“कुपात्रों को धन देना व्यर्थ है।” जिसका पेट भरा हुआ हो, उसे और भोजन कराया जाए, तो वह बीमार पड़ेगा और अपने साथ दाता को भी अधोगति के लिए घसीटेगा।। “भारतीय संस्कृति के अनुसार “दान” बहुत ही उत्तम धर्म-कार्य है। ” जो अपनी रोटी दूसरों को बाँटकर खाता है, उसको किसी बात की कमी नहीं रहती। “जो अपने पैसे को जोड़-जोड़कर जमीन में गाड़ते हैं, उन पाषाणहृदयों को क्या मालूम होगा कि “दान” देने में “कितना आत्मसंतोष” “कितनी मानसिक तृप्ति” मिलती है, “आत्मा प्रफुल्लित हो जाती है।”मृत्यु बड़ी बुरी लगती है, पर मौत से बुरी बात यह है।। कि “कोई व्यक्ति दूसरे को दुःखी देखे और उसकी किसी प्रकार भी सहायता करने में अपने आपको असमर्थ पाए।” नीति शास्त्र एक स्वर से कहते हैं कि “मनुष्य जीवन में “परोपकार” ही सार है।।” हमें जितना भी संभव हो, सदैव “परोपकार” में रत रहना चाहिए। यह “दान” अभिमान, दंभ, कीर्ति के लिए नहीं, “आत्मकल्याण” के लिए होना चाहिए।।”
[ हे प्रभु! आपके बिना जो अन्य वस्तुओं से स्वयं को बहलाता है या दूसरों पर भरोसा रखता है, वह एक दिन धोखा खायेगा और पछतायेगा।। हे सर्वव्यापक अन्तर्यामी समर्थ प्रभु! आप ही यत्र-तत्र मेरे सहायक हैं। चाहे सैकड़ों सम्बन्धी हों, कष्ट के समय वे मेरी सहायता नहीं कर सकते। आप जल-थल व नभ आदि प्रत्येक स्थान में व्यापक हैं।। और मेरी सहायता कर सकते हैं और कर रहे हैं। कठिन समय में खड़े चाहे सब हो जाएं परन्तु आपके सिवाय मेरी सहायता कोई भी नहीं कर सकता क्योंकि उनकी इतनी पहुँच नहीं है। आप गुप्त और लम्बी भुजाओं वाले हैं, और आपका गुप्त हाथ सेवक की सहायता लोक-परलोक में करता है।। हे प्रभु! आप जो कभी-कभी मेरे पास कष्ट भेजते हैं वह भी आपके प्रेम का एक विचित्र मार्ग है। सुनार भी जिस सोने में से खोट निकालना चाहता है, वह उसे अग्नि में तपाता है।। संसार के झकोले तो अस्थिर हैं, उनमें सेवक को परेशान नहीं होना चाहिये क्योंकि वे आज हैं, तो कल नहीं हैं। धैर्य करके साहस से पग क्रमशः आगे बढ़ाकर और सेवक धर्म को निभाकर सतगुरु की प्रसन्न्ता प्राप्त करनी चाहिये।। हे प्रभु! मेरा मलिन मन बरजोरी मुझे विषयों की ओर आकर्षित करता है।। मैं स्वयं इससे बचने में असमर्थ हूँ। आपकी कृपा ही मुझे संसार की माया से बचा सकती है।।
[कुछ कर्म बदले जा सकते हैं,और कुछ नहीं जैसे हलवा बनाते समय चीनी या घी की मात्रा यदि कम हो, पानी अधिक या कम हो, उसे ठीक किया जा सकता है। पर हलवा पक जाने पर उसे फिर से सूजी में नहीं बदला जा सकता। मट्ठा यदि अधिक खट्टा हो, उसमें दूध या नमक मिलाकर पीने लायक बनाया जा सकता है। पर उसे वापस दूध में बदला नहीं जा सकता है।। इसु प्रकार प्रारब्ध कर्म बदले नहीं जा सकते। संचित कर्म को आध्यात्मिक अभ्यास द्वारा ही बदला जा सकता है। सत्संग सभी बुरे कर्मों के बीज को ख़त्म करता है जब हम किसी की प्रशंसा करते है, तो हम उसके अच्छे कर्म ले लेते है, और जब हम किसी की बुराई करते है, तो हम उसके बुरे कर्म के भी भागीदार बनते है। इसे जानें, और अपने अच्छे और बुरे, दोनों ही कर्मो को ईश्वर को समर्पित करके स्वयं मुक्त हो जाएँ।।
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सारी खोज छोड़ दीजिये। अभी और सिर्फ यहीं मौजूद रहिये।। आनंद यहीं है। आप भागे हुए हैं।। इसलिए जो यहीं है, उससे आप चूक रहे हैं। आनंद कोई वस्तु नहीं है।। जो आपको भविष्य में मिल जाएगी आनंद आपके हृदय की धड़कन में बसा है।। आनंद आपका स्वभाव है। उसे खोजने की कोई जरूरत ही नहीं है। खोजने की वजह से ही आप उससे चूकते हैं।। खोजें मत उसे अभी इसी क्षण में पकड़ें। उसे कल पर मत टालें।। आनंदित आदमी इसी क्षण में डूबता है। इस डूबने का नाम ध्यान है, समाधि है।।
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[: लक्ष्य जितना बड़ा होगा मार्ग भी उतना बड़ा होगा और बाधायें भी अधिक आएँगी। सामान्य आत्म विश्वास नहीं बहुत उच्च स्तर का आत्म विश्वास इसके लिए चाहिए। एक क्षण के लिए भी निराशा आयी वहीँ लक्ष्य मुश्किल और दूर होता चला जायेगा।
मनुष्य का सच्चा साथी और हर स्थिति में उसे संभालने वाला अगर कोई है तो वह आत्मविश्वास ही है। आत्मविश्वास हमारी बिखरी हुई समस्त चेतना और ऊर्जा को इकठ्ठा करके लक्ष्य की दिशा में लगाता है।
दूसरों के ऊपर ज्यादा निर्भर रहने से आत्मिक दुर्बलता तो आती है। साथ ही छोटी छोटी ऐसी बाधायें आती हैं जो पल में तुम्हें विचलित कर जाती हैं। स्वयं पर ही भरोसा रखें। दुनिया में ऐसा कुछ नहीं जो तुम्हारे संकल्प से बड़ा हो।
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