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आयुर्वेद में ऋतुचर्या का विधान सदा स्वस्थ रहने के लिये बताया गया है, तो आओ पूरे वर्ष की ऋतुओं में स्वस्थ रहने की जानकारी सांझा करें जी
आयुर्वेद का मुख्य प्रयोजन स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना तथा रोगी मनुष्य के रोग की चिकित्सा करना है। इस प्रयोजन की सम्पूर्ति हेतु आचार्यो ने दिनचर्या, रात्रिचर्या, ऋतुचर्या का विधान बताया है।

आयुर्वेद में काल को वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर, बसन्त, ग्रीष्म इन छः ऋतुओं में बाँटा गया है। इन ऋतुओं में पृथक-पृथक् चर्या बतायी गयी है। यदि मानव इन सभी का ऋतुओं में बतायी गयी चर्याओ का नियमित व विधिपूर्वक पालन करता है, तो किसी प्रकार के रोग उत्पन्न होने की सम्भावना नहीं रहती है, अन्यथा अनेक मौसमी बिमारियों से ग्रसित हो जाता है।

मौसम के बदलाव के साथ ही खान-पान में बदलाव जरूरी है, ये बदलाव करके मौसमी-रोगों से बचा जा सकता है।

शिशिर ऋतुचर्या

समय – माघ, फाल्गुन (जनवरी, फरवरी)

सम्भावित राेेग – अधिक भूख लगना, होंठ, त्वचा तथा बिवाई फटने लगती है। सर्दी व रूखापन, लकवा, बुखार, खांसी, दमा आदि रोगों की सम्भावना बढ़ जाती है।

पथ्य आहार-विहार (क्या सेवन करें ?)
विविध प्रकार के पाक एवं लड्डू, अदरक, लहसुन की चटनी, जमींकन्द, पोषक आहार आदि सेवन करें।
दूध का सेवन विशेष रूप से करें।
तैल मालिश, धूप का सेवन, गर्म पानी का उपयोग करें।
ऊनी एवं गहरे रंग के कपड़े, जूते-मौजे आदि से शरीर को ढककर रखें।
अपथ्य आहार-विहार (क्या सेवन न करें ?)
बरसात एवं ठण्डी हवा से बचें।
हल्का, रूखा एवं वायुवर्धक आहार न लें।

बसन्त ऋतुचर्या

समय – चैत्र, वैशाख (मार्च , अप्रैल)

सम्भावित राेेग – दमा, खांसी, बदन दर्द, बुखार, कै, अरुचि, जी मिचलाना, बैचेनी, भारीपन, भूख न लगना, अफरा, पेट में गुड़गुड़ाहट, कब्ज, पेट में दर्द, पेट में कीड़े आदि विकार होते है।

पथ्य आहार-विहार
पुराने जौ, गेंहू, ज्वार, बाजरा, मक्का आदि धानों का आहार श्रेष्ठ है। मूंग, मसूर, अरहर एवं चने की दालें तथा मूली, घीय, गाजर, बथुआ, चौलाई, परवल, सरसों, मेथी, पालक, धनिया, अदरक आदि का सेवन हितकारी है।
वमन, जलनेति, नस्य एवं कुंजल आदि हितकर है।
परिश्रम, व्यायाम, उबटन और आंखों में अंजन का प्रयोग हितकर है।
शरीर पर चंदन, अगर आदि का लेप लाभदायक है।
शहद के साथ हरड़, प्रातःकालीन हवा का सेवन, सूर्योदय के पहले उठकर योगासन करना एवं मालिश करना हितकर है।
अपथ्य आहार-विहार
नया अन्न, ठण्डे एवं चिकनाई युक्त, भारी, खट्टे एवं मीठे आहार द्रव्य, दही, उड़द, आलू, प्याज, गन्ना, नया गुड़, भैंस का दूध एवं सिंघाड़े का सेवन अहितकर है।
दिन में सोना, एक साथ लम्बे समय तक बैठना अहितकर है।

ग्रीष्म ऋतुचर्या

समय – ज्येष्ठ, आषाढ़ (मई , जून )

