———-:मात्र शरीर स्वस्थ रहना आरोग्य नहीं:———-
शरीर स्वस्थ रहने पर आरोग्य नहीं हो सकता, साथ में इन्द्रयाँ, मन, प्राण और आत्मा भी प्रसन्न हों तभी आरोग्य सम्भव है। शरीर के स्वस्थ रहने को 'निरोग' कह सकते हैं। 'निरोग' और 'आरोग्य' में ज़मीन-आसमान का अन्तर है। शरीर का रोग रहित हो जाना निरोगी हो जाना है पर शरीर में रोग उत्पन्न ही न हो--ऐसा होना ही आरोग्य माना जायेगा। इन दोनों ही स्थितियों में नाभि का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
चाहे कुण्डलिनी जाग्रत कर अन्य चक्रों तक पहुंचना हो, चाहे व्यक्ति का समाधि अवस्था प्राप्त करना हो, दोनों निर्भर हैं व्यक्ति की स्वस्थ नाभि पर। इसीलिए योग में स्वस्थ नाभि को अति महत्वपूर्ण माना गया है। शरीर की स्वस्थता और मन की आरोग्यता के बिना, भोग और योग व्यर्थ हैं, अकारण हैं। सुविज्ञ आचार्यों ने मनुष्य के स्वास्थ-संरक्षण हेतु दिनचर्या और रात्रिचर्या पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। उन्होंने स्पष्टरूप से आहार, निद्रा तथा ब्रह्मचर्य पर विशेष बल देकर उनके सम्यक् पालन करने का विधान किया है। ज्ञात होना चाहिए कि मनुष्य में तीन एषणा यें (इच्छाएं) होती हैं--प्राणैषणा, धनैषणा और परलोकैषणा जिनका सीधा सम्बन्ध है आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य से। ठीक इसी प्रकार प्रत्येक कार्यसिद्धि की तीन अवस्थाएं हैं-- देखना, समझना तथा करना। ये कार्य चाहे शारीरिक हों, मानसिक हों या हों आध्यात्मिक। वह इन तीनों के सम्यक् रूप से प्राप्त होने पर ही सिद्ध हो सकता है। सम्यक् गुणों के अभाव से कार्यसिद्धि कदापि संभव नहीं। इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है--
‘सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्गः’।
कार्य चाहे शरीर से सम्बंधित हो, चाहे मन से सम्बंधित हो, सम्यग् दर्शन, ज्ञान व चरित्र के बिना सिद्ध नहीं किया जा सकता। यही बात मनुष्य के आराध्य के विषय में भी है। आराध्य को जानने के लिए भी तीन माध्यम हैं--देव, शास्त्र और गुरु। सबसे पहले व्यक्ति को उसके देव को स्थिर करना होगा (स्थिर से मतलब है उचित निश्चय)। फिर उसे जानने वाले शास्त्रों का अध्ययन (ज्ञान), मनन करना होगा। तत्पश्चात गुरु के माध्यम से उसे प्राप्त करने को उद्यत होना होगा। यही उसका चरित्र होगा। उसके बाद ही कार्यसिद्धि संभव है। यह सिद्धान्त प्रत्येक कार्यसिद्धि पर लागु होता है। चाहे भौतिक सुख पाना हो या पाना हो मुक्ति का मार्ग या फिर मोक्ष।
व्यक्ति ने सोच लिया कि उसे कोई कार्य सिद्ध करना है तो उसने लक्ष्य तो बना लिया पर उस लक्ष्य को पाने के लिए उपर्युक्त तीन उद्यम या सोपान पार करना उसके लिए आवश्यक हैं। परंतु वह उन तीन सोपानों के सम्यक् तरीके से पार करने के वजाय उसे मात्र गुरु के माध्यम से प्राप्त करने के पीछे पड़ जाता है। अपना निश्चित कर्म (कर्तव्य) पूर्ण नहीं करता है। यही कारण है कि आज अनेक ऐसे साधक जगह- जगह भटकते मिल जायेंगे गुरु की तलाश में और गुरु हैं कि मिलने का नाम ही नहीं लेते। अरे बन्धु, जब आप अपने सम्यक् कार्य-विधान को अपना लेंगे तो गुरु तो आपके पास आने को बाध्य हो जायेंगे। लेकिन पहले अपनी पूरी तैयारी, फिर उसके हिसाब से दिनचर्या और रात्रिचर्या का पालन करें। तभी आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य का सम्यक् पालन हो पायेगा। और तभी अन्त में गुरु की कृपा प्राप्त होगी कार्यसिद्धि के मार्ग में।