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बात करते हैं कुछ योगो के बारे मे
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इसमें प्रत्येक प्रकार के योग की कुछ न कुछ विशेषता अवश्‍य मिल जाती है।अलग-अलग सन्दर्भों में राजयोग के अलग-अलग विभिन्न्न मायने मतलब हैं।ऐतिहासिक रूप में योग की अन्तिम अवस्था समाधि’ को ही ‘राजयोग’ कहते थे किन्तु आधुनिक सन्दर्भ में हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक का नाम ‘राजयोग’ (या केवल योग) है परंतु ज्योतिष में राजयोग का अर्थ होता है कुंडली में ग्रहों का इस प्रकार से संबंध बनाना कि सफलताएं, सुख, पैसा, मान-सम्मान आसानी से प्राप्त हो या उचित्त समय आने पर स्वफलित हो।

      अगर जन्म कुंडली के नौवें या दसवें घर में सही ग्रह मौजूद रहते हैं तो उन परिस्थितियों में राजयोग का निर्माण होता है। जन्म कुंडली में नौवां स्थान भाग्य का और दसवां कर्म का स्थान होता है। कोई भी व्यक्ति इन दोनों घरों की वजह से ही सबसे ज्यादा सुख और समृद्धि प्राप्त करता है। राजयोग का आंकलन करने के लिए जन्म कुंडली में लग्न को आधार बनाया जाता है। कुंडली के लग्न में सही ग्रह मौजूद होते हैं तो राजयोग का निर्माण होता है।

        कुंडली में जब शुभ ग्रहों का योग बनता है उसके आधार पर राजयोग का आंकलन किया जाता है। कुंडली के किसी भी भाव में चंद्र-मंगल का योग बन रहा है तो जीवन में धन की कमी नहीं होती है, मान-सम्मान मिलता है, सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ती है। कुंडली में राजयोग का अध्ययन करते वक़्त अन्य शुभ और अशुभ ग्रहों के फलों का भी अध्ययन जरुरी है। इनके कारण राजयोग का प्रभाव कम या ज्यादा हो सकता है।

निम्नलिखित स्थितियों में राजयोगों का सृजन होता है:

