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वैदिक महीने पंचांगों से विलुप्त हो गए

वेद के छः अंग है। वेद की विशदता और वेद का महत्त्व इस एक ऋषि वाक्य से समझ आजाना चाहिए कि,”वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सबका परम धर्म है। ” अध्ययन के लिए वेद 6 अङ्गों में विस्तृत किया गया समुच्चय है, अङ्गी है।

शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य, हस्तौ कल्पौs थ पठ्यते। मुख व्याकरणं स्मृतं, निरुक्तं श्रोतमुच्यते। छन्दः पादौ तु वेदस्य, ज्योतिषामयनं चक्षुः।

सभी 6 अङ्गों में से सबसे बड़ी प्रधानता आँखों की ही है ( सर्वे इंद्रियाणां नयनं प्रधानम् )। आँखें नहीं हैं तो सारा संसार शून्य से अधिक कुछ भी नहीं। आँखों की पुतली का स्पंदन रहित (स्थिर) हो जाना मृत्यु की अंतिम मुहर होती है। इसी से ज्योतिष की महत्ता सिद्ध होती है।

ज्योतिष के तीन स्कंध है। सिद्धांत संहिता और होरा। सिद्धांत में जहां पर गणितीय सिद्धांत की बात करें तो जिस स्कन्ध या विभाग में त्रुटि से लेकर प्रलय काल तक की गई गणना हो,सौर, सावन, नाक्षत्रादि मासादि कालमानों का प्रभेद बतलाया गया हो,

ग्रह संचार का विस्तार से विवेचन किया गया हो तथा गणित क्रिया को उपपत्ति द्वारा समझाया गया हो, पृथवी, नक्षत्रों व ग्रहों की स्थिति का वर्णन हो तथा ग्रहसाधनादि में उपयोगी यन्त्रों व उपकरणों का विवरण प्रस्तुत किया गया हो, वह सिद्धान्त कहलाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि यदि गणित का सिद्धांत ही सही नहीं है तो पूरा पंचांग गलत हो जाता है।

१२ राशियों से १२ मास ( मधु, माधव, शुक्र, शुचि नभ,नभस्य,इष,ऊर्ज,सहस,सहस्य,तप,तपस्य ) बनते हैं। इन्हें द्वादश आदित्य भी कहते है। जब आदित्य बदलता है अर्थात जब मास या महीना बदलता है तो उस दिन को ही संक्रांति कहते हैं। संक्रांति सभी ग्रहों की होती है किन्तु लोक में सूर्य की संक्रांति ही ख़ास प्रचलित है क्योंकि वह ही हमारे संवत् का हिस्सा हैं। इस प्रकार जिस दिन संक्रांति होती है उस दिन अनिवार्यतः सूर्य नई राशि के शून्य भोगांश में प्रविष्ट करता है।

मधुश्च माधवश्च वासन्तिकावृतू | शुक्रश्च शुचिश्च ग्रैष्मावृतू | नभश्च नभस्यश्च वार्षिकावृतू | इषश्चोर्जश्च शारदावृतू | सहश्च सहस्यश्च हैमन्तिकावृतू | तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू ||

(यजुर्वेद तैतरिय संहिता ४.४.११)

यजुर्वेद अनुसार मधुमास ही वर्ष का प्रारंभ महीना है यही नव वर्ष कहलाता है आजकल हम चैत्र को नववर्ष मानते हैं। मधु व माधव इन दोनों वसंत ऋतु के वैदिक महीनों का संबंध चैत्र और वैशाख इन दोनों महीने से है। वसंत ऋतु का प्रारंभ सायन सूर्य के मीन राशि में प्रवेश से प्रारंभ होता है। सूर्य मीन और मेष में जब गोचर करता है तो यह 2 महीने वसंत ऋतु के कहलाते हैं। बसंत ऋतु 20 फरवरी से 21 अप्रैल तक रहती है। शुक्र व शुचि इन दोनों ग्रीष्म ऋतु के वैदिक महीनों का संबंध ज्येष्ठ और आषाढ़ दोनों मास से हैं। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य वृषभ और मिथुन राशि पर 2 महीने तक रहता है यह स्थिति 21 अप्रैल से 22 जून तक रहती है। नभ व नभस्य इन दोनों वर्षा ऋतु के वैदिक महीनों का संबंध श्रावण और भाद्रपद मास से है। वर्षा ऋतु में सूर्य कर्क और सिंह राशि पर रहता है और यह समय 22 जून से 23 अगस्त तक रहता है। इष व ऊर्ज इन दोनों शरद ऋतु के वैदिक महीनों का संबंध अश्विन और कार्तिक मास से है। शरद ऋतु में सूर्य कन्या और तुला राशि में दिनांक 23 अगस्त से 23 अक्टूबर तक रहता हैं। सहस व सहस्य इन दोनों हेमंत ऋतु के वैदिक महीनों का संबंध मार्गशीर्ष और पौष मास से है। हेमंत ऋतु में सूर्य वृश्चिक और धनु राशि पर रहता है यह स्थिति 23 अक्टूबर से 22 दिसंबर तक रहती है। तप व तपस्य इन शिशिर ऋतु के दोनों वैदिक महीनों का संबंध माघ और फाल्गुन मास से है। शिशिर ऋतु में सूर्य मकर और कुंभ राशि पर 2 महीने तक रहता है यह स्थिति 22 दिसंबर से 20 फरवरी तक रहती है। वेद अनुसार यही हमारे वैदिक महीने हैं लेकिन इनकी जानकारी सभी को नहीं है। इन महीनों में सूर्य की स्थिति सायन गणना पर आधारित है।

