‘सोमरस’ शराब है या एक चमत्कारी औषधि, जानिए
क्या है सोमरस
कितने ही टी.वी. सीरियल में दिखाया जाता है कि देवता इन्द्र की सभा में सुन्दर अप्सराएँ सोमरस पिलाती हैं और सभी देव उसका आनन्द लेते हैं। इस सोम रस को लोग शराब बताया करते हैं पर ये धारणा बिल्कुल गलत है। अक्सर शराब के समर्थक यह कहते सुने गए हैं कि देवता भी तो शराब पीते थे। सोमरस क्या था, शराब ही तो थी। क्या सच में वैदिक काल में सोमरस के रूप में शराब का प्रचलन था या ये सिर्फ एक भ्रम है? आइये जानें…
धर्म और शराब
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धर्म और शराब
क्या देवता शराब जैसी किसी नशीली वस्तु का उपयोग करते थे ? कहीं वे सभी भंग तो नहीं पीते थे जैसा कि शिव के बारे में प्रचलित है? वैसे उस समय आचार-विचार की पवित्रता का इतना ध्यान रखा जाता था कि जरा भी कोई इस पवित्रता को भंग करता था उसका बहिष्कार कर दिया जाता था या फिर उसे कठिन प्रायश्चित करने होते थे। तो यह सामान्य-सी बात है कि कोई भी धर्म कैसे शराब पीने और मांस खाने की इजाजत नहीं दे सकता.
ऋग्वेद में शराब की घोर निंदा
ऋग्वेद में शराब की घोर निंदा
और फिर ये भी तो सच है की धर्म-अध्यात्म की किताबों में हम जगह जगह पर नशे की निंदा या बुराई सुनते हैं, तब धर्म के रचनाकर और देवता कैसे शराब पी सकते हैं? ऋग्वेद में शराब की घोर निंदा करते हुए कहा गया – “हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्” यानी की सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात मचाया करते हैं।
ऋग्वेद में सोमरस
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ऋग्वेद में सोमरस
ऋग्वेद मैं ही कहा गया है – “यह निचोड़ा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस, सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इंद्र देव को प्राप्त हो।। (ऋग्वेद-1/5/5)” “हे वायुदेव यह निचोड़ा हुआ सोमरस तीखा होने के कारण दुग्ध में मिश्रित करके तैयार किया गया है। आइए और इसका पान कीजिए।। (ऋग्वेद-1/23/1)
सोमरस और शराब एक नहीं
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सोमरस और शराब एक नहीं
ऋग्वेद में सोम में दही और दूध को मिलाने की बात कही गई है, जबकि यह सभी जानते हैं कि शराब में दूध और दही नहीं मिलाया जा सकता। भांग में दूध तो मिलाया जा सकता है लेकिन दही नहीं, लेकिन यहां यह एक ऐसे पदार्थ का वर्णन किया जा रहा है जिसमें दही भी मिलाया जा सकता है। इसलिए यह बात का स्पष्ट हो जाती है कि सोमरस जो भी हो लेकिन वह शराब या भांग तो कतई नहीं थी और जिससे नशा भी नहीं होता था।
सोमरस हवन में इस्तमाल होता था
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सोमरस हवन में इस्तमाल होता था
सोम रस बनाने की प्रक्रिया वैदिक यज्ञों में बड़े महत्व की है। इसकी तीन अवस्थाएं हैं- पेरना, छानना और मिलाना। वैदिक साहित्य में इसका पूरा वर्णन लिखा हुआ है।
सोमरस हवन में इस्तमाल होता था
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सोमरस हवन में इस्तमाल होता था
सोम के डंठलों को पत्थरों से कूट-पीसकर तथा भेड़ के ऊन की छलनी से छानकर प्राप्त किए जाने वाले सोमरस के लिए इंद्र, अग्नि ही नहीं और भी वैदिक देवता लालायित रहते हैं, तभी तो पूरे विधान से होम (सोम) अनुष्ठान में पण्डित सबसे पहले इन देवताओं को सोमरस अर्पित करते थे। बाद में प्रसाद के तौर पर लेकर खुद भी खुश हो जाते थे।
सोमरस की जगह पंचामृत
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सोमरस की जगह पंचामृत
आजकल सोमरस की जगह पंचामृत ने ले ली है, जो सोम की प्रतीति-भर है। कुछ प्राचीन धर्मग्रंथों में देवताओं को सोम न अर्पित कर पाने की स्तिथि में कोई और चीज अर्पित करने पर क्षमा- याचना करने के मंत्र भी लिखे हैं।
कहाँ पाया जाता है सोम
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कहाँ पाया जाता है सोम
