राम राम जी🙏🙏🙏
एक ज्ञानी व्यक्ति और संसारी में यही फर्क है कि ज्ञानी मरते हुए भी हँसता है और संसारी जीते हुए भी मरता है। ज्ञान हँसना नहीं सिखाता, बस रोने का कारण मिटा देता है। ऐसे ही अज्ञान रोना नहीं देता बस हँसने के कारणों को मिटा देता है।
ज्ञानी इसलिए हर स्थिति में प्रसन्न रहता है कि वो जानता है जो मुझे मिला, वह कभी मेरा था ही नहीं और जो कुछ मुझसे छूट रहा है, वह भी मेरा नहीं है। परिवर्तन ही दुनिया का शाश्वत सत्य है।
संसारी इसलिए रोता है, उसकी मान्यता में जो कुछ उसे मिला है उसी का था और उसी के दम पर मिला है। जो कुछ छूट रहा है सदा सर्वदा यह उस पर अपना अधिकार मान कर बैठा है। बस यही अशांत रहने का कारण है। मूढ़ता में नहीं ज्ञान में जियो ताकि आप हर स्थिति में प्रसन्न रह सकें
( 2) जीव अनेक हैं, ईश्वर एक है। जीव परतंत्र हैं, ईश्वर स्वतन्त्र है। जीव और ईश्वर में यही भेद है कि जीव माया के अधीन है और माया ईश्वर के अधीन है।
*तन मरने से मुक्ति नहीं मिलती। जिसका मन मरता है उसे ही मुक्ति मिलती है। तन बदल जाता है पर मन नहीं बदलता। मन तो मरने के बाद भी साथ रहता है अतः मन को नियंत्रित करें।*
*जो तन की संभाल रखता है, वह संसारी। मन की सँभाल रखे, वह सन्त। सेवा स्मरण को ही जीवन का लक्ष्य रखो और मन की सम्भाल करते रहे। भगवान कृष्ण की सेवा के बिना जीवन सफल नहीं होता।*
Զเधॆ Զเधॆ🙏🙏
🌹🙏🏼जब कोई कर्मचारी सेवा मुक्त होता है, या इस्तीफा देता है, तो उसे तब तक नौकरी से मुक्त नहीं किया जाता जब तक वह सब लेंन देन का हिसाब नहीं चुका देता इसी प्रकार जब तक जीव के एक एक कर्म का भुगतान न हो जाए, उसे संसार से छुट्टी नहीं मिलती मरकर भी नहीं अपना हिसाब चुकाने के लिए उसे फिर यहां संसार में आना पड़ता है.
🌹🙏🏼अनाज का कच्चा दाना ज़मीन में डालने से उग आता है और अगर वही दाना पक गया हो, तो उगता नहीं, बल्कि उस ज़मीन में विलीन हो जाता है। इसी तरह अगर आत्मा का प्रेम ‘कच्चा’ है, तो वह बार-बार जन्म लेती है, और यदि वह प्रेम ‘पक्का’ है तो ‘परमात्मा’ उसे अपने में विलीन कर लेता है।
🌹🙏🏼जिन प्रेम रस चाखा नहीं अमृत पिया तो क्या हुआ काशी गया मक्के गया पर दिल खुदा को ना दिया ये याद रख इस दिल भर प्रेम से घट घट मे रब वो रम रहा प्रेम दुनिया कि सबसे खुबसुरत चीज है प्रेम मन का मिलन है प्रेम पविञ हो प्रेम सबसे हो प्रेम दो और प्रेम लो धन दौलत खुशी सुकुन आनंद नहीं देती बल्कि प्रेम सब सुख तथा जीवन सुंदर खुबसुरत बनाता है
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भीमसेन का अभिमान
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पांडु पुत्र भीम को अपनें बलशाली होने पर अत्यंत गर्व हो जाता है। वनवास काल के दौरान एक दिन वह वन की ओर विचरते हुए दूर निकल जाते हैं। रास्ते में उन्हे एक वृद्ध वानर मिलता है। वानर की पूँछ भीमसेन के रास्ते में बिछी होती है। भीम उस वृद्ध वानर से अपनी पूँछ दूर हटा लेने को कहते हैं। परंतु वृद्ध वानर कहता है, “अब इस आयु में मुझसे बार-बार हिला-डुला नहीं जाता तुम तो काफी हट्टे-कट्टे हो, एक काम करो तुम ही मेरी पूँछ को हटा कर आगे बढ़ जाओ।”
