्यता शिवतांडव मतलब प्रलय मानते है , पर सृष्टि के सर्जन की क्रिया का शिवनृत्य है तांडव । प्रतिमास कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को प्रदोषकाल समय ही है शिवजी का तांडव नृत्य कलाप । उन समय ब्रह्मांड की हरेक शक्ति देवी , देवता , यक्ष ,किन्नर , गांधर्व,ग्रह , नक्षत्र सह हरेक दिव्य शक्तियां शिव दर्शन में लीन होती है । इसलिए ही प्रदोष व्रत और प्रदोष काल के समय शिवपूजा का महत्व है । समष्टि की हरेक सोलह कला शिवजी का सृजन है ।

   शिवजी के डमरू के घोरसे जो नाद हुवा वही से सर्जन हुवा शब्द और ध्वनि । राग ओर  रागिनी भी वो छत्तीस अक्षर से है जो विश्वकी तमाम भाषा  क.ख. ग.घ ...से है । स्वर ओर व्यंजन  अ . आ .ई . उ  .. 52 दोनों के तत्व देवता भी 52 वीर स्वरूप पूजे जाते है। यज्ञ , पूजा , अभिषेक ,ये सब पूजा प्रकार में राग आराधना से शिवपूजा भी एक प्रकार है । संगीत विशारद उपासक दिन ओर रात्रि के आठ प्रहर ओर कला मुजब महादेव का आराध् करते है । कही रागों से भैरव वीर यक्षिणी को प्रगट किया जा सकता है । 

सप्त ऋषियों के अनुरोध पर शिव ने अव्यवस्थित भाषा और व्याकरण को व्यवस्था देने के लिए 14 बार डमरू का नाद् किया, जिससे 14 महेश्वर सूत्र यानी स्वर एवं व्यंजन प्रकट हुए। उनके अनुसार शिव का तांडव नृत्य वास्तव में समग्र ब्रह्मांड में व्याप्त परमाणुओं एवं सभी तत्वों का हलचल है और वह मूल स्पंदन है, जिससे वाणी और स्वर का उद्गम हुआ। समस्त छह राग व छत्तीस रागनी शिव के द्वारा ही जगत में अवतरित हुईं हैं। शिव का समग्र स्वरूप ही संगीतमय है। गीत, वाद्य, नृत्य सहित अष्टोपचार व षोडषोपचार पूजा से भोलेनाथ प्रसन्न होते हैं और डमरू, मृदंग, वीणा वाद्य यंत्रों के स्वरों के बीच अभिषेक अवसर पर मंत्र, स्तुति ध्रुपद आदि शैलियों में निबद्ध गायन शिव को विशेष प्रिय हैं। ऐसी शिव पुराण आदि में भी मान्यता है।