सोम लताएं पहाड़ों में पाई जाती हैं। राजस्थान के अर्बुद, उड़ीसा के महेन्द्र गिरी, विंध्याचल, मलय आदि अनेक पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी लताओं के पाए जाने के जिक्र है। कुछ विद्वान मानते हैं कि अफगानिस्तान की पहाड़ियों पर ही सोम का पौधा पाया जाता है। यह बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग का पौधा है।
कहाँ पाया जाता है सोम
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कहाँ पाया जाता है सोम
कुछ वर्ष पहले ईरान में इफेड्रा नामक पौधे की पहचान कुछ लोग सोम से करते थे। इफेड्रा की छोटी-छोटी टहनियां बर्तनों में दक्षिण-पूर्वी तुर्कमेनिस्तान में तोगोलोक-21 नामक मंदिर परिसर में पाई गई हैं। इन बर्तनों का व्यवहार सोमपान के अनुष्ठान में होता था। हालांकि लोग इसका इस्तेमाल यौन वर्धक दवाई के रूप में करते हैं।
मुश्किल होती गई सोम की पहचान
मुश्किल होती गई सोम की पहचान
अध्ययनों से पता चलता है कि वैदिक काल के बाद यानी ईसा के काफी पहले ही इस वनस्पति की पहचान मुश्किल होती गई। ऐसा भी कहा जाता है कि सोम (होम) अनुष्ठान करने वाले लोगों ने इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं दी, उसे अपने तक ही सीमित रखा और आजकल ऐसे अनुष्ठानी लोगों की पीढ़ी/परंपरा के लुप्त होने के साथ ही सोम की पहचान भी मुश्किल होती गई।
संजीवनी बूटी
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संजीवनी बूटी
कुछ विद्वान इसे ही ‘संजीवनी बूटी’ कहते हैं। सोम को न पहचान पाने की विवशता का वर्णन रामायण में मिलता है। हनुमान दो बार हिमालय जाते हैं, एक बार राम और लक्ष्मण दोनों की मूर्छा पर और एक बार केवल लक्ष्मण की मूर्छा पर, मगर ‘सोम’ की पहचान न होने पर पूरा पर्वत ही उखाड़ लाते हैं। दोनों बार लंका के वैद्य सुषेण ही असली सोम की पहचान कर पाते हैं।
शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
अगर हम ऋग्वेद के नौवें ‘सोम मंडल’ में लिखे सोम के गुणों को पढ़ें तो यह संजीवनी बूटी के गुणों से मिलते हैं इससे यह सिद्ध होता है कि सोम ही संजीवनी बूटी रही होगी।
शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कार
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शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
ऋग्वेद में सोमरस के बारे में कई जगह लिखा है। एक जगह पर सोम की इतनी उपलब्धता और प्रचलन दिखाया गया है कि इंसानों के साथ-साथ गायों तक को सोमरस भरपेट खिलाए और पिलाए जाने की बात कही गई है।
शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
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शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
वैदिक ऋषियों का चमत्कारी आविष्कार सोमरस एक ऐसा पदार्थ है, जो संजीवनी की तरह कार्य करता है। यह जहां व्यक्ति की जवानी बरकरार रखता है वहीं यह पूर्ण सात्विक, अत्यंत बलवर्धक, आयुवर्धक व भोजन-विष के प्रभाव को नष्ट करने वाली औषधि है।
शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
ऋग्वेद में लिखा है “स्वादुष्किलायं मधुमां उतायम्, तीव्र: किलायं रसवां उतायम। उतोन्वस्य पपिवांसमिन्द्रम, न कश्चन सहत आहवेषु” यानी की : सोम बड़ी स्वादिष्ट है, मधुर है, रसीली है। इसका पान करने वाला बलशाली हो जाता है। वह अपराजेय बन जाता है।
शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
शास्त्रों में सोमरस लौकिक अर्थ में एक बलवर्धक पेय माना गया है, परंतु इसका एक पारलौकिक अर्थ भी देखने को मिलता है। साधना की ऊंची अवस्था में व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का रस उत्पन्न होता है जिसको केवल ज्ञानीजन ही जान सकते हैं।
शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
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शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
