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भारतीय वर्ष-आजकल भारतीय तथा विदेशी नव वर्ष विषय में बहुत विवाद चल रहा है। भारतीय वर्ष गणना को समाप्त करने की चेष्टा अंग्रेजी शासन के आरम्भ से ही होने लगी तथा जितने शक-कर्ता (वर्ष गणना आरम्भ करने वाले) राजा थे, उनको अंग्रेजों ने काल्पनिक करार दे दिया। उसके बाद भारतीय वर्ष में संशोधन के लिए १८९०, १९३०, १९५७ में समितियों बनीं। १० वर्ष पूर्व पुनः भारतीय कैलेण्डर में सुधार का अभियान आरम्भ हुआ तथा कुछ लोगों ने अपने मत को आर्ष मान कर नया कैलेण्डर आरम्भ कर दिया है। इन सभी सुधार समितियों को अभी तक पता नहीं चला है कि भारतीय कैलेण्डर में अशुद्धि क्या है जिसका सुधार करना है। भारतीय शास्त्र या परम्परा में हर सुधार केवल निन्दा तथा हीन भावना पैदा करने के लिए है। शास्त्र में नहीँ, उसके पालन में गलती है।
काल गणना की दो पद्धति एक साथ चलती हैं। न्यूगेबायर ने हार्वर्ड से प्रकाशित अपनी पुस्तक Exact Sciences of Antiquity में लिखा है कि प्राचीन मिस्र में एक साथ दो प्रकार के कैलेंडर चलते थे, एक गणितीय तथा दुसरा व्यावहारिक। इस उक्ति को बिना नाम या स्रोत लिखे १९५७ की पञ्चाङ्ग समिति ने उद्धृत किया है पर वे इसका अर्थ नहीँ समझ पाये। पूरा अर्थ न्यूगेबायर भी नहीं समझे थे।
भारत में दो प्रकार की वर्ष गणना एक साथ चलती है। चन्द्रमा मन का कारक है तथा उस पर प्रभाव डालता है। अतः हर पूजा चान्द्र तिथि के अनुसार होती है। किन्तु ऋतु परिवर्तन सौर मास-वर्ष के अनुसार है। चान्द्र वर्ष सौर वर्ष से ११ दिन छोटा है। अतः ३० या ३१ मास के बाद एक चान्द्र मास अधिक जोड़ते हैं। सौर संक्रान्ति से इसका समन्वय करते हैं, जिस चान्द्र मास में संक्रान्ति नहीं हो, वह अधिक मास होता है। सौर वर्ष के साथ चान्द्र वर्ष को चलाते हैं, अतः इसे संवत्सर कहते हैं, या समाज इसके अनुसार चलता है, अतः यह संवत्सर है (सम्-वत्-सरति = समान गति से चलता है)। सौर वर्ष आरम्भ में चान्द्र तिथि के अन्तर के अनुसार इसके ५ भेद हैं, जिनमें वर्ष के पहले ५ उपसर्ग लगते हैं-सम्परीदान्वितः (सम्, परि, इदा, अनु, इत)।
चान्द्र तिथि में एक कठिनाई है। यह क्रमागत दिन में नहीँ है। पञ्चमी तिथि के बाद स्थान के अनुसार तीन प्रकार की तिथि हो सकती है-५, ६ या ७। अतः क्रमागत दिनों की गणना के लिये एक अन्य विधि की जरूरत है। यह पद्धति शक वर्ष है। शक या संवत्-दोनों के आरम्भ करने वाले को शक-कर्ता ही कहते हैं। यह राजा द्वारा ही हो सकता है। कोई व्यक्ति कितना भी विद्वान् क्यों न हो, उसकी बात समाज नहीं मानेग। राजा के आदेश से ही संवत् या शक चल सकता है। आज दुर्गा पूजा की छुट्टी होगी या नहीं, यह शासन द्वारा ही तय होगा। गणना के लिये हर भाषा में एक का प्रतीक कुश है। एक-एक संख्या जोड़ कर अगली संख्याएं बनती हैं। इनका समूह कुश के गट्ठर जैसा शक्तिशाली होने से शक है। बड़े कुश या स्तम्भ के आकार का वृक्ष भी शक है-उत्तर भारत में साल (शक = सखुआ), दक्षिण भारत में टीक (शकवन = सागवान)। आस्ट्रेलिया में ३०० प्रकार के युकलिप्टस शक वृक्ष हैं, अतः यह शक द्वीप था। भारत के भीतर गोरखपुर से कोरापुट तक सालवन का क्षेत्र लघु शकद्वीप है, जो शकद्वीपीय ब्राह्मणों का क्षेत्र है। मध्य एशिया तथा दक्षिण यूरोप की बिखरी जातियों का संघ भी शक्तिशाली हो गया था, अतः उनको भी शक कहते थे।
