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हमारी वैश्विक विरासत – धातु का आईना

केरल के दक्षिण में, लेकिन थोड़ा अंदर जाकर, मध्य में एक छोटा सा कस्बा हैं – अरणमुला. तिरुअनंतपुरम से ११६ किलोमीटर की दूरी पर बसा हुआ यह कस्बा राष्ट्रीय महामार्ग पर नही हैं, किन्तु अनेक कारणों से प्रसिध्द हैं. पंपा नदी के किनारे बसे हुए इस अरणमुला कस्बे को खास तौर पर पहचाना जाता हैं, वहां होने वाली नावों की प्रतियोगिता के लिए. ‘स्नेक बोट रेस’ नाम से जाने जानी वाली इस प्रतियोगिता को देखने के लिए देश – विदेश से पर्यटक आते हैं।

इसी अरणमुला में भगवान श्रीकृष्ण का एक भव्य – दिव्य मंदिर हैं. ‘अरणमुला पार्थसारथी मंदिर’ नाम से प्रसिध्द इस मंदिर के कारण यह स्थान ‘वैश्विक धरोहर’ (World Heritage) की सूची में आ गया हैं. ऐसा मानते हैं, की भगवान परशुराम ने श्री विष्णु जी के जो १०८ मंदिरों का निर्माण किया, उन्ही में से यह एक मंदिर हैं. केरल का पवित्र ‘शबरी मलई मंदिर’ भी यहां से पास ही हैं. दोनों का जिला एक ही हैं – पथनामथिट्टा. भगवान अयप्पा जी की जो भव्य शोभायात्रा शबरी मलई से निकलती हैं, उसका एक विश्रामस्थल होता हैं, यही अरणमुला पार्थसारथी मंदिर…!

अरणमुला एक और बात के लिए जाना जाता हैं, वह हैं, यहां की शाकाहारी थाली. ‘वाला सध्या’ नामक इस थाली में ४२ प्रकार के व्यंजन रहते हैं. और यह सब पूर्णतः वैज्ञानिक पध्दति से, आयुर्वेद को ध्यान में रखते हुए, आहारशास्त्रानुसार बनाएं और परोसे जाते हैं.

अरणमुला के आसपास के ऐसे संपन्न सांस्कृतिक और आध्यात्मिक माहौल के कारण वहां अपना स्थान निर्माण करने के लिए, ख्रिश्चन मिशनरियों के अनेक कार्यक्रम चलने लगे हैं. यहां चर्च की संख्या बढ़ती जा रही हैं. प्रतिवर्ष, ईसाइयों का एक भव्य ‘महामेला’ यहां लगता हैं.

लेकिन इन सबसे हटकर एक अलग ही चीज के लिए अरणमुला प्रसिध्द हैं। और वह हैं, ‘अरणमुला कन्नड़ी’…! मलयालम भाषा में आईने को ‘कन्नड़ी’ कहते हैं. अर्थात ‘अरणमुला का आईना’. इसकी विशेषता यह हैं की यह आईना कांच से नही, तो धातु से बनाया जाता हैं. पूरे विश्व में ‘आईना याने कांच का’ यह समीकरण हैं. किन्तु इस धातु के आईने की बात कुछ और ही हैं.

आमतौर पर कांच पर पारे (पारद) की एक परत लगाकर आईने बनाए जाते हैं. सिल्वर नाइट्रेट और सोडियम हायड्रोऑक्साइड के द्रवरूप मिश्रण में चुटकी भर शक्कर मिलाकर उसे गरम करते हैं, और इस मिश्रण की एक परत कांच के पीछे लगाई जाती हैं. इस तरह आईने बनाएं जाते हैं. इसमे भी विशिष्ट प्रकार के रसायनों का उपयोग कर के और विशिष्ट प्रकार की कांच का उपयोग करते हुए सामान्य से लेकर तो अति – उत्कृष्ट आईने बनाए जाते हैं.

