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शानिमहाराज ओर राजा विक्रमादित्य की कथा !

जो भी नर – नारी इस शनि देव की कथा को स्वयं पढ़ता है या किसी के द्वारा श्रवण करता है उसके सभी संकट दूर हो कर संसार के सभी सुखों को प्राप्त करता है।

प्राचीन समय की बात है सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु अर्थात् यह नवग्रह एक स्थान पर एकत्रित हुये, परस्पर वाद-विवाद होने लगा कि हम लोगों में सबसे बड़ा और श्रेष्ठ कौन ग्रह हैं। सभी अपने आपको बड़ा मान रहे थे। कोई भी अपने आपको छोटा कहा जाना पसन्द नहीं कर रहा था।

बहुत तर्क – वितर्क के पश्चात भी जब कोई निर्णय नहीं हुआ तो, सभी ग्रह आपस में उलझते हुए अपने विषय के प्रति गंभीर हुए देवराज इंद्र के पास जा पंहुचे और बोले – ” हे इन्द्र ! आप सब देवों के देव हैं । हम सभी ग्रहों में मतभेद यह हुआ है कि हममें से बड़ा कौन हैं और कौन छोटा ? आप इस बात का फैसला कीजिए।

राजा इन्द्र सारी बातें सुनकर तुरंत समझ गये । किन्तु उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया । फिर वे बात टालने की कोशिश करते हुये बोले – ” मुझमें इतना सामर्थ्य तो नहीं हैं , जो आपके छोटे और बड़े का निर्णय करुं । मैं अपने मुँह से कुछ नहीं कह सकता । हां, एक उपाय हैं।

इस समय भू – लोक में उज्जैन नगरी के राजा विक्रमादित्य सबसे पहले अच्छा और न्याय करने वाला है, अतःआप सभी उनके पास जाओ , मैं आपका न्याय करने में असमर्थ हूँ । मगर राजा विक्रमादित्य अवश्य न्याय करेंगे ।”

देवराज इन्द्र के इन वचनों को सुनकर सभी ग्रह पृथ्वी लोक पर राजा विक्रमादित्य के दरबार में जा पंहुचे और अपनी समस्या से उन्हें अवगत करा दिया । राजा विक्रमादित्य उनकी बात सुनकर अत्यंत चिन्तित हो गये ।तुरंत ही उन्हें कोई जवाब ही नहीं सूझा । वह शान्त रहे । वे मन ही मन सोच रहे थे कि ये सभी ग्रह हैं किसे छोटा कहूँ और किसे बड़ा कहूँ । जिसे छोटा कहूंगा वही मुझसे कुपित हो जायेगा।

न्याय के लिए जब ये मेरे पास आये है तो मुझे न्याय तो करना ही है -किस प्रकार न्याय करुं ।” शान्त चित्त से विचार करने के पश्चात एक उपाय मानस पटल पर आ ही गया। फलस्वरूप – उन्होंने स्वर्ण, चांदी, कांसी, पीतल , शीशा , रांगा , जस्ता, अभ्रक और लोहा नौ धातुओं के नौ सिंहासन बनवाये और उन सभी आसनों को अपनी राजसभा में क्रम से विधिपूर्वक जैसे – सोने का सिंहासन सबसे आगे तथा लोहे का सबसे पीछे रखवा दिया।

इसके पश्चात नरेश ने राज ज्योतिषी को बुलवाकर आदेश दिया कि ज्योतिष ग्रन्थों में जिस क्रम में ग्रहों का स्थान है, उसी क्रम से ग्रहों के आसन ग्रहण करने की प्रार्थना की जाए । इस प्रकार सबसे उत्तम तथा सबसे आगे रखा हुआ स्वर्ण का बना सिंहासन सूर्य को मिला, चांदी का सिंहासन चन्द्रमा को तथा शेष धातुओं के सिंहासन अन्य ग्रहों को मिले । सबसे पीछे रखा हुआ और लोहे का बना सिंहासन शनिदेव को मिला ।

राजा विक्रमादित्य की इस बात को अपना अपमान समझते हुये शनि देव क्रोध से लाल हो गये । उनकी भ्रकुटियां तन गई । जबड़े भिंच गये, मुट्ठीयां भिंच गई । फिर वे आग – बबूला हो क्रोध में बोले – ” हे मूर्ख राजा ! तू मेरे पराक्रम और मेरी शक्ति को नहीं जानता । सूर्य एक राशि पर एक महीना, चन्द्रमा सवा दो दिन , मंगल डेढ़ महीना , बृहस्पति तेरह महीने , बुध और शुक्र एक-एक महीने , राहु और केतु उल्टे चलते हुए केवल अठारह महीने ही एक राशि पर रहते हैं । परन्तु मैं एक राशि पर ढाई अथवा साढ़े सात साल तक रहता हूँ ।

