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“पूजन-भजन और भक्ति करना क्या है?”

जैसे पिता के अनुरूप होनेसे ही पुत्र कहा जाता है, गुरुके अनुसार चलने से ही शिष्य माना जाता है, वैसे ही अपने-अपने इष्टका अथवा भगवान् का अनुसरण करनेवाले को ही उस इष्टका अथवा भगवान् का भक्त कहा जाता है।
केवल नाम रटने मात्र से भजन करना नहीं हो जाता है, अगर नाम रटना मात्र ही भजन करना होता है तो फिर राम-राम रटनेवाले तोते को भक्त क्यों नहीं कहा जाता है?
अपनी-अपनी रुचि अनुसार इष्टके प्रति श्रद्धा और आस्था दृढ़ करने के लिये ही नाम लेने को कहा जाता है। नाम लेते-लेते अपने-अपने इष्टसे प्रेम हो जाता है और प्रेम हो जानेसे उनके चरित्र-कथा सुनने में आनन्द आने लगता है और आनन्द मिलने से ही भक्त अपने इष्ट अथवा भगवान् का ही अनुसरण करने की ही चेष्टा करने लगता है और अनुकरण करनेसे ही वह भगवान् का भक्त कहलाता है।
इस मनुष्यशरीर अथवा मनुष्ययोनि को छोड़कर और सभी प्रकारके शरीर अथवा योनियों को भोग योनियाँ ही कहा जाता है, इसीलिये ही इस मनुष्य शरीर को पाना तो देवताओं के लिये भी दुर्लभ माना जाता है – ऐसा ही सब ग्रन्थोंने भी कहा है। यह भक्ति केवल इसी मनुष्य शरीर से ही हो पाती है क्योंकि इस मनुष्य शरीर को ही साधनों का धाम और मोक्षका दरवाजा भी कहा जाता है –
बड़े भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।।
भगवान् श्रीकृष्णजी भी कहते हैं –
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।
जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, (जैसे बर्फ जलसे व्याप्त है, वैसे ही सम्पूर्ण संसार सच्चिदानन्दघन परमात्मासे व्याप्त है।), उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा पूजा करके (जैसे पतिव्रता स्त्री पतिको ही सर्वस्य समझकर पतिका चिन्तन करती हुई, पतिके आज्ञानुसार पतिके ही लिये मन, वाणी, शरीरसे कर्म करती है, वैसे ही परमेश्वरको ही सर्वस्व समझकर परमेश्वरका चिन्तन करते हुए परमेश्वरकी आज्ञाके अनुसार मन, वाणी और शरीरसे परमेश्वरके ही लिये स्वाभाविक कर्तव्यकर्मका आचरण करना ‘कर्मद्वारा परमेश्वरको पूजना’ है।) मनुष्य परमसिद्धिको प्राप्त हो जाता है।।
यह समस्त चराचर जगत् उसी परमेश्वर परमात्माका ही रूप है, उसके सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है। श्रीरामचरितमानस में भी भगवान् शंकरजी भी कहते हैं –
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें।। यही भगवान् श्रीकृष्णजी भी कहते हैं –
मुझ निराकार परमात्मासे यह सब जगत् जलसे बरफके सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अन्तर्गत संकल्पके आधार स्थित हैं, किन्तु वास्तवमें मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।।
अर्थात् इस संसार में जो कुछ भी है और जैसा भी है वह अपने ही संकल्प के कारण ही है, इसी संकल्प को ही वासना और कामना भी कहते हैं। इसी वासना और कामनाओं के कारण ही हम विविध प्रकारके शरीरोंको प्राप्त होते हैं –
इस देहमें यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है (जैसे विभागरहित स्थित हुआ भी महाकाश घटोंमें पृथक्-पृथक् की भाँति प्रतीत होता है, वैसे ही सब भूतोंमें एकरूपसे स्थित हुआ भी परमात्मा पृथक्-पृथक् की भाँति प्रतीत होता है, इसीसे देहमें स्थित जीवात्माको भगवान् ने अपना ‘सनातन अंश’ कहा है।) और वही इन प्रकृतिमें स्थित मन और पाँचों इन्द्रियोंको आकर्षण करता है।।
वायु गन्धके स्थानसे गन्धको जैसे ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिका स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीरका त्याग करता है, उससे इन मनसहित इन्द्रियोंको ग्रहण करके फिर जिस शरीरको प्राप्त होता है – उसमें जाता है।।
लेकिन इस प्रकारका भजन बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें ही सम्भव होता है –
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।
बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है – इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।।
जय जय श्री कृष्ण

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