कण्व ऋषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है- ‘यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है, रोग दूर करता है, विपत्तियों को भगाता है, आनंद और आराम देता है, आयु बढ़ाता है और संपत्ति का संवर्द्धन करता है। इसके अलावा यह विद्वेषों से बचाता है, शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है,
शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
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शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
कण्व ऋषियोंके अनुसार सोमरस उल्लासपूर्ण विचार उत्पन्न करता है, पाप करने वाले को समृद्धि का अनुभव कराता है, देवताओं के क्रोध को शांत करता है और अमर बनाता है’। सोम विप्रत्व और ऋषित्व का सहायक है। सोम अद्भुत स्फूर्तिदायक, ओजवर्द्धक तथा घावों को पलक झपकते ही भरने की क्षमता वाला है, साथ ही आनंद की अनुभूति कराने वाला है।
शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
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शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
सोमरस देव और मानव दोनों को यह रस स्फुर्ति और प्रेरणा देने वाला था । देवता सोम पीकर प्रसन्न होते थे; इन्द्र अपना पराक्रम सोम पीकर ही दिखलाते थे । कण्व ॠषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है: ‘ यह शरीर की रक्षा करता है, दुर्घटना से बचाता है; रोग दूर करता है; विपत्तियों को भगाता है; आनन्द और आराम देता है; आयु बढ़ाता है।
शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
शास्त्रों में लिखे हैं सोम के कई चमत्कारी गुण
सोम का सम्बन्ध अमरत्व से भी है । वह स्वयं अमर तथा अमरत्व प्रदान करने वाला है । वह पितरों से मिलता है और उनको अमर बनाता है। कहीं-कहीं उसको देवों का पिता कहा गया है, जिसका अर्थ यह है कि वह उनको अमरत्व प्रदान करता है। अमरत्व का सम्बन्ध नैतिकता से भी है । वह विधि का अधिष्ठान और ॠत की धारा है वह सत्य का मित्र है।
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देवों का प्रिय ‘सोमरस’ वास्तव में है क्या?
सोमरस एक ऐसा पेय है, जिसका जिक्र देवताओं के वर्णन के साथ ही आता है। देवताओं से जुड़े हर ग्रंथ, कथा, संदर्भ में देवगणों को सोमरस का पान करते हुए बताया जाता है। इन समस्त वर्णनों में जिस तरह सोमरस का वर्णन किया जाता है, उससे अनुभव होता है कि यह अवश्य ही कोई बहुत ही स्वादिष्ट पेय है।
इसके साथ ही कई लोगों को यह भी लगता है कि जिस तरह आज मदिरा यानि शराब का सेवन बड़े ही शौक से किया जाता है, संभवतः यह भी उसी वर्ग का कोई मादक पदार्थ है, जिसके चमत्कारिक प्रभाव हैं।
यदि आप भी सोमरस के बारे में जानकारी बढ़ाना चाहते हैं तो आइए, एक नजर डालते हैं इस पर-क्या है सोमरस?
सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात यह है कि सोमरस मदिरा की तरह कोई मादक पदार्थ नहीं है। हमारे वेदों में सोमरस का विस्तृत विवरण मिलता है। विशेष रूप से ऋग्वेद में तो कई ऋचाएं विस्तार से सोमरस बनाने और पीने की विधि का वर्णन करती हैं। हमारे धर्मग्रंथों में मदिरा के लिए मद्यपान शब्द का उपयोग हुआ है, जिसमें मद का अर्थ अहंकार या नशे से जुड़ा है। इससे ठीक अलग सोमरस के लिए सोमपान शब्द का उपयोग हुआ है, जहां सोम का अर्थ शीतल अमृत बताया गया है।
मदिरा के निर्माण में जहां अन्न या फलों को कई दिन तक सड़ाया जाता है, वहीं सोमरस को बनाने के लिए सोम नाम के पौधे को पीसने, छानने के बाद दूध या दही मिलाकर लेने का वर्णन मिलता है। इसमें स्वादानुसार शहद या घी मिलाने का भी वर्णन मिलता है। इससे प्रमाणित होता है कि सोमरस मदिरा किसी भी स्थिति में नहीं है।
कहां और कैसा है सोम का पौधा?
अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर सोमरस बनाने में प्रयुक्त होने वाला प्रमुख पदार्थ यानि सोम का पौधा देखने में होता कैसा है और कहां पाया जाता है?