भीम उस वृद्ध वानर की पूँछ उठा कर हटाने के लिए भरसक प्रयास करते हैं, परंतु वह पूँछ को एक इंच भी हिला नहीं पाते हैं। अंत में भीमसेन उन्हे हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हैं और उन्हे अपना परिचय देने का विनम्र आग्रह करते हैं।
फिर वृद्ध वानर के रूप धरे हुए पवन पुत्र हनुमानजी अपनें दिव्य स्वरूप में आ जाते हैं, और भीम को अपना अहंकार छोड़ने की सीख देते हैं।
बल, बुद्धि और कौशल पर कभी घमंड नहीं करना चाहिए।
🌹🙏🏻🚩 जय सियाराम 🚩🙏🏻🌹
🚩🙏🏻 जय श्री महाकाल 🙏🏻🚩
🌹🙏🏻 जय श्री पेड़ा हनुमान 🙏🏻🌹
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🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻 राम राम राम
विषय। गृहस्थ में प्रेम के लिए
परम श्रद्धेय स्वामी जी की वाणी बहुत विलक्षण है, दिव्य है, इसलिए जरूर सुननी चाहिए।
परम श्रद्धेय स्वामी जी श्री रामसुखदास जी महाराज जी कह रहे हैं कि ये सबका अनुभव है कि सबका मेल रहने से शांति रहती है, और खटपट रहने से अशांति रहती है। सब मेरे मन के अनुकूल हो जाए ये संभव नहीं है। ये हाथ की बात नहीं है। कोई हमारे से शास्त्र विरूद्ध, अन्याय की बात कराना चाहे ये सही नहीं है। अगर न्याय युक्त हो, हमारी सामर्थ्य में हो तो हम उनके अनुकूल हो सकते हैं। हमारी सामर्थ्य से बाहर। न हो, कठिनता न हो, और हम उनका कहना मानेंगे तो आपस में प्रेम हो जाएगा। फिर वो हमारी बात भी मानेंगे। प्यार पूर्वक रहेंगे तो शांति रहेगी। दूसरे को कष्ट नहीं हो, तकलीफ न हो, जहां तक हो सके उनका भला ही सोचें। सबके हित की, सम्मान की बात सोचें ।
आप अच्छा अच्छा काम करेंगे, तो उनके हृदय में भी अच्छा काम करने की इच्छा पैदा हो जाएगी। अच्छा काम अच्छा बनने के लिए करें। दूसरों को अच्छा बनाने के लिए नहीं । ऐसा करने से अच्छाई फैलेगी । जो आदमी अच्छे होते हैं, उनके घरों की रोटी लेने के लिए लोग लालायित रहते हैं। अच्छा करने, बनने से घरों में आपस में प्रेम होगा। साधु बनकर अच्छा बनेंगे, उससे अच्छा गृहस्थ में रहकर अच्छा बन सकता है। साधु आपस में खटपट हो तो चला जाएगा, गृहस्थ में खटपट हो तो कहां जाएगा। साथ रहना पड़ता है। एक बात और है, समुदाय में रहकर जितनी उन्नति होती है, उतनी उन्नति एकांत में रहने से नहीं होती । अपना अभिमान, स्वार्थ त्याग करके दुसरे का हित करना चाहिए। किसी पर दया कैसे करनी चाहिए, ये बात बैल, बैल चलाने वाले का उदाहरण देकर समझा रहे हैं, कि साधारण आदमी की दया क्या होती है, और संत की दया क्या होती है । अच्छे आचरण करने से दूसरे पर अच्छा असर पड़ता है । इससे प्रेम होगा, खटपट नहीं होगी। इस तरह से आपस में प्रेम करने से लोक, परलोक दोनों सुधरते हैं।
नारायण नारायण नारायण नारायण