संसार में संगीत-विज्ञान की सबसे पहली जानकारी सामवेद मे उपलब्ध है। भारत में संगीत, चित्रकला एवं नाट्यकला को दैवी कलाएँ माना जाता है। अनादि-अनंत त्रिमूर्ती ब्रह्मा, विष्णु और शिव आद्य संगीतकार थे। शास्त्र-पुराणों में वर्णन है कि शिव ने अपने नटराज या विराट्-नर्तक के रूप में ब्रह्माण्ड की सृष्टि, स्थिति और लय की प्रक्रिया के नृत्य में लय के अनंत प्रकारों को जन्म दिया। ब्रह्मा और विष्णु करताल और मृदंग पर ताल पकड़े हुए थे।
विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती को सभी तार वाद्यों की जननी वीणा को बजाते हुए दिखाया गया है। हिन्दू चित्रकला में विष्णु के एक अवतार कृष्ण को बंसी-बजैया के रूप में चित्रित किया गया है; उस बंसी पर वे माया में भटकती आत्माओं को अपने सच्चे घर को लौट आने का बुलावा देने वाली धुन बजाते रहते हैं।
राग-रागिनियाँ या सुनिश्चित स्वरक्रम हिन्दू संगीत की आधारशिलाएँ हैं। छ्ह मूल रागों की 126 शाखाएँ-उपशाखाएँ हैं। हर राग के कम-से-कम पाँच स्वर होते हैं: एक मुख्य स्वर (वादी या राजा), एक आनुषंगिक स्वर (संवादी या प्रधानमंत्री), दो या अधिक सहायक स्वर (अनुवादी या सेवक), और एक अनमेल स्वर (विवादी या शत्रु)।
छह रागों में से हर एक की दिन के विशिष्ट समय और वर्ष की विशिष्ट ऋतु के साथ प्राकृतिक अनुरूपता है और हर राग का एक अधिष्ठाता देवता है, जो उसे विशिष्ट शक्ति और प्रभाव प्रधान करता है। इस प्रकार (1) हिण्डोल राग को केवल वसन्त ऋतु ऊषाकाल में सुना जाता है, इससे सर्वव्यापक प्रेम का भाव जागता है; (2) दीपक राग को ग्रीष्म ऋतु में सान्ध्य बेला में गाया जाता है, इससे अनुकम्पा या दया का भाव जागता है; (3) मेघराग वर्षा ऋतु में मध्याह्न काल के लिए है, इससे साहस जागता है; (4) भैरव राग अगस्त, सितम्बर, अक्तूबर महीनों के प्रातः काल में गाया जाता है, इससे शान्ति उत्पन्न होती है; (5) श्री राग शरद ऋतु की गोधूली बेला में गाया जाता है, इससे विशुद्ध प्रेम का भाव मन पर छा जाता है; (6) मालकौंस राग शीत ऋतु की मध्यरात्रि में गाया जाता है; इससे वीरता का संचार होता है।
प्राचीन ऋषियों ने प्रकृति और मानव के बीच ध्वनि सम्बन्धों के इन नियमों को खोज निकाला। चूँकि प्रकृति नादब्रह्म या प्रणव झंकार या ओंकारध्वनि का घनीभूत रूप है, अतः मनुष्य विशिष्ट मंत्रों के प्रयोग द्वारा सारी प्राकृतिक अभिव्यक्तियों पर नियंत्रण प्राप्त कर सकता है। इतिहास में 16 वीं शताब्दी के बादशाह अकबर के दरबारी गायक तानसेन की उल्लेखनीय शक्तियों का वर्णन है। एक बार दिन में ही बादशाह ने उन्हें एक रात्रिकालीन राग गाने का आदेश दिया, तो तानसेन ने एक मंत्र का प्रयोग किया, जिससे महल के सारे परिसर में तत्क्षण अँधेरा छा गया।
भारतीय संगीत में स्वर सप्तक को 22 श्रुतियों में विभक्त किया गया है। स्वर के इन सूक्ष्म अन्तालों के कारण संगीत की अभिव्यक्ति में छोटे-छोटे भेद भी सम्भव हो जाते हैं, जो 12 श्रुतियों के पाश्चात्य स्वरक्रम में दुष्प्राप्य होते हैं। हिन्दू पुराणों में सप्तक के सात मूल स्वरों का एक-एक रंग तथा किसी पक्षी या पशु के प्राकृतिक स्वर के साथ सम्बन्ध बताया गया है- सा का हरे रंग और मोर के साथ, रे का लाल रंग और चातक पक्षी के साथ, ग का सुनहरे रंग और बकरे के साथ, म का पीली छटा लिये श्वेत रंग और सारस पक्षी के साथ, प का काले रंग और कोकिला के साथ, ध का पीले रंग और घोड़े के साथ, नी का सभी रंगों के मिश्रण और हाथी के साथ।

हिन्दू सनातन धर्म ने सोलह कलाओं का जो वर्णन किया है उन सभी 16 कला के सर्जक शिव है l

        

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