मान्यता है कि सोम का पौधा पहाडि़यों पर पाया जाता है, राजस्थान के अर्बुद, उड़ीसा के हिमाचल, विंध्याचल और मलय पर्वतों पर इसकी लताएं पाए जाने का उल्लेख मिलता है। कई विद्वान मानते हैं कि अफगानिस्तान में आज भी यह पौधा पाया जाता है, जिसमें पत्तियां नहीं होतीं और यह बादामी रंग का होता है। यह पौधा अति दुर्लभ है क्योंकि इसकी पहचान करने में सक्षम प्रजाति ने इसे सबसे छुपाकर रखा था। काल के साथ सोम के पौधे को पहचानने वाले अपनी गति को प्राप्त होते गए और इसकी पहचान भी मुश्किल हो गई।
कब से अस्तित्व में आया सोमरस?
कहा जाता है कि सूर्य पुत्र अश्विनी कुमारों ने बहुत लंबे समय तक ब्रह्मा जी की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। फलस्वरूप ब्रह्मा जी ने प्रकट होकर उन्हें सोमरस का अधिकारी बनाया, जो शक्तिवर्द्धक, आयुवर्द्धक और चिरयुवा रखने में सक्षम था। वराह पुराण के अनुसार सोमरस प्राप्ति का प्रमाण सोमरस का पान था। यह केवल देवताओं को दिया गया वरदान था। जो भी व्यक्ति देवत्व की प्राप्ति कर लेता था, उसे यज्ञ के बाद सोमरस का पान करने का अधिकार मिल जाता था।
कहां होता है उपयोग सोमरस का????
सोमरस का उपयोग देवताओं के लिए विशेष रूप से किया जाता है इसीलिए यह देवताओं का प्रमुख पान है। इसीलिए यज्ञ के आयोजन में सोमरस का उपयोग विशेष रूप से किया जाता था। कहा जाता है कि प्राचीन काल में ऋषि-मुनि यज्ञ में सोमरस की आहूति देते थे और फिर प्रसाद रूप में इसे ग्रहण करते थे। ऋग्वेद के अनुसार सोमरस के गुण संजीवनी बूटी की तरह हैं। यह बलवर्द्धक पेय है जो व्यक्ति को चिर युवा रखता है। इसे पीने वाला अपराजेय हो जाता है। ऋग्वेद में इसे बहुत ही मीठा और स्वादिष्ट पेय बताया गया है। साथ ही गुणों की तीव्रता के कारण इसे कम मात्रा में लिए जाने का भी विधान ज्ञात होता है।
आध्यात्मिक अर्थ भी है सोमरस का,कुछ विद्वान यह मानते हैं कि असल में सोमरस कोई भौतिक पदार्थ नहीं है। यह वास्तव में हमारे शरीर के अंदर ही पाया जाने वाला तत्व है, जो अखंड साधना के बाद निर्मल हुए शरीर में उत्पन्न होता है। इसकी प्राप्ति साधना के उच्च स्तर पर होती है इसीलिए केवल महान ऋषियों को ही इसकी प्राप्ति होती है।माना जा सकता है कि सोमरस भी आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों से निर्मित एक दुर्लभ पेय है, जिसमें शरीर को महाबलशाली बनाने के गुण हैं। सोम नामक दुर्लभ पौधे की सहज प्राप्ति संभव ना होने से ही संभवतः इसे देवताओं के लिए सीमित किया गया है।
ऋग्वेद में बार – बार सोमरस का उल्लेख मिलता है । कुछ लोग अज्ञानता के कारण ये मानते है की सोमरस और शराब एक ही चीज होती है । तो आईये आज ऋग्वेद के मंत्रो के आधारपर हम सब ये जानने का प्रयास करते है की सोमरस क्या है ? कैसे बनता है ? कहाँ पाया जाता है ? उससे हमे क्या लाभ है ?अक्सर शराब के समर्थक यह कहते सुने गए हैं कि देवता भी तो शराब पीते थे। सोमरस क्या था, शराब ही तो थी। प्राचीन वैदिक काल में भी सोमरस के रूप में शराब का प्रचलन था? या शराब जैसी किसी नशीली वस्तु का उपयोग करते थे देवता? कहीं वे सभी भंग तो नहीं पीते थे जैसा कि शिव के बारे में प्राचलित हैकि वे भंग पीते थे?