किसी भी वैदिक महीने चांद्र मास से संबंध देखने का सही और सटीक तरीका यह है कि जिस दिन मधुमास लगता है उसके कुछ दिनों बाद जो पहला शुक्ल पक्ष होगा वही वास्तविक चैत्र शुक्ल पक्ष कहलाएगा। चांद्र मास को पुराण अनुसार यदि समझे तो शुक्ल पक्ष पहले आता है फिर कृष्ण पक्ष आता है और अमावस्या पर महीने की समाप्ति होती है।आप यदि आजकल के पंचांगों को भी देखेंगे तो आमावस्या आगे 30 का अंक लिखा हुआ होता है।इस 30 का तात्पर्य यह है कि अमावस्या पर महीने की समाप्ति होनी चाहिए किंतु आजकल पंचांग पूर्णिमा पर महीने की समाप्ति लिखते हैं। पुराणों में चांद्र मास को अमान्त कहा है पुराणों का तात्पर्य यह है कि शुक्ल पक्ष पहले आना चाहिए उसके बाद कृष्ण पक्ष आना चाहिए और अमावस्या पर महीने की समाप्ति होनी चाहिए। शताब्दियों से सभी पंचांग पूर्णिमांत बन रहे हैं अर्थात महीना कृष्ण पक्ष से प्रारंभ होता है और शुक्ल पक्ष पूर्णिमा पर समाप्त होता है।लेकिन पूर्णिमा के आगे 15 का अंक लिखा हुआ होता है इसलिए पूर्णिमा महीने की पंद्रहवीं तिथि होती है ना की तीसवी।

परंतु समय के साथ साथ वैदिक महीनों के नाम ही लुप्त हो गए। हमारे पंचांग वैदिक तो कहलाते हैं लेकिन इन वैदिक मासों मधु, माधव आदि बारह महीनों का कहीं पर भी उल्लेख नहीं किया जाता है। केवल पंचांग में ऋतुओं को सायन गणना के आधार पर लिख दिया जाता है लेकिन इसकी वैदिक स्थिति को किसी भी पंचांगकार ने अभी तक नहीं दर्शाया है।यहां तक कि आजकल ज्योतिष के पाठ्यक्रम में भी इसे विस्तृत रूप से नहीं पढ़ाया जाता है।