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राधे राधे ॥ आज का भगवद चिन्तन ॥
सामर्थ्य का अर्थ यह नहीं कि आप दूसरों को कितना झुका सकते हो अपितु यह है, कि आप स्वयं कितना झुक सकते हो। जीवन की महानता और कुछ नहीं केवल सामर्थ्य के साथ विनम्रता का आना ही तो है। जहाँ समर्थता होती है, वहाँ कई बार विनम्रता का अभाव ही देखा जाता है।
सामर्थ्य आते ही व्यक्ति के अन्दर सम्मान का भाव भी जागृत हो जाता है। सम्मान पाने वाले नहीं देने वाले बनो। बल का उपयोग स्वयं सम्मान प्राप्त करने के लिए नहीं, दूसरों के सम्मान की रक्षा के लिए करो। भगवान श्री कृष्ण बलवान होने के साथ-साथ पूरे जीवन शीलवान बने रहे।
भला वह सामर्थ्य भी किस काम का ? जो व्यक्ति की नम्रता का हरण व अहंकार को पुष्ट करता हो। अत: झुक के जीना सीखो ताकि दूसरों के आशीर्वाद भरे हाथ सहजता से आपके सिर तक पहुँच सकें। बिना झुके विवाद मिल जाएगा, आशीर्वाद नहीं।
( 2) दिल उसी से लगाओ , जिसने ये दिल बनाया है ! जिसने हमारे दिल को धड़कन दी हैं!यह शरीर परमात्मा की कृपा से परमात्मा को पाने के लिये ही मिला है। परमात्मा के सिवाय सब कुछ नश्वर है, छूटने वाला है! परमात्मा के सिवाय कोई अपना है ही नहीं! सारे रिश्ते नाते , धन , जमीन आदि यहीं छुट जाएंगे , इनसे क्या स्नेह लगाना ! जैसे हमें अपने पिछले जन्म के रिश्ते नाते अब याद नही , ऐसे ही अगले जन्म में इनकी याद ना होगी !
इसी लिए कहा है कि –दिल उसी से लगाओ , जिसने ये दिल बनाया है!!
जय श्रीकृष्ण🌹🙏🏼🙏🏼🌹
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🥀 हमारे निजी जीवन में नैतिकता का महत्व!.. 🥀
लोगों के दिमाग को समाज में स्वीकार्य नैतिक और नैतिक मूल्यों के अनुसार वातानुकूलित किया जाता है। वे नैतिकता के महत्व को कमजोर नहीं कर सकते। एक बच्चे को उसके बचपन से ही यह सिखाया जाना चाहिए कि समाज में कैसा व्यवहार स्वीकार किया जाता है और क्या समाज के अनुरूप रहने के लिए सही नहीं है। इस प्रणाली को मूल रूप से स्थापित किया गया है ताकि लोगों को पता चले कि कैसे सही कार्य करना चाहिए और किस प्रकार समाज में शांति और सामंजस्य को बनाए रखना चाहिए।
*सही और गलत निर्णय लेना लोगों के लिए आसान हो जाता है अगर उसके बारे में इसे पहले ही परिभाषित किया जा चुका हो तो। कल्पना कीजिए कि अगर सही काम और गलत कार्य को परिभाषित नहीं किया गया तो हर कोई अपनी इच्छा के अनुसार सही और गलत के अपने संस्करणों के आधार पर कार्य करेगा। यह स्थिति को अराजक बना देगा और अपराध को जन्म देगा।*
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नैतिकता और आत्मा जागृति में धर्म जागृति में बहुत ही भेद रहता है अंतर होता है!…
नैतिकता तो नीति सदाचारो के नियमों पर खड़ी हुई रहती है और वह नीति सदाचार कायदा कानून या स्वयं की आत्मिक रक्षा का भय बरतते हुए पाली जाती है
और आत्म जागृति होकर जो जीवन में धार्मिक क्रांति घटित हुई रहती है वह स्वेच्छा से होती है स्वाधीनता से होती है!
