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“नवनाथ स्वरुप विवेचन”

नाथ सम्प्रदाय मेंं प्रचलित नवनाथ ध्यान, वन्दना व स्तुति मंत्रों
जिन नामों का प्रचलन है और सम्प्रदाय के संतो, साधुओ और
योगीजनो द्वारा जिन नामों का अपने योग ग्रन्थों मेंं वर्णन किया है वे नवनाथ क्रमष –
१- आदिनाथ शिव, २- उदयनाथ पार्वती,
३- सत्यनाथ ब्रह्मा, ४- संतोषनाथ विष्णु,
५- अचल अचम्भेनाथ शेषनाग, ६- गजकंथडनाथ गणेश,
७- चौरंगी नाथ चन्द्रमा, ८- मत्स्येन्द्रनाथ माया स्वरूप,
९- गुरु गोरक्षनाथ शिव बाल स्वरूप.

आदिनाथ (शिव) –
प्रथम आदिनाथ केॐकार स्वरूप के संबन्ध मेंं प्रकट होता है कि,
विश्व सभी धर्मग्रन्थों मेंं सृषिट के प्रारम्भ मेंं एक स्पन्दन का होना माना गया है। वेद विज्ञान मेंं शब्द से ही सृषिट का प्रादुर्भाव माना गया है।
ॐ (ओम) ही वह शब्द है जिसकी प्रतिध्वनि अनवरत रूप से अखिल ब्रहमाण्ड मेंं व्याप्त है। सृषिट का जनक, देवों का देव, समस्त शकितयों का स्वामी, समस्त सृषिट जिससे सृजित और समाहित है,
समस्त महायोगियों उसी के रूप हैं,
जो द्वैत और अद्वैत से परे होने के कारण आदिनाथ नाम दिया गया प्रतीत होता है।
योग में षट चक्रों के वर्णनानुसार जीवधारी के गले में विशुद्ध चक्र का स्थान है जो शुद्ध अन्तरिक्ष के आकाश रूप से संबद्ध है। विशुद्ध चक्र रूद्र ग्रंथी के केन्द्र के रूप में भी जाना जाता है
क्योंकि यह सहस्त्रार ब्रहमरन्ध्र दषम द्वार के साथ मस्तिष्क में भ्रूमध्य में स्थित आज्ञा चक्र को स्थापित करता है। यह विशुद्ध चक्र मानव शरीर के आकाश तत्व का आधार है जो राग, द्वेष, भय, लज्जा और मोह को उत्पन्न करने का उत्तरदायी है। योगी (मानव) के लिये विशुद्ध चक्र को पार करना केवल ओंमकार में लय
(सूर्य और चन्द्रमा – ह-सूर्य, ठ-चन्द्रमा अर्थात हठ योग)
अर्थात नितान्त शुद्ध स्थिति द्वारा ही संभव है।
इसीलिये इसे विशुुद्ध कहा जाता है।
आदिनाथ को ज्योति स्वरूप भी कहा जाता है।