बड़े-बड़े देवताओं को मैंने कठोर दु:ख और कष्ट दिये हैं । राजन, ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो – मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामचंद्र पर जब मैं साढ़े साती आई तो उन्हें राज त्यागकर बनवास को जाना पड़ा । रावण पर साढ़े साती आई तो राम और लक्ष्मण ने लंका पर आक्रमण कर दिया । उसकी सोने की लंका जल गई और रावण ने अपने कुल का नाश कर लिया । हे राजन ! अब तुम भी सावधान रहना ।”

विक्रमादित्य ने कुछ सोचकर कहा – ” हे शनिदेव मैंने अपनी बुद्धि और विवेक के अनुसार जो उचित न्याय सूझा वह मैंने किया अब जो होगा वह भी देखा जाएगा । ” मैं आपकी धमकी से नहीं डरता । जैसा मेरे भाग्य में होगा वह तो भोगना ही पड़ेगा । चाहे अच्छा हो अथवा बुरा हो । राजा का न्याय सुनकर सभी ग्रह तो वहां से खुशी – खुशी चले गये । मगर शनिदेव क्रोध में भरे हुए नाराज हो कर वहां से गये ।

कुछ समय तो ऐसे ही बीत गया मगर कुछ समय बाद राजा विक्रमादित्य पर शनि ग्रह की साढ़े साती का प्रवेश हुआ तो शनिदेव ने अपना प्रभाव दिखाना शुरु कर दिया । शनिदेव घोड़ों के व्यापारी का रूप धारण कर अनेक सुंदर घोड़े साथ ले राजा विक्रमादित्य की राजधानी उज्जैन में आ पहुंचे । जब राजा ने घोड़े के सौदागर के आने की बाबत सुना तो उन्होंने अपने अश्वपाल को सुन्दर और शक्ति शाली घोड़े खरीदकर ले आने को कहा ।

घोड़े बेहद सुन्दर और शक्ति शाली थे । अश्वपाल उनके दाम सुनकर चौंक पड़ा, उसे गहरा आश्चर्य हुआ । उसने तुरंत राजा को खबर दी । अश्वपाल के कहने पर राजा ने घोड़ों को देखा और एक अच्छा घोड़ा देखकर उस पर से सवारी को चढ़ गया । राजा के घोड़े पर चढ़ते ही घोड़ा तीव्र गति से दौड़ पडा़ ।

फिर घोड़ा राजा को लेकर एक घने जंगल में पहुंच गया तथा वहीं राजा विक्रमादित्य को अपनी पीठ से पृथ्वी पर गिराकर अदृश्य हो गया । उसके बाद राजा बियावान जंगल में भूखा – प्यासा इधर-उधर भटकने लगा । राजा के हाल -बेहाल हो गये ।

भटकते – भटकते बहुत देर बाद राजा ने एक ग्वाले को देखा । ग्वाले से निवेदन करने पर ग्वाले ने प्यास से व्याकुल राजा को पानी पिलाया और एक नगर का रास्ता भी दिखाया । जो उस स्थान के समीप ही था । उस वक्त राजा की अंगुली में एक अंगुठी थी ।

राजा ने खुश होकर ग्वाले को वह अंगुठी दे दी और फिर शहर की ओर चल पड़ा । राजा नगर पहुंच एक सेठ ( साहूकार ) की दुकान में जाकर बैठ गया । राजा ने खुद को उज्जैन का निवासी और बीका नाम बताया । साहूकार ने राजा को उच्च घराने का समझकर पानी पिलाया ।

भाग्यवश उस दिन साहूकार की बिक्री पूर्व दिनों की अपेक्षा अधिक हुई । तब सेठ ने राजा को भाग्यवान मानकर उसे अपने साथ अपने घर ले गया और भोजन कराया । भोजन करते वक्त राजा विक्रमादित्य ने एक अद्भुत बात देखी कि एक हार खूंटी पर लटक रहा था और खूंटी उस हार को निगल रही थी । इस अद्भुत दृश्य को देखकर उनके पैरों के नीचे की जमीन खिसकने लगी ।

