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🕉️🚩अहंकार: विनाश का कारण

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अहंकार एक ऐसी संग्रहवृत्ति है जो विषधर के समान है। जो मनुष्य अहंकारी होता है वह संसार में अपने आप को अत्यंत महत्वपूर्ण समझता है। ऐसा प्राणी यदि थोड़ी सी भी सफलता प्राप्त कर लेता है तो स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझने लगता है।

🚩♦️ वही धन-सम्पत्ति, सौन्दर्य शारीरिक शक्ति, जाति, वंश, बुद्धि, कला, पद-प्रतिष्ठा तपस्या, सिद्धि तथा उपलब्धियों के आधार पर अपने आप को दूसरे लोगों की तुलना में अधिक श्रेष्ठ समझता है। ऐसा व्यक्ति सदा यही इच्छा करता है कि लोग उसकी प्रशंसा करें तथा उसे अधिक सम्मान दें। वह दूसरे लोगों पर अपना आधिपत्य जमाना चाहता है तथा उन्हें अपनी इच्छानुसार चलाना चाहता है। वह अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करता। यदि कोई दूसरा व्यक्ति उसका विरोध करता है तो वह उससे प्रतिशोध लेने पर उतर आता है।

🚩♦️अहंकार मनुष्य को पतन के मार्ग पर ले जाता है अत: मनुष्य की जो भी विशेषतायें प्राप्त हों उनके आधार पर उसे स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के बजाय उसका सदुपयोग स्वयं अपने विकास में तथा दूसरे लोगों के कल्याण के लिए करना चाहिये। ऐसे व्यक्ति को सदैव यह याद रखना चाहिये कि परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी तो श्रेष्ठ नहीं है और न ही स्थायी है। जिन विशेषताओं तथा उपलब्धियों पर आज वह गर्व कर रहा है उन्हें नष्ट होने में क्षणमात्र भी नहीं लगेगा। ऐसा विचार मन में लाकर उसे विनम्र एवं शालीन बने रहना चाहिये।

♦️🚩 अपनी समस्त उपलब्धियों तथा सफलताओं को परमेश्वर की कृपा मानते हुए प्रभु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहिये। अहंकार जहां मनुष्य के पतन तथा विनाश का कारण है वहीं निरंहकारिता उसके सुख-संतोष, प्रगति, उन्नति तथा प्रसन्नता का मार्ग प्रशस्त करती है।

♦️🚩अहंकार को समाप्त करने में प्रत्येक मनुष्य स्वाधीन तथा समर्थ है क्योंकि वे सारी वस्तुयें उसकी चेतना में मौजूद हैं जिनके उत्कर्ष से स्वार्थीपन, एकाधिकर की भावना नष्ट हो जाती है। पराधीनता तथा असमर्थता उसी के लिए हैं, जो इन शक्तियों, सामथ्र्यों तथा योग्यताओं को अप्राप्त समझता हो, उन पर विश्वास न करता हो। जीवात्मा तत्व ज्ञान को समझे और पदार्थों से विमुख होने का प्रयास करे तो अहंकार अपने आप मिटने लगता है। पवित्र एवं निर्मल आत्मा में भी दैवी प्रकाश साफ झलकता है। वहां लोग, मोह, मद के मनोविकार उदित नहीं होते जिसके फलस्वरूप अहम् वासना का अंत स्वत: ही हो जाता है।
अहंकार तभी तक जीवित है, जब तक सांसारिक वस्तुओं से आसक्ति है। ऐसा लगाव समाप्त होते ही अहंकर मिट जाता है।

♦️🚩परमेश्वर अपनी शक्तियां दूसरों के हित में दान करता है अत: उसी प्रकार जीवन को भी सेवा का पालन वैसे ही करना चाहिये। वहीं मनुष्य दूसरों की सेवा कर सकता है, जो किसी का अनादर न करें, किसी को कष्ट न पहुंचाये, किसी के प्रति बुरे विचार मन में न लायें। लोकोपकार ही उसके लिए इस संसार में शेष रह जाता है और उसी को परमेश्वर की सच्ची प्ररेणा प्राप्त होती है। इसके लिए संसार में उसे देना ही अधिक पड़ता है तथा अपनी सभी वस्तुयें दूसरों के हितार्थ न्यौछावर करनी पड़ती हैं तभी उसके अहंकार को सर्वस्व दान में ही असीम सुख का बोध होता है। इन नश्वर संसार में मानव को किसी के भी अधिकार छीनने का अधिकार नहीं।

🚩♦️ऐसा मनुष्य जो केवल अपना ही हित चाहते हैं और समाज में दूसरों के हितों की रक्षा नहीं करना चाहते, उनकी आवश्यकता यहां न तो किसी व्यक्ति को होती है और न समाज को, किन्तु जब से अपने सारे अधिकार समाज को सेवा के लिए सौंपकर अपने लिए केवल कर्तव्य, क्षमा और संतोष मांग लेते हैं तो उनका जीवन स्वाधीनता तथा प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है।

🚩♦️ इस प्रकार मनुष्य की व्यक्तिगत शांति तथा सुन्दर समाज के निर्माण की दृष्टि से अहंकार का नाश आवश्यक है।मनुष्य का अहम् तथा आत्मा का यथार्थ प्रकाश बनता हैं, जब आत्मा उत्सर्ग कर देती है।

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