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🌸🙏आज का संदेश🙏🌸

इस संसार में जीवधारियों को तीन प्रकार से कष्ट होते हैं जिन्हें त्रिविध ताप कहा जाता है। ये हैं – आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक। सामान्यतः इन्हें दैहिक, भौतिक तथा दैविक ताप के नाम से भी जाना जाता है। इस शरीर को स्वतः अपने ही कारणों से जो कष्ट होता है उसे दैहिक ताप कहा जाता है। इसे आध्यात्मिक ताप भी कहते हैं क्योंकि इसमें आत्म या अपने को अविद्या, राग, द्वेष, मू्र्खता, बीमारी आदि से मन और शरीर को कष्ट होता है। जो कष्ट भौतिक जगत के बाह्य कारणों से होता है उसे आधिभौतिक या भौतिक ताप कहा जाता है। शत्रु आदि स्वयं से परे वस्तुओं या जीवों के कारण ऐसा कष्ट उपस्थित होता है। जो कष्ट दैवीय कारणों से उत्पन्न होता है उसे आधिदैविक या दैविक ताप कहा जाता है। अत्यधिक गर्मी, सूखा, भूकम्प, अतिवृष्टि आदि अनेक कारणों से होने वाले कष्ट को इस श्रेणी में रखा जाता है। कहा जाता है कि राम राज्य में किसी को भी तीनों प्रकार के कष्ट नहीं थे। तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में लिखादैहिक, दैविक, भौतिक तापा।
राम राज्य काहू नहीं व्यापार।।
अर्थात :- राम राज्य में किसी को दैहिक, दैविक व् भौतिक ताप नहीं व्यापते थे। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते और सभी नीतियुक्त स्वधर्म का पालन किया करते थे। वहां कोई शत्रु नहीं था। इसलिए जीतना शब्द केवल मन को जीतने के लिए प्रयोग में लाया जाता था। कोई अपराध नहीं करता था। इसलिए दण्ड किसी को नहीं दिया जाता था।

हमारा मानना है कि आज भी राम राज्य की इन विशेषताओं को जानने के पश्चात् आपके भीतर एक जिज्ञासा अवश्य उठी होगी। वह यह कि राम राज्य की इस भौतिक व् अध्यात्मिक समृद्धि के पीछे कारण क्या था। इसे समझने के लिए अपने बोद्धिक स्तर को बढ़ाना होगा। इस विषय पर यह जानना जरूरी है- जैसे एक हरे भरे वृक्ष का मूल उसकी स्वस्थ जड़ें होती हैं। उसी प्रकार एक राज्य का कर्णधार उसका राजा होता है. ‘यथा राजा तथा प्रजा’ –जैसा राजा होता है वैसी ही उसकी प्रजा हो जाती है। राजा को आत्मज्ञानी होना चाहिए, अन्यथा एक आत्मज्ञानी को राजा बना देना चाहिए। ऐसा इसलिए क्योंकि एक आत्मज्ञानी ही निस्वार्थ भावना से समस्त मानवता के कल्याणार्थ परमार्थ कर सकता है। उसकी दूरदर्शिता, उसका उज्जवल चरित्र एवं त्रुटिरहित संचालन ही राज्य को पूर्णरुपेण विकसित व व्यविस्थत कर सकता है। त्रेता के मर्यादित रामराज्य में यही तथ्य पूर्णत: चरितार्थ था। वर्तमान समय में भी यदि हम ऐसे ही अलौकिक राम राज्य की स्थापना करना चाहते हैं, तो हमें सर्वप्रथम राम राज्य के आधार – श्री राम व उनके दिव्य चरित्र को जानना होगा ऐसे ब्रह्मस्वरूप श्री राम को केवल ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही जाना जा सकता है. एक तत्वेत्ता गुरु जब हमें ब्रह्मज्ञान प्रदान करते हैं, तभी हमारे भीतर प्रभु का तत्वरूप ज्योति – स्वरूप प्रकट होता है और हम उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति कर पाते हैं। गुरु की शरण एवं सतसंग जीवन में इसीलिए आवश्यक है क्योंकि इन्हीं माध्यमों से इन रहस्यों को समझा जा सकता है।

प्रभु श्री राम को जानने के बाद ही हम उनके दिव्य चरित्र व उनकी लीलाओं में निहित आदर्श सूत्रों को भली भांति समझ और चरितार्थ कर सकते है।

