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स्त्री जातक के लिये द्वादश लग्न फल
मेष – मेष लग्न मे कन्या सत्य मे तत्पर, निर्भय, सदा क्रोध युक्त, कफ प्रकृति, कठोर वाक्य बोलने वाली और बंधुओ से विरक्त होती है।
वृषभ – वर्ष लग्न मे कन्या सत्यवक्ता, सुंदरी, विनीत, पति प्यारी, सर्व कला युक्त, बन्धुप्रेमी, ईश्वर की भक्ति, करने वाली होती है।
मिथुन – मिथुन लग्न मे कन्या कटु वचन बोलने वाली, काम से रहित, गुणहीन, निडर, कफ-वात युक्त, बहुत धर्म कर्म करने वाली होती है।
कर्क – कर्क लग्न में कन्या नम्रता युक्त, बंधुप्रिया, सुस्वभाव वाली, संतानयुक्त, सर्वसुख संपन्न होती है।
सिंह – सिंह लग्न मे स्त्री अत्यंत क्रूर, कफ प्रकृति, कलह करने वाली, अनेक रोगो से ग्रस्त, परोपकारी होती है।
कन्या – कन्या लग्न में भाग्यवती सबका हित करने वाली, अपने वर्ग मे धर्मनिष्ट, इन्द्रियों को जीतने वाली, चतुर होती है।
तुला – तुला लग्न में स्त्री दीर्घसूत्री, मंदबुद्धि, नम्रता से हीन, गर्वीली, शोभा रहित, अधिक तृष्णा वाली, नीति रहित होती है।
वृश्चिक – वृश्चिक लग्न स्त्री सुंदरी, सबसे प्रेम रखने वाली, सुन्दर नेत्र वाली, धर्मात्मा, पतिव्रता, गुण तथा सत्ययुक्त होती है।
धनु – धनु लग्न मे नारी बुद्धिमती, पुरुषाकृति, सुन्दर नेत्र वाली, कठोर चित्त, स्नेह और नम्रता से रहित होती है।
मकर – मकर लग्न मे नारी भाग्यवती, सत्य मे तत्पर, तीर्थो मे आसक्त, शत्रुजीत, अच्छा काम करने वाली, ख्यात, गुणवती और पुत्रवती होती है।
कुम्भ – कुम्भ लग्न मे नारी चतुर, व्रण आदि से पीड़ित, बड़ो से विरोध रखने वाली, अधिक खर्च करने वाली, पुण्य करने वाली, अहसान नही मानने वाली होती है।
मीन – मीन लग्न हो तो नारी पुत्र-पोत्री युक्त, पति प्रिया, बंधु आदि से मान्य, सुन्दर नेत्र और केश वाली, देव-विद्वानो की भक्ति करने वाली, नम्रता युक्त और गुरुजनो से प्रीति करने वाली होती है।