और नैतिकता तो पराधीन होती है वह समाज के नियमों के अधीन होकर बर्तती है अगर तथाकथित नैतिक व्यक्ति को समाज के नियमों से पुरी तरहासे खुली छूट दी जाए तो उसकी सही परीक्षा तभी होगी तब उसमें कोई आत्मिक जागृति ना होने से धार्मिक क्रांति घटित नहीं हो सकती वह तथाकथित नैतिक व्यक्ति तो तब जो भी करेगा वह अधार्मिक ही कृत्य होगा
क्योंकि उसमें कोई आत्मजागृति फलित हुई नहीं रहती है उसे तो आत्मा का और आत्मा की जागृति का धर्म का और धर्म की क्रांति का कोई भी अनुभव नहीं रहता है वह तो अपने आप को एक मात्र शरीर ही मानकर चलता है और जो अपने आप को शरीर ही मानकर चलता है और ऐसे तथाकथित नैतिक शरीरवादी पुरुष को अगर समाज के नियमों से पूरी तरह से छूट दी जाए तो वह इंद्रियों के जरिए विषयभोग के सुख भोगने के लिए आतुर होकर अंततः कुछ भी कर सकता है!
आज तक दुनिया में जितने भी देश है उतने सभी देशों के समाजों ने जो नैतिकता के आधार पर सामाजिक कायदा कानून और नियमों से शुरू व्यवस्थापन करने की कोशिश की है उससे कभी ना समाज की क्रांति घटित हुई है ना हो सकती है वह सामाजिक नीति नियम तो एक मात्र उन उन देशों के नागरिक समाज के लोग एक मात्रा भाई से ही पालन कर रहे हैं अपनी आत्मा सुरक्षा करने के लिए उन्नति सदा चारों को स्वीकार कर रहे हैं अगर उन्हें ही उन्नति सदा चारों के नियमों से पूरी तरह से छुटकारा दिया जाए तो फिर देखा जा सकता है कि उनमें किस तरह का आत्मिक बर्ताव होता है किस तरह का सामाजिक लगा होता है!
समाज में अगर क्रांति घटित करनी हूं धार्मिक क्रांति लानी हो तो सबसे पहले समाज के हर एक व्यक्ति को आत्मिक शिक्षा प्रदान करनी होंगी आत्मबोध जागृति की राह दिखानी होगी और फिर उस आत्मजागृति के उपरांत जो हर एक व्यक्ति में जो धर्म क्रांति घटित होंगी उस धार्मिक क्रांति से संगठित हुए लोगों का समाज ही एकमात्र विकसित समाज हो सकता है परिपूर्ण समाज हो सकता है! बाकी इस को छोड़कर तो सारा समाज कुत्ते बिल्लियों की तरह कुकर कुकर की तरह व्यर्थ ही जीवन जी रहा है ना उसमें कोई आत्मिक जागृति है और ना ही कोई धार्मिक क्रांति!
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साधक संजीवनी १८/३७
(स्वामी रामसुखदास जी महाराज)
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ।।
व्याख्या –
राजस और तामस सुखको अनेक योनियोंमें भोगते आये हैं और उसे इस जन्ममें भी भोगा है । उस भोगे हुए सुखकी स्मृति आनेसे राजस और तामस सुखमें स्वाभाविक ही मन लग जाता है । परन्तु सात्त्विक सुख उतना भोगा हुआ नहीं है इसलिये इसमें जल्दी मन नहीं लगता । इस कारण सात्त्विक सुख आरम्भमें विषकी तरह लगता है ।
वास्तवमें सात्त्विक सुख विषकी तरह नहीं है, प्रत्युत राजस और तामस सुखका त्याग विषकी तरह होता है । जैसे, बालकको खेलकूद छोड़कर पढ़ाईमें लगाया जाय तो उसको पढ़ाईमें कैदीकी तरह होकर अभ्यास करना पड़ता है । पढ़ाईमें मन नहीं लगता तथा इधर उच्छृङ्खलता, खेलकूद छूट जाता है, तो उसको पढ़ाई विषकी तरह मालूम देती है । परन्तु वही बालक पढ़ता रहे और एकदो परीक्षाओंमें पास हो जाय तो उसका पढ़ाईमें मन लग जाता है अर्थात् उसको पढ़ाई अच्छी लगने लग जाती है । तब उसकी पढ़ाईके अभ्याससे रुचि, प्रियता होने लगती है ।
वास्तवमें देखा जाय तो सात्त्विक सुख आरम्भमें विषकी तरह उन्हीं लोगोंके लिये होता है, जिनका राजस और तामस सुखमें राग है । परन्तु जिनको सांसारिक भोगोंसे स्वाभाविक वैराग्य है, जिनकी पारमार्थिक शास्त्राध्ययन, सत्सङ्ग, कथा-कीर्तन, साधन-भजन आदिमें स्वाभाविक रुचि है और जिनके ज्ञान, कर्म, बुद्धि और धृति सात्त्विक हैं, उन साधकोंको यह सात्त्विक सुख आरम्भसे ही अमृतकी तरह आनन्द देनेवाला होता है । उनको इसमें कष्ट, परिश्रम, कठिनता आदि मालूम ही नहीं देते ।
”मूर्ति-पूजा और नाम-जपकी महिमा” नामक पुस्तक के ”नाम-जपकी महिमा” नामक लेख से –
(परमश्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)
प्रश्न ‒ नाम-जपसे भाग्य (प्रारब्ध) पलट सकता है ?
