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शालिहोत्र

शालिहोत्र (2350 ईसापूर्व) हयगोष नामक ऋषि के पुत्र थे। वे पशुचिकित्सा (veterinary sciences) के जनक माने जाते हैं। उन्होंंने ‘शालिहोत्रसंहिता’ नामक ग्रन्थ की रचना की। वे श्रावस्ती के निवासी थे।

★परिचय★
संसार के इतिहास में घोड़े पर लिखी गई प्रथम पुस्तक शालिहोत्रसंहिता है, जिसे शालिहोत्र ऋषि ने महाभारत काल से भी बहुत समय पूर्व लिखा था। कहा जाता है कि शालिहोत्र द्वारा अश्वचिकित्सा पर लिखत प्रथम पुस्तक होने के कारण प्राचीन भारत में पशुचिकित्सा विज्ञान को ‘शालिहोत्रशास्त्र’ नाम दिया गया। शालिहोत्रसंहिता का वर्णन आज संसार की अश्वचिकित्सा विज्ञान पर लिखी गई पुस्तकों में दिया जाता है। भारत में अनिश्चित काल से देशी अश्वचिकित्सक ‘शालिहोत्री’ कहा जाता है।

शालिहोत्रसंहिता में ४८ प्रकार के घोड़े बताए गए हैं। इस पुस्तक में घोड़ों का वर्गीकरण बालों के आवर्तों के अनुसार किया गया है। इसमें लंबे मुँह और बाल, भारी नाक, माथा और खुर, लाल जीभ और होठ तथा छोटे कान और पूँछवाले घोड़ों को उत्तम माना गया है। मुँह की लंबाई २ अंगुल, कान ६ अँगुल तथा पूँछ २ हाथ लिखी गई है। घोड़े का प्रथम गुण ‘गति का होना’ बताया है। उच्च वंश, रंग और शुभ आवर्तोंवाले अश्व में भी यदि गति नहीं है, तो वह बेकार है। शरीर के अंगों के अनुसार भी घोड़ों के नाम, त्रयण्ड (तीन वृषण वाला), त्रिकर्णिन (तीन कानवाला), द्विखुरिन (दोखुरवाला), हीनदंत (बिना दाँतवाला), हीनांड (बिना वृषणवाला), चक्रवर्तिन (कंधे पर एक या तीन अलकवाला), चक्रवाक (सफेद पैर और आँखोंवाला) दिए गए हैं। गति के अनुसार तुषार, तेजस, धूमकेतु, एवं ताड़ज नाम के घोड़े बताए हैं। इस ग्रन्थ में घोड़े के शरीर में १२,००० शिराएँ बताई गई हैं। बीमारियाँ तथा उनकी चिकित्सा आदि, अनेक विषयों का उल्लेख पुस्तक में किया गया है, जो इनके ज्ञान और रुचि को प्रकट करता है। इसमें घोड़े की औसत आयु ३२ वर्ष बताई गई है।

★शालिहोत्र अश्वविद्यापारंगत★

आवागमन के लिए घोड़े का उपयोग आजकल केवल पर्वतीय स्थानों पर ही विशेष तौर पर होता हुआ दिखाई देता है। इसके अलावा सर्वसामान्यों के जीवन में घोड़े का प्रवास कम ही हो गया है। ऐसे में फौजी टुकड़ियों के लिए अथवा पर्यटकों के मनोरंजन के लिए, किसी सर्कस में या प्रतियोगिता के मैदान में घोड़ों का सहभाग निश्‍चित ही दिखाई देता है। आज के दैनंदिन जीवन में घोड़े का महत्त्व काफी कम हो गया है। फिर भी इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो पता चलता है कि आज तक घोड़ों का महत्त्व अपार था। अत्युच्च प्रति के घोड़ों को तैयार करने का शास्त्र भी विकसित हुआ ही था। साथ ही इस बात की जानकारी भी मिलती है कि पिछले डेढ़-दो वर्षों में अश्‍वशास्त्र में का़फी प्रगति हुई है। इस क्षेत्र में उत्तरोत्तर संशोधन का प्रमाण भी बढ़ रहा है।

इसी दरमियान औद्योगिक क्रांति के साथ-साथ स्वयंचलित वाहनों की संख्या में भी वृद्धि हुई। इन वाहनों की गति के कारण काल के गर्त में घोड़ों के टापों का स्वर भी मंद होता चला गया। इसके साथ ही हरितक्रांति एवं श्‍वेतक्रांति की कल्पना भी साकार होते-होते कृषि व्यवसाय में भी यांत्रिक औज़ारों की वृद्धि हुई। घोडों की तुलना में यांत्रिक, तांत्रिक वाहनों का उपयोग अधिक सुविधाजनक लगने लगा। फिर भी इन सबके साथ ही दुनिया भर में घोड़ों का महत्त्व कम नहीं हुआ। इससे पूर्व घोड़ों एवं अन्य प्राणियों की उत्तम उपज पर ही मानवी जीवन निर्भर करता था। भारतखंड में भी घोड़ों से संबंधित संशोधन हो ही रहा था। इनमें शालिहोत्र के संशोधन में अर्वाचीन कार्य का विवरण दिखाई देता है।