लेकिन वे मूक रहे । सहसा भोजन के बाद जब साहूकार खूंटी पर से हार उतारने के लिए गये तो खूंटी पर वह हार नहीं मिला तब उसने सोचा कि बीका के अलावा कोई और व्यक्ति उस कमरे में नहीं आया , अतः हार की चोरी इसी व्यक्ति ने की है । सेठ जी ने बीका पर चोरी का आरोप लगाते हुये हार लौटाने को कहा पर राजा ने अपनी सफाई देते हुए कहा कि – हे ” हे सेठ जी मैंने आपका हार नहीं चुराया । मैंने तो हार को खूंटी को निगलते हुए भर देखा है । आपका हार खूंटी निगल गई ।

” ” खूंटी हार नहीं निगल सकती , भला बेजान चीजें भी किसी चीज को निगलती हैं कभी ? ” इस पर विवाद बढ़ता गया और सेठ बीका को उस नगर के राजा के पास ले गया । और सारी बात कह सुनाई । राजा ने आज्ञा दी कि – ” हार का चोर यही व्यक्ति हैं । इसके हाथ – पैर काट कर ” चौरांग्या ” कर दो । ” राजा की आज्ञा पाकर उसके सैनिकों ने विक्रमादित्य के हाथ – पैर काट कर जंगल में फैंक दिया । फलस्वरूप, राजा विक्रमादित्य अपाहिज होकर इधर – उधर भटकने लगा ।

अब बेचारे राजा की हालत ऐसी हो गई कि किसी ने रोटी का टुकड़ा मुंह में डाल दिया तो खा लिया अन्यथा यों ही भूखा – प्यासा पड़ा रहा । रास्ते जाते एक तेली की नजर उस पर पड़ी और वह उस पर तरस खाकर उसे थोड़ा सा तेल उसके घावों पर लगाने को दे दिया, जिसके फलस्वरूप तेली का व्यापार उसी दिन से प्रगति करने लगा ।

2 – 4 दिन यह क्रम चलता रहा तो तेली ने व्यापार वृद्धि से प्रसन्न हो विक्रमादित्य को अपने घर ले गया और कोल्हू पर बिठा दिया । विक्रमादित्य कोल्हू पर बैठा अपनी आवाज से बैलों को हांकता रहता । कुछ वर्षों में शनि की दशा समाप्त हो गई ।

बीका अपनी उदासी काटने के लिए कभी – कभी मल्हार राग गाया करता था । एक रात वह वर्षा को देखकर राग – मल्हार गाने लगा । उसका गीत सुनकर उस शहर के राजा की कन्या उस पर मोहित हो गई । और दासी से खबर लाने के लिये कहा कि – ” देख तो जरा इस राग को कौन गा रहा हैं ? ” दासी ने देखा कि एक अपाहिज व्यक्ति तेली के कोल्हू पर बैठा मल्हार गा रहा हैं । दासी ने महल में आकर सारा वृतान्त कह सुनाया ।

उसी समय राजकुमारी ने निर्णय ले लिया कि वह उसी व्यक्ति से शादी करेगी जो मल्हार गा रहा था । प्रातः काल दासी जब राजकुमारी को जगाने गई तो राजकुमारी ने खाना पीना भी त्याग कर बिस्तर पर पड़ी – पड़ी रो रही थी । दासी राजकुमारी का यह हाल देखकर घबरा उठी । वह तुरंत राजा – रानी के पास जा पहुंची और उनसे सारी बातें कह सुनाई ।

राजा – रानी तुरंत राजकुमारी के पास आये और उससे उसके दु:ख का कारण पूछा – ” बेटी तुम क्यों अनशन लिये पड़ी हो ? तुम्हें किस बात का दु:ख हैं ? जो भी पीड़ा हमसे कहो , हम तुम्हारा दु:ख दूर करने का प्रत्यन करेगें । ” राजकुमारी ने अपने मन की मंशा राजा – रानी को बता दी । ” बेटी ! वह अपाहिज ( चौरांग्या ) हैं । तेली के कोल्हू के बैल हांकता है । वह भला तुम्हें क्या सुख देगा , तुम्हारा विवाह तो किसी राजकुमार से होगा । मेरा कहा मानो और अपनी यह जिद छोड़ दो ।

” मगर राजकुमारी अपनी जिद पर अड़ गई । राजा – रानी के अतिरिक्त परिजनों ने भी राजकुमारी को काफी समझाया । मगर राजकुमारी नहीं मानी । वह अपनी जिद पर अड़ी रही । उसने कहा -“यदि मेरा विवाह उस व्यक्ति के साथ नहीं हुआ तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगी । ” बेटी की जिद देख राजा क्रोधित हो उठा । बोला – ” तेरी ऐसी ही जिद है जो तुझे अच्छा लगे वैसा ही कर ।

