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बाकी कई और अजीब चीज़ों के साथ हम ये भी मानते हैं कि भारत की श्रुति परम्पराओं के लोप के कारण अच्छा ख़ासा नुकसान हुआ है | पहले दादी नानी की कहानियों में कई लोकोक्तियाँ, मुहावरे ऐसे ही बच्चों को याद हो जाते थे | अब नहीं होते | अगर पुराना छोड़ना ही था तो उसकी जगह कुछ नया ले आते ! लेकिन नहीं, कृषि और मौसम के लिए जो प्रयोगशालाएं बनी, वो भी ऊँची चारदीवारी में बरसों बंद रही हैं | कैसे कृषि विश्वविद्यालय हैं जिनके ऊँचे गेट इलाके का किसान ही नहीं पार कर सकता ?

याद रखना था की प्रकृति खाली जगह के बहुत खिलाफ होती है | अगर पुराना ज्ञान आपने याद नहीं रखा और नया विज्ञान भी नहीं सीखा तो दिमाग की वो खाली जगह किस्म किस्म की मूर्खताओं से भर जायेगी | ये बिलकुल वैसा ही है जैसे खाली पड़े, ध्यान नहीं दिए जा रहे खेत-फुलवारी में खड़-पतवार का उग आना | आप माने या ना माने, समय के साथ भारतीय समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा अजीब मूर्ख सा हो गया है |

आम नौकरीपेशा लोगों को इन मूर्खताओं का असर अभी महसूस नहीं हुआ | लेकिन किसान जो सीधा प्रकृति पर निर्भर है उसे अब इनका बुरा असर समझ में आने लगा होगा | उत्तर भारत में पानी का स्तर नीचे जा चुका है | हर पांच साल दस साल में बोरिंग को और नीचे ले जाना पड़ता है | पटना, मुजफ्फरपुर, बनारस, कानपुर, लखनऊ जैसे दर्ज़नों उत्तर प्रदेश और बिहार के शहर भी इसे महसूस कर रहे होंगे | किसानों के लिए बोरिंग हर साल का खर्च बनने लगा है | अपार्टमेंट में रहने वाले लोग भी अब इसे महसूस कर रहे होंगे |

अगर पुरानी घाघ की कवितायेँ किसी को याद होंगी तो उसे बिना किसी मौसम विभाग के पूर्वानुमान का इंतज़ार किये ही ये पता है कि इस साल भी मानसून देर से आने वाला है | बारिश इस साल सामान्य होगी, मगर देर से शुरू होगी |

याद रखना चाहिए कि ज्ञान का, जानकारी का प्रवाह कभी एकतरफा नहीं होता | अगर वैज्ञानिकों से किसान आज कुछ सीखना शुरू करेंगे तो किसानों के बरसों के अनुभव से वैज्ञानिकों की भी काफ़ी मदद हो जाती है | कई परंपरागत चीज़ें जो हम छोड़ चुके हैं उन्हें भी नए साल पर सीखना शुरू किया जा सकता है | अब दादा-दादी के पास बैठकर पानी बचाने के तरीके अगर नहीं सीख सकते तो परंपरागत तरीकों से जल संरक्षण पर सबसे ज्यादा जानकारी वाली किताबों में से कुछ अनुपम मिश्रा ने लिखी है |ऑनलाइन या डाउनलोड करके पढ़ सकते हैं |
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ताकि पानी पर पांव न लगे

पानी को देवता कब माना गया, पता नहीं लेकिन उसके प्रति सम्मान का भाव तब का कहना चाहिए जब से उसको जीने के लिए निहायत जरूरी माना गया। पानी के पात्र को कभी पाँव नहीं लगाया जाता। ठोकर लगा हुआ (ठोकराया) पानी न पिया और न ही पिलाया जाता। यह पाप माना गया है।

ऐसे ही जो जल देव प्रतिमा पर चढ़ाया गया हो, उसको लांघा नहीं जाता। अभिषेक के बाद के जल को पांव नहीं लगे, इसलिए प्रणाल के बाद भी चण्डमुख की व्यवस्था की गई। प्रासाद मण्डन, अपराजित पृच्छा आदि में इसकी विधि और महिमा तक लिखी गई है तथा उसके मूल में जल के प्रति सम्मान का सर्वोच्च भाव है। “दिया जाए तो दंड और मान लिया जाए तो चण्ड…।”