गोंडवन की सीमारेखा पर श्रीवस्ती यह नगर बसा हुआ है। हयघोष नामक एक ब्राह्मण परिवार में शालिहोत्र का जन्म हुआ। किवदंतियों के आधार पर कहा जाता है कि कईं आयुर्वेदाचार्यों ने ‘शालिहोत्र’ से भी शिक्षा हासिल की थी। शालिहोत्र ये आयुर्वेद के उत्तम विशेषज्ञ के रूप में उत्तम जानकार माने जाते थे। और इसी के आधार पर उन्होंने अश्‍ववैद्यकशास्त्र का अध्ययन किया। घोड़े को संस्कृत में ‘हय’ कहा जाता है। आयुर्वेद में एक विशेषज्ञ के रूप में उनकी अपनी पहचान थी।

अश्‍वपरीक्षा इस विषय में महारत हासिल करके ‘हय आयुर्वेद’ नामक प्रबंध उन्होंने प्रस्तुत किया। तुरग-शास्त्र अथवा शालिहोत्र संहिता भी इस प्रबंध को कहा जाता है। ‘अश्‍वप्रशंसा’ ‘अश्वलक्षणशास्त्र’ नामक इन दोनों प्रबंधों की रचना भी शालिहोत्र ने ही की है।

हय-आयुर्वेद में आठ विभाग एवं बारह हजार ऋचाएँ हैं। ऋचाओं के रूप में इन आठ विभागों में इन विषयों पर अश्‍वों से संबंधित विस्तारपूर्वक जानकारी प्राप्त होती है।

१) अश्‍वों की जातियाँ, विशेषताएँ, अनुवांशिक गुणधर्म, रंगरूप, उम्र का निदान, परिक्षा, अश्‍वनियंत्रण, मूलमापन, अवयव एवं वज़नमापन।

२) रोगनिदान, पैरों में पाये जानेवाले दोष, सर्पदंश वैसेही जहरिले बाणों से हुईं जख़्मों का इलाज।

३) उत्तम प्रजाति की पैदाइश।

४) घोड़ों के मुखदोष पर उपाय।

५) अस्थिभंग एवं उपाय।

६) ग्रहफल ज्योतिषशास्त्र।

७) अश्वान्न के प्रकार एवं आहार।

८) अश्वांगों पर होनेवाली रेखा एवं उसका गूढार्थ।

अश्‍वों को शिक्षा देना, उनपर बोझ लादने की क्षमता निश्‍चित करना, तबेले की व्यवस्था वाहनों के साथ, रथ आदि के साथ घोड़ों को जोड़ते समय क्या करना चाहिए, यह सब तथा इसी प्रकार के अन्य विषयों के विवरण के अनुसार विस्तृत रूप में वर्णन इन ग्रंथों में किया गया है। घोड़ा नामक इस प्राणि से संबंधित उपलब्ध जानकारी का उद्गम शालिहोत्र के ग्रंथ में है। शालिहोत्र के ज्ञान का लाभ अन्य लोगों को भी हो इसी दृष्टिकोन से श्रीवस्ती के महाराजा अश्‍वपरीक्षा के प्रात्यक्षिक करवाते थे।

‘अश्‍वप्रश्‍न’ एवं ‘अश्‍वलक्षणशास्त्र’ नामक दो ग्रंथ भी उन्होंने बाद में लिखे थे। राजसभा में उनके इस बहुमूल्य कार्य के प्रति मानसम्मान देकर इन दो ग्रंथों का भी समारोहपूर्वक प्रकाशन किया गया।

अश्‍वविद्याप्रवीण शालिहोत्र के अद्भुत परीक्षा की। इन बातों से पता चलता है कि ये भारतीय अश्‍वसंशोधक कितने प्रवीण थे। एक बार गांधार देश के राजा ने श्रीवस्ती नगरी के महाराजा के पास दो घोड़े भेजे। साथ में पत्र भी था कि दो उत्तम अश्‍वों का मूल्य एक लाख सुवर्ण मुद्राएँ हैं। मूल्य भेज दीजिए अथवा युद्ध के लिए तैयार हो जाइए।