सम्भावित राेेग – रूखापन, दौर्बल्य, लू लगना, खसरा, हैजा, चेचक, कै, दस्त, बुखार, नकसीर, जलन, प्यास, पीलिया, यकृत विकार आदि होने की सम्भावना होती है।

पथ्य आहार-विहार
हल्के, मीठे, चिकनाई वाले पदार्थ, ठण्डे पदार्थ, चावल, जौ, मूंग, मसूर, दूध, शर्बत, दही की लस्सी, फलों का रस, सत्तू, छाछ आदि। संतरा, अनार, नींबू, खरबूजा, तरबूज, शहतूत, गन्ना, नारियल पानी, जलजीरा, प्याज, कच्चा आम (कैरी) आदि का प्रयोग हितकर है।
सूर्योदय से पहले उठना तथा उषःपान हितकर है।
सुबह टहलना, दो बार स्नान, ठण्डी जगह पर रहना, धूप में निकलने से पहले पानी पीना, तथा सिर को ढककर जाना, बार-बार पानी पीते रहना, सुगन्धित द्रव्यों का प्रयोग एवं दिन में सोना अच्छा है।
अपथ्य आहार-विहार
धूप, परिश्रम, व्यायाम, सहवास, प्यास रोकना, रेशमी कपड़े, कृत्रिम सौन्दर्य प्रसाधन, प्रदूषित जल का सेवन अहितकर है।
गरम, तीखे, नमकीन, तले हुए पदार्थ, तेज मसाले, मैदा, बेसन से बने, पचने में भारी खाद्य पदार्थों की ज्यादा मात्रा एवं शराब का सेवन अहितकर है।

वर्षा ऋतुचर्या

समय – श्रावण, भाद्रपद (जुलाई , अगस्त )

सम्भावित राेेग – भूख कम लगना, जोड़ों के दर्द, गठिया, सूजन, खुजली, फोड़े-फुंसी, दाद, पेट में कीड़े, नेत्राभिष्यन्द (आंख आना), मलेरिया, टाइफाइड, दस्त और अन्य रोग होने की सम्भावना रहती है।

पथ्य आहार-विहार
अम्ल, लवण, स्नेहयुक्त भोजन, पुराने धान्य (चावल, जौ, गेंहू) तथा मांस रस, घी एवं दूध का प्रयोग, छाछ में बनाई गई बाजरा या मक्का की राबड़ी, कद्दू, बैंगन, परवल, करेला, लौकी, तुरई, अदरक, जीरा, मैथी, लहसुन का सेवन हितकर है।
संशोधित जल का प्रयोग करना चाहिए, कुंआ, तालाब और नदी के जल का प्रयोग बिना शुद्ध किये नहीं करना चाहिए। पानी को उबाल कर उपयोग में लेना श्रेष्ठ है।
भीगने से बचें, भीगने पर शीघ्र सूखे कपड़े पहने, नंगे पैर, गीली मिट्टी या कीचड़ में नहीं जाना चाहिए, सीलन युक्त स्थान पर नहीं रहना चाहिए तथा बाहर से लौटने पर पैरों को अच्छी तरह धोकर पोंछ लेना चाहिए।
तैल की मालिश करना हितकर है तथा कीट-पतंग एवं मच्छरों से बचने के लिए मच्छरदानी का उपयोग हितकर है।
अपथ्य आहार-विहार
चावल, आलू, अरबी, भिण्डी तथा पचने में भारी आहार द्रव्यों का प्रयोग, बांसी भोजन, दही, मांस, मछली, अधिक तरल पदार्थ, शराब आदि का सेवन अहितकर है तथा तालाब एवं नदी के जल का सेवन उचित नहीं है।
दिन में सोना, रात में जागना, खुले में सोना, अधिक व्यायाम, धूप सेवन, अधिक परिश्रम, अधिक सहवास, अज्ञात नदी, जलाशय में स्नान एवं तैरना अहितकर है।