उदयनाथ (पार्वती) –
क्रम सोपान के अन्तर से उदयनाथ द्वितीय स्थान पर हैं और यह नाम शिव की भार्या पार्वती को दिया गया है और संपूर्ण पृथ्वी उनका स्वरूप है। यह समझना आवश्यक है कि, यहां पृथ्वी से तात्पर्य केवल हमारे सौरमण्डल के इस पृथ्वी ग्रह से नहींं है वरन अन्तरिक्ष मेंं जितने भी ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं, उनका भू-मण्डल शिव भार्या पार्वती का स्वरूप है।
पर्वत की पुत्री होने के कारण इन्हें पार्वती और जीव को सर्वप्रथम अपने अपनी निजा शकित से उत्पन्न, पल्लवित और पोषित करने के कारण इन्हें दिव्य शक्ति, महा शक्ति, धरती रूपा, माही रूपा, पृथ्वी रूपा, प्राण नाथ, प्रजा नाथ, उदयनाथ, भूमण्डल आदि कहा गया।
पृथ्वी तत्व मूलाधार चक्र से संबंद्ध है जो गुदा के मध्य सिथत एक वलय है जो अन्य सभी का आधार है। भौतिक जगत के सृजन से पूर्व आदि शक्ति ने अदृश्य वलयों का निर्माण किया जो चक्र कहे जाते हैं।
यह शिव की निजा शक्ति (व्यक्तिगत सामर्थय) जो उनसे भिन्न नहीं होकर समस्त सृष्टि को प्रकार चलायमान रखती है कि ये महान दिव्य युगल समस्त दृष्टमान एवं बोधक तत्वों का उत्पादन और भरण करता है। जहां शिव समस्त चराचर जगत में आत्मतत्व है तो यह शक्ति उस चराचर जगत का रूप है। शिव समस्त सृषिट में बीज है तो यह शक्ति उस बीज को अपने कलेवर में ढांपती और उसका सरंक्षण करती है।
जिस प्रकार एक चेहरा दर्पण में प्रतिबिंबित होकर दो अथवा अनेक बिबों में दिखाई देकर भी एक ही होता है, उसी प्रकार सृजन के समय माया रचित अनेक कारणों से बाहय अद्वैत बृहम शिव और उनकी निजा शक्ति द्वीआयामी और बहुआयामी हो जाती है।
उदय का शाब्दिक अर्थ उठना या प्रकट होना है अत: उदयनाथ को उदित होने वाले देवता की संज्ञा दी जा सकती है।
महायोगी गोरक्षनाथ ने इस दिव्य शकित की सुप्त और जागृत दो सिथतियां बतायी है।
सुप्त अवस्था में यह सर्पिणी की भांति मूलाधार चक्र में मेरूदण्ड के आधार में सिथत रहती है।
योग की तकनीक से जब इसे जागृत किया जाता है तो यह सुषुम्णा नाडी में प्रवेष कर सहस्त्रार चक्र की ओर ऊपर उठती है जो इसका अनितम लक्ष्य है। मूलाधार चक्र से सहस्त्रार चक्र की यात्रा में प्रत्येक चक्र का भेदन करती हुर्इ यह अपने स्वामी शिव से संगम करती है।
अपनी सुप्त अवस्था में सत, रज और तमस नामक त्रयगुणों की प्रकृति से आवृत और माया के शकित रूप में प्रकट होती है जिससे सभी भाव असितत्व में आते हैं।

सत्यनाथ (ब्रहमा) –
तृतीय स्थान पर सत्यनाथ नाम से ब्रहमा पदस्थापित है, जिनको जलस्वरूप कहा गया है। कहने की आवश्यकता नहींं है कि, सृष्टि के समस्त जीवों, चल व अचल पदार्थों के निर्माण मेंं जल एक प्रमुख तत्त्व है। इन्हें प्रजा (सृष्टी पति) पति भी कहा जाता है। पौराणिक ग्रंथों में ब्रह्मा की उत्पति विष्णु के नाभि कमल से होना सर्वविदित है। जलतत्व स्वाधिष्ठान चक्र से संबंधित है जो जननेन्द्रियों के तल में स्थित है और मानव शरीर के स्व का आसन है। ज्ञान गूदड़ी नामक ग्रंथ के अनुसार ब्रह्मा भी सृष्टि करने की इच्छा के कारण इस जगत प्रपंच में अपनी भूमिका का निर्वहन करते हैं। आदि पुरुष इच्छा उपजाई, इच्छा साखत निरंजन माही।। इच्छा ब्रहमा, विष्णु, महेषा। इच्छा शारदा, गौरी, गणेषा।। इच्छा से उपजा संसारा। पंच तत्व गुण तीन पसारा।। (ज्ञान गूदड़ी)

सन्तोषनाथ (विष्णु) –
चतुर्थ स्थान पर सन्तोषनाथ नामान्तर्गत विष्णु विराजित है, जो तेजस्विता लियेे हुए हैं। आज विज्ञान जगत सहित समस्त संसार यह मान चुका है कि, हमारे शरीर मेंं एक ज्योतिपुंज है जिसे हम योगा अभ्यास के माध्यम से अपने ही शरीर मेंं देख सकते हैं। शरीर मेंं इस ज्योतिपुंज की उपस्थिति ही जीवन के अस्तित्व को सिद्ध करती है। सूर्य के साथ ज्योति अग्नि तत्व मणिपुर चक्र से संबंधित है जो नाभि क्षेत्र में स्थित है।
मणिपूर चक्र मानव देह का विशुद्ध केन्द्र बिन्दु है और इस देह रूपी सौरमण्डल के सूर्य के समान है।
विष्णु सन्तुष्टि का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है, इस सृष्टि का संचालक, सन्तुलनकर्ता होते हुए भी निर्लिप्त व संतुष्टि भाव से अपने कर्तव्य का पालन करता है।