हमारी आस्थाओं ने प्रकृत संसाधनों के प्रति सम्मान बनाये रखने की प्रेरणा दी है। जल ने लोटे को गंगाजली या गंगासागर नाम दिया, परण्डे को पीढ़ियों के लिए जल सिंचक माना, जलदान से पूर्वजों की मुक्ति की गाथाएं लिखी गई, जल ने प्रवाह के स्थलों को तारने वाले तीर्थों के रूप में सम्मानित किया तो देवालयों के प्रदक्षिणा पथ को भी चण्ड सहित दर्शनीय बनाया… ये आस्थाएं बनी रहें। हम बोतल संस्कृति से निकलकर घट कलश के सनातन गट-गट को महत्वमय रखें।
जय जय।
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जल के गुण-दोष ……
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‘गरुड़-पुराण’ आचार काण्ड के अनुसार ‘जल’ में निम्नलिखित गुण/दोष पाये जाते हैः- वर्षा का जल तीनों दोषों (वात-पित्त-कफ) का नाशक, लघु स्वादिष्ट तथा विषापहारक है।

  • नदी का जल वातवर्धक, रुक्ष, सरस, मधुर और लघु होता है।
  • वापी का जल वात-कफ विनाशक होता है।
  • झरने का जल रुचिकर, अग्निदीपक, रुक्ष कफनाशक और लधु होता है।
  • कुएँ का जल अग्निदीपक, पित्तवर्धक तथा
  • उदिभज (पाताल तोड़ कुआँ) का जल पित्त विनाशक है। यह जल दिन में सूर्य किरण और रात्रि में चन्द्र किरण से सम्पृक्त होकर सभी दोषों से विमुक्त हो जाता है। इसकी तुलना तो आकाश से गिरने वाले जल से ही की जा सकती है।
  • गरम जल ज्वर, मेदा-दोष तथा वात और कफ विनाशक है। जल को ठण्डा करने के बाद वह प्राणी के वात-पित्त तथा कफ इन तीनों दोषों का विनाश करता है। किन्तु ‘बासी’ हो जाने पर वहीं जल दोषयुक्त हो जाता है।
    कौन-सा जल शुद्ध होता है और कौन-सा अशुद्ध इसके लक्षण ‘स्मृति-ग्रन्थों’ (धर्मशास्त्रों) में निम्न प्रकार से दिए हुए हैः-
    शुचि गोतृप्तिकृतोयं प्रकृतिस्थं महीगतम्।
    चर्मभाण्डस्थ धाराभिस्तथा यन्त्रोद्धृतं जलम्।।234।।
    अर्थात्-जिस जल से गौ की तृप्ति हो सके, वह पृथ्वी पर रखा हुआ निर्मल जल, चर्मपात्र से लगाई हुई धारा का जल और यन्त्र से निकाला हुआ जल
    – ये सब पवित्र है।
    अदुष्टाः सततं धारा वातोद्धूताश्च रेणवः।।239।।
    अर्थात्- आकाश से गिरी हुई जलधारा और हवा से उड़ायी हुई धूल – ये सदैव पवित्र
    होती हैं।
    गृहाद्दशगुणं कूपं, कूपाद्दशगुणं तटम्।
    तटाद् दशगुणं नद्यां, गंगा संख्या न विद्यते।।390।।
    अर्थात्- घर के स्नान की अपेक्षा कुएँ का स्नान दशगुणा फल देता है। कुएँ से दशगुणा फल ‘तट’ (तालाब) में स्नान करने से मिलता है। तट से दशगुणा फल नदी स्नान से मिलता है और गंगा में स्नान करने के फल की तो कोई
    गिनती ही नहीं है।
    स्रवद्यद् ब्राह्मणं तोयं,रहस्यं क्षत्रियं तथा।
    वापी कूपे तु वैश्यस्य, शौद्रं भाण्डोदकं तथा।।391।।
    अर्थात्- स्रोत (झरने) का जल ‘सर्वश्रेष्ठ’ सरोवर का जल ‘उससे कम श्रेष्ठ’, वापी कूप काजल ‘श्रेष्ठ’ और बर्तन में रखा हुआ जल ‘निकृष्ट’ होता है।
    नद्यां तु विद्यमानायां न स्नायादन्य वारिणि।
