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श्रीकृष्ण की प्रथम पत्नी रुक्मिणी जी की कथा
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कुंडिनपुर के राजा भीष्मक की बेटी रूक्मिणी जी माता लक्ष्मी का अवतार थीं। उनका जन्म भी श्रीकृष्ण की पत्नी बनने के लिए हुए था। लेकिन उनके भाई रुक्मी ने उनका विवाह शिशुपाल से तय कर दिया। रुक्मिणी जी ने भगवान को संदेशा भेजा कि अगर लेने नहीं आए तो ये शरीर नष्ट कर लूंगी। *

*उधर शिशुपाल अपनी सेना के साथ विवाह के लिए प्रस्थान कर चुका था। रुक्मिणी जी ने मां गौरी के पूजन के लिए राज्य के बाहर स्थित मंदिर पहुंचीं। जहां सुरक्षा का भारी इंतजाम था। लेकिन उसे भेदकर श्रीकृष्ण वहां पहुंच गये।

रुक्मिणी जी ने माता के पूजन के बाद उनका आशीर्वाद हासिल करके प्रभु के गले में वरमाला डाल दी, प्रभु ने रूक्मिणीजी को रथ में बैठाकर स्वयं श्रीकृष्ण रथ को चलाने लगे कि घोड़े हवा से बात करने लगे। *

*रुक्मिणी जी की सुरक्षा में लगी टुकड़ी में से एक सैनिक बोला-
रथ की ध्वजा पर गरूडजी बैठे हैं, रथ तो गरूडजी की तरह उड़ता होगा? पता नहीं कहाँ से आया था? कितना सुंदर है, श्याम वर्ण की कांति है।

मुस्कराता कितना सुंदर है? हार कितना बढ़िया है, पीताम्बर कितनी सुंदर, हम निहाल हो गये, हम धन्य हो गये, दर्शन दे गया, अपना बना गया और भगवान् के रथ ने तो हवा से बात की,

सैनिकों ने कहा- भैया बहुत आनन्द आ गया दर्शन करके, एक सैनिक मुस्करा कर बोला- वो सब तो ठीक है लेकिन रूक्मिणीजी कहाँ है? बोले, रूक्मिणीजी भीतर मंदिर में बैठी है, पूजा कर रही हैं।

मन्दिर में देखा तो रूक्मिणीजी नहीं है, अरे भाई रूक्मिणीजी कहाँ है?
मुझे क्या मालूम कहाँ है?
अब तो एक सैनिक दूसरे सैनिक से पूछ रहा है, रूक्मिणीजी कहाँ है?
मुझे क्या मालुम कहाँ है?
एक सैनिक मुस्करा कर बोला- मैं बताऊँ कहा है

रूक्मिणीजी? सभी बोले बताओं,
बोला- ले तो गया, एक सैनिक ने कहा- हम दस हजार सैनिकों के बीच से रूक्मिणीजी को ले गया तुमने रोका क्यों नहीं?

एक बोला- मैं तो मुकुट देखने में लगा था, मुझे क्या मालुम कब ले गया?
अब एक-दूसरे को आपस में बोल रहे हैं,
तुमने क्यों नहीं रोका – तुमने क्यों नहीं रोका?

कोई कहता है मैं पीताम्बर देखने में लगा था तो कोई कहता है मैं तो मुखारविन्द देखने में लगा था,

एक ने कहा मुझे मालूम तो था ले जा रहा है, सबने कहा कि बताया क्यों नहीं?

उसने कहा- मैंने देखा उन दोनों की जोड़ी ठीक जमी है पहले ले जाने दो, बाद में ही बताऊँगा।

भगवान् ने सबको भ्रमित कर दिया, रूक्मिणीजी के बड़े भाई रुक्मी आये, रूक्मिणी को वहां नहीं देखकर सैनिकों से पूछा- रूक्मिणी कहाँ गयी?

सैनिकों ने कहा- महाराज, वो साँवला-सलौना आया और ले गया, तुम दस हजार सैनिकों के बीच में से कैसे ले गया?

सैनिक बोले- एक बार तो हम उसे मारने दौड़े थे पर वो हँस गया और हँसने के बाद क्या हुआ? ये तो जाने के बाद ही पता चला।

रुक्मी ने श्रीकृष्ण का पीछा किया, भगवान ने उसको पकड़कर आधी दाढ़ी और आधी मूँछ मुंड दी, रथ के चक्का में बाँध दिया, बलरामजी ने आकर छुड़ाया,

रूक्मिणीजी ने कहा प्रभु मेरे भाई को मारना नहीं, आप जो मिले इसकी पत्नी व मेरी भाभी की प्रेरणा से ही मिले।

मैं उसे विधवा नहीं देखना चाहती।
उधर भीष्मक राजा ने आकर रूक्मी से कहा- बेटा मेरी पुत्री जब डेढ़ वर्ष की थी तो मेरे घर संत नारदजी पधारे थे। *

*नारदजी ने हमसे कहा था कि रूक्मिणी साधारण नारी नहीं है, साक्षात् लक्ष्मी है, और लक्ष्मी का विवाह नारायण के अलावा किसी से नहीं होता, इसलिये मन की मलिनता को मिटाओ पुत्र और ये सुन्दर विवाह मुझे अपने हाथों से कन्या दान के रूप में करने दो,
भीष्मक के पुत्र ने बात मानी, रूक्मणीजी को लाये, कुंकुम् पत्रिका द्वारिका भेजी, बारात लेकर मेरे प्रभु द्वारिकाधीश पधारे।

बारात का स्वागत किया गया, कृष्ण के सभी मित्र भी साथ में पधारें बड़े धूमधाम से विवाह सम्पन्न हुआ,
शांडिल्य मुनि वेद मंत्रोच्चार कर रहे हैं, सबके मन में बड़ा आनन्द हुआ, द्वारिका वासियों ने खूब प्रेम से मंगल गीत गायें, विवाह में बड़े-बड़े ज्ञानी संत-महात्मा पधारें, विवाह में कुण्डिनपुर वासियों को युगल छवि के दर्शन करके मन में बहुत आनन्द हुआ
, लक्ष्मी स्वरूपिणी रूक्मिणीजी को बहुत अच्छा लगा, गोविन्द रूपी वर प्राप्त करके वो गद् गद् हो गयीं।
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