उत्तर ‒ हाँ, भगवन्नामके जपसे, कीर्तनसे प्रारब्ध बदल जाता है, नया प्रारब्ध बन जाता है; जो वस्तु न मिलनेवाली हो वह मिल जाती है; जो असम्भव है, वह सम्भव हो जाता है ‒ ऐसा सन्तोंका, महापुरुषोंका अनुभव है । जिसने कर्मोंके फलका विधान किया है, उसको कोई पुकारे, उसका नाम ले तो नाम लेनेवालेका प्रारब्ध बदलनेमें आश्चर्य ही क्या है ? ये जो लोग भीख माँगते फिरते हैं, जिनको पेटभर खानेको भी नहीं मिलता, वे अगर सच्चे हृदयसे नाम-जपमें लग जायँ तो उनके पास रोटियोंका, कपड़ोंका ढेर लग जायगा; उनको किसी चीजकी कमी नहीं रहेगी । परन्तु नाम-जपको प्रारब्ध बदलनेमें, पापोंको काटनेमें नहीं लगाना चाहिये । जैसे अमूल्य रत्नके बदलेमें कोयला खरीदना बुद्धिमानी नहीं है, ऐसे ही अमूल्य भगवन्नामको तुच्छ कामोंमें लगाना बुद्धिमानी नहीं है ।
प्रश्न ‒ जब केवल नाम-जपसे ही सब पाप नष्ट हो जाते हैं तो फिर शास्त्रोंमें पापोंको दूर करनेके लिये तरहे-तरहके प्रायश्चित्त क्यों बताये गये हैं ?
उत्तर ‒ नाम-जपसे ज्ञात, अज्ञात आदि सभी पापोंका प्रायश्चित्त हो जाता है, सभी पाप नष्ट हो जाते हैं; परन्तु नामपर श्रद्धा-विश्वास न होनेसे शास्त्रोंमें तरह-तरहके प्रायश्चित्त बताये गये हैं । अगर नामपर श्रद्धा-विश्वास हो जाय तो दूसरे प्रायश्चित्त करनेकी जरूरत नहीं है । नाम-जप करनेवाले भक्तसे अगर कोई पाप भी हो जाय, कोई गलती हो जाय तो उसको दूर करनेके लिये दूसरा प्रायश्चित्त करनेकी जरूरत नहीं है । वह नाम-जपको ही तत्परतासे करता रहे तो सब ठीक हो जायगा ।
प्रश्न ‒ अगर कोई सकामभावसे नाम-जप करे तो क्या वह नाम-जप फल देकर नष्ट हो जायगा ?