शरद ऋतुचर्या

समय – अश्विन, कार्तिक (सितंबर , अक्टूबर) सम्भाविवत राेेग – आयुर्वेद के मत से शरद काल में पित्त का प्रकोप होता है जो शरीर में अग्नि का प्रधान कारक है। अतः ज्वर, रक्तविकार, दाह, छर्दि (उल्टी, कै) सिरदर्द, चक्कर आना, खट्टी डकारें, जलन, रक्त एवं कफ विकार, प्यास, कब्ज, अफरा, अपच, जुकाम, अरुचि आदि विकारों की सम्भावना रहती है। इस ऋतु में विशेष रूप से पित्त प्रकृति वाले व्यक्तियों को अधिक कष्ट होता है।

पथ्य आहार-विहार
हल्का भोजन, पेट साफ रखना हितकर है।
मधुर एवं शीतल, तिक्त (कड़वा नीम, करेला आदि), चावल, जौ का सेवन करना चाहिए।
करेला, परवल, तुरई, मैथी, लौकी, पालक, मूली, सिंघाड़ा, अंगूर, टमाटर, फलों का रस, सूखे मेवे, नारियल का प्रयोग करना चाहिए।
इलाइची, मुनक्का, खजूर, घी का प्रयोग विशेष रूप से करना चाहिए।
त्रिफला चूर्ण, अमलतास का गूदा, छिलके वाली दालें, मसाले रहित सब्जी, गुनगुने पानी के साथ नींबू के रस का सेवन प्रातःकाल, रात्रि में हरड़ का प्रयोग विशेष लाभदायक है।
तैल मालिश, व्यायाम तथा प्रातः भ्रमण, शीतल जल से स्नान करना चाहिए, हल्के वस्त्र धारण करें, रात्रि में चन्द्रमा की किरणों का सेवन करें, चन्दन तथा मुल्तानी मिट्टी का लेप लाभदायक है।
अपथ्य आहार-विहार
मैदे से बनी हुई वस्तुऐं, गरम, तीखा, भारी, मसालेदार तथा तेल में तले हुए खाद्य पदार्थों का उपयोग न करें।
दही एवं मछली का प्रयोग न करें, अमरूद को खाली पेट न खाऐ। कन् द शाक, वनस्पति घी, मूंगफली, भुट्टे, कच्ची ककड़ी, दही आदि का अधिक उपयोग न करें।
दिन में न सोंऐ, मुंह ढककर न सोंए तथा धूप से बचें।

हेमन्त ऋतुचर्या

समय- मार्गशीर्ष, पौष (नवम्बर , दिसंबर)

सम्भावित राेेग – वातज रोग, वात-श्लैष्मिक रोग, लकवा, दमा, पांवों में बिवाई फटना, जुकाम आदि।

पथ्य आहार-विहार
शरीर संशोधन हेतु वमन व कुंजल आदि करें।
स्निग्ध, मधुर, गुरु, लवणयुक्त भोजन करें।
घी, तेल तथा उष्ण मोगर, गोंद, मैथी के लड्डू, च्यवनप्राश, नये चावल, आदि का सेवन हितकारी है।
तैल मालिश, उबटन, गुनगुने पानी से नहाना, ऊनी कपड़ों का प्रयोग, सिर, कान, नाक, पैर के तलुओं पर तैल मालिश करें। गरम एवं गहरे रंग के वस्त्र धारण करें। आग तपना एवं धूप सेंकना हितकारी है।
हाथ-पैर धोने के लिए गुनगुने जल का प्रयोग करें। जूते-मौंजे, दस्ताने, टोपी, मफलर, स्कार्फ का प्रयोग करना चाहिए।
अपथ्य आहार-विहार
ठण्डे, वायु बढ़ाने वाली वस्तुओं का सेवन, नपातुला भोजन, बहुत पतला भोजन न करें।
दिन में नहीं सोना चाहिए, अधिक हवादार स्थान में रहना तथा ठण्डी हवा हानिकारक है। खुले पांव नहीं रहना चाहिए तथ हल्के सफेद रंग के वस्त्र न पहने।

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