वैदिक काल में आचार-विचार की पवित्रता का इतना ध्यान रखा जाताथा किजरा भी कोई इस पवित्रता को भंग करता था उसका बहिष्कार कर दिया जाता था या फिर उसे कठिन प्रायश्चित करने होते थे।यह सामान्य-सी बात है कि कोई भी धर्म कैसे शराब पीने और मांस खाने की इजाजत दे सकता है? क्योंकि धर्म-अध्यात्म की पुस्तकों में हम जगह जगह पर नशे की निंदा या बुराई सुनते हैं, तब धर्म के रचनाकर और देवता कैसे शराब पी सकते हैं?ऋग्वेद में शराब की घोर निंदा करते हुए कहा गया-।।हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम्।।अर्थात :सुरापान करने या नशीले पदार्थों को पीने वाले अक्सर युद्ध, मार-पिटाई या उत्पात मचाया करते हैं।यह निचोड़ा हुआ शुद्ध दधिमिश्रित सोमरस, सोमपान की प्रबल इच्छा रखने वाले इंद्र देवको प्राप्त हो।। (ऋग्वेद-1/5/5)हे वायुदेव यह निचोड़ा हुआ सोमरसतीखा होनेके कारण दुग्ध में मिश्रित करके तैयार किया गया है।आइए और इसका पान कीजिए।। (ऋग्वेद-1/23/1)।।शतं वा य: शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्। एदुनिम्नं न रीयते।।(ऋग्वेद-1/30/2)अर्थात :नीचे की ओर बहते हुए जल के समान प्रवाहित होते सैकड़ों घड़ेसोमरस में मिले हुए हजारों घड़े दुग्ध मिल करके इंद्रदेव कोप्राप्त हों।इन सभी मंत्रों में सोम में दहीऔर दूध को मिलाने की बात कही गई है, जबकि यह सभी जानते हैंकि शराब में दूध और दही नहीं मिलाया जा सकता। भांग में दूध तो मिलाया जा सकता है लेकिन दही नहीं, लेकिनयहां यह एक ऐसे पदार्थ का वर्णन किया जा रहा है जिसमें दही भी मिलाया जा सकता है। अत: यहबात का स्पष्ट हो जाती है कि सोमरस जो भीहो लेकिन वह शराबया भांग तो कतई नहीं थी और जिससे नशा भी नहीं होता था अर्थात वह हानिकारक वस्तु तो नहीं थी।देवताओं के लिए समर्पण का यह मुख्य पदार्थ था और अनेक यज्ञों में इसका बहुविधि उपयोग होता था।सबसेअधिक सोमरस पीने वाले इंद्रऔर वायु हैं। पूषा आदि को भी यदा-कदा सोम अर्पित किया जाता है।।।उच्छिष्टं चम्वोर्भर सोमं पवित्र आ सृज। नि धेहि गोरधि त्वचि।। (ऋग्वेद सूक्त 28 श्लोक 9)अर्थात:उलूखल और मूसल द्वारा निष्पादित सोम को पात्र से निकालकर पवित्र कुशा के आसन पर रखें और अवशिष्ट को छाननेके लिए पवित्र चर्म पर रखें।।।औषधि: सोम: सुनोते: पदेनमभिशुण्वन्ति।- निरुक्त शास्त्र (11-2-2)अर्थात :सोम एक औषधि है जिसको कूट-पीसकर इसका रस निकालते हैं।सोम को गाय के दूध में मिलाने पर ‘गवशिरम्’ दही में ‘दध्यशिरम्’ बनता है।शहद अथवा घी के साथ भी मिश्रण किया जाता था।सोम रस बनाने की प्रक्रिया वैदिकयज्ञों में बड़े महत्वकी है। इसकी तीन अवस्थाएं हैं- पेरना, छानना और मिलाना। वैदिक साहित्य में इसका विस्तृत और सजीव वर्णन उपलब्ध है।सोम के डंठलों को पत्थरों से कूट-पीसकर तथा भेड़ के ऊन की छलनीसे छानकर प्राप्त किए जाने वाले सोमरस के लिए इंद्र, अग्नि ही नहीं और भी वैदिक देवता लालायित रहते हैं, तभी तो पूरे विधान से होम (सोम) अनुष्ठान में पुरोहित सबसे पहले इन देवताओं को सोमरस अर्पित करते थे।