१. जब किसी व्यक्ति की कुंडली में ग्रह एक-दूसरे की राशि में होते हैं तो शुभ फल प्राप्त होते हैं।
२. जब किसी व्यक्ति की कुंडली में ग्रह एक-दूसरे से दृष्टि संबंध में हो तो शुभ फल प्राप्त होते हैं।
३. कुंडली में ग्रहों की परस्पर युति होने पर शुभ फल प्राप्त होते हैं।
४. कुंडली में एक ग्रह दूसरे ग्रह को संदर्भित करता हो तो शुभ।
५. नवम और पंचम स्‍थान के अधिपतियों के साथ बलवान केन्‍द्राधिपति का संबंध शुभफलदायक होता है। इसे राजयोग कारक भी बताया गया है।
६. योगकारक ग्रहों (यानी केन्‍द्र और त्रिकोण के अधिपतियों) की दशा में बहुधा राजयोग की प्राप्ति होती है। योगकारक संबंध रहित ऐसे शुभ ग्रहों की दशा में भी राजयोग का फल मिलता है।
[ जातक के मन मे अज्ञात भय या भ्रम कमजोर मानसिक स्तर का सूचक है कमजोर दिल की वजह से कमजोर दिमाग की वजह से अक्सर व्यक्ति को अनजाना भय सताता है, डर जब अत्यधिक बढ़ जाता है तब वह भय या भ्रम का रूप ले लेता है, भय के लिए ज्योतिषी मे सभी ग्रह उत्तरदायी होते हैं क्यूंकि भय कई तरह की चीज़ों से हो सकता है।
चतुर्थ भाव विचारो का भाव होता है चतुर्थ भाव पर अशुभ ग्रहों की या अशुभ प्रभाव हो तो व्यक्ति के विचारों मे भय या भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है।
यदि दूषित मंगल चतुर्थ मे हो तो व्यक्ति को अज्ञात भय हमेसा बना रहता है।।
भय के लिए ज्योतिष मे मंगल व चन्द्र को ज्यादा उत्तरदायी माना गया है क्योंकि मंगल सेनापति है साहस, पराक्रम, लड़ने की क्षमता व निडरता का सूचक है जब मंगल का बहुत बुरा प्रभाव होगा या मंगल नीच का हो मंगल पर अशुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो व्यक्ति हमेसा भयभीत रहेगा ।
चन्द्र जो मन का कारक है यदि चन्द्र कमजोर हो तो व्यक्ति का मानसिक स्तर कमजोर होगा चन्द्र पर अशुभ ग्रहों की दृष्टि या युति होने पर भय उत्पन्न होता है चन्द्र की युति अशुभ भाव मे राहू या केतु से हो जाये तो व्यक्ति को हमेसा अनजाना भय सताता है, सूर्य हमारी आत्मा है सूर्य पर अशुभ ग्रहों का प्रभाव हमारी आत्मा को कमजोर करता है लेकिन यह सभी स्थिति मे भय या भ्रम तभी होता है जब व्यक्ति का लग्न या लग्नेश अत्यधिक पीड़ित या कमजोर हो औऱ अशुभ ग्रहों की दशा या अंतर्दशा मे व्यक्ति भय से अत्यधिक पीड़ित होता है।
भय या भ्रम की स्थिति से निजात पाने के लिए नित्य हनुमान जी की आराधना करना चाहिए इससे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और व्यक्ति के विचारों मे सकारात्मकता आती है।
व्यक्ति को मैडिटेशन करना चाहिए इससे भी भय की स्थिति से निजात पाया जा सकता है।
व्यक्ति को जिस भी चीज़ से भय हो उसका सामना करना चाहिए।
[ फलित ग्रंथों के अनुसार यदि बृहस्पति पाप युक्त या पाप दृष्ट हो तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति को मानसिक रोग अथवा मति भ्रम होने की संभावना रहती है। कुंडली में बृहस्पति केतु के साथ होने से पाप युक्त है तथा शनि और राहु की दृष्टि भी पड़ने से बृहस्पति पाप दृष्ट है जिसके कारण मति भ्रमित रहती है। ज्योतिष के अनुसार यदि बुध अकारक होकर लग्नेश के साथ 6, 8 या 12 स्थानगत हो तो जातक मानसिक रोग से ग्रसित होता है। लग्नेश सूर्य अकारक बुध के साथ छठे भाव में स्थित हो तो फलस्वरूप वह भी एक तरह के मानसिक रोग से ग्रसित है। मनकारक ग्रह चंद्रमा का लग्नेश सूर्य तथा बुध से षडाष्टक योग भी बन रहा है जिसके कारण अपनी बुद्धि और मन का परस्पर सामंजस्य नहीं बैठा पाते है और उनकी नकारात्मक सोच उनके व्यक्तित्व पर हावी हो जाती है और उन्हें यही लगता है कि जो वह कर रहे है वही सही है। कुंडली में मन रूपी चंद्रमा, बुद्धि रूपी बुध, ज्ञान रूपी बृहस्पति तीनों ही अशुभ स्थिति में हैं लेकिन सतोगुणी ग्रह बृहस्पति की लग्नेश व बुध पर दृष्टि होने से यह भ्रम अत्यधिक सफाई तक ही सीमित रहता है | जैमिनी ज्योतिष के अनुसार आत्मकारक ग्रह शनि अकारक होकर लग्न से अष्टम भाव में राहु के साथ बैठे हो और दूसरे भाव को देख रहे हो जिससे आपकी बुद्धि, वाणी और सोचने समझने की शक्ति प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो जाती है। लाभ स्थान चंद्रमा तथा धन स्थान में बृहस्पति एवं भाग्येश मंगल की भाग्य भाव पर दृष्टि होने से इन्हें अपने जीवन काल में धन संपत्ति व भौतिक सुख साधनों की कमी नहीं रहेगी। अगर बुध अकारक होकर लग्न से षष्ठ स्थान पर तथा चंद्र से अष्टम है तो बुध की दशा में ज्यादा भ्रमित रहते है और अपनी नकारात्मक व वहमी सोच पूरे परिवार पर डालते है ।
[मन में भय के लिए 5 भाव और 4 भाव का विचार किया जाता है
5 भाव से कल्पनाशक्ति 4 भावसे सुख चंद्से मन बुद्ध से बुद्धि
देखिजाती है
जनम कुंडली में चंद्र राहु की युति हो
चंद्र केतु या चंद्र शनि की युति yया दृष्टी हो तो भी जातक मानसीक रूप से बीमार रहता है
6 8 12 भाव में jज्यादाज्यादा proब्लेम करता है
जन्म कुंडली में चंद्रराहु की युति औरदशा महादशा आ जाये तो जातक ज्यादा मानसिक रूप सेपीड़ित रहता है राहु मन को भ्रमितकरता है चंद्रमन
को बहुत tej हवाई घोड़े की तरह गलत राह पर ले जाता है
जन्म कुंडली में बुध केतका सम्बन्ध
हो तो जातक में जिद्दीपन आ जाता है
जन्म कुंडली में mangalशनि की युति 1 5 7 भाव में भी मानसिक तनाव् देति है
कृष्ण पक्ष का कमजोर चन्द्रमा शनि 12भावमें हो तो भी जातक डिप्रेशन में रहता है या
मांढी अशुभ गृह सेपीड़ित हो
रेमेडी — रूद्राभिशेक ध्यान सफेढ चन्दन का तिलक
[. लग्न और सातवें भाव में क्रमशः गुरु और मंगल स्थित हों तो व्यक्ति मति भ्रम का शिकार हो सकता है।