अर्थात आईने बनाने की यह पध्दति या विधि विगत डेढ़ सौ – दो सौ वर्षों की हैं. पारे की (पारद की) परत लगाकर आईना बनाने की खोज जर्मनी में हुई. सन १८३५ के आसपास जर्मन वैज्ञानिक, रसायनशास्त्र में काम करने वाले, जुस्तुस लाईबिग ने सर्वप्रथम पारे की परत वाला आईना बनवाया.

परंतु, विश्व में आईने बनाने की कला प्राचीन हैं. सबसे पुराना, अर्थात ८,००० वर्ष पूर्व आईने का जिक्र आस्टोनिया याने आज के तुर्कस्तान में मिलता हैं. इसके बाद इजिप्त में आईने मिलने का जिक्र आता हैं. दक्षिण अमेरिका, चीन में भी कुछ हजार वर्ष पूर्व आईने का उपयोग होने के उल्लेख मिलते हैं.

ये आईने विविध प्रकार के होते थे. पत्थर के, धातु के, कांच के… आदि. किन्तु कांच के अलावा धातु या पत्थर से बनाए गए आईनों की गुणवत्ता अच्छी नहीं होती थी. तुर्कस्तान में जो आईने मिले हैं, वे ओब्सीडियन (ज्वालामुखी के लावा रस से बनाई गई कांच) के बने हुए थे. आईनों के संदर्भ में लिखे गए विविध प्रबंध या विकिपिडिया जैसे साइट्स पर भारत का नाम कही नहीं दिखता. इसका सबसे बड़ा कारण, भारत मे, भारत के बारे में लिखा गया साहित्य, आक्रांताओं द्वारा नष्ट किया जाना. श्रुति, स्मृति, वेद, पुराण, उपनिषद आदि कुछ ग्रंथ ‘वाचिक परंपरा’ के कारण टिके हुए हैं, और आज की पीढ़ी तक पहुच सके हैं. लेकिन हमारी ऐतिहासिक जानकारी, अधिकतम नष्ट हो गई हैं. ये सब मान कर भी, जब हम अजंता के चित्र मे, खजुराहो के शिल्पों में, हाथ में आईना लेकर शृंगार करती हुई स्त्री देखते हैं, तब हमे मानना ही पड़ता हैं, की भारत में आईने का उपयोग, हजारों वर्षों से सर्वमान्य था.

लगभग सौ वर्षों से बेल्जियम की कांच और बेल्जियम के आईने विश्व में प्रसिध्द हैं. लेकिन इन बेल्जियम के आईनों को मात देते हुए धातु के आईने अरणमुला में बनाएं जाते हैं. एकदम चिकने. पूरे पारदर्शी और साफ – सुस्पष्ट प्रतिमा दिखाने वाले आईने…!

यह आईने एक विशेष प्रकार के मिश्र धातु से बनाएं जाते हैं. लेकिन इसमे कौनसी धातु, किस अनुपात में मिलाई जाती हैं, यह आज भी ज्ञात नहीं हैं. धातु विशेषज्ञों ने इस मिश्र धातु का विस्तृत अध्ययन करने के बाद यह निर्णय दिया की तांबा और टीन के विशिष्ट मिश्रण से बनाएं गए धातु को अनेक दिन पॉलीश करने के बाद, बेल्जियम कांच के आईने जैसे आईने तैयार होते हैं. और यही आईने पहचाने जाते हैं, ‘अरणमुला कन्नड़ी’ के नाम से.

केरल के अरणमुला में बनाएं जाने वाले यह आईने, अपने आप में विशेषता पूर्ण आईने हैं. क्यूंकी पूरे विश्व में कही भी ऐसे आईने न तो मिलते हैं, और न ही बनाएं जाते हैं. धातु से इतने चिकने और सुस्पष्ट प्रतिमा दिखाने वाले आईने बनाने का तंत्र, आज के इक्कीसवी सदी में भी किसी वैज्ञानिक को प्राप्त नहीं हुआ हैं. विश्व में प्रचलित आईनों में प्रकाश का परावर्तन पार्श्वभाग से, अर्थात पीछे से होता हैं. किन्तु अरणमुला कन्नड़ी में यही परावर्तन सामने से होता हैं. इसीलिए दिखने वाली प्रतिमा, अधिक साफ और सुस्पष्ट होती हैं. लंदन के ब्रिटिश संग्रहालय (म्यूझियम) में एक, पैंतालीस इंच का विशालकाय ‘अरणमुला कन्नड़ी’ रखा हैं, जो पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं.