बाद में प्रसाद के तौर पर लेकर खुद भी तृप्त हो जाते थे। आजकल सोमरस की जगह पंचामृत ने ले ली है, जो सोम की प्रतीति-भर है। कुछ परवर्ती प्राचीन धर्मग्रंथों में देवताओं कोसोम न अर्पित कर पाने की विवशतास्वरूप वैकल्पिक पदार्थ अर्पित करने की ग्लानि औरक्षमा- याचना की सूक्तियां भी हैं।सोम लताएंपर्वत श्रृंखलाओं में पाई जाती हैं। राजस्थान के अर्बुद, उड़ीसा के महेन्द्र गिरी, विंध्याचल, मलय आदि अनेक पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी लताओं के पाए जाने के जिक्र है। कुछ विद्वान मानते हैं कि अफगानिस्तान की पहाड़ियों पर ही सोम का पौधा पाया जाता है। यह बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग का पौधा है।अध्ययनों सेपता चलता है कि वैदिक काल के बाद यानी ईसा के काफी पहले ही इस वनस्पति की पहचान मुश्किल होती गई। ऐसा भी कहा जाता है कि सोम (होम) अनुष्ठान करने वाले लोगों ने इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं दी, उसे अपने तक ही सीमित रखा और कालांतर में ऐसे अनुष्ठानी लोगों की पीढ़ी/परंपरा के लुप्त होने के साथ ही सोम की पहचान भी मुश्किल होती गई।’संजीवनी बूटी’ :कुछ विद्वान इसे ही ‘संजीवनी बूटी’ कहते हैं। सोम को न पहचान पाने की विवशता का वर्णन रामायण में मिलता है। हनुमान दो बार हिमालय जाते हैं, एक बार राम और लक्ष्मण दोनों की मूर्छा पर और एक बार केवल लक्ष्मण की मूर्छा पर, मगर ‘सोम’ की पहचान न होने पर पूरा पर्वत हीउखाड़ लाते हैं। दोनों बार लंका के वैद्य सुषेण ही असली सोम की पहचान कर पाते हैं।यदि हम ऋग्वेद के नौवें ‘सोम मंडल’ में वर्णित सोम के गुणों कोपढ़ें तो यह संजीवनी बूटी के गुणों से मिलते हैं इससे यह सिद्ध होता है कि सोम ही संजीवनी बूटी रही होगी।ऋग्वेद मेंसोमरस के बारे में कई जगह वर्णन है। एक जगह पर सोम की इतनी उपलब्धता और प्रचलन दिखाया गया है कि इंसानों के साथ-साथ गायों तक को सोमरस भरपेट खिलाए और पिलाए जाने की बात कही गई है।इफेड्रा:कुछ वर्ष पहले ईरान मेंइफेड्रा नामक पौधे की पहचान कुछ लोग सोम से करतेथे। इफेड्रा की छोटी-छोटी टहनियां बर्तनों में दक्षिण-पूर्वी तुर्कमेनिस्तान में तोगोलोक-21 नामक मंदिर परिसरमें पाई गई हैं। इन बर्तनों का व्यवहार सोमपान के अनुष्ठान में होता था। यद्यपि इस निर्णायक साक्ष्यके लिए खोज जारी है।हलांकि लोग इसका इस्तेमाल यौन वर्धक दवाई के रूप में करते हैवैदिक ऋषियों का चमत्कारी आविष्कार- सोमरस एक ऐसा पदार्थ है, जो संजीवनी की तरह कार्य करताहै। यह जहां व्यक्ति की जवानी बरकरार रखता है वहीं यह पूर्ण सात्विक, अत्यंत बलवर्धक, आयुवर्धक व भोजन-विष के प्रभाव को नष्ट करने वाली औषधि है।।।स्वादुष्किलायं मधुमां उतायम्, तीव्र: किलायं रसवां उतायम।उतोन्वस्यपपिवांसमिन्द्रम, न कश्चन सहत आहवेषु।।- ऋग्वेद (6-47-1)अर्थात :सोम बड़ी स्वादिष्ट है, मधुर है, रसीली है। इसका पान करनेवाला बलशाली हो जाता है। वह अपराजेय बन जाता है।शास्त्रों में सोमरस लौकिक अर्थ में एक बलवर्धक पेय माना गया है, परंतु इसका एक पारलौकिक अर्थ भी देखने को मिलता है। साधना की ऊंची अवस्था में व्यक्ति के भीतरएक प्रकार का रस उत्पन्न होता है जिसको केवल ज्ञानीजन ही जान सकतेहैं।