Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

मित्रों आज हम आपको बताएंगे कि ,क्या हैं वो गीता के उपदेश जो इंसान के भीतरी मन की उठापटक को शांत कर उसे सफल जीवन व्यतीत करने में सहायता देते हैं। निवेदन है, प्रस्तुति पूरी पढ़े,,,,,

आज हम भगवद्गीता के उपदेशों के बारे में चिन्तन करेंगे जो हमारे जीवन के उद्देश्य से जुड़ा है, मुझे भगवद्गीता का लेखन का सौभाग्य मिला जो मेरे जीवन का उद्देश्य था, मैंने पाया कि गीता में जीवन के सभी प्रश्नों का उत्तर है, मुझे कुछ श्लोक इतने सटीक लगें और अनुभव हुआ कि कुछ संदेश आपके साथ सांझा करूँ।

वैसे तो गीता अध्यात्म जीवन का दर्पण है, भगवान श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया, जो अपने आप में अद्भुत है, सज्जनों! गीता दुनिया के उन चंद ग्रंथों में शुमार है, जो आज भी सबसे ज्यादा पढ़े जा रहे हैं और जीवन के हर पहलू को गीता से जोड़कर व्याख्या की जा रही है।

इसके अठारह अध्यायों के करीब सात सौ श्लोकों में हर उस समस्या का समाधान है जो कभी ना कभी हर इंसान के जीवन में काम आता हैं, आज हम आपको इस आर्टिकल के माध्यम से गीता के कुछ चुनिंदा सूत्रों से रूबरू करवा रहे हैं, जो मानव जीवन के हर प्रकार से बहुत उपयोगी और जरूरी है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि।।

अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! कर्म करने में तेरा अधिकार है, उसके फलों के विषय में मत सोच, इसलिये तू कर्मों के फल का हेतु मत बन और कर्म न करने के विषय में भी तू आग्रह न कर, इसका अर्थ क्या है?

भगवान् श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन से कहना चाहते हैं कि मनुष्य को बिना फल की इच्छा से अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा व ईमानदारी से करना चाहिये, यदि कर्म करते समय फल की इच्छा मन में होगी तो आप पूर्ण निष्ठा से साथ वह कर्म नहीं कर पाओगे।

निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ परिणाम देता है, इसलिये बिना किसी फल की इच्छा से मन लगाकर अपना कार्य करते रहो, फल देना, न देना व कितना देना ये सभी बातें परमात्मा पर छोड़ दो क्योंकि परमात्मा ही सभी का पालनकर्ता है, आज मानव थोड़ा सा रूतबा या सम्मान कमा लेता है तो वह भगवान् की तरह बर्ताव करता है, क्या मानव में इतना सामर्थ्य है?

योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

हे धनंजय (अर्जुन) कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, यश-अपयश के विषय में समबुद्धि होकर योग युक्त होकर, कर्म कर, क्योंकि? समत्व को ही योग कहते हैं, यानी धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य, धर्म के नाम पर हम अक्सर सिर्फ कर्मकांड, पूजा-पाठ, तीर्थ-मंदिरों तक सीमित रह जाते हैं, हमारे ग्रंथों ने कर्तव्य को ही धर्म कहा है।

भगवान कहते हैं कि अपने कर्तव्य को पूरा करने में कभी यश-अपयश और हानि-लाभ का विचार नहीं करना चाहिये, बुद्धि को सिर्फ अपने कर्तव्य यानी धर्म पर टिकाकर काम करना चाहिये, इससे परिणाम बेहतर मिलेंगे और मन में शांति का वास होगा, मन में शांति होगी तो परमात्मा से आपका योग आसानी से होगा।

सज्जनों! आज का युवा अपने कर्तव्यों में फायदे और नुकसान का नापतौल पहले करता है, फिर उस कर्तव्य को पूरा करने के बारे में सोचता है, उस काम से तात्कालिक नुकसान देखने पर कई बार उसे टाल देते हैं और बाद में उससे ज्यादा हानि उठाते हैं।