इन आईनों को बनाने की विधि और प्रक्रिया, केवल कुछ परिवारों को ही ज्ञात हैं. यह एक रहस्य के रूप में रखी गई प्रक्रिया हैं. इसी कारण, अन्य किसी को भी इसकी निर्माण विधि बताना संभव नहीं हैं. ऐसा माना जाता हैं की अरणमुला के भगवान श्रीक़ृष्ण के ‘पार्थसारथी मंदिर’ के पुनर्निर्माण के लिए, कुछ शताब्दियों पहले, वहां के राजा ने शिल्पकला में प्रवीण आठ परिवारों को बुलाया था. इनके पास इन धातुओं के आईने की तकनीक थी. अब मूलतः मंदिरों का निर्माण कार्य करने वाले, शिल्पकला में सिध्हहस्त ऐसे इन परिवारों के पास यह तकनीक कहां से आई, इस विषय में कुछ भी जानकारी नहीं मिलती. ये निश्चित हैं, की ये आठ परिवार तमिलनाडु से अरणमुला आए थे. इनके पास धातु से आईने बनाने की तकनीक सैकड़ों वर्षों से थी. किन्तु उसके व्यापारिक उपयोग के बारे में उन्होने कभी नहीं सोचा था.

अरणमुला पार्थसारथी मंदिर के पुनर्निर्माण के बाद, ‘इन परिवारों को क्या काम दिया जा सकता हैं’, ऐसा राजा सोच रहा था. इसी समय इन परिवारों ने राजा को धातु का राजमुकुट बना कर दिया. यह मुकुट बिलकुल शीशे जैसे था. राजा को मुकुट पसंद आया और उनकी इस विशेष कला को देखते हुए राजा ने उनको जगह दी, काम के लिए पूंजी दी और उन्हे धातु के आईने बनाने के लिए प्रोत्साहित किया. इन आईनों को रानियों के शृंगार में स्थान दिया. उस समय से इन परिवारों में ‘धातु के आईने बनाना’, यही पेशा बन गया.

अनेक पौराणिक कथा / लोककथाओं में धातु के आईने का उल्लेख आता हैं. कहा जाता हैं, की यह आईना सर्वप्रथम पार्वती ने शृंगार करते समय उपयोग में लाया था. मजे की बात यह की वैष्णवों के पार्थसारथी मंदिर में पार्वती की यह लोककथा भक्तिभाव से सुनाई जाती हैं.

आज यह आईने वैश्विक विरासत हैं. यह केवल हाथों से ही बनाए जाते हैं. एक दर्जन आईने बनाने में लगभग दो हफ्तों का समय लग जाता हैं. कोई भी दो आईने एक जैसे नहीं होते. विदेशी पर्यटकों में इन आईनों के प्रति जबरदस्त आकर्षण हैं. चूंकि यह हाथ से बनाएं जाते हैं और इसलिए कम संख्या में उपलब्ध रहते हैं, इसीलिए इनका मूल्य अधिक होता हैं. सबसे छोटे एक – डेढ़ इंच के आईने का मूल्य १,२०० रुपये के लगभग होता हैं. दस – बारह इंच के आईने, बीस से पच्चीस हजार रुपये तक बेचे जाते हैं. अनेक कार्पोरेट घराने, इन आईनों को उपहार के रूप में देते हैं.

