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अभिमान का विश्लेषण

प्रत्येक व्यक्ति की धारणा और मान्ता रहती है कि वह संसार का सर्वश्रेष्ठ, सबसे अधिक महत्वपूर्ण और सबसे बड़ा व्यक्ति है। कोई अपनी इस मान्यता को व्यक्त करे, या न करे पर आचार में व्यवहार में उसका जो अहं झलकता है उससे क्षण क्षण में चही भाव टपकता है। विचार किया जाना चाहिए कि व्यक्ति जैसा जो कुछ है, उस रुप में उसकी हस्ती क्या है ? पुराणों में कथा आती है कि चक्रवर्ती सम्राट भरत ने जब समस्त भूमण्डल को जीत लिया और वे इन्द्र के पास पहुँचे तो उन्होंने दावा किया कि, मैं ही संभवतः एक ऐसा व्यक्ति हूँ जिसने पूरे भूमण्डल को जय कर लिया है। मुझे अपनी कीर्ति को अक्षय और अमर बनाना चाहिए और इसके लिए मुझे वृषमाचल पर अपना नाम अंकित करना चाहिए। भरत की धारणा थी कि यहाँ उनका यह पहला नाम होगा।
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इन्द्र ने सम्राट भरत के कथन से सहमति व्यक्त की और कहा कि आप जाइये तथा वृषमाचल पर अपना नाम अंकित कर आइये। वहाँ हम ऐसे ही व्यक्ति को अपना नाम अंकित करने की छूट देते है जिसने पूरी पृथ्वी पर तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली हो। सम्राट भरत बड़े इठलाते हुए वृषमाचल की ओर बढे, पर यह क्या ? वहाँ पहुँच कर तो उनके पैर यकायक ठिठक गये, उन्होने ऊपर से नीचे ते पर्वत शिखर नाप डाला। जहाँ तक वे ज सकते थे ऊपर से नीचे तक शिखर की अन्य दिखाओं में भी गये। समस्या यह थी कि वह अपना नाम कहाँ लिखें ? शिखर परही नहीं पूरे पर्वत पर नाम ही नाम लिखे हुए थे। पूरे पर्वत पर इतने अधिक नाम लिखे थें कि कहीं कोई स्थान इतना खाली नहीं था, जहाँ कि एक नाम और लिखा जा सके। इन लिखे हुए नामों में से एक भी ऐसा नहीं था, जो चकक्रवर्ती का नाम न हो।
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भरत खिन्न हो गये। वे पर्वत शिखर से उतर कर इन्द्र के पास गये और कहा- शिखर पर तो कहीं कोई स्थान खाली नहीं है। पूरे पर्वत पर चक्रवर्ती सम्राटों के नाम अंकित है। मैं अपना नाम कहाँ लिखूँ ?
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इन्द्र ने कहा – ‘किसी का नाम मिटा दीजिये और स्थान पर अपना नाम लिख दीजिए। मुझे जहाँ तक ज्ञात है पिछले सहस्त्रों वर्षों से यही क्रम चलता आ रहा है। मेरे पिता भी बताते थे कि न मालूम कब से यह परम्परा चली आ रही है, उन्हें इस बारे में कुछ भी नहीं मालूम।”
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“तो फिर कभी मेरा नाम भी मिटा कर भविष्य में कोई चक्रवर्ती सम्राट वहाँ अपना नाम लिख जायेगा ?” सम्राट भरत ने पूछा।
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‘अवश्य ही इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। अतीत में अनादि काल से असंख्य चक्रवर्ती सम्राट हुए हैं और भविष्य मं भी अनन्त काल तक होते रहेंगे। किसी के सम्बन्ध में आश्वासन पूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि उनका नाम अनन्त काल तक इस पर्वत शिखर पर अंकित रहेगा।”
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तो फिर क्या लाभ ? सम्राट भरत का अहं विगलित होकर पानी-पानी हो गया। वे अनुभव करने लगे कितना विराट् और अनादि अनन्त काल से चला आ रहा है यह जगत ? इस विराट् और विषम जगत में अपना अस्तित्व अपना स्थान है ही कितना ? यह सोचना गलत होगा कि हम से पहले किसी ने वह काम न किया है जो मैंने कर लिया है। अति समथ शक्तिशली,, अजेय कुबेर के समान वैभव सम्पन्न और सूर्य के समान अपनी कीर्ति को चतुर्दिश बिखेरने वाले मानव न जाने कितने हुए है ? भविष्य में भी वे और होते रहेंगे, इस स्थिति में अपना महत्व है ही कितना ?
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यह सोचकर सम्राट भरत इन्द्रलोक से वापिस चले आये। उनका अभिमान जाता रहा था, अहं जल कर क्षार-क्षार हो गया था और उस ‘अहं’ का विसर्जन होते ही इतनी शान्ति अनुभव होने लगी, जितनी कि समस्त भूमण्डल पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त भी नहीं हुई थी। तब भी महत्वाकाँक्षाओं की अद्विग्नता अशान्त किए दे रही थी और जब अपने अहं का सत्य महत्व का भान खुलकर सामने आ गया तो लगा सब कुछ शान्त हो गया है।
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समस्त विग्रह, क्लेश, कलह, युद्ध केवल अहं का पोषण और महत्व का तोषण करने के लिए ही तो है। काल के प्रवाह को दृष्टिगत देखते हुए, उस परिप्रेक्ष्य में आत्मविश्लेषण किया जाये तो शान्ति इसी क्षण, अभी और यहीं उपलब्ध है।

      

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