Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

जपयोगका_रहस्यतत्त्वविज्ञान

वाचिकजप से उपांशुजप श्रेष्ठ है और उपांशुजप से मानसजप श्रेष्ठ है, यह बात शास्त्र में सर्वत्र प्रसिद्ध है। वाचिकजप में बाह्यवायु के साथ संबंध अधिक रहता है, परन्तु उपांशुजप में यह संबंध प्रायः छिन्न हो जाता है, फिर भी कुछ रह जाता है। यथार्थ मानसजप में बाह्यवायु का संबंध एक प्रकार से नहीं रहता। बाह्यवायु के प्रभाव से ही चित्त विक्षिप्त हो जाता है। अतएव जिस मात्रा से यह प्रभाव कम होता जाता है, उसी मात्रा के अनुसार विक्षेप भी कम होने लगता है। वाचिकजप से मानसिकजप में एकाग्रता अधिक आवश्यक होती है। इसी कारण से मानसिकजप का उत्कर्ष समझ में आता है। वाचिकजप से श्वास- प्रश्वास की गति मंद हो जाती है। श्वास की गति ह्रास हो जाने के साथ-साथ बिना चेष्टा या प्रयत्न के ही वाचिकजप उपांशुजप में परिणत हो जाता है। श्वास-प्रश्वास की गति एकांतरूप से क्षीण होने पर बिना चेष्टा उपांशुजप मानसजप में परिणत होता है। उस समय बाह्यवायु की क्रिया स्तंभितप्राय होती है, अर्थात् इडापिंगला नाड़ियों की क्रिया प्रायः शांत हो जाती है। जप के क्रम में जिस शक्ति का संचार अब तक इड़ा-पिंगला मार्ग में हो रहा था, उसका प्रवेश सुषुम्ना में हो जाता है। अतएव इस समय तक जो शब्द बाहर में उच्चरित हो रहा था उसका प्रवेश सुषुम्ना में हो जाता है। सुषुम्ना में शक्ति के अन्तःप्रवेश के साथ ही साथ, अर्थात् मध्यमा में वायु का प्रवेश होन पर, वह भीतर उच्चरित होने लगता है। किन्तु यह बाह्य और आभ्यंतर उच्चारण ठीक प्रकार का नहीं है। बाह्य उच्चारण बाह्यवायु की सहायता से संपन्न होता है। यह वायु इड़ा-पिंगला मार्ग में संचरण करती है। परन्तु आभ्यंतरीण उच्चारण भीतर की वायु से सिद्ध होता है, यह वायु सुषुम्ना मार्ग में प्रवाहित होता है। बाह्यवायु स्थूल है, भीतर की वायु सूक्ष्म है। सुषुम्ना में वायु की ऊर्ध्वगति होने पर यथार्थ मानसिक जप हो नहीं सकता। बाह्य वायु को इच्छाशक्ति द्वारा चालित करके ध्वनिरूप।में परिणत करना पड़ता है, परन्तु सुषुम्नास्थित वायु सर्वदा ऊर्ध्वगमनशील होने के कारण वहाँ निरवच्छिन्नरूप से ध्वनि उठती रहती है। सुषुम्ना निरंतर शब्दमय है। यह शब्द नादरूप।है, उसके साथ कुंडलिनी का घनिष्ठ संबंध है। दीर्घकाल तक बाह्यजप के अनुष्ठान से जब सुषुम्ना में किंचित् प्रवेश होता है, तब प्रवृत्त बाह्यजप का संस्कार, सुषुम्ना को रंजित करता।है। उससे अनवच्छिन्ननाद साधक को बाह्यजप के अनुरूप ध्वनि रूप में परिणत होकर श्रुति-गोचर होता है। उस अवस्था में मंत्रजप भीतर से अपने आप होने लगता है, चेष्टा की।आवश्यकता नहीं रहती। यह वस्तुतः अजपा की ही एक अवस्था है। प्रचलित मानसिक जप से इस जप का किसी अंश में भेद है क्योंकि प्रचलितजप में साधक की चेष्टा रहती है, किन्तु इस प्रकार के मानसिकजप में किसी प्रकार की चेष्टा नहीं रहती।