दो सौर मास की एक ऋतु और तीन ऋतु का एक अयन तथा दो अयन ही (मिलाकर) 1 वर्ष कहे जाते है। जिसे आप सामान्य भाषा में उत्तरायण और दक्षिणायन जानते हैं। सभी खगोल शास्त्री यह जानते हैं कि 22 दिसंबर से सूर्य उत्तरायण हो जाता है और यह स्थिति 22 जून तक चलती है। 22 दिसंबर को सबसे छोटा दिन होता और रात बड़ी होती है। इसी प्रकार 22 जून को दिन बड़ा होता और रात्रि छोटी होती है। इसी प्रकार 22 जून के सूर्य दक्षिणायन हो जाता है और यह स्थिति 22 दिसंबर तक चलती है। शिशिर बसंत ग्रीष्म ये तीन ऋतुएं उत्तरायण की होती है। इसी प्रकार वर्षा शरद हेमंत ये तीन ऋतुएं दक्षिणायन की होती है। इसी प्रकार वर्ष में दो संपात होते हैं वसंत संपात और शरद संपात । इस संपात को विषुव भी कहते हैं। 21 मार्च वसंत संपात कहते हैं। इस दिन सूर्य सायन मेष राशि पर प्रवेश करता है। 23 सितंबर के दिन शरद संपात होता है। 23 सितंबर के दिन सूर्य सायन तुला राशि पर प्रवेश करता है। सम्पात को अंग्रेजी में Equinox और अयन को Solstice कहते हैं। सम्पात के बारे में एक बहुत ही आवश्यक जानकारी ये है कि इस दिन हर स्थान पर उसके अक्षांश के अनुरूप छाया कोण बनता है। किसी भी स्थान पर बनने वाली छाया का कोण ही उस स्थान का अक्षांश भी होता है। 21 मार्च और 23 सितंबर इन दिनों में आप आसानी से किसी स्थान का भौगोलिक अक्षांश भी जान सकते हैं। यदि आप अंग्रेजी अखबार पढ़ें तो आपको ज्ञात होगा कि वहां पर सूर्य राशियां लिखी हुई होती है और उसका उल्लेख इस प्रकार होता है कि 22 दिसंबर से 21 जनवरी तक मकर राशि होती है। 21 जनवरी से 20 फरवरी कुंभ राशि होती है। 20 फरवरी से 22 मार्च तक मीन राशि होती है। 22 मार्च से 21 अप्रैल तक मेष राशि होती है। इसी प्रकार राशियों का क्रम चलता रहता है। इस प्रकार हर 1 महीने में राशियां बदलती रहती है यह सूर्य राशियां कहलाती है। ज्योतिष के जानकारों व अन्य लोग यह जानते हैं यह सूर्य की राशियां विदेशों में देखी जाती है लेकिन हमारे वेदों में सायन सौर मासों का उल्लेख है और इन्हीं सौर मासों के बारे में लिखा है। परंतु वेदों में इन्हें अयन और विषुव के आधार पर लिखा गया है। इन सूर्य राशियों के बदलने की दिनांक हर महीने 20 तारीख से 23 तारीख के मध्य हर महीने होती है। यही वास्तविक गोचर सूर्य की राशियों की स्थिति होती है। लेकिन विगत कई शताब्दियों से अयनांश की गणना के कारण हर 71.66 वर्ष में यह सक्रांति 1 दिन आगे खिसक रही है और इससे पंचांगकार सूर्य की निरयन स्थिति को पंचांगों में विशेष तौर से लिखते हैं। अयनांश 72 साल में एक अंश बढ़ता है और वर्तमान में यह बढ़ता बढ़ता 24 डिग्री हो गया है। वास्तविकता यही है कि सूर्य 21 या 22 दिसंबर पर ही वास्तविक सैद्धांतिक गणित से मकर राशि पर प्रवेश कर जाता है। किंतु अब यह स्थिति 14-15 जनवरी को पंचांग में दर्शाना बहुत बड़ी गणितीय सैद्धांतिक अशुद्धि है। यदि आजकल के पंचांग देखें तो मकर राशि पर सूर्य गोचर 15 जनवरी,कुंभ राशि पर सूर्य 13 फरवरी,मीन राशि 15 मार्च, मेष राशि पर 14 अप्रैल, इस प्रकार से हर महीने के मध्य की 13 से 16 तारीख के बीच सूर्य की निरयन संक्रांति लिखी जाती है।

यहां एक महत्वपूर्ण बात और समझे की पंचांगकार शिशिर ऋतु का प्रारंभ तो 22 दिसंबर के दिन ही लिख देते हैं,पंचांगकार कभी भी 14 या 15 जनवरी को शिशिर ऋतु नहीं लिखते लेकिन 22 दिसंबर से 15 जनवरी तक 24 डिग्री का अंतर ही अयनांश है। यह 24 डिग्री अयनांश वर्तमान का है। सन 285 A D में मकर सक्रांति 22 दिसंबर को थी फिर बाद में धीरे- धीरे अयनांश बढ़ता गयाया यूं कहें कि अयनांश की गणना प्रारंभ हुई जिसकी जरूरत नहीं थी और सक्रांति आगे खिसकती गई और इसी प्रकार कई शताब्दियों से अयनांश का अंतर करके सूर्य की सक्रांति 15 जनवरी को लिखा जाता है। इसी प्रकार पंचांगकार बसंत ऋतु का प्रारंभ 20 फरवरी को लिखते हैं वास्तविक गणित से सूर्य मीन राशि पर 20 फरवरी को ही प्रवेश कर लेता है लेकिन मीन सक्रांति 15 मार्च को लिखते हैं। एक बात और पंचांग में देखने को मिलती है पंचांगकार 22 दिसंबर के दिन सायन मकर सक्रांति लिखते हैं और 15 जनवरी के दिन निरयन मकर सक्रांति लिखते हैं। सायन और निरयन शब्द कई शताब्दियों पहले ज्योतिष शास्त्र में थे ही नहीं। प्राचीन समय में केवल वेदों में अयन शब्द लिखते थे जैसे दक्षिणायन व उत्तरायण। पुराणों में भी उत्तरायण और दक्षिणायन लिखा गया है क्योंकि वहां पर दिनांक की व्यवस्थाएं थी ही नहीं।आज भी पंचांग गणना करते हैं तो सारी गणनाएं सायन गणित के आधार पर ही होती है लेकिन बाद में पंचांगों में से 24 अंश (वर्तमान अयनांश) आज के समय में घटाकर पंचांगों को निरयन गणित पर बनाया जा रहा है।