विश्व में एकमात्र और दुनिया भर के वैज्ञानिकों के सामने प्रश्न खड़ा करने वाली यह कला, केवल कुछ शतकों पूर्व, समाज के सामने आई. परंतु यह मात्र कुछ शतक पूर्व की नहीं, अपितु कुछ हजार वर्ष पूर्व की कला हैं, यह निश्चित. फिर भी, मूल प्रश्न रहता ही हैं, की हजारों वर्ष पूर्व की यह धातु विज्ञान की श्रेष्ठ कला, यह नजाकत, हमारे पास आई कहां से…?

दर्पण – आदर्श, मुकुर और Mirror

दर्पण से सब कोई परिचित है,,, उपनिषद के एक संदर्भ से विदित होता है कि मुंह ठहरे हुए पानी में देखकर समझ लिया जाता था, देखने वाले को दर्शक किस रूप में देखते हैं। मगर, दर्पण हजारों सालों से हमें अपना रूप दिखाने का काम कर रहा है। यह प्रसाधन का उपस्‍कारक है और हमें उस मुख को दिखाता है जिसे हम आंखे रखकर भी देख नहीं पाते। बस, मुख, ग्रीवा और आगा-पीछा दिखाने का काम करता है ये दर्पण। इसको आदर्श भी कहा गया, आजकल हम मीरर (Mirror) कहकर सुंदरतम हमारे अपने ही शब्‍दों को भूल रहे हैं जबकि हमारे यहां आरसी, शीशा, आईना जैसे शब्‍द भी कम नहीं हैं। कहावतों में भी आरसी, आईने का जिक्र बहुत है।

कल्‍पसूत्र से ज्ञात होता है कि कभी दीवारों, खम्‍भों पर मणिखचित मुकुर होते थे, ये भवन की शोभा तो थे ही, आते-जाते कभी भी उनमें खुद को देखने के काम भी आते। मगर, पार्वती की जो प्रतिमा शिव के साथ बनती है, उसमें एक हाथ में उमा दर्पण लिए होती है। मत्‍स्‍यपुराण का यह निर्देश विष्‍णुधर्मोत्‍तरपुराण, मयमतम्, शैवागमों, देवतामूर्तिप्रकरणम् आदि में ज्‍यों का त्‍यौं आया है। (देखिये तस्‍वीर में उमा अपने हाथ में दर्पण उठाए है) मगर, ये दर्पण होते कैसे थे, कांच हमारे यहां उत्‍खननों में मिले हैं, चूना पत्‍थर को बहुत आंच देकर तपाया जाए तो कांच बन जाता है,, ये विधि हमने बहुत पहले ही जान ली थी।

मगर, मुखदर्शन वाले दर्पण का वर्णन वैखानस ग्रंथ में आया है। करीब आठवीं सदी के इस ग्रंथ में कहा गया है कि दर्पण प्रतिमा के मान जैसा हो या उसका आधा हो, मगर शोभास्‍पद होना चाहिए। यह वृत्‍ताकार होता था, मजबूत और कांस्‍य में मण्डित, महारत्‍नाें से खचित-जटित। इसके पांवों और नाल सहित बनाया जाता ताकि पकड़ा सके। प्राय: मुख देखने के योग्‍य दर्पण को मुख के प्रमाण के अनुसार ही बनाया जाता था।

‘सिद्धान्‍त शेखर’ ग्रंथ में कहा गया है कि दर्पण के लिए शुद्ध कांसे का प्रयोग किया जाता और यह पूरे चंद्रमा की आकृति का बनाया जाता था। यह छत्‍तीस अंगुल नाह या परिधि वाला या उसके अाधे प्रमाण का बनाया जाता था। इसकी नाल आठ अंगुल रखी जाती और उसका पद चार अंगुल प्रमाण का रखा जाता था। इसको नाना पट्टिकाओं से युक्‍त बनाया जाता था। मंदिराें के सौंदर्य के लिए बनाई जाने वाली नायिका प्रतिमाओं में मुखदर्शन करती दर्पणा देवांगनाओं का भी न्‍यास किया जाता रहा है.. है न दर्पण दुर्लभ,, कभी झूठ न बोलने वाला, मगर ये भी तो सच है कि वह उलटा ही दिखाता है।

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