अचल अचम्भेनाथ ( शेषनाग अथवा अन्तरिक्ष ) –
पांचवें स्थान पर अचम्भेनाथ नाम से आकाश तत्व का उल्लेख है और इसकी प्रकृति अचल बतायी गयी है।
गीता के दूसरे अध्याय के चौबीसवें श्लोक-
अच्छेधोक यमदाषोक यमक्लेधोक षोष्य एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणूर्चलोक यं सनातन:।।
के सन्दर्भ मेंं यह तत्त्व स्थायित्व लियेे सर्वत्र व्याप्त आत्मा का द्योतक है। स्थायी होने के कारण अमरत्व के समस्त गुण अर्थात अकाट्य, अभेध, अशोष्य, अदाहय आदि इसमेंं समाहित हैं। इन दोनों तत्वों पर आगे विचार किया जावे तो ये सभी तत्वगुण एक ही परमसत्ता आत्मा की ओर संकेत करते हैंं जो, संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त है।
पृथ्वी को अपने फन पर स्थिर और अचल भाव से धारण करने के कारण शेषनाग को भी अचलनाथ कहा जाता है साथ ही यहां सूर्य और चन्द्र नाडी में लय के द्वारा वायु को स्थिरअचंभित अर्थात अचल कर देने की क्रिया भी संकेतित हो सकती है।
सम्पूर्ण सृष्टी नित्य गतिमान है केवल वायु से बना, अथवा वायु तत्व का मुल (बोलचाल में अन्तरिक्ष) आकाश ही सिथर और अचल है।
यह एक विलक्षण तथ्य है कि वायु भी सिथर नहीं है और एक निषिचत परिधी के बाद आकाष वायु रहित हो जाता है,
संभवत: योग की यही विलक्षणता योगियों का ध्येय है।

गजबेली कन्थडनाथ (गणेश) –
छठे स्थान पर गणेशजी को कन्थडऩाथ नाम दिया है।
हाथी सृष्टि निर्माण मेंं प्रयोग किये गये स्थूल तत्वों का प्रतीक है। यधपि स्थूलता के दृषिटकोण से देखा जावे तो किसी अन्य जीव को प्रतीक बताया जा सकता था। किन्तु इस क्रम में गज अथवा हाथी के सर्वाधिक सम्मानित व प्रचलित नाम गणेश पर विचार किया जावे तो बहुत विलक्षण तथ्य प्रकाश में आते हैं। शास्त्रों के अनुसार महादेव द्वारा शीष विच्छेद के बाद गणेश को हाथी का शीष काटकर लगाया गया जो सामूहिक रूप से इन्द्रियों की अविभक्त शक्ति व संपतियों का प्रतीक है।
योगियों के लिये योगारूढ़ होना गणेश (विघ्नेष-विघ्नेश्वर) की कृपा के बिना संभव नहीं है किन्तु योगी को उस समय सावधान रहने की आवष्यकता है जब योग के मार्ग में रिद्धि एवं सिद्धियां अनायास ही प्राप्त होने लगती है जिससे कि वह माया के अधीन होकर पुन: माया क्रीडा में उलझ कर न रह जावे।