सूर्य की कर्क अवस्थिति में दक्षिणायण, मकर अवस्थिति में उत्तरायण और मेष तथा तुला के आरम्भ में सूर्य सदैव विषुव स्थिति में होंगे।

कर्कटावस्थिते भानोर्दक्षिणायनमुच्यते । उत्तरायणमप्युक्तं मकरस्थे दिवाकरः।।

मेषादौ च तुलादौ च मैत्रेय विषुव स्थितः । तदा तुल्यं अहोरात्रं करोति तिमिरा पहः ।।

विष्णुपुराण, द्वितीय अंश के अध्याय 8 / 67 से 76 तक

भानोर्मकरसंक्रान्ते: षण्मासा उत्तरायण् ।

कर्कादेस्तु तथैव स्यात् षण्मासादक्षिणायनम्।।(सूर्यसिद्धांत)

नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥

मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥

कहने का तात्पर्य गोस्वामी तुलसीदास जी जिनका जन्म 1532 में हुआ। 1576 में उन्होंने रामचरितमानस लिखी। तुलसीदास जी भी अपनी रामचरितमानस में वैदिक मधुमास को लिखते हैं आज से 444 साल पहले उन्होंने रामचरितमानस लिखि। यह कोई ज्यादा पुरानी बात नहीं लेकिन उस समय भी लोग वैदिक मधुमास को जानते थे।

गोस्वामी तुलसीदास जी की चौपाई में उन्होंने मधुमास में भगवान श्रीराम के जन्म के बारे में लिखा है और मधुमास 20 फरवरी से 21 मार्च के बीच में रहता है।इसलिए नवमी तिथि कभी भी 21 मार्च से आगे तो जा ही नहीं सकती है। इससे सिद्ध होता है कि गोस्वामी जी मधुमास के बारे में जानते थे।

इसी प्रकार वाल्मीकि रामायण में भी मधुमास का उल्लेख मिलता है।

मधुमासे सिते पक्षे नवम्यां कर्कटे शुभे।

पुनर्वस्वृक्षसहिते उच्चस्थे ग्रहपञ्चके॥

वाल्मीकि रामायण में भी मधुमास के बारे में लिखा है।

भचक्र 360 अंशों का होता है और 12 राशियां इन्हीं अंशों में विभक्त है। ये सभी सक्रांतियां सायन गणना के आधार पर ही होती है। आज के समय में भी सभी सैद्धांतिक गणनाएं सायन गणित के आधार पर ही होती है। किंतु सायन गणना से 24 अंश घटाकर फिर पंचांग बनाना निरयन गणना कहलाती है। सत्य सैद्धांतिक गणनाएं सायन है।