उत्तर ‒ यद्यपि सांसारिक तुच्छ कामनाओंकी पूर्तिके लिये नामको खर्च करना बुद्धिमानी नहीं है, तथापि अगर सकामभावसे भी नाम-जप किया जाय तो भी नामका माहात्म्य नष्ट नहीं होता । नाम-जप करनेवालेको पारमार्थिक लाभ होगा ही; क्योंकि नामका भगवान्के साथ साक्षात् सम्बन्ध है । हाँ, नामको सांसारिक कामनापूर्तिमें लगाकर उसने नामका जो तिरस्कार किया है, उससे उसको पारमार्थिक लाभ कम होगा । अगर वह तत्परतासे नाममें लगा रहेगा, नामके परायण रहेगा तो नामकी कृपासे उसका सकामभाव मिट जायगा । जैसे, ध्रुवजीने सकामभावसे, राज्यकी इच्छासे ही नाम-जप किया था । परन्तु जब उनको भगवान्के दर्शन हुए तब राज्य एवं पद मिलनेपर भी वे प्रसन्न नहीं हुए, प्रत्युत उनको अपने सकामभावका दुःख हुआ अर्थात् उनका सकामभाव मिट गया ।
जो सकामभावसे नाम-जप किया करते हैं, उनको भी नाम-महाराजकी कृपासे अन्तसमयमें नाम याद आ सकता है और उनका कल्याण हो सकता है !
सब विद्वज्जनों , अग्रजों–अनुजों को यथायोग्य नतशीश नमन💐
दोस्तो ,
बहुत से लोग ईश्वर से प्रार्थना करतेे हैं , कि हे ईश्वर ! मेरे जीवन में कभी दुख ना आए ।
आप उनकी प्रार्थना पर विचार करें। भला यह कैसे हो सकता है , कि काम करें दुख भोगने वाले, और यह चाहें, कि दुख ना आए ।
जो लोग दुख से बचना चाहते हैं उनके लिए उपाय यह है कि “वे संसार में जन्म लेना बंद करें ।” यदि आप संसार में जन्म ले लेंगे, तो कोई शक्ति आपको दुखों से बचा नहीं सकती। हां यदि आप बुद्धि का प्रयोग करें , ईश्वर आज्ञा का पालन करें , वेदों के निर्देशानुसार अपना जीवन बनाएं और चलाएं, तो यह हो सकता है कि आपके जीवन में दुख कम आएं। लेकिन यह नहीं हो सकता कि दुख आएं ही नहीं ।
क्योंकि यह संसार दुखों का घर है। यहां सुख भी हैं । हम सुख का निषेध नहीं करते । परंतु ध्यान देने की बात यह है कि, दुख भी कम नहीं हैं।
और जब तक जीवन है, तब तक दुख आएंगे। उन दुखों को सहना पड़ेगा , चाहे खुश होकर सहन करें, चाहे दुखी होकर ।
खुश होकर सहन करेंगे, तो जीवन आसान लगेगा। यदि दुखी होकर सहन करेंगे, तो जीवन बहुत भारी/कठिन लगेगा। इसलिए दुखों को खुश होकर सहन करें । अपनी सहनशक्ति बढ़ाएं । उसका उपाय है , कि जब दुख आए , तो उससे बचने के लिए पहले पूरी शक्ति लगाएं । फिर भी यदि न बच पाएँ, तब अपने मन को शांत रखने के लिए अपने मन में यह सोचें – “कोई बात नहीं. ईश्वर न्याय करेगा।”
|(‘}, |(/\_
सत्य की प्राप्ति-तपस्वी ही कर सकता है। शारीरिक और मानसिक प्रलोभनों से बचने में जिस तितीक्षा और कष्ट सहिष्णुता की-धैर्य और संयम की आवश्यकता पड़ती है , उसे जुटा लेने का नाम ही तप है। अकारण शरीर के सताने का नाम ही तप नहीं है। सताना तो किसी का भी बुरा है फिर शरीर को व्यथित और संतप्त करने से ही क्या हित साधन हो सकता है । तपस्या वह है जो सत्यमय जीवन लक्ष्य निर्धारित करने के कारण सीमित उपार्जन से निर्वाह करने की स्थिति में- निश्चिन्त निर्द्वन्द मितव्ययिता अपनानी पड़ती है । इसे प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार और शिरोधार्य करने का नाम तप साधना ही है।
जय श्री कृष्ण🙏🙏
: दिल उसी से लगाओ , जिसने ये दिल बनाया है ! जिसने हमारे दिल को धड़कन दी हैं!यह शरीर परमात्मा की कृपा से परमात्मा को पाने के लिये ही मिला है। परमात्मा के सिवाय सब कुछ नश्वर है, छूटने वाला है! परमात्मा के सिवाय कोई अपना है ही नहीं! सारे रिश्ते नाते , धन , जमीन आदि यहीं छुट जाएंगे , इनसे क्या स्नेह लगाना ! जैसे हमें अपने पिछले जन्म के रिश्ते नाते अब याद नही , ऐसे ही अगले जन्म में इनकी याद ना होगी !