    न स्नायादल्प तोयेषु, विद्यमाने बहूदके।।25।।
    सरिद्वरं नदीस्नानं प्रतिस्रोतः स्थितश्चरेत्।
    तडागादिषु तोयेषु, स्नायाच्च तदभावतः।।
    26।।
    अर्थात्- नदी के होते हुए इतर जल में स्नान न करें। अधिक जल वाले तीर्थ के होते हुए अल्प जल वाले कूपादि में स्नान न करें। समुद्रवाहिनी नदी में स्रोत के सम्मुख होकर स्नान करें। यदि नदी आदि का अभाव हो तब तालाब आदि के जल में स्नान करना चाहिए।- हारीत स्मृति
    दिवा सूर्यांशुभिस्तप्तं, रात्रौ नक्षत्र
    मारुतैः।
    संध्ययोरप्युभाभ्यां च, पवित्रं सर्वदा जलम् ।।94।।
    अर्थात्-दिन में सूर्य की किरणों से तपा हुआ, रात्रि में नक्षत्र और पवन से तथा संध्या के समय इन दोनों से ‘जल’ सदा पवित्र रहता है।
    -यम स्मृति
    न दुष्येत् संतता धारा, वातोद्धूताश्च रेणवः।
    स्त्रियो वृद्धाश्च बालाश्च न
    दुष्यन्ति कदाचन।।
    -आपस्तंब स्मृति2/3
    अर्थात्- निरंतर बहती हुई जलधारा, पवन द्वारा उड़ायी हुई रेणु, स्त्रियाँ, वृद्ध तथा बालक – ये कभी दूषित नहीं होते।
    भासद्वयं श्रावणादि सर्वा नद्यो रजस्वलाः।
    तासु स्नानं न कुर्वीत, वर्जयित्वा समुद्रगाः।।
    5।।
    अर्थात्- श्रावण और भाद्रपद, इन दो मासों में नदियाँ ‘रजस्वला’ हो जाती हैं। अतः समुद्र गामिनी नदियों को छोड़कर, शेष किसी भी नदी में इन दो मासो में स्नान न करें।
    धनुः सहस्त्राण्यष्टौ तु गतिर्यासां न विद्यते।
    न ता नदी शब्द वहा गर्तास्ताः परिकीर्तिताः।।6।।
    अर्थात्- जो नदियाँ आठ हजार धनु की दूरी तक नहीं जातीं (बहती), वे नदी शब्द से नहीं बहतीं, इस कारण उन्हें नदी नहीं ‘गर्त’ या गड्ढा कहते हैं।
    -कात्यायन स्मृति 10/5-6
    उपाकर्मणि चोत्सर्गे प्रेतस्नाने तथैव च ।
    चन्द्र सूर्यग्रहे चैव, रजदोषो न विद्यते।।7।।
    अर्थात्- उपाकर्म और उत्सर्ग (श्रावणी कर्म) प्रेत के निमित्त (दाह संस्कार के बाद या प्रेत क्रिया के अंतर्गत) चन्द्रमा या सूर्य के ग्रहण काल में नदियों का ‘रजस्वला दोष’ नहीं माना जाता इन परिस्थितियों में नदी स्नान वर्जित नहीं है।
    उपाकर्मणि चोत्सर्गे स्नानार्थ ब्रह्मवादिनः।
    पिपासू ननु गच्छंति संतुष्टाः स्वशरीरिणः।।8।।
    वेदाश्छन्दांसि सर्वाणि ब्रह्माद्याश्च
    दिवौकसः।
    जलार्थिनोSथ पितरो,
    मरीच्याद्यास्तथर्षयः।।9।।
    समागमस्तु तत्रैषां तत्र हत्यादयो मलाः।
    नूनं सर्वे क्षयं यन्ति किमुतैकं नदीरजः।।10।।
    अर्थात्- उपाकर्म और उत्सर्ग में ब्रह्मवादी जन,पितृगण और मरीचि इत्यादि ऋषिगण वेद, सम्पूर्ण छन्द, ब्रह्मादि देवता इत्यादि उपस्थित रहते हैं। इस समागम से हत्या जैसे पाप धुल जाते हैं। तब फिर नदियों का रजस्वला दोष, क्यों न नष्ट हो जायेगा? अर्थात् उपाकर्म और प्रेत कार्य में नदियों का ‘रजदोष’ नहीं मानना चाहिए।
    -कात्यायन स्मृति10/5-6-7-8-9-10