साधारणत: उत्कृष्ट अश्‍व की कीमत एक हजार सुवर्णमुद्रा होते हुए भी इस प्रकार की अव्यवहार्य समस्यापूर्ण माँग गांधार नरेश ने आखिर क्यों की होगी? अब इन घोड़ों की संपूर्ण परीक्षा में प्रवीण रहने वाले शालिहोत्र ये एकमात्र विशेषज्ञ उस नगर में थे। तो फिर वैद्यकराजशास्त्री शालिहोत्र को सूचना देकर इस समस्या का समाधान करने का मार्ग बताने को कहा गया।

‘तेज’ एवं ‘तूफान’ नामक दो उमदे तेजस्वी दिखाई देनेवाले वे घोड़े थे। वैसे भी गांधार राजा यूँ ही कोई युद्ध छेड़नेवाले राजा नहीं हैं। इसी लिए यह कोई सीधी-सादी बात न होकर उसमें जरूर कोई कूटप्रश्‍न होगा, यह शालिहोत्र जान चुके थे। वे घोड़ों को राजप्रसाद के सामनेवाले खुले मैदान में ले गए। खुगीर, लगाम आदि चढ़ाने से पहले ही शालिहोत्र घोड़े पर कूदकर मजबूती से बैठ गए। घोड़े की आयाल को पकड़कर उसे विभिन्न वेग के साथ दौड़ाया; उसी तरह दूसरे घोड़े को भी दौड़ाया। इसके पश्‍चात् उनकी ठीक से जाँच की और राजा से कहा कि दोनों ही घोड़े बेकार हैं और उनका मूल्य केवल प्रति घोड़े एक सुवर्ण मुद्रा है। यह संदेश गांधार नरेश को भेज दो।
घोड़े में होनेवाले दोष शालिहोत्र के अनुसार इस प्रकार था – ‘तूफान’ के खुरों के खाँचे में की एक महत्त्वपूर्ण नस को एक तजुर्बेकार शल्यविशारद ने काट दी है, इसीलिए यह घोड़ा पैरों से अपंग है। ‘तेज’ की श्‍वास की क्रिया जोर से दौडने पर कष्टदायी हो जाती है, इसीलिए यह ‘तेज’ घोड़ा निरर्थक साबित होता है।

श्रीवस्ती के महाराज ने शालिहोत्र का संदेश गांधार राज्य में भेज दिया। आपकी इच्छा हो तो युद्ध के लिए हम सज्ज हैं, यह संदेश भी दे दिया। श्रीवस्ती राज्य में गांधार नरेश का उत्तर आया – ‘हमें युद्ध की बिलकुल भी इच्छा नहीं थी। सुविख्यात वैद्यराज अश्‍वविशेषज्ञ शालिहोत्र अध्ययन हेतु हमारे देश में आये थे। उनकी निपुणता को आज़माने के लिए ही उन्हें यह चुनौती दी गई थी। इसी लिए अब उनकी इस निपुणता के प्रति दो तेजस्वी अश्‍व उपहार स्वरूप भेज रहा हूँ।। इस भेट का स्वीकार करें और हमारे गांधार नगरी में आप दोनों ही जल्द से जल्द पधारने की कृपा करे। इसी बहाने उन महानुभव का स्वागत करने का सुअवसर हमें भी प्राप्त हो जायेगा। एक विशेषज्ञ अपनी विद्या में कितना प्रवीण होता है, इस बात को दर्शानेवाला यह एक उद्बोधक उदाहरण है।

प्राचीन भारत में होनेवाली वैद्यकीय क्षेत्र की स्थिति बहुत ही विकसित थी। तत्कालीन समाज, राज्य, राजा आदि के दृष्टिकोण से शांतता एवं युध्द इन दोनों ही समय में प्राणि एवं मानवी जीवन इन दोनों में एक सुसंगती थी। प्राचीन भारत के वैद्यकशास्त्र में वैद्यकीय विशेषज्ञ की प्राणियों पर उपचार करना भी सिखाया जाता था। चरक, सुश्रुत संहिताओं में भी कुछ प्रकरणों में प्राणियों के रोग साथ ही निरोगी प्राणियों से संबंधित विवेचन पाए जाते हैं। इन विशेषज्ञों ने शालिहोत्र नामक इस महान वैद्यक को संशोधनकर्ता वैसे ही पशु-वैद्यकशास्त्र का जनक माना जाता है। हय आयुर्वेद नामक इस प्राचीन भारत के इस विषय पर शालिहोत्र का यह ग्रंथ एक उत्कृष्ट कार्य माना जाता है। यही ग्रंथ पर्शियन, तिब्बत, अंग्रेजी, अरेबिक में भाषांतरित किया गया है।

        

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