” फिर राजा ने तेली को बुलवाया । उसे सारा हाल कह सुनाया । और तेली को अपाहिज व्यक्ति से अपनी बेटी के विवाह की तैयारी करने का आदेश दिया । तब फिर राजकुमारी का विवाह अपाहिज विक्रमादित्य ( बीका ) के साथ हो गया ।

रात्रि को जब राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी महल में सोये हुए थे तब आधी रात को शनिदेव ने विक्रमादित्य को स्वप्न में दर्शन दिये और कहा – हे राजा ! मुझे छोटा बताकर तूने कितने कष्ट और दु:ख सहे हैं, इसकी कल्पना कर विक्रमादित्य ने स्वप्न में ही शनिदेव से क्षमा याचना की, जिसके परिणाम स्वरूप शनि ने प्रसन्न होकर राजा को पुन: हाथ – पैर प्रदान कर दिये । राजा गद् गद् हो ।

शनि महाराज के गुणगान करने लगा तत्पश्चात विनय करते हुये राजा विक्रमादित्य ने कहा – ” हे शनिदेव ! आपने जैसा दु:ख मुझे दिया , ऐसा आप दु:ख किसी को न दें ।” शनिदेव ने राजा की प्रार्थना स्वीकार कर बोले – ” जो व्यक्ति मेरी कथा सुनेगा , कहेगा तो उसे कोई दु:ख नहीं होगा और जो व्यक्ति नित्य मेरा ध्यान करेगा शनिवार को मुझे तेल अर्पण करेगा या चीटियों को आटा खिलायेगा । उसके सम्पूर्ण मनोरथ पूर्व होंगे । “इतना कहकर शनिदेव अन्तरध्यान हो गये ।

जब राजकुमारी की आँख खुली और उसने राजा के हाथ – पाँव देखे तो चकित रह गयी । विक्रमादित्य ने सब हाल कह सुनाया तो राजकुमारी बहुत प्रसन्न हुई । यह समाचार राजदरबार से लेकर पूरे शहर में तुरंत फैल गया और सब राजकुमारी को भाग्यशाली कहने लगे ।

जब सेठ ( साहूकार ) ने यह बात सुनी और यह जाना कि वह व्यक्ति कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि राजा विक्रमादित्य हैं तो वह उसके कदमों में आ गिरा और अपने किये की माफी मांगने लगा । राजा विक्रमादित्य ने कहा – ” इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं हैं मुझ पर शनिदेव का प्रकोप था । ” सेठ बोला – ” राजन ! अब मुझे तभी आत्मीय शान्ति मिलेगी , जब आप मेरे आवास चलकर भोजन ग्रहण करेंगे । ” ” ठीक है मैं आऊंगा । ” और फिर राजा विक्रमादित्य सेठ ( साहूकार ) के घर भोजन करने पहुंच गये । जिस समय वह भोजन कर रहे थे । एक आश्चर्य जनक बात हुई । जो खूंटी पहले हार निगल रही थी वही अब हार उगल रही थी । भोजन ग्रहण के पश्चात साहूकार ने कहा – ” राजन ! मेरी श्रीकंवरी नाम की एक कन्या है । उसका पाणिग्रहण आप करें ।

” इसके बाद सेठ ने अपनी रुप – यौवन से सम्पन्न कन्या का विवाह बडी़ धूमधाम से राजा विक्रमादित्य के साथ कर दिया । राजा विक्रमादित्य कुछ दिन वहाँ रहने के पश्चात सेठ से विदा लेकर राजकुमारी मनभावती , सेठ की पुत्री श्रीकंवरी तथा दोनों स्थानों से प्राप्त रत्न – आभूषण और अनेक दास – दासियों के साथ अपनी राजधानी उज्जैन में लोट आए । आवागमन पर सारे राज्य में खुशियाँ मनाई गई ।

राजा ने अपने राज्य में ढ़ंढोरा पिटावा दिया कि ” सम्पूर्ण ग्रहों में शनिदेव श्रेष्ठ और बड़े हैं । मैंने उन्हें छोटा कहा इसलिये मुझे इतने दिन कष्ट उठाने पडे़ । ” तभी से उनके राज्य में शनिदेव की पूजा होने लगी । सभी घरों में शनि की कथा का पाठ होने लगा । जिसके कारण उस उज्जैन नगरी के निवासी समस्त सुखों को प्राप्त करते रहे ।

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