    स्वर्धुन्यंभः समानिस्युः सर्वाण्यंभांसि भूतले।
    कूपस्थान्यपि सोमार्क ग्रहणे नात्र संशयः।।
    14।।
    अर्थात्- चन्द्र-सूर्य के ग्रहण काल में सम्पूर्ण पृथ्वी के कुओं का जल गंगाजल के समान पवित्र हो जाता है।
    -कात्यायन स्मृति- 10/14
    भूमिस्थमुदकं शुद्धं शुचि तोयं शिलागतम्।।12।।
    वर्ण गन्ध रसैर्दुषटैर्वर्जितं यदि तदभवेत्।।
    शुद्धं नदी गतं तोयं सर्व दैव सुखाकरम्।।13।।
    अर्थात्- पृथ्वी और चट्टान में संचित जल शुद्ध होता है। यदि जल रंगहीन, गंधहीन तथा अन्य दोषों से रहित हो तो नदी और आकर (खदान) का जल भी शुद्ध होता है।
    -शंख स्मृति, अ.-16/12-13..
    ……………
    वेदों में प्रयुक्त ‘पद-समूह’ (सार्थक शब्दों के समुच्चय) का प्राचीन संग्रह ‘निघण्टु’ कहलाता है। इस ‘निघण्टु’ के प्रथम अध्याय में जल
    के पूरे एक सौ पर्यायवाची दिए गए हैं। अर्थात् चारों वेदों में इन शब्दों का जल के अर्थ में प्रयोग
    हुआ है-
    अर्णः, क्षोदः, क्षद्म, नभः, अम्मः, कवन्धम्, सलिलम्, वाः, वनम्, घृतम, मधु, पुरीषम्, पिप्पलम्, क्षीरम्, विषम्, रेतः, कशः, जन्मः बृबूकम, बुसम्, तुग्र्या बुर्बुरम्, सुक्षेम, धरुणम्, सुरा, अररिन्दानि, ध्वस्मन्वत्, जामि, आयुधानि, क्षपः आहिः, अक्षरम्, स्त्रोतः, तृप्तिः, रसः, उदकम्, पयः, सरः, भषजम्, सहः, शवः, यहः, ओजः, सुखम्, क्षत्रम्, आवयाः, शुभम्, यादुः, भूतम, भुवनम्, भविष्यत्, आपः, महत्, व्योम, यशः महः, सर्णीकम्, स्वृतीकम्, सतीनम्, गहनम्, गभीरम्, गम्भरम्, ईम, अन्नम्, हविः, सद्म, सदनम्, ऋतम्, योनिः, ऋतस्य योनिः, सत्यम्, नीरम्, रयिः, सत्, पूर्णम्, सर्वम, अंक्षितम्, बर्हिः, नाम, सर्पिः, अपः, पवित्रम्, अमृतम्, इन्दुः, हेम, स्वः, सर्गाः, शम्बरम्, अम्वम्, वपुः, अम्बु, तोयम्, तूयम्, कृपीटम, शुक्रम्, तेजः, स्वधा, वारि, जलम्, एवं जलाषम्।। इदमित्युदकस्य (इदमित्येकशतमुदक
    नामानि) ।।12।।
    ‘अमरकोशः’ संस्कृत शब्दों का प्राचीन ‘शब्दानुशासन’ है। इसके प्रथम काण्ड के ‘वारिवर्ग’ के अन्तर्गत जल के निम्नलिखित नाम दिये गये हैं-
    आपः, वाः, वारि, सलिलं, जलं, कमलं, पयः, कीलालं, तोयं, अमृतं, जीवनं, भुवनं, वनम्, कबन्धम्, उदकं, पाथः, पुष्करं, सर्वतोमुखं, अम्मः, अर्णः, पानीयं, नीरं, क्षीरं, अम्बु, शम्बरं, मेघपुष्पं एवं घनरसः – ये सत्ताइस नाम जल के पर्यायवाची हैं। इनमें से कुछ नामों के अन्य रूप
    भी प्रचलित हैं। वारि = वारं। सलिलं = सरिलं। कबन्धं = कमन्धं। उदकं = दकं। नीरं = नारं। शम्बरं = सम्बरं। ‘त्रिकाण्डशेष कोश’ भी संस्कृत का एक प्राचीन शब्दकोश है। तदनुसार जल के निम्नलिखित सात पर्यायवाची हैं-
    (1) कमलं, (2) नीरं, (3) नारं, (4) इरा, (5) कं, (6) दकं एवं (7) जलम्।।
    खोजने पर अन्याय-शब्दकोशों में भी ‘जल’ के अनेक और इनसे भिन्न पर्यायवाची मिल सकते हैं।….
    ……

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