शक तथा संवत्-दोनों में गणित तथा व्यावहारिक दिन मास आदि भिन्न होते हैं, जिसके बारे मे न्यूगेबायर ने नहीँ सोचा था। तिथि का आरम्भ कभी भी हो सकता है, किन्तु व्यवहार में स्थानीय सूर्योदय से ही तिथि मानते हैं। सूर्य संक्रान्ति के अनुसार मास है, पर उसका आरम्भ प्रतिपदा तिथि से ही मानते हैं।
दो उद्देश्यों के लिये दो प्रकार की वर्ष गणना स्पष्ट है। संवत् प्रवर्तक विक्रमादित्य के मुख्य ज्योतिषी वराहमिहिर थे। अतः उन्हीं की सलाह से विक्रम संवत् आरम्भ हो सकता है। किन्तु गणना के स्वयं वराहमिहिर ने विक्रम संवत् का प्रयोग नहीं किया है। उन्होंने ६१२ ईपू से आरम्भ शक का प्रयोग किया है (बृहत् संहिता, (१३/३) जिसे ब्रह्मगुप्त ने चाप (चपहानि या चाहमान) शक कहा है। इसी प्रका पिछले ५०० वर्षों से गणेश दैवज्ञ का ग्रहलाघव प्रचलित है जिसमें शालिवाहन शक के अनुसार गणना है। किन्तु इसी लेखक की मुहूर्त चिन्तामणि आदि पुस्तकों में संवत् का प्रयोग है।
गणना या दिन के हिसाब के लिये शक उपयुक्त है। उसी के अनुसार कहते हैं कि आज कौन सी तिथि होगी। यह नहीँ पूछते कि पूर्णिमा को कौन सा दिन होगा।
१९५७ में नेहरू ने राष्ट्रीय शक इस लिये चलाया क्योंकि उनको यह विदेशी शकों द्वारा चलाया हुआ लगता था। अल बरूनी की पुस्तक प्राचीन देशों की काल गणना (Calendar of Ancient Nations) के अनुसार आज तक किसी भी शक राजा ने अपना कैलेण्डर नहीँ चलाया था। वे ईरान या सुमेरिया के कैलेंडर का व्यवहार करते थे। यह वैसे भी स्पष्ट है। यदि विदेशी शकों द्वारा पश्चिमोत्तर भारत में शक चलाया जाता तो केवल उसी क्षेत्र में तात्कालिक प्रयोग होता तथा उनके जाने के बाद समाप्त हो जाता। पर इसका प्रयोग दक्षिणी भारत में भी आज तक है तथा कम्बोडिया और फिलीपीन के पुरालेखों में भी इसका प्रयोग है। विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन का नाम गायब कर एक काल्पनिक शक राजा कनिष्क खोजा गया जो ७८ ई में शक आरम्भ करने वाला विदेशी नहीं था। राजतरंगिणी के अनुसार कनिष्क कश्मीर के गोनन्द वंश का ४३वां राजा था तथा शालिवाहन शक आरम्भ ७८ ई से १३४० वर्ष पूर्व १२६२ ई पू में उसकी मृत्यु हो चुकी थी।
तथाकथित राष्ट्रीय शक संवत् अभी तक चल नहीँ पाया है क्योंकि यह न शक है न संवत्, केवल रोमन कैलेण्डर की नकल है। अभी शालिवाहन शक का प्रयोग गणना के लिये नहीं हो रहा है। हमारे सभी सूत्र रोमन कैलेण्डर के संशोधित रूप पर ही आधारित हैं। अतः इसके प्रयोग में कोई अपराध बोध नहीँ होना चाहिए।
समाज व्यवहार के लिए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही वर्ष आरम्भ मानना उचित है। इस मास में मेष संक्रान्ति होती है, इसका यह अर्थ नहीँ है कि रोमन सौर वर्ष की नकल पