मकर संक्रांति
ख़ुशी और समृद्धि का प्रतीक मकर संक्रांति त्यौहार सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने पर मनाया जाता है। भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों में यह त्यौहार अलग-अलग नाम और परम्परा के अनुसार मनाया जाता है।
मकर संक्रांति
मकर संक्रांति के रूप (Names of Makar Sankranti in Hindi)
उत्तर भारत में इसे मकर संक्रांति, पंजाब हरियाणा में लोहड़ी, असम में बिहू और दक्षिण भारत में पोंगल के नाम से जाना जाता है। इस दिन लोग खिचड़ी बनाकर भगवान सूर्यदेव को भोग लगाते हैं, जिस कारण इस पर्व को खिचड़ी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन सुबह- सुबह पवित्र नदी में स्नान कर तिल और गुड़ से बनी वस्तु को खाने की परंपरा है। इस पवित्र पर्व के अवसर पर पतंग उड़ाने का अलग ही महत्व है। बच्चे पतंगबाजी करके ख़ुशी और उल्लास के साथ इस त्यौहार का भरपूर लुत्फ़ उठाते हैं।
इस दिन सूर्य उत्तरायण हो जाते हैं और गीता के अनुसार जो व्यक्ति उत्तरायण में शरीर का त्याग करता है, वह श्री कृष्ण के परम धाम में निवास करता है। इस दिन लोग मंदिर और अपने घर पर विशेष पूजा का आयोजन करते हैं। भविष्य पुराण के अनुसार इस दिन प्रयाग और गंगासागर में स्नान का बड़ा महत्व बताया गया है, जिस कारण इस तिथि में स्नान एवं दान का करना बड़ा पुण्यदायी माना गया है।
हिन्दू धर्म के अनुसार सूर्य का मकर राशि में प्रवेश करना “मकर-संक्रांति” (Makar Sankranti) कहलाता है। मकर-संक्रांति के दिन सूर्य उत्तरायण हो जाते हैं। इस दिन व्रत और दान (विशेषकर तिल के दान का) का काफी महत्व होता है।
[: मकर संक्रान्ति खगोलीय आधार
मकर सक्रान्ति प्राकृ्तिक पर्व है. प्रकृ्ति के बिना हमारा जीवन एक पल भी नहीं चलेगा. मकर संक्रान्ति उसकी कृ्पा दृष्टि का धन्यवाद करने का एक पर्याय मात्र है. सूर्य जीवन, प्रकाश व उन्नति का कारक है. हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग है. सूर्य के आगमन से मनुष्य ही नहीं अपितु जीव-जन्तुओं की दिनचर्या भी आरम्भ होती है.
सूर्य का उत्तरायन में प्रवेश
सूर्य देव अपनी छ: माह की यात्रा को छोड कर इस दिन उत्तरायन में प्रवेश करते है. सूर्य के उत्तरायन में प्रवेश से देवताओं का दिन प्रारम्भ होने की मान्यता है. मकर सक्रान्ति से देवों की कृ्पा आरम्भ होती है. इससे पहले के छ: महिनों के देव विश्राम अवस्था में होते है. खगोळ विज्ञान के ज्ञाताओं ने यह तय किया है. कि प्रत्येक वर्ष 14 जनवरी के दिन ही मकर संक्रान्ति के दिन निर्धारित किया है. हमारी प्राचीन परम्पराओं में भी इसकी झलक देखने को मिलती है.
आईये इसे सरल रुप में समझने का प्रयास करते है.
खोगोल शास्त्र पर नजर डाले तो, विषुवत रेखा, पृ्थ्वी को उतरी ओर दक्षिणी गोलार्ध दो भागों में बांटती है. इससे पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्ध अर्थात मकर रेखा पर होता है. लेकिन इसके बाद वह उतरी गोलार्ध की ओर बढने लगता है. जिसे सूर्य का उतरायण में प्रवेश के नाम से जाना जाता है.
मकर संक्रान्ति- ज्योतिष आधार
मकर संक्रान्ति को तिल संक्रान्ति के नाम से भी जाना जाता है. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जब सूर्य अपने परम शत्रु शनि की राशि में प्रवेश करते है, तो सूर्य के अशुभ प्रभाव को दूर करने के लिये इस दिन शनि की वस्तुओं का दान किया जाता है. इन्हीं में से तिल भी शनि की मुख्य कारक वस्तु है
जिसे इस दिन दान कर, सूर्य की शुभता प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है. मकर संक्रांति पर सूर्य का राशि परिवर्तन, अंधकार से प्रकाश में प्रवेश का प्रतीक माना जाता है. यही कारण है कि इस दिन देश के विभिन्न प्रान्तों में अलग-अलग तरीके से सूर्यदेव की उपासना, आराधना व पूजन किया जाता है.
मकर संक्रान्ति – चिकित्सीय आधार
आज के दिन तिल, गुड के बने पदार्थो का दान, सेवन किया जाता है. आयुर्वेद के अनुसार व्यक्तियों को वात जन्य विकारों से बचाने के लिये ही मकर संक्रान्ति पर तिल सेवन किया जाता है. अगर मकर संक्रान्ति समय में गुड व तिल का सेवन नहीं किया जाता है. तो बसन्त ऋतु में कफ और वर्षा ऋतु में वात रोग शीघ्र अपने प्रभाव में ले सकता है. एक विशेष वर्ग जो किन्हीं कारण वश इन वस्तुओं को क्रय नहीं कर सकता है. उन व्यक्तियों को ये वस्तुएं दान में प्राप्त होती है, इससे वे भी इन वस्तुओं का सेवन कर पाते है.
मकर संक्रान्ति का आध्यात्मिक आधार अपने चित को विषय विकारों से हटाकर, नारायण में लगाने का संकल्प ही मकर संक्रान्ति को आध्यात्मिकता से जोडता है. इस संकल्प के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन को परमात्मा का ध्यान, परमात्मा का ज्ञान और परमात्मा की प्राप्ति को लेकर संकल्प सहित आगे बढता है. परम शान्ति व सुख की तलाश में व्यक्ति को एक के बाद एक अनेक जन्मों में भटकना पडता है. इस संकल्प को लेना का मकर संक्रान्ति ही सबसे शुभ दिन है.
[क्यों 12 संक्रांतियों में से मकर संक्रांति ही होती है सबसे विशेष ……..
हिंदू धर्म में मकर संक्रांति का बहुत महत्व है।
इस दिन सूर्य देव दक्षिणायन से उत्तरायण होते हैं। वर्षभर में 12 संक्रांतियां आती हैं लेकिन उन सभी में से सबसे ज्यादा महत्व मकर संक्रांति को दिया जाता है। मकर संक्रांति का पर्व पूरे देश में बड़ी धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि साल में आने वाली 12 संक्रांतियों में से मकर संक्रांति ही सबसे ज्यादा महत्व क्यों रखती है।
12 संक्रांतों में से मकर संक्रांति को सबसे ज्यादा महत्व इसलिए दिया जाता है क्योंकि इसे खेत-खलियानों, फसलों से जुड़े हुए त्योहार के रूप में भी मनाया जाता है। वास्तव में मकर संक्रांति के दौरान खेतों में फसलें तैयार हो चुकी होती हैं और इसी खुशी में सब मकर संक्रांति पर फसलों के तैयार होने की खुशियां मनाते हैं। संक्रांति के दिन ही हम हर उन चीज़ों का आभार प्रकट करते हैं जिसने खेती और फसल उगाने का काम किया हो।
खेती में कृषि से जुड़े पशुओं का बहुत महत्व और योगदान हो होता है। इनके बिना खेती करना और फसलें उगाना किसानों के लिए असंभव सा है इसलिए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए भी मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है।
मकर संक्रांति का त्यौहार का पहला दिन धरती का, दूसरा दिन मनुष्य का और तीसरा दिन मवेशियों का होता है। इस सूची में धरती को सबसे पहला स्थान दिया गया है क्योंकि धरती से ही हमारा अस्तित्व होता है। इस वजह से मकर संक्रांति को फसलों का त्योहार भी कहते हैं।
[ मकर सक्रांति रहस्य
हमारे पवित्र पुराणों के अनुसार मकर संक्रान्ति का पर्व ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, आद्यशक्ति और सूर्य की आराधना एवं उपासना का पावन व्रत है, जो तन-मन-आत्मा को शक्ति प्रदान करता है। सन्त-महर्षियों के अनुसार इसके प्रभाव से प्राणी की आत्मा शुद्ध होती है, संकल्प शक्ति बढ़ती है, ज्ञान तन्तु विकसित होते हैं, मकर संक्रान्ति इसी चेतना को विकसित करने वाला पर्व है। यह सम्पूर्ण भारत वर्ष में किसी न किसी रूप में आयोजित ही होता है।
पुराणों के अनुसार मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य अपने पुत्र शनि के घर एक महीने के लिए जाते हैं, क्योंकि मकर राशि का स्वामी शनि है। हालाँकि ज्योतिषीय दृष्टि से सूर्य और शनि का तालमेल सम्भव नहीं, लेकिन इस दिन सूर्य खुद अपने पुत्र के घर जाते हैं। इसलिए पुराणों में यह दिन पिता-पुत्र के सम्बन्धों में निकटता की शुरुआत के रूप में देखा जाता है।
इस दिन भगवान विष्णु ने असुरों का अन्त करके युद्ध समाप्ति की घोषणा की थी, उन्होंने सभी असुरों के सिरों को मन्दार पर्वत में दबा दिया था। इसलिए यह दिन बुराइयों और नकारात्मकता को खत्म करने का दिन भी माना जाता है।
एक अन्य पुराण के अनुसार गंगा को धरती पर लाने वाले महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए इस दिन तर्पण किया था। उनका तर्पण स्वीकार करने के बाद इस दिन गंगा समुद्र में जाकर मिल गई थी, इसलिए मकर संक्रान्ति पर गंगा सागर में मेला लगता है।
विष्णु धर्मसूत्र में कहा गया है कि पितरों की आत्मा की शान्ति के लिए एवं स्व स्वास्थ्यवर्द्धन तथा सर्वकल्याण के लिए तिल के छः प्रयोग पुण्यदायक एवं फलदायक होते हैं। (१) तिल जल से स्नान करना, (२) तिल दान करना, (३) तिल से बना भोजन करना, (४) जल में तिल अर्पण करना, (५) तिल से आहुति देना, (६) तिल का उबटन लगाना।
सूर्य के उत्तरायण होने के बाद से देवों की ब्रह्म मुहूर्त उपासना का पुण्यकाल प्रारम्भ हो जाता है, इस काल को ही परा-अपरा विद्या की प्राप्ति का काल कहा जाता है, इसे साधना का सिद्धिकाल भी कहा गया है। इस काल में देव प्रतिष्ठा, गृह निर्माण, यज्ञ कर्म आदि पुनीत कर्म किए जाते हैं, मकर संक्रान्ति के एक दिन पूर्व से ही व्रत उपवास में रहकर योग्य को दान देना चाहिए।
रामायण काल से भारतीय संस्कृति में दैनिक सूर्य पूजा का प्रचलन चला आ रहा है। राम कथा में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा नित्य सूर्य पूजा का उल्लेख मिलता है। रामचरित मानस में ही भगवान श्री राम द्वारा पतंग उड़ाए जाने का भी उल्लेख मिलता है। मकर संक्रान्ति का जिक्र वाल्मिकी रचित रामायण में भी मिलता है।
राजा भगीरथ सूर्यवंशी थे, जिन्होंने भगीरथ तप साधना के परिणाम स्वरूप पापनाशिनी गंगा को पृथ्वी पर लाकर अपने पूर्वजों को मोक्ष प्रदान करवाया था। राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों का गंगाजल, अक्षत, तिल से श्राद्ध तर्पण किया था, तब से माघ मकर संक्रान्ति स्नान और मकर संक्रान्ति श्राद्ध तर्पण की प्रथा आज तक प्रचलित है।
कपिल मुनि के आश्रम पर जिस दिन माँ गंगे का पदार्पण हुआ था, वह मकर संक्रान्ति का दिन था, पावन गंगा जल के स्पर्श मात्र से राजा भगीरथ के पूर्वजों को स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी। कपिल मुनि ने वरदान देते हुए कहा था — “मातु गंगे त्रिकाल तक जन-जन का पापहरण करेंगी और भक्तजनों की सात पीढ़ियों को मुक्ति एवं मोक्ष प्रदान करेंगी, गंगा जल का स्पर्श, पान, स्नान और दर्शन सभी पुण्यदायक फल प्रदान करेगा।”
महाभारत में पितामह भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण होने पर ही स्वेच्छा से शरीर का परित्याग किया था, उनका श्राद्ध संस्कार भी सूर्य की उत्तरायण गति में हुआ था। फलतः आज तक पितरों की प्रसन्नता के लिए तिल अर्घ्य एवं जल तर्पण की प्रथा मकर संक्रान्ति के अवसर पर प्रचलित है।
सूर्य की सातवीं किरण भारत वर्ष में आध्यात्मिक उन्नति की प्रेरणा देने वाली है, सातवीं किरण का प्रभाव भारत वर्ष में गंगा-जमुना के मध्य अधिक समय तक रहता है। इस भौगोलिक स्थिति के कारण ही हरिद्वार और प्रयाग में माघ मेला अर्थात मकर संक्रान्ति या पूर्ण कुम्भ तथा अर्द्धकुम्भ के विशेष उत्सव का आयोजन होता है।
: मकर संक्रांति का आध्यात्मिक रहस्य*
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मकर संक्रांति पर प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालुओं का मेला विभिन्न नदियों के घाटों पर लगता है। इस शुभ दिन तिल खिचड़ी का दान करते हैं। वास्तव में स्थूल परम्पराओं मे आध्यात्मिक रहस्य छुपे हुए हैं।
अभी कलियुग का अंतिम समय चल रहा है। सारी मानवता दुखी-अशांत हैं। हर कोई परिवर्तन के इंतजार मेँ हैं । सारी व्यवस्थाएं व मनुष्य की मनोदशा जीर्ण-शीर्ण हो चुकी हैं। ऐसे समय मेँ विश्व सृष्टिकर्ता परमात्मा शिव कलियुग, सतयुग के संधिकाल अर्थात संगमयुग पर ब्रह्मा के तन मेँ आ चुके हैं।
जिस प्रकार भक्ति मार्ग मेँ पुरुषोत्तम मास मेँ दान-पुण्य आदि का महत्व होता है, उसी प्रकार पुरुषोत्तम संगमयुग, जिसमें ज्ञान स्नान करके बुराइयों का दान करने से, पुण्य का खाता जमा करने वाली हर आत्मा उत्तम पुरुष बन सकती है। इस दिन खिचड़ी और तिल का दान करते हैं, इसका भाव यह है कि मनुष्य के संस्कारों मेँ आसुरियता की मिलावट हो चुकी है, अर्थात उसके संस्कार खिचड़ी हो चुके हैं, जिन्हें परिवर्तन करके अब दिव्य संस्कार धारण करने हैं । इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक मनुष्य को ईर्ष्या-द्वेष आदि संस्कारों को छोडकर संस्कारों का मिलन इस प्रकार करना है, जिस प्रकार खिचड़ी मिलकर एक हो जाती है। परमात्मा की अभी आज्ञा है कि तिल समान अपनी सूक्ष्म से सूक्ष्म बुराइयों को भी हमें तिलांजलि देना है। जैसे उस गंगा मेँ भाव-कुभाव से ज़ोर जबर्दस्ती से एक दो को नहलाकर खुश होते हैं और शुभ मानते हैं; इसी प्रकार अब हमें ज्ञान गंगा मेँ नहलाकर मुक्ति-जीवनमुक्ति का मार्ग दिखाना है। जैसे जब नयी फसल आती है तो सभी खुशियाँ मनाते हैं। इसी प्रकार वास्तविक और अविनाशी खुशी प्राप्त होती है, बुराइयों का त्याग करने से। फसल कटाई का समय देशी मास के हिसाब से पौष महीने के अंतिम दिन तथा अंग्रेजी महीने के 12,13, 14 जनवरी को आता है। इस समय एक सूर्य राशि से दूसरी राशि मेँ जाता है। इसलिए इसे संक्रमण काल कहा जाता है, अर्थात एक दशा से दूसरी दशा मेँ जाने का समय। यह संक्रमण काल उस महान संक्रमण काल का यादगार है जो कलियुग के अंत सतयुग के आरंभ मेँ घटता है। इस संक्रमण काल मेँ ज्ञान सूर्य परमात्मा भी राशि बदलते हैं। वे परमधाम छोड़ कर साकार वतन मेँ अवतरित होते हैं। संसार मेँ अनेक क्रांतियाँ हुई। हर क्रांति के पीछे उद्देश्य – परिवर्तन रहा है… हथियारों के बल पर जो क्रांतियाँ हुई उनसे आंशिक परिवर्तन तो हुआ, किन्तु सम्पूर्ण परिवर्तन को आज मनुष्य तरस रहा है। सतयुग मेँ खुशी का आधार अभी का संस्कार परिवर्तन है, इस क्रांति के बाद सृष्टि पर कोई क्रांति नहीं हुई। संक्रांति का त्योहार संगमयुग पर हुई उस महान क्रांति की यादगार मेँ मनाया जाता है।
1) स्नान – ब्रह्म मुहूर्त मेँ उठ स्नान, ज्ञान स्नान का यादगार है।
2) तिल खाना – तिल खाना, खिलाना, दान करने का भी रहस्य है। वास्तव में छोटी चीज़ की तुलना तिल से की गयी है। आत्मा भी अति सूक्ष्म है। अर्थात तिल आत्म स्वरूप में टिकने का यादगार है।
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3) पतंग उड़ाना – आत्मा हल्की हो तो उड़ने लगती है; देहभान वाला उड़ नहीं सकता है। जबकि आत्माभिमानी अपनी डोर भगवान को देकर तीनों लोकों की सैर कर सकता है।
4) तिल के लड्डू खाना – तिल को अलग खाओ तो कड़वा महसूस होता है। अर्थात अकेले मेँ भारीपन का अनुभव होता है। लड्डू एकता एवं मिठास का भी प्रतीक है।
5) तिल का दान – दान देने से भाग्य बनता है। अतः वर्तमान संगंयुग में हमें परमात्मा को अपनी छोटी कमज़ोरी का भी दान देना है।
6) आग जलाना – अग्नि मेँ डालने से चीज़ें पूरी तरह बदल जाती, सामूहिक आग – योगीजन संगठित होकर एक ही स्मृति से ईश्वर की स्मृति मे टिकते हैं, जिसके द्वारा न केवल उनके जन्म-जन्म के विकर्म भस्म होते हैं, बल्कि उनकी याद की किरणें समस्त विश्व में फाइल कर शांति, पवित्रता, आनंद, प्रेम, शक्ति की तरंगे फैलाती हैं।
यदि इस पर्व को निम्नलिखित विधि द्वारा मनाए तो न केवल हमें सच्चे सुख की प्राप्ति होगी बल्कि हम परमात्म दुआओं के भी अधिकारी बनेंगे.
आप सबको इस महान पर्व मकर सक्रांति की बहुत-बहुत शुभ कामनाएँ।