स्त्री जातक के लिये द्वादश भाव ग्रह फल
सूर्य – प्रथम भाव में सूर्य हो तो स्त्री विधवा; द्वितीय मे दरिद्र, दुःखी; तृतीय मे पुत्रवती, धनाढ्य; चतुर्थ मे दरिद्रा; पंचम मे पुत्र नाश; छठे मे धनवती; सप्तम मे रोगिणी; आठवे मे विधवा; नौवे मे धर्म, भाग्य वृद्धि; दसवे मे पापकारिणी; एकादश मे बहु पुत्रवती; द्वादश मे धन व्यय करने वाली होती है।
चंद्र – प्रथम भाव मे चंद्र हो तो आयु का नाश या अल्पायु; द्वितीय मे पुत्रवती; तृतीय मे धन पुत्र युक्त; चतुर्थ मे दुर्भागा; पंचम हो तो बहुसुता (कन्या) युक्त; छठे मे हो तो विधवा; सातवे मे प्रवासनी; आठवे मे मृत्यु; नवम मे पुत्र युक्त, सौभाग्यवती; दशम मे पापकर्मा; ग्यारहवे मे धनयुक्त; बाहरवे मे हो तो स्त्री दिनांधा (सूर्य के प्रकाश मे कम दिखाई देना) होती है।
मंगल – प्रथम भाव मे मंगल हो तो स्त्री विधवा या अविवाहित; द्वितीय मे दरिद्र; तृतीय मे धन पुत्र युक्त; चतुर्थ मे अल्पवीर्या या दुर्बल; पंचम मे पुत्र या संतति नाश; छठे मे धनवान; सप्तम मे विधवा; अष्टम मे धनवती; नौवे मे धर्म करने वाली, भाग्यवती; दसवे मे मृत्यु, अर्थनाश, कुल्टा, बंध्या; एकादश मे पुत्रवती, लाभी और द्वादश मे बंध्या, व्यभिचारणी होती है।
बुध – प्रथम भाव मे बुध हो तो स्त्री पतिव्रता; द्वितीय मे सौभाग्यवती; तीसरे में धन पुत्र युक्त; चतुर्थ मे बहुसौख्य; पांचवे मे पुत्रवती, छठे मे कलह कारिणी; सातवे में क्षय, हानि; आठवे मे स्वजन वियोग, नवम मे उत्तम भोग; दशवे मे धन युक्त, प्रतिवता; ग्यारहवे मे दीर्घायु और बाहरवे मे सुशीला होती है।
गुरु – प्रथम भाव मे गुरु हो तो स्त्री पतिव्रता; दूसरे मे सौभाग्यवती; तीसरे मे धन पुत्र युक्त; चतुर्थ मे बहुसौख्य शालिनी; पांचवे मे बहु पुत्रवती; छठे मे धन युक्त; सातवे मे भय, मृत्यु; आठवे मे स्वजन वियोग; नवम में धर्मवृद्धि, भाग्य वृद्धि; दशवे मे धन युक्त, प्रतिवता; ग्यारहवे मे दीर्घायु और बाहरवे मे शीला, मितव्ययी होती है।
शुक्र – प्रथम भाव में शुक्र हो तो स्त्री पतिव्रता; दूसरे मे सौभाग्यवती; तीसरे मे धन पुत्र युक्त, भाई बंधु युक्त; चतुर्थ मे सुखी, विविध भोग; पांचवे मे बहु पुत्रवती, विद्यावती; छठे मे दरिद्रा, वैश्या या नगरवधु; सातवे मे भय, मृत्यु; आठवे मे महा कष्ट या मरण; नवम में धर्मवृद्धि, भाग्य वृद्धि; दशवे मे धन युक्त, प्रतिवता; ग्यारहवे मे पुत्रवती, लाभवती और बाहरवे मे पतिव्रता होती है।
शनि – 1 तनु भाव मे शनि हो तो स्त्री दरिद्र; 2 धन भाव मे दरिद्र, दुःख; 3 सहज मे धनाढ्य; 4 सुहृद मे अल्पदुग्ध व अल्पसुख; 5 सुत मे रोगिणी; 6 रिपु मे धन युक्त; 7 जया मे वैधव्य, मृत्यु; 8 मृत्यु मे पतिवल्लभा, पुत्रवती; 9 धर्म मे बंध्या, 10 कर्म मे पापकर्मा; 11 लाभ मे धन सहित और 12 व्यय मे दरिद्र होती है।
राहु – केतु लग्न मे हो तो पुत्र या संतति नाश; द्वितीय मे हो तो दुःख, दरिद्रता; तृतीय मे धन लाभ; चतुर्थ मे संतान सुख नाश; पंचम में संतान मरण; छठे मे धनवती; सातवे मे सम्पत्ति की हानि;

आठवे मे मरण; नौवे मे बंध्या यानि बाँझ; दसवे मे वैधव्य; ग्यारहवे मे सौभाग्यवती और बारहवे मे कुटिल, व्यभिचारिणी होती है।