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत: सुखम्।।

योग रहित पुरुष में निश्चय करने की बुद्धि नहीं होती और उसके मन में भावना भी नहीं होती, ऐसे भावना रहित पुरुष को कभी शान्ति नहीं मिलती और जिसे शान्ति नहीं, उसे सुख कहाँ से मिलेगा, यानी हम सभी मनुष्य की इच्छा होती है कि हमें सुख प्राप्त हो, इसके लिये हम भटकते रहते है, लेकिन सुख का मूल तो अपने मन में स्थित होता है।

जिस मनुष्य का मन इंद्रियों यानी धन, वासना, भोग आदि में लिप्त है, उसके मन में भावना नहीं होती, और जिस मनुष्य के मन में भावना नहीं होती, उसे किसी भी प्रकार का आत्मज्ञान नहीं होगा, और बिना आत्मज्ञान के शान्ति कैसे मिल सकती है? जिसके मन में शांति न हो, उसे सुख कहाँ से प्राप्त होगा, अत: सुख प्राप्त करने के लिये मन पर नियंत्रण होना बहुत आवश्यक है।

विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।

जो मनुष्य सभी इच्छाओं व कामनाओं को त्याग कर ममता रहित और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, उसे ही शान्ति प्राप्त होती है, यहां भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं अपने मुखारविन्द से कहते हैं कि मन में किसी भी प्रकार की इच्छा व कामना को रखकर मनुष्य को शांति प्राप्त नहीं हो सकती, इसलिये शांति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मनुष्य को अपने मन से इच्छाओं को मिटाना होगा।

हम जो भी कर्म करते हैं उसके साथ अपने अपेक्षित परिणाम को साथ में चिपका देते हैं, अपनी पसंद के परिणाम की इच्छा हमें कमजोर कर देती है, वो ना हो तो व्यक्ति का मन और ज्यादा अशान्त हो जाता है, मन से ममता अथवा अहंकार आदि भावों को मिटाकर तन्मयता से अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा, तभी मनुष्य को शांति प्राप्त होगी।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।

कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता, सभी प्राणी प्रकृति के अधीन हैं, प्रकृति अपने अनुसार हर प्राणी से कर्म करवाती है और उसके परिणाम भी देती है, दोस्तों! बुरे परिणामों के डर से अगर हम सोच लें कि हम कुछ नहीं करेंगे तो ये हमारी मूर्खता है, खाली बैठे रहना भी एक तरह का कर्म ही है, जिसका परिणाम हमारी आर्थिक हानि, अपयश और समय की हानि के रूप में मिलता है।

सारे जीव प्रकृति यानी परमात्मा के अधीन हैं, वो हमसे अपने अनुसार कर्म करवा ही लेगी, और उसका परिणाम भी मिलन ही है इसलिये व्यक्ति को कभी भी कर्म के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिये, अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरन्तर कर्म करते रहना चाहियें।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।

भगवान् अर्जुन को बता रहे हैं कि तुम शास्त्रों में बताये गये अपने धर्म के अनुसार कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है, तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा, यानी श्रीकृष्ण अर्जुन के माध्यम से मनुष्यों को समझाते हैं कि हर मनुष्य को अपने-अपने धर्म के अनुसार कर्म करना चाहिये।

जैसे- विद्यार्थी का धर्म है विद्या प्राप्त करना, सैनिक का कर्म है देश की रक्षा करना, मास्टर का कर्म है विधार्थीयों को पढ़ाना, जो लोग कर्म नहीं करते उनसे श्रेष्ठ वे लोग होते हैं जो अपने धर्म के अनुसार कर्म करते हैं, क्योंकि बिना कर्म किये तो शरीर का पालन-पोषण करना भी संभव नहीं है, जिस व्यक्ति का जो कर्तव्य तय है, उसे वो पूरा करना ही चाहिये, वो ही उसका धर्म हैं।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।

श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं सामान्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करने लगते हैं, श्रेष्ठ पुरुष जिस कर्म को करता है, उसी को आदर्श मानकर अन्य लोग उसका अनुसरण करते हैं, सज्जनों, मैं सत्तर ग्रूपों में गीता का पाठ लिखता हूंँ और प्रत्येक ग्रूप के संचालक से यह कहता हूंँ, कि अगर वे पोस्ट पढ़ेंगे और अपनी राय प्रेषित करेंगे तो सामान्य सदस्य भी प्रोत्साहित होकर उस पोस्ट को जरूर पढ़ेंगे, यह मानव की प्रवृत्ति हैं।

यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने बताया है कि श्रेष्ठ पुरुष को सदैव अपने पद व गरिमा के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिये, क्योंकि? वह जिस प्रकार का व्यवहार करेगा, सामान्य मनुष्य भी उसी की नकल करेंगे, जो कार्य श्रेष्ठ पुरुष करेगा, सामान्यजन उसी को अपना आदर्श मानेंगे।

उदाहरण के तौर पर अगर किसी संस्थान में उच्च अधिकार पूरी मेहनत और निष्ठा से काम करते हैं तो वहां के दूसरे कर्मचारी भी वैसे ही काम करेंगे, लेकिन अगर उच्च अधिकारी काम को टालने लगेंगे तो कर्मचारी उनसे भी ज्यादा आलसी हो जायेंगे, इसलिये गीता हमें संदेश देती है कि सफल व्यक्ति को समाज में आदर्श प्रस्तुत करना चाहिये, ताकि समाज में दूसरे लोग भी उनका अनुकरण करें।

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म संगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्।।

ज्ञानी पुरुष को चाहिये कि कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही करायें, इसका मतलब क्या? सज्जनों! ये प्रतिस्पर्धा का दौर है, यहां हर कोई एक दूसरे से आगे निकलना चाहता है।

ऐसे में अक्सर संस्थानों में ये होता है कि कुछ चतुर लोग अपना काम तो पूरा कर लेते हैं, लेकिन अपने साथी को उसी काम को टालने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, या काम के प्रति उसके मन में लापरवाही का भाव भर देते हैं, श्रेष्ठ व्यक्ति वही होता है जो अपने काम से दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनता है, संस्थान में उसी का भविष्य सबसे ज्यादा उज्जवल भी होता है।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
म वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ सर्वश:।।

हे अर्जुन! जो मनुष्य मुझे जिस प्रकार भजता है यानी जिस इच्छा से मेरा स्मरण करता है, उसी के अनुरूप मैं उसे फल प्रदान करता हूंँ, सभी लोग सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं, दोस्तों! इस श्लोक के माध्यम से भगवान् श्रीकृष्ण बता रहे हैं कि संसार में जो मनुष्य जैसा व्यवहार दूसरों के प्रति करता है, दूसरे भी उसी प्रकार का व्यवहार उसके साथ करते हैं।

उदाहरण के तौर पर जो लोग भगवान का स्मरण मोक्ष प्राप्ति के लिए करते हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है, जो किसी अन्य इच्छा से प्रभु का स्मरण करते हैं, उनकी वह इच्छायें भी प्रभु कृपा से पूर्ण हो जाती है, कंस ने सदैव भगवान को मृत्यु के रूप में स्मरण किया, इसलिये भगवान् ने उसे मृत्यु प्रदान की, हमें परमात्मा को वैसे ही याद करना चाहिये, जिस रुप में हम उसे पाना चाहते हैं।

वैसे तो भगवद्गीता के प्रत्येक श्लोक में जीवन के अनमोल संदेश छुपे है, और मेरी इच्छा है कि सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से प्रत्येक श्लोक का विस्तार से वर्णन कर आपको अध्यात्म से परिपूर्ण करूँ।

मैं चाहता हूँ कि ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़े, मैं अपने पूरे सामर्थ्य और पूर्व विवेक के साथ, ग्रन्थों और शास्त्रों के पूर्ण गरिमा के साथ आप तक पहुँचाने या पढ़वाने के लिये पूर्ण संकल्पित हूँ, और आप सभी पढ़े यह अपेक्षा है, भगवद्गीता में सभी वेद-पुराणों एवम् सभी शास्त्रों का निचोड़ है, आप सभी पढ़ेंगे और ज्यादा से ज्यादा को पढ़ने के लिये प्रोत्साहित करेंगे।

Recommended Articles

Leave A Comment