चौरंगी नाथ (चन्द्रमा) –
सातवें स्थान पर वनस्पतियों के जीवनदाता चन्द्रमा को चौरंगीनाथ नाम दिया है। शाबिदक अर्थ के सन्दर्भ में चौरंगीनाथ एक अंगविहीन पुरूष किन्तु पूर्ण ज्ञान का प्रतीक है। नाथ सम्प्रदाय में चन्द्रमा भ्रूमध्य में सिथत आज्ञा चक्र से संबंधित है और तीसरे नेत्र के रूप में भी जाना जाता है। नाथ साहित्य और साधना के सन्दर्भ से देखें तो आज्ञा चक्र (भ्रूमध्य) ही वह स्थान है जहां से निरन्तर अमृत निसृत होकर सूर्य (स्वाधिष्ठान चक्र) में गिर कर नष्ट हो रहा है। इसी अमृत को नष्ट होने से बचाना योगियों और हठयोग (सूर्य और चन्द्रमा की युति) का ध्येय है जो स्वाधिष्ठान चक्र और आज्ञा चक्र को नियनित्रत किया जाकर संभव है। जब कुण्डलिनी शकित जागृत होकर सुषुम्णा मार्ग में प्रवृत होती है तो शरीर विदेह अवस्था (वह अवस्था जिसमें शरीर के अंग व इनिद्रयां इस प्रकार अन्तर्मुखी होकर निष्चेष्ट हो जाती है जैसे कि उनका असितत्व ही न हो) को प्राप्त होकर विषुद्ध रूप से केवल मसितष्क चेतन रहता है।
ज्ञातव्य है कि आध्यातिमक साहित्य एवं योगियों द्वारा बताये अनुसार जीव के मसितष्क में सहस्त्रदल वाले अधोमुखी कमल सहस्त्रार चक्र में सोम (चन्द्रमा) का स्थान है जिसको पीने वाला नित्य-प्रति की आवष्यकताओं से मुक्त हो जाता है।

मत्स्येन्द्रनाथ (मायारूप) –
नवनाथों मेंं सबसे अधिक चर्चित नाम मत्स्येन्द्रनाथ तथा गोरक्षनाथ है। मत्स्येन्द्रनाथ को माया स्वरूप कहा गया है। संस्कृत मेंं मा का अर्थ नहींं है तथा या का अर्थ है जो। अर्थात जो नहींं है किन्तु फिर भी है और इसके उलटक्रम से जो है किन्तु फिर भी नहींं है, वह माया है। मत्स्येन्द्रनाथ को दादागुरू कहा जाता है और जिस प्रकार परिवार में पितामह को अपने प्रपौत्रों से स्नेह व अनुराग होता है मत्स्येन्द्रनाथ को भी अपने पुत्र (शिष्य) महायोगी गोरक्षनाथ के पुत्रों (शिष्यों) से अनुराग है और परिवार में पितामह का अपने प्रपौत्रों की त्रुटियों को क्षमा करने की स्वाभाविक प्रवृति वाला होने से मत्स्येन्द्रनाथ को कृपालु भी कहा जाता है।
निस्सन्देह सीखने की किसी भी पद्धति और प्रक्रिया में शिक्षार्थी से त्रुटी होना संभव है, नाथ सम्प्रदाय के दादा गुरू मत्स्येन्द्रनाथ कृपापूर्वक उन त्रुटियों को क्षमा कर देते हैं। नाथयोगियों की मान्यता अनुसार जीवन शिव और उसकी निजाशक्ति का खेल है और संपूर्ण चराचर जगत का प्रपंच शिव द्वारा स्थापित विधि के अनुरूप ही होता है।