स्त्री जातक के लिये अल्पपत्या या अनपत्या योग
(1) वृष, कन्या, सिंह और वृश्चिक राशि मे से किसी राशि मे चंद्र स्थित हो तो अल्प संतान वाली नारी होती है। वर्तमान मे भारत मे परिवार नियोजन में भी यह योग उपयोगी है।
(2) पंचम भाव में धनु या मीन राशि हो गुरु पंचम भाव में स्थित हो या पंचम भाव पर क्रूर ग्रहो की दृष्टि हो तो संतान नही होती है।
(3) सप्तम भाव मे पाप ग्रह की राशि हो अथवा सप्तम भाव पापग्रह से दृष्ट हो तो नारी को संतान नही होती है अथवा कम होती है। वर्तमान में यह योग घनात्मक है।
(4) मंगल पंचम भाव मे हो और राहु सप्तम भाव मे हो तो संतान का अभाव होता है। पंचमेश के नवमांश में शनि या गुरु स्थित हो तब भी संतान नही होती है।
(5) सप्तम स्थान में सूर्य या राहु हो, अष्टम मे गुरु या शुक्र स्थित हो तो भी संतान जीवित नही रहती है। शिशु का जन्म होकर मौत हो जाती है।
(6) सप्तम स्थान मे चन्द्रमा या बुध हो तो नारी कन्याओ को जन्म देने वाली होती है। यदि पंचम स्थान मे गुरु या शुक्र हो तो नारी बहुत पुत्रो का प्रजनन करती है।
(7) पंचम मे सूर्य हो तो सूर्य सामान एक पुत्र, मंगल हो तो तीन पुत्र, गुरु हो तो पांच पुत्र होते है। पंचम मे चन्द्रमा रहने से दो कन्याऐ, बुध के रहने से चार और शुक्र के रहने से सात कन्याएँ होती है। सप्तम मे राहु हो तो संतानाभाव या दो कन्याऐ, नवम भाव मे राहु हो तो छह कन्याए होती है। वर्तमान परिवेश मे सन्तति की संख्या शोध का विषय है। यह योग विचारणीय है।
(8) जिन नारियो की जन्म राशि वृष, सिंह, कन्या, वृश्चिक हो तो उनके पुत्र कम होते है। किन्तु इन राशियो मे शुभग्रह स्थित हो तो संतान सुन्दर और उत्तम होती है।
(9) पंचम स्थान मे तीन पापग्रह हो या तीन पापग्रह की दृष्टि हो या पंचम का स्वामी शत्रु राशि मे हो तो स्त्री बंध्या-बाँझ होती है।
(10) अष्टम मे बुध और चंद्र हो तो काकबन्ध्या योग होता है। यदि अष्टम मे बुध, गुरु, शुक्र हो तो गर्भपात होता है या संतान होकर मर जाती है।
(11) सप्तम स्थान मे मंगल हो और शनि से दृष्ट हो या शनि मंगल सप्तम स्थान मे हो तो गर्भपात होता है या बहुत कम संतान होती है।

स्त्री जातक के लिये सप्तम भाव में प्रत्येक ग्रह का फल
सूर्य – सप्तम स्थान मे सूर्य हो तो नारी दुष्ट स्वाभाव, पति प्रेम से वंचित, कर्कशा होती है।
चंद्र – सप्तम स्थान में चन्द्रमा हो तो नारी कोमल स्वभाव वाली, लज्जाशील होती है। यदि उच्च का चन्द्रमा हो तो वस्त्राभूषण वाली, धनिक और सुंदरी होती है।
मंगल – सप्तम मे मंगल हो तो स्त्री सौभाग्यहीन, कुकर्म रत होती है। कर्क या सिंह राशि मे शनि के साथ मंगल हो तो व्यभिचारणी, वेश्या, धनी, बुरे स्वाभाव की होती है।
बुध – सप्तम मे बुध हो तो नारी आभूषण वाली, विदुषी, सौभाग्यशालिनी और पति की प्यारी होती है। उच्च राशि का बुध हो तो नारी लेखिका, सुन्दर पतिवाली, धनी, नाना प्रकार के ऐश्वर्य भोगने वाली होती है।
गुरु – सप्तम स्थान मे गुरु हो तो नारी पतिव्रता, धनी, गुणवती, सुखी होती है। चन्द्रमा कर्क राशि मे हो और गुरु सप्तम स्थान मे हो तो नारी साक्षात रतिस्वरूपा होती है। उसके सामान सुंदरी कम ही होती है।
शुक्र – सप्तम मे शुक्र हो तो नारी का पति श्रेष्ट, गुणवान, धनी और वीर, कामकला मे प्रवीण होता है। वह नारी स्वयं रसिका, सुन्दर वस्त्राभूषण वाली होती है।
शनि – सप्तम भाव मे शनि हो तो नारी का पति रोगी, दरिद्र, व्यसनी, निर्बल होता है। उच्च का शनि हो तो पति धनिक, गुणवान, शीलवान, कामकला विज्ञ होता है। शनि पर राहु या मंगल की दृष्टि हो तो स्त्री विधवा होती है।
राहु – सप्तम भाव मे राहु हो तो नारी अपने कुल को दोष लगाने वाली, दुखी, पति सुख से वंचित होती है। यदि राहु उच्च का हो तो सुन्दर और स्वस्थ पति मिलता है।

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