इसी लिए कहा है कि –दिल उसी से लगाओ , जिसने ये दिल बनाया है!!
Զเधॆ Զเधॆ🙏🙏
: निर्झर मंगल कामनाओ सहित आप सभी सुहृद्जनो को शुभ रात्रि !
“”सब कुछ आपके अंदर ही है….””
दोस्तो ,
एक आदमी बहुत बड़े संत-महात्मा के पास गया और बोला, ‘हे मुनिवर! मैं राह भटक गया हूँ, कृपया मुझे बताएँ कि सच्चाई, ईमानदारी, पवित्रता कैसे मिलेगी ???
संत ने एक नज़र आदमी को देखा, फिर कहा, ‘अभी मेरा साधना करने का समय हो गया है। सामने उस तालाब में एक मछली है, उसी से तुम यह सवाल पूछो, वह तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे देगी।
वह आदमी तालाब के पास गया। वहाँ उसे वह मछली दिखाई दी, मछली आराम कर रही थी। जैसे ही मछली ने अपनी आँख खोली तो उस आदमी ने अपना सवाल पूछा।
मछली बोली, ‘”मैं तुम्हारे सवाल का जवाब अवश्य दूँगी किन्तु मैं सोकर उठी हूँ, इसलिए मुझे प्यास लगी है। कृपया पीने के लिए एक लौटा जल लेकर आओ”‘।
वह आदमी बोला, ‘कमाल है! तुम तो जल में ही रहती हो फिर भी प्यासी हो ???’
मछली ने कहा, ‘तुमने सही कहा। यही तुम्हारे सवाल का जवाब भी है। सच्चाई, ईमानदारी, पवित्रता तुम्हारे अंदर ही है। तुम उसे यहाँ-वहाँ खोजते फिरोगे तो वह सब नही मिलेगी, अतः स्वयं को पहचानो।
उस आदमी को अपने सवाल का जवाब मिल गया|
सुख-शांति, ईमानदारी, पवित्रता व सच्चाई इत्यादि की खोज में मानव कहाँ-कहाँ नही भटकता… क्या.. क्या जतन नही करता, फिर भी उसे निराशा ही हाथ लगती है। वह नही जानता, जिसकी खोज में वह भटक रहा है, वह तो उसके भीतर ही मौजूद है। उसकी स्थिति ‘पानी में रहकर मीन प्यासी’, “कस्तूरी कुंडल बसै मृग ढूंढे वन माहि” जैसी हो जाती है|
|(‘}, |(/\_ प्रश्न : यह कहा तो जाता है कि गृहस्थी भी परिवार में रह कर भी साधना कर सकता है, लेकिन क्या यह Practically सम्भव है?
उत्तर : ममता मन में होती है, परिवार बाहर होता है। तो देखो, अगर संसार में बाप-बेटे में, मियाँ-बीवी में लड़ाई हो जाए तो मन विरक्त हो जाता है न? और दोनों घर में रहते हैं और बोलचाल बंद हो जाती है।
तो अगर मन को हम भगवान में लगा दें तो परिवार रहा करे, हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। और अगर वृन्दावन में रह करके परिवार का चिन्तन करे बैठे बैठे तो चला गया संसार में मन। मन ही तो main है। बंधन और मोक्ष का कारण मन है, शरीर नहीं। तो मन को भगवान में लगाओगे तभी वैराग्य होगा।
यह जरूर है कि परिवार में रह करके खराब atmosphere मिलने के कारण साधना तेज नहीं होती और अलग रह करके साधना तेज होती है। लेकिन साधना होनी चाहिए मन की। अगर बच्चे के सामने रसगुल्ला रखा हो और उसको lecture दो कि – “मत खाओ, दाँत गिर जाएँगे” , वह नहीं सुनेगा, चिल्लाएगा, रोएगा। रसगुल्ला न हो और रसगुल्ला बच्चा माँगे तो उसको बहला दो, फुसला दो, और जगह mind को divert कर दो तो बात खत्म हो जाएगी।
तो उसी प्रकार माँ, बाप, बेटा, स्त्री, पति, धन, प्रतिष्ठा हो तो मन उसमें जल्दी जायेगा और उससे अलग हो करके साधना करो तो देर में जाएगा, कभी कभी जाएगा। फिर उसको भगवान में लगाते जाओ जब उधर जाए तो। यही साधना है, अभ्यास और वैराग्य।
जगद्गुरुश्रीकृपालुजीमहाराज।प्रश्न : हम मनुष्यों को इतना दुःख क्यों मिल रहा है?
