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मूर्तिपूजाकावैज्ञानिकविवेचन

श्रद्धाका यह स्वाभावहै कि अपने श्रद्धास्पद को अपनी सभी प्रिय वस्तुओं को समर्पण कराती है।जीवके प्रिय अनंत विषयोंका समावेश शब्द स्पर्श रूप रस और गंध ,इन पाँच विषयों में ही हो जाता है। क्योंकि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ही भोग की साधन हैं, अतः भोग के विषय भी पाँच ही हैं,६-७ नहीं। अतः श्रद्धावान् जीव अपने श्रद्धास्पद ईश्वरको धूप के रूप में गंधको, दीप के रूपमें रूप को , भोग {नैवेद्यके} के रूप में रसको, चन्दन माला के रूपमें स्पर्शको, घण्टा-नाद तथा प्रार्थना आदिके रूप में शब्द, विषयको समर्पित करता है। इसप्रकार सर्वस्व समर्पण का यह महाविज्ञान है।
शब्दान्तर में—-प्रेमका यह स्वाभाव होता हैकि प्रेमी द्वारा प्रेमास्पद को सबकुछ अर्पण कराना चाहता है। परन्तु संसार की अनन्त वस्तुओं का समर्पण कैसे हो?इस जटिल समस्या का समाधान करने में समर्थ सर्वज्ञ महर्षियों नें सुगम,सम्यक्, सात्विक तथा तात्विक साधन बताते हुए कहा कि समस्त बस्तुओं का निर्माण पञ्चभूतों से ही होताहै।उन महानतम पञ्चभूतोंका भी समर्पण सम्भव नहीं, अतः उन पञ्चभूतोंकी जो अतिशूक्ष्म, अणुतम सारभूत, सात्विक तथा तात्विक ,शब्द, स्पर्श, रूप रस गंध तन्मात्राएंहैं; इनके समर्पणसे ही सम्पूर्ण वस्तुओंका समर्पणहो जाताहै। इसके लिएही ऋषियोंने धूपके रूपमें गंध, दीपके रूपमें रूप, नैवेद्य के रूपमें रस , चन्दन माला आदिके रूपमें स्पर्श, तथा घण्टानाद आदिके रूपमें शब्द तन्मात्राके समर्पण का विधान किया है।

साधनकीदृष्टिसेभी–विचार किया जाये तो यह मानना ही पड़ेगा कि सम्यक् इन्द्रिय जय के विना सफल होना असम्भवहीहै।

      गीताजीके अनुसार सभी इन्द्रियोंके अपने विषयोंमें स्वाभाविक राग व्यवस्थितहैं। अतः उनकीओर स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। इससे बचनेका एक मात्र समुचित उपाय यहीहै कि इन्द्रयोंके सम्मुख निकृष्ट पतनकारक राजस तामस विषयोंकी जगह उत्कृष्ट उत्थानकारक सात्विक वस्तुओंको ही लाया जाय। इसी साधना विज्ञान के आधार पर घ्राण के संयम के लिए भगवानके सम्मुख धूप जलाकर सुगन्ध उत्पन्न किया जाता है। नेत्रेन्द्रियके संयमके लिए भगवान् के मुखारविन्द आदि कमनीय अङ्गों पर बार बार दीप घुमाकर मनोहर रूप दिखाया जाता है।रसनाके संयमके लिए नैवेद्य अर्पण किया जाता है। त्वगिन्द्रियके संयमके लिए चन्दन माला आदिको अर्पित करते हैं।श्रोत्र संयमके लिए घण्टानाद शङ्खनाद आदिको अर्पण किया जाता है, ताकि बहार के गन्दे गीतादि का बलात् कान में प्रवेश न हो सके। इसप्रकार पूजा करके भगवत्प्रसादके रूपमें चंदन लगाकर पुष्प माला पहन कर धूप सूंघ कर नैवेद्य पाकर तथा इन्द्री व अन्तःकरण की शुद्धि रूप प्रसन्नता पाकर दुखों से निवृत्ति होजाती है---

प्रसादेसर्वदुःखानां_हानिरस्योपजायते।।गीता २/६५।

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