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व्यक्ति किस लिए जीता है? आनंद की प्राप्ति के लिए। कैसे आनंद की प्राप्ति के लिए? जो तृप्ति दायक हो, इच्छाओं को शांत करने वाला हो, लंबे समय तक टिका रहे, ऐसे आनंद को चाहता है।
इस आनंद को वह संसार के भोग्य भौतिक पदार्थों में ढूंढता है। भौतिक वस्तुओं में भी आनंद है। परंतु वह क्षणिक है। जबकि व्यक्ति क्षणिक आनंद को नहीं चाहता, स्थिर आनंद को चाहता है।
दूसरी बात – उस आनंद को भोग कर अपनी इच्छाओं को शांत करना चाहता है, भड़काना नहीं चाहता। भौतिक वस्तुओं से जो आनंद मिलता है, न तो वह इच्छाओं को शांत करता है, और न ही उससे लंबे समय तक तृप्ति होती है।
तो प्रश्न हुआ , कि लंबे समय तक तृप्ति दायक आनंद कैसे मिलता है, जिससे इच्छाएं शांत हो जाएं? इसका उत्तर है, पुण्य कर्म करने से। सेवा परोपकार दान दया न्याय से उत्तम व्यवहार सच्चाई से ईमानदारी से जीवन जीना प्राणियों की रक्षा करना गरीब रोगी विकलांग आदि की सहायता करना। इन उत्तम कार्यों से व्यक्ति को जो आंतरिक आनंद होता है, वह तृप्ति दायक होता है और इच्छाओं को शांत करने वाला होता है। उसे आध्यात्मिक आनंद कहते हैं.
यदि आप ऐसा आनंद चाहते हैं, तो ऊपर बताए उत्तम कार्यों को करें। आज तो दीपावली का पर्व है, आज तो अवश्य ही करें. आपका पर्व मनाना भी सार्थक होगा, पुण्य मिलेगा तथा आनंद भी मिलेगा. आप सबको दीपावली पर्व की बहुत-बहुत शुभकामनाएं।
[आप पर ईश्वर की कृपा नहीं हो रही?

संतों की एक सभा चल रही थी. किसी ने एक दिन एक घड़े में गंगाजल भरकर वहां रखवा दिया ताकि संतजन जब प्यास लगे तो गंगाजल पी सकें.
संतों की उस सभा के बाहर एक व्यक्ति खड़ा था. उसने गंगाजल से भरे घड़े को देखा तो उसे तरह-तरह के विचार आने लगे.
वह सोचने लगा- अहा! यह घड़ा कितना भाग्यशाली है! एक तो इसमें किसी तालाब पोखर का नहीं बल्कि गंगाजल भरा गया और दूसरे यह अब सन्तों के काम आयेगा. संतों का स्पर्श मिलेगा, उनकी सेवा का अवसर मिलेगा. ऐसी किस्मत किसी किसी की ही होती है.
घड़े ने उसके मन के भाव पढ़ लिए और घड़ा बोल पड़ा- बंधु मैं तो मिट्टी के रूप में शून्य पड़ा था. किसी काम का नहीं था. कभी नहीं लगता था कि भगवान् ने हमारे साथ न्याय किया है.
फिर एक दिन एक कुम्हार आया.
उसने फावड़ा मार-मारकर हमको खोदा और गधे पर लादकर अपने घर ले गया. वहां ले जाकर हमको उसने रौंदा. फिर पानी डालकर गूंथा. चाकपर चढ़ाकर तेजी से घुमाया, फिर गला काटा. फिर थापी मार-मारकर बराबर किया.
बात यहीं नहीं रूकी. उसके बाद आंवे के आग में झोंक दिया जलने को

इतने कष्ट सहकर बाहर निकला तो गधे पर लादकर उसने मुझे बाजार में भेज दिया. वहां भी लोग ठोक-ठोककर देख रहे थे कि ठीक है कि नहीं?ठोकने-पीटने के बाद मेरी कीमत लगायी भी तो क्या- बस 20 से 30 रुपये!
मैं तो पल-पल यही सोचता रहा कि हे ईश्वर सारे अन्याय मेरे ही साथ करना था.
रोज एक नया कष्ट एक नई पीड़ा देते हो. मेरे साथ बस अन्याय ही अन्याय होना लिखा है! भगवान ने कृपा करने की भी योजना बनाई है यह बात थोड़े ही मालूम पड़ती थी!
किसी सज्जन ने मुझे खरीद लिया और जब मुझमें गंगाजल भरकर सन्तों की सभा में भेज दिया. तब मुझे आभास हुआ कि कुम्हार का वह फावड़ा चलाना भी भगवान् की कृपा थी.
उसका वह गूंथना भी भगवान् की कृपा थी.