मधु मास मीन सक्रांति 330 से 360(360 या 0 डिग्री)डिग्री तक

माधव मास मेष सक्रांति 0 से 30 डिग्री तक

शुक्र मास वृषभ सक्रांति 30 से 60 डिग्री तक

शुचि मास मिथुन सक्रांति 60 से 90 डिग्री तक

नभस मास कर्क सक्रांति 90 से 120 डिग्री तक

नभस्य मास सिंह सक्रांति 120 से 150 डिग्री तक

इष मास कन्या सक्रांति 150 से 180 डिग्री तक

ऊर्ज मास तुला सक्रांति 180 से 210 डिग्री तक

सहस मास वृश्चिक सक्रांति 210 से 240 डिग्री तक

सहस्य मास धनु सक्रांति 240 से 270 डिग्री तक

तप मास मकर सक्रांति 270 से 300 डिग्री तक

तपस्य मास कुंभ सक्रांति 300से 330 डिग्री तक

आप पूछेंगे अयनांश क्या है अगर किसी लट्टू को चलने के बाद उसकी डंडी को हल्का सा हिला दिया जाए तो घूर्णन करने के साथ-साथ थोड़ा सा झूमने भी लगता है। इस झूमने से उसकी डंडी (जो उसका अक्ष होता है) तेज़ी से घुमते हुए लट्टू के ऊपर दो कोण-जैसा आकार बनाने का भ्रम पैदा कर देती है। लट्टू कभी एक तरफ़ रुझान करके घूमता है और फिर दूसरी तरफ़। उसी तरह पृथ्वी भी सूरज के इर्द-गिर्द अपनी कक्षा (Orbit ) में परिक्रमा करती हुई अपने अक्ष पर घूमती है लेकिन साथ-साथ इधर-उधर झूमती भी है। लेकिन पृथ्वी का यह झूमना बहुत ही धीमी गति से होता है और किसी एक रुझान से झूमते हुए वापस उस स्थिति में आने में पृथ्वी को 25798 वर्ष (यानि लगभग 26 हज़ार वर्ष) लगते हैं। अगर पृथ्वी का अक्ष पृथ्वी के ऊपर काल्पनिक रूप से निकला जाए और अंतरिक्ष से 26000 वर्षों के काल तक देखा जाए तो कभी वह पहले एक दिशा में दिखेगा फिर धीरे-धीरे पृथ्वी टेढ़ी होती हुई दिखेगी जिस से अक्ष की दिशा बदलेगी और क़रीब 26000 वर्ष बाद वहीँ पहुँच जाएगी जहाँ से शुरू हुई थी। इसका अर्थ ये हुवा कि अयन चलन एक 26000 वर्षीया वर्षों के काल तक देखा जाए तो कभी वह पहले एक दिशा में दिखेगा फिर धीरे-धीरे पृथ्वी टेढ़ी होती हुई दिखेगी जिस से अक्ष की दिशा बदलेगी और क़रीब 26000 वर्ष बाद वहीँ पहुँच जाएगी जहाँ से शुरू हुई थी। सन 285 AD में मकर संक्रांति 22 दिसंबर को थी। फिर इस प्रकार की अयनांश गणना प्रचलन में आई और इस गणना केे कारण सक्रांति खिसकती जा रही है। 25798 वर्ष में यदि 360 अंशों का भाग दिया जाए तो 71.66 वर्ष उत्तर आएगा अर्थात 72 वर्ष में 1 डिग्री अयनांश बढ़ जाता है और इससे सक्रांति भी आगे बढ़ रही है। आने वाले समय में जैसे मकर सक्रांति की बात करें तो यह सक्रांति गर्मी में चली जाएगी तो उस समय इस मकर सक्रांति का औचित्य ही क्या रहेगा। सक्रांति का तात्पर्य सूर्य का राशि प्रवेश से है प्रत्येक महीने में सक्रांति पड़ती है। 12 महीने में 12 सक्रांति होती है। मीन सक्रांति, मेष सक्रांति,वृषभ सक्रांति, मिथुन सक्रांति, कर्क सक्रांति,सिंह सक्रांति,कन्या सक्रांति, तुला सक्रांति, वृश्चिक सक्रांति, धनु सक्रांति, मकर सक्रांति, कुंभ सक्रांति इस प्रकार से सभी सक्रांतियां 12 महीनों में होती है।स्वामी विवेकानंद के जन्म के समय मकर सक्रांति 12 जनवरी को थी धीरे-धीरे यह 15 जनवरी हो गई आज से ठीक 72 साल बाद यह 16 जनवरी को आ जाएगी फिर 16 जनवरी वाली स्थिति 72 साल तक चलेगी। इस प्रकार सक्रांति आगे खिसकना ज्योतिष की सैद्धांतिक गणित का अशुद्धता वाला बिंदु कहलायेगा।

हमारी वेद परंपरा के अनुसार चलें तो 22 नवंबर से 22 दिसंबर यही वास्तविक मलमास (धन्वार्क) कहलाता है। अब आश्चर्य इस बात का होता है कि यदि 22 नवंबर से 22 दिसंबर मलमास है तो फिर इस समयावधि में शुभ कार्य कैसे हो सकते हैं। अयन चलन और अयनांश गणना के कारण हम वास्तविक मलमास को भूल चुके हैं। वर्ष में दो मलमास (खरमास) होते हैं। दूसरा मलमास मीनार्क 20 फरवरी से 21 मार्च तक रहता है लेकिन कई शताब्दियों से अयनांश जोड़ने के कारण आज के समय में यदि देखें तो 15 मार्च से 14 अप्रैल को मलमास लिखा जाता है।

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