  1. लग्न में शनि और 9, 5 या 7 वे भाव से मंगल का सम्बन्ध हो तो व्यक्ति मतिभ्रम का शिकार होकर धीरे-धीरे पागल हो जायेगा।
  2. 12 वें भाव में शनि और कमजोर चंद्रमा की युति भी व्यक्ति को मतिभ्रम का शिकार बना देती है।
  3. शुक्र और गुरु की युति हो व्यक्ति मतिभ्रम का शिकार होगा ही और यदि लग्न पर राहु या शनि के साथ कमजोर चंद्रमा का प्रभाव भी हो जाये तो पागल हो जायेगा।
    {सूर्य/चंद्रमा के राहु/ केतु के साथ होने से ग्रहण योग बनता है – इस योग में अगर सूर्य ग्रहण योग हो तो व्यक्ति में आत्म विश्वास की कमी रहती है और वह किसी के सामने आते ही अपनी पूर्ण योग्यता का परिचय नहीं दे पाता है उल्टा उसके प्रभाव में आ जाता है। कहने का मतलब कि सामने वाला व्यक्ति हमेशा ही हावी रहता है। चन्द्र ग्रहण होने से कितना भी घर में सुविधा हो मगर मन में हमेशा अशांति ही बनी रहती है कोई न कोई छोटी-छोटी बातों का डर भी सताता है। कोई अज्ञात भय मन में बना रहता है। संतुष्टि का हमेशा आभव रहता है। मंगल के राहु के साथ होने से अंगारक योग बनता है – इस योग के कारण जिस काम को दूसरा कोई आसानी से कर लेता है उसी काम को करने में अनेक प्रकार की बाधाएं, अड़चन आदि बनी रहती है यानि कोई काम सुख शांति पूर्वक सम्पन्न नहीं होता है। गुरु की राहु/केतु के साथ युति हो तो चांडाल योग बनता है- इस योग के कारण व्यक्ति का धन से संबंधित कोई काम सफल नहीं होता है। कितना भी धन अच्छे समय में कमा ले लेकिन जैसे ही इन ग्रहों की महादशा- अन्तर्दशा- प्रत्यंतर दशा आएगी तो वो सब कमाया हुआ धन एकदम से खत्म हो जाता है और इस योग के कारण व्यक्ति को कर्ज लेने के बाद चुकाने में दिक्कत होती है और एक दिन उसको ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है कि कहीं से कुछ रुपये उधार लेकर खाना खाना पड़ता है। शुक्र और राहु की युति से लम्पट योग का निर्माण होता है – इस योग के कारण जातक का ध्यान पराई स्त्रियों में लगा रहता है और कई-कई प्रेम सम्बन्ध बनते हैं लेकिन ज्यादातर का अंत बहुत बुरा, लड़ाई- झगडे़ के साथ और अपमान के साथ होता है। कर्कशा स्त्री जीवन में बनी रहती है। शनि राहु की युति हो तो नंदी योग बनता है- इस योग के कारण व्यक्ति सच्चाई के मार्ग पर चलना चाहते हुए भी हमेशा झूठ और फरेब का शिकार होता है और कई बार जेल जाने तक की नौबत आती है। अपराध की दुनिया से सम्बन्ध बनता है और जीवन अनेक संकटों में फंस जाता है। 

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