सोमं मन्यते पपिवान् यत् संविषन्त्योषधिम्।सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन।। (ऋग्वेद-10-85-3)अर्थात:बहुत से लोग मानते हैं कि मात्र औषधि रूप में जो लेते हैं, वही सोम है ऐसा नहीं है।एक सोमरस हमारे भीतर भी है, जो अमृतस्वरूप परम तत्व है जिसको खाया-पिया नहीं जाता केवल ज्ञानियों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।कण्व ऋषियों ने मानवों पर सोम का प्रभाव इस प्रकार बतलाया है- ‘यह शरीर की रक्षाकरता है, दुर्घटना से बचाता है, रोग दूर करता है, विपत्तियों को भगाता है, आनंद और आराम देता है, आयु बढ़ाता है और संपत्ति का संवर्द्धन करता है। इसके अलावा यह विद्वेषों से बचाता है, शत्रुओं के क्रोध और द्वेष से रक्षा करता है, उल्लासपूर्ण विचार उत्पन्न करताहै, पाप करने वाले को समृद्धि का अनुभव कराता है, देवताओं के क्रोध को शांत करता है और अमर बनाता है’।सोमविप्रत्व और ऋषित्व का सहायकहै। सोम अद्भुत स्फूर्तिदायक, ओजवर्द्धक तथा घावों को पलक झपकते ही भरने की क्षमता वाला है,साथ ही अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति कराने वाला है।सोम को 1. स्वर्गीय लता का रसऔर 2. आकाशीय चन्द्रमा का रस भी मानाजाता है।सोम की उत्पत्ति के दो स्थान हैं-ऋग्वेद अनुसार सोम की उत्पत्ति के दो प्रमुख स्थान हैं- 1.स्वर्गऔर 2.पार्थिव पर्वत।अग्नि की भांति सोम भी स्वर्ग से पृथ्वी पर आया। ‘मातरिश्वा ने तुम में से एक को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारा; गरुत्मान ने दूसरे को मेघशिलाओं से।’ हे सोम, तुम्हारा जन्म उच्च स्थानीयहै; तुम स्वर्ग में रहते हो, यद्यपि पृथ्वी तुम्हारा स्वागत करती है। सोम की उत्पत्ति का पार्थिव स्थान मूजवंत पर्वत (गांधार-कम्बोज प्रदेश) है’। -(ऋग्वेदअध्याय सोम मंडल- 4, 5, 6)स्वर्गीय सोम की कल्पना चंद्रमा के रूप में की गई है। छांदोग्य उपनिषद में सोम राजा को देवताओं में भोज्य कहा गया है। कौषितकि ब्राह्मण में सोम और चन्द्र के अभेद की व्याख्या इस प्रकार की गई है : ‘दृश्य चन्द्रमा ही सोम है। सोमलता जब लाई जाती है तो चन्द्रमा उसमें प्रवेश करता है। जब कोई सोम खरीदता है तो इस विचारसे कि ‘दृश्य चन्द्रमा ही सोम है; उसी का रस पेरा जाए।’वेदों के अनुसार सोम का संबंध अमरत्व से भी है। वह पितरों से मिलता है और उनको अमर बनाता है। सोम का नैतिक स्वरूप उस समय अधिक निखर जाता है, जब वह वरुण और आदित्य से संयुक्त होता है- ‘हे सोम, तुम राजा वरुण के सनातन विधान हो; तुम्हारा स्वभाव उच्च और गंभीर है; प्रिय मित्र के समानतुम सर्वांग पवित्र हो; तुम अर्यमा के समान वंदनीय हो।’त्रित प्राचीन देवताओं में से थे। उन्होंने सोम बनाया था तथा इंद्रादि अनेक देवताओं की स्तुतियां समय-समय पर की थीं। महात्मा गौतम के तीन पुत्र थे। तीनोंही मुनि थे। उनके नाम एकत, द्वित और त्रित थे। उन तीनोंमें सर्वाधिक यश के भागी तथासंभावितमुनि त्रित ही थे। कालांतर में महात्मा गौतम के स्वर्गवास के उपरांत उनके समस्त यजमान तीनो पुत्रो का आदर सत्कार करने लग””
प्रश्न नही स्वाध्याय करे!!