उत्तर : अरे! पा रहे हो तो क्या भगवान दे रहे हैं? मनुष्य को दुःख नहीं मिल रहा है संसार में। दुःख तो बहुत कम है प्रारब्ध का, 1% भी नहीं है। यह अपनी मूर्खता से मनुष्य दुःखी हो रहा है। दुःख कहीं बाहर से नहीं आता है। एक व्यक्ति है; माँ से प्यार किया, बाप से प्यार किया, बेटे से प्यार किया, बीवी से प्यार किया। अब उसके दुःख में दुःखी हो रहा है। उसके मरने पर दुःखी होओ, क्यों प्यार किया?
वेद कहता है भगवान से प्यार करो। तुम्हारी गलती है, attachment करो फ़िर रोओ। यह तो तुमने दुःख बुलाया है, यह प्रारब्ध का थोड़ी है। प्रारब्ध का तो कभी कभी आता है। यह तो अपने ही क्रियमाण कर्म का है। अपने जो reaction हैं मन के, attachment का। किसी ने अधिक किया उसको अधिक दुःख, किसी ने कम किया उसको कम दुःख, किसी ने और कम किया उसको और कम दुःख। जैसे हमारी कोई निन्दा करता है तो अहंकार के कारण हमको दुःख होता है। यह तो तुमने बीमारी पाल ली अपने आप। तुम जानते हो कि हम अनन्त जन्म के पापात्मा हैं, अल्पज्ञ हैं, अज्ञानी हैं, सब तरह की गड़बड़ है। हाँ, मालूम है। तो क्यों feel करते हो? किसी ने कह दिया कामी हो, क्रोधी हो, लोभी हो, क्यों बुरा मानते हो? यह तुम्हारी गलती है न? तो दुःख तो तुमने बुलाया है। दुःख प्रारब्ध का ऐसा कुछ नहीं है, बहुत कम है। दाल में नमक के बराबर।
इसी मनुष्य जन्म में तो तुलसी, सूर, मीरा हुए हैं, दुःख नहीं पा रहे हैं। तुम लोग ऐसा क्यों नहीं करते? अब कोई आदमी अपने हाथ से मारने चले, पत्थर मार ले और कहे – ‘हमको दुःख मिल रहा है।’ कीचड़ में पैर डाल दिया और चिल्ला रहा है – ‘गंदा हो गया, पानी लाओ, तौलिया लाओ….।’ अरे तो क्यों डालते हो कीचड़ में पैर को?
हम को साहब ज्ञान नहीं था हम आत्मा हैं और हमारा लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति है।
तो क्यों नहीं ज्ञान प्राप्त किया? मनुष्य किसलिए बनाये गए हो तुम? प्राप्त करो ज्ञान, तदनुसार आचरण करो, अभ्यास करो, कोई दुःख नहीं होगा। अरे जहाँ attachment होता है उसी के वियोग में दुःख होता है। जब कहीं तुम संसार में सुख न मानो तो कहीं दुःख नहीं मिलेगा। सुख मानना – यह तुम्हारा काम (गलती) है।
छोटा सा बच्चा है अभी दो महीने, 4-6 महीने का। गाली दो तो कोई असर नहीं, हँस रहा है। पाखाना गंदा सब पड़ा हुआ है, उसी में अपना पैर उठा उठा के किलकारी मार रहा है।
हम दुःखी जो होते हैं वह अपने कारण होते हैं। संसार में न सुख है न दुःख।