गुरु गोरक्षनाथ (शिव बाल रूप) –
महायोगी गोरक्षनाथ को शिव का अवतार मानते हैं और शिवस्वरूप मानने के कारण ही शिवगोरक्ष की संज्ञा से उच्चारित करते हैं।
यधपि आदिनाथ सृष्टि के प्रथम देव हैं किन्तु गोरक्षनाथ ने योग अभ्यास द्वारा स्वयं को उससे एकात्म कर लिया और इस प्रकार गोरक्षनाथ व आदिनाथ भिन्न नहीं है।
गोरक्षनाथ नवनाथों में सर्वोपरि है और पवित्रता में आदिनाथ से अभिन्न होते हुए सृष्टि संचालन के लिये विभिन्न काल एवं भूखण्डों में प्रकट होते हैं।
गोरक्षनाथ जी को एक बालक की भांति निष्कपट, निष्पाप और निर्मल होने से ऐसा भी कहा जाता है जो सृष्टी के नियमों से परे अद्वैत है और सभी देव, दानव, नर, किन्नर, यक्ष, गन्धर्व, नाग, वानर, जलन्द, परन्द, चर, अचर, उभयचर आदि जीवों के नैसर्गिक गुण मैथुन से नितान्त नि:षेष होने के कारण जती (यती अर्थात जगत प्रपंच से अनासक्त) है।
यती एक बालक की वो अवस्था है जहां उसे अपनी नग्नता का कोई आभास भी नहीं है। महायोगी गोरक्षनाथ अयोनिज (जिसकी उत्पति मैथुन जनित परिणाम न हो) है किन्तु सूर्य और चन्द्रमा की युति का माध्यम होकर भी वह उससे अप्रभावित ही रहता है। शिव ही कि तरह महायोगी गोरक्षनाथ के भी तीन नेत्र हैं। बायां नेत्र चन्द्रमा, दाहीना नेत्र सूर्य और भ्रूमध्य में ज्ञानचक्षु है जिसे शिव नेत्र भी कहा जाता है।
प्रथम देव आदिनाथ के सदृश्य होने से महायोगी गोरक्षनाथ को स्वयं ज्योतिस्वरूप (जो स्वयं की ज्योती से प्रकाशित है) भी कहा जाता है।
शिव से एकात्म हो चुका योगी जब स्वयं में, सर्वत्र और समस्त तत्वों में शिव का ही प्रतिबिंब देखता है तो अद्वैत हो चुके योगी के लिये कुछ भी धृणित और भयकारक नहीं रह जाता क्योंकि उसे सब में स्वयं का ही आभास होने लगता है।
श्रीमदभगदगीता में श्रीकृष्ण ने छठे अध्याय के 30वें श्लोक में कहते है,
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति,
तस्याहं न प्रणष्यामि स च मे न प्रणश्यति ।।
कह कर इस अद्वैत दर्शन को समझाया है तो
नाथयोगियों द्वारा घट-घट वासी, गोरक्ष अविनाशी,
टले काल मिटे चौरासी ||
कह कर गोरक्ष (शिव) के सर्वत्र व सभी में व्याप्त होने की अवधारणा की जाती है।

नवनाथों के स्वरूप चिन्तन में आदिनाथ के ओंमकार स्वरूप से लेकर गोरक्षनाथ के बाल स्वरूप तक जीव की उत्पती से उसके पूर्ण विकास पर्यन्त जिन नौ सिथतियों का प्राकटय होता है वह विलक्षण है। सभी जीवों व तत्वों की उत्पती ओंमकार स्वरूप (आदिनाथ) से, प्राकटय धरती स्वरूप (उदयनाथ) से, पोषण जल स्वरूप (ब्रहमा) से, स्थायित्व तेजस्वरूप (सन्तोषनाथ विष्णु) से, जीवन की सार्वभौम एवं सर्वकालिक सत्ता आकाष स्वरूप (अचलनाथ) से, जीवन यापन के समस्त साधन व सामथ्र्य गणेष स्वरूप (गजबेली गज कन्थडनाथ) से, ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ती चौरंगीनाथ से, विभिन्न विषयों में प्रयोग मायारूपी (मत्स्येन्द्रनाथ) से और उक्त सभी कि्रयाकलापों सहित सत्य तत्व का मार्ग प्रषस्त करने वाला इन्द्रीयनिग्रही विवेक बालस्वरूप (षम्भूयती गोरक्षनाथ) से प्राप्त होता है।

नवनाथ स्वरुप गायत्री –
सत नमो आदेश, गुरूजी को आदेश,
ॐ गुरुजी,
ओमकारो आदिनाथ ओमकार स्वरूप बोलियेे।
उदयनाथ माता पार्वती धरती स्वरूप बोलियेे।
सत्यनाथ ब्रहमाजी जल स्वरूप बोलियेे।
सन्तोषनाथ विष्णुजी खड्गखाण्डा तेज स्वरूप बोलियेे।
अचल अचम्भेनाथ आकाश स्वरूप बोलियेे।
गजबेलि गजकंथडनाथ गणेशजी गज हसित स्वरूप बोलियेे।
ज्ञानपारखी सिद्ध चौरंगीनाथ अठारह हजार वनस्पति स्वरूप बोलियेे।
मायारूपी मत्स्येन्द्रनाथ मायारूपी बोलियेे।
घट पिण्ड नव निरन्तरे रक्षा करन्ते
शम्भुजती गुरु गोरक्षनाथ बाल स्वरूप बोलियेे।
इतना नवनाथ स्वरूप मंत्र संपूर्ण भया,
अनन्त कोटि सिद्धों मेंं श्री नाथजी ने कथ पढ़ सुनाया।
नाथजी गुरुजी को आदेश आदेश

अलख आदेश
ॐ शिव गोरक्ष

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