अब आप यह मत कहना अग्नि के भी प्रकार होते है क्या? यह तो महज सामान्य बात है। कभी भी अग्नि के प्रकार नहीं होते। अग्नि तो अग्नि हो होती है। उसका काम है जलाना! राख करना उसका कार्य है उसमें भी प्रकार? तो उत्तर है जी हां। एक नहीं दो नहीं पर चार प्रकार की अग्नि होती है। तो आज हम इसी विषय पर बात करेंगे कि क्या क्या प्रकार होते है और किस तरह की होती है यह चारो अग्नि। कैसे हम सब को असर करती है यह भी ज्ञात करेंगे। यहां पर दिए गए सारे विचार मेरे स्वयं के है किसी भी व्यक्ति से कोई भी संबंध नहीं रखता है और अगर होता भी है तो वह केवल एक संयोग ही होगा।
जब छोटी सी एक लकड़ी को जलाते हो तो को आग दिखती है वह है प्रत्यक्ष अग्नि। इस अग्नि को अपनी आंखो से देखना संभव है। उसके ताप को हम अनुभव भी कर सकते है। यह अग्नि क्रमांक चौथे पर है। यह अग्नि अशुद्ध अग्नि भी कहलाती है। अशुद्ध इसलिए कि उसमें कई प्रकार की अशुद्धियां होती है इसी कारण से धुआं होता है। उसका स्वभाव भी एकदम चंचल और उग्र होता है। यह अग्नि अगर बेकाबू हो जाए तो उसे सीघ्रता से नियंत्रित नहीं किया जा सकता। यह अशुद्धि होती है वह लकड़ी या जो पदार्थ जल रहा है उसमें। यह अशुद्धियों के कारण से उस अग्नि में अशुद्धियां प्रकट हो जाती है। इसलिए इस अग्नि को हमने निम्न स्तर पर रख कर चौथे और आखरी पायदान पर रखा है। इसे प्रत्यक्ष अग्नि कहते है।
तीसरे पायदान पर है आंतरिक अग्नि। या कहो भितरिय अग्नि। इस अग्नि का क्रमांक हमने इसी कारण से तीसरे क्रमांक पर रखा है। यह अग्नि चौथे क्रमांक से थोड़ी शुद्ध होती है। किन्तु पूर्णतया शुद्ध नहीं। समझो एक लकड़ी जल रही है तो लकड़ी स्वयं ही आंतरिक अग्नि है। अगर उसमें आंतरिक अग्नि नहीं होती तो वह नहीं जलती। पानी को क्यो जलाया नहीं जा सकता? क्योंकि उसमें आंतरिक अग्नि का अभाव होता है। इसका अर्थ है जो भी पदार्थ हो उसको जलाने के लिए उसमें भीतरिय अग्नि का होना अनिवार्य है वरना वह नहीं जलेगा। चाहे कितना भी ताप दे दो। वह है आंतरिक अग्नि। यह अग्नि कई पदार्थो में होता है। अपने शरीर में भी है इसलिए तो कभी कभी हमें बुखार आता है। जो भी पदार्थ ज्वलनशील है वह सभी आंतरिक अग्नि वाले है। किन्तु अशुद्धियां भी होता है। अगर लकड़ी गीली है तो पानी की अशुद्धियां उस लकड़ी में है तो उसे जलाने से अधिक धुआं होगा और अग्नि कम।
अब बात करते है दूसरे क्रमांक की। तो दूसरे पायदान पर है स्वर्गीय अग्नि। यह अग्नि शुद्ध होती है और पवित्र मानी जाती है। जब हम हवन यज्ञ इत्यादि करते है तब स्वर्गीय अग्नि की आवश्यकता होती है इसलिए यज्ञ में सर्वप्रथम हम जव तल, गऊ के गोबर के कंडे, गऊ के दूध का बना घी का प्रयोग करते है ताकि वह अशुद्धियां दूर हो पाए। यह अग्नि भी प्रत्यक्ष अग्नि की तरह देखी जा सकती है। यह वह अग्नि है जो प्रकाश फैलाती है। उसमें हल्की सी ऊर्जा एवम् प्रकाश होता है। यह अग्नि पवित्र अग्नि मानी जाती है। यह समझो की एक दिया जल रहा है। जो जल रहा है वह प्रत्यक्ष अग्नि है, बाती जो है वह है आंतरिक अग्नि, और जो उजाला फैल रहा है आसपास में वह है स्वर्गीय अग्नि। यह अग्नि से ही हवन यज्ञ संभव होते है वरना कोई अर्थ नहीं रहता उस हवन का। इसलिए हमने इसे दूसरे पायदान पर रखा है।
अब बात करते है प्रथम पायदान की। वह है योगाग्नि! यह अग्नि सबसे पवित्र एवम् शुद्ध मानी जाती है। यह अग्नि के मुकाबले कोई भी अग्नि नहीं टिक सकती। यह अति पवित्र अग्नि है। यह अग्नि केवल और केवल मनुष्य योनि में होती है और सबसे पास होती है बस उसका नियंत्रण नहीं होता सबके पास। किन्तु उसका नियंत्रण हम योग और ध्यान के माध्यम से प्राप्त कर सकते है। यह अग्नि ऐसी अग्नि है जिससे नियंत्रण कर के आप कई सर्जनात्मक कार्य कर सकते हो और अगर उस शक्ति का दुरुपयोग करो तो सर्वनाश भी कर सकती है। कई ऋषियों के पास यह अग्नि का नियंत्रण था। आज भी कई संत मौजूद है जिनके पास यह नियंत्रण है। कुछ साल पहले ही अख़बार में पढ़ा था एक साधु ने अपनी आंतरिक अग्नि से देह त्याग किया था। वह किसी भी बाहरी अग्नि के बगैर स्वयं जल उठे थे और राख बन गए थे। वैज्ञानिक भी समझ नहीं पाए थे इस विषय में। तो यह योगाग्नि से आप कुछ सही कार्य कर सकते हो।