आग में जलाना भी भगवान् की कृपा थी और बाजार में लोगों के द्वारा ठोके जाना भी भगवान् की कृपा ही थी. अब मालूम पड़ा कि सब भगवान् की कृपा ही कृपा थी!
परिस्थितियां हमें तोड़ देती हैं. विचलित कर देती हैं- इतनी विचलित की भगवान के अस्तित्व पर भी प्रश्न उठाने लगते हैं क्यों हम सबमें शक्ति नहीं होती ईश्वर की लीला समझने की, भविष्य में क्या होने वाला है उसे देखने की.
इसी नादानी में हम ईश्वर द्वारा कृपा करने से पूर्व की जा रही तैयारी को समझ नहीं पाते. बस कोसना शुरू कर देते हैं कि सारे पूजा-पाठ, सारे जतन कर रहे हैं फिर भी ईश्वर हैं कि प्रसन्न होने और अपनी कृपा बरसाने का नाम ही नहीं ले रहे.
पर हृदय से और शांत मन से सोचने का प्रयास कीजिए, क्या सचमुच ऐसा है या फिर हम ईश्वर के विधान को समझ ही नहीं पा रहे?
आप अपनी गाड़ी किसी ऐसे व्यक्ति को चलाने को नहीं देते जिसे अच्छे से ड्राइविंग न आती हो तो फिर ईश्वर अपनी कृपा उस व्यक्ति को कैसे सौंप सकते हैं जो अभी मन से पूरा पक्का न हुआ हो. कोई साधारण प्रसाद थोड़े ही है ये, मन से संतत्व का भाव लाना होगा.
ईश्वर द्वारा ली जा रही परीक्षा की घड़ी में भी हम सत्य और न्याय के पथ से विचलित नहीं होते तो ईश्वर की अनुकंपा होती जरूर है. किसी के साथ देर तो किसी के साथ सबेर.
यह सब पूर्वजन्मों के कर्मों से भी तय होता है कि ईश्वर की कृपादृष्टि में समय कितना लगना है. घड़े की तरह परीक्षा की अवधि में जो सत्यपथ पर टिका रहता है वह अपना जीवन सफल कर लेता है.
तो क्या करना चाहिए? धैर्य कैसे रखना चाहिए? इंसान है तो उसका टूटना स्वाभाविक है पर नहीं टूटे इसके लिए क्या करें?

संतोष का मार्ग ही विकल्प है. जो प्राप्त है वह भी पर्याप्त है जब यह सोचना शुरू कर देंगे तो आत्मिक आनंद मिलने लगा.
संसार का सबसे बड़ा सुखी वह है जो मन के मौज में रहता है. आप यह क्यों नहीं सोचते कि ईश्वर ने आपको जितना दिया है संसार में अनगिनत लोग हैं उन्हें तो उतना भी नहीं मिला है. बस उसे क्यों देखते हो जिसे आपसे ज्यादा प्राप्त है.
जो प्राप्त है उसमें भी जो मस्ती की धुन में रमा रहता है वही सच्चा सुखी है. निन्यान्वे के फेर में पड़ने से खुशिया रफूचक्कर हो जाती हैं.
आपने नीम करौली बाबा के बारे में सुना होगा.
दुनिया के बड़े-बड़े उद्योगपति जिनसे एक मुलाकात के लिए लोग वर्षों तक प्रतीक्षा करते हैं, जाने क्या-क्या तिकड़म लगाते हैं. एक इशारे पर वे धनिक सबकुछ बाबा के चरणों में समर्पित करने को आतुर थे वे बाबा बस एक जोड़ी कपड़े में रहते थे, एक ही कंबल था, एक खाट और दो-एक बर्तन.
सोचना जरा आप धन से ही सारे सुख होते तो वे लोग बाबा के चरणों में क्यों लोट रहे होते. त्याग और संतोष का भाव ही इंसान को देवत्व की ओर ले जाता है. ये मिल जाए, वो मिल जाए का भाव आसुरी प्रवृतियों को जन्म देता है. इस आपाधापी में ही पापकर्म होते हैं.
असल में आप ईश्वर की कृपा पर विश्वास करेंगे, तो आप जहाँ भी देखेंगे वहाँ ही आपको “कृपा” मालूम पड़ेगी! बस, कृपा-ही-कृपा,कृपा-ही-कृपा! प्रभु की मूर्ति कृपामयी है. प्रभु के पास कृपा के सिवाय और कोई पूंजी है ही नहीं. केवल कृपा है!! कृपा है!! कृपा है!!
आशा है आपको यह कथा प्रेरक और उपयोगी लगी होगी.

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