वैखरी से मध्यमा, मध्यमा से पश्यंती और पश्यंती से परा-यही स्वाभाविक क्रम है। वाचिक और उपांशुजप दोनों ही वैखरी में होता है, परन्तु मानसिकजप मध्यमा छोड़कर हो नहीं सकता। वैखरी में शब्द और अर्थ का पार्थक्य विद्यमान रहता है। परन्तु मध्यमा में शब्द और अर्थ का परस्पर सांकर्य रहता है। पश्यंती अवस्था में शब्द और अर्थ एक सत्ता में परिणत हो जाते हैं। यही है चैतन्य का स्फुरण, आत्मसाक्षात्कार, मंत्रसिद्धि, इष्टदर्शन और अपरोक्ष दर्शन। यह सब पश्यंती अवस्था का ही व्यापार है। परावस्था अव्यक्त है, मध्यमावस्था में ही शब्द से ज्योति का आविर्भाव आरंभ होता है। हृदय का संचित अंधकार मध्यमानाद के समय ही विगलित होने लगता है। वैखरी और पश्यंती की अंतरालावस्था में बाह्य दृश्यजगत् तिरोहित होकर स्वच्छ आलोक से आलोकित भावमय एक अनंत जागत्रूप में हो जाता है। इस जगत् के उपसंहार के साथ-साथ वह व्यापक आलोक और उससे आलोकित अनंत दृश्य विशुद्ध ज्योतिरूप में परिणत होता है। यही आत्मज्योति है। यह पश्यंतीवाक् की अवस्था है। इस ज्योति में डूबकर अपने को लीन होने न दे सकने पर, ज्योति के भीतर आत्मस्वरूप का दर्शन हो जाता है। इसके भी परावस्था है। यहाँ उसका वर्णन अनावश्यक है। वर्णात्मक शब्द से ध्वन्यात्मक में प्रवेश करना पड़ता है, नहीं तो योगमार्ग नहीं मिलता। ध्वन्यात्मक शब्द ही नाद है। जब तक वर्णरूपी शब्द विगलित होकर वैचित्र्यपरिहार न करेगा तब तक नादरूपी शब्द की उपलब्धि नहीं होगी। बिना नाद की प्राप्ति के बिन्दु की उपलब्धि कैसी होगी? रेखा जैसे गतिहीन होने पर बिन्दुरूप धारण करती है, नाद भी उसी प्रकार प्रवाहहीन होने पर बिन्दुरूप में परिणत होता है। यह बिन्दु ही पूर्ववर्णित ज्योति है। आत्मस्वरूप का यही अभिव्यंजक है।

शास्त्र और महापुरुषों के अनुभव से जप के रहस्य बहुत प्रकार से जाने जा सकते हैं, परन्तु इन रहस्यों के विश्लेषण से कोई विशेष लाभ नहीं होता। क्योंकि साधक का चित्त जब तक कृत्रिम उपाय से हटकर अकृत्रिम स्वभावसिद्ध उपाय का अवलंबन न करेगा तब तक वास्तव में विशेष लाभ की संभावना नहीं है। जब सद्गुरु कुंडलिनी शक्ति को जगाकर शिष्य के अधिकार के अनुसार किसी न किसी प्रकार से उसे दीक्षा प्रदान करते हैं तब उस दीक्षाप्रदान-व्यापार के साथ ही साथ जो विशुद्धाज्ञानमय काय अभिव्यक्त होने लगता है वह गुरुदत्तकाय ही वस्तुतः शिष्य का स्वदेह है। बीज अंकुरित होकर जैसे वृक्षरूप में परिणत होता है और यथासमय जैसे उसमें फल का आविर्भाव होता है उसी प्रकार गुरुदत्तबीज शिष्य के हृदयरूप क्षेत्र में यथाविधि पतित होकर जब अंकुरित होने लगता है तब चाहे शीघ्र हो या देर में – ज्ञानरूपदेह उत्पन्न अवश्य ही होगा। बाहर से केवल परिकर्म की आवश्यकता रहती है। गुरुदत्त बीज गुरुशक्ति या चैतन्यशक्ति के प्रभाव से शिष्य के क्षेत्र में पड़ने पर अपने आप ही विकसित होने लगता है। शिष्यकृत साधना, परिकर्मरूप से प्रतिबंधक हटाकर, उसकी अभिव्यक्ति में सहायता देती है। शिष्य की सब क्रियाएँ गुरुदत्त अथवा गुरु से अभिव्यंजित चैतन्यशक्ति की सहायता से संपन्न होती हैं। यही स्वाभाविक साधन है। कर्तृत्वाभिमानशील जीव उस साधन को कर नहीं सकते क्योंकि देहाभिमान से अतीत शुद्धचैतन्यशक्ति अथवा गुरुशक्ति अपने स्वभाव से उसका संपादन करती है। इस अवस्था में जो जपादि होता है, वह प्रचलित जपादि से किंचित् विशिष्ट है। वस्तुतः यह अजपा का ही खेल है, क्योंकि इसका मूल स्थूलदेही जीव नहीं है। परन्तु प्राकृतिक प्रभाव से जिस प्रकार वह चलता है एवं क्रमश: जिन अवस्थाओं का उद्भव होता है, साक्षी होकर जीव उनका अनुभव कर सकता है।

कुंडलिनीशक्ति के न जगाने से साधन का यह स्वाभाविक मार्ग आयत्त नहीं हो सकता। गुरु दीक्षाकाल में शिष्य को चैतन्यशक्ति का आभास मात्र देकर उसको साधना प्रणाली का उपदेश करते हैं । शिष्य को अपने पुरुषकार या चेष्टा के द्वारा साधन करना पड़ता है। दीर्घ समय तक साधना के प्रभाव से कुंडलिनीशक्ति जाग्रत् होकर साधक को विशुद्धचैतन्यस्वरूप में प्रतिष्ठित करती है। उस अवस्था में जपादि किसी प्रकार का साधन चेष्टापूर्वक करना नहीं पड़ता। केवल प्राकृतिक शक्ति के द्वारा अर्थात् पुरुष के निरपेक्ष स्वभाव के द्वारा वह निष्पन्न होता है। साधन करते-करते चैतन्य का विकास सिद्ध होने पर साधना का प्रयोजन नहीं रहता, तब आभासरूपीचैतन्य विशुद्धचैतन्यरूप में आत्मप्रकाश करता है। इस प्रकार साधक विभिन्न प्रकार कौशल अवलंबन करके वैखरीभूमि से पश्यंतीभूमि पर्यंत अग्रसर होते हैं। जो साधक गुरु से शुद्धचैतन्य शक्ति अर्थात् कुंडलिनी का जागरण अथवा चैतन्य का आभास प्राप्त नहीं होते हैं वे चैतन्यशक्ति से संबंधहीन रहते हैं। इसी कारण से यथार्थ योगी अथवा साधक को किसी श्रेणी के अंतर्गत नहीं जाना जा सकता। फिर भी यह सत्य है कि तीव्र संवेग, उत्कट इच्छा, वैराग्य और भगवद्भक्ति के प्रभाव से ये भी चैतन्यशक्ति या उसके आभास की सहायता प्राप्त कर सकते हैं। क्योंकि विश्व-गुरु समस्त जगत् के उद्धार की कामना से सर्वदा ही नित्य सन्निहित रहता है। तीव्र व्याकुलता रहने पर, आधार की और किसी प्रकार की अयोग्यता रहने पर भी, साक्षात्रूप से न होने पर भी, परंपरा से गुरुकृपा अवश्यंभावी है। परन्तु जब तक चैतन्य का संस्पर्श नहीं होता तब तक इनके यथार्थ सफलताप्राप्ति की आशा नहीं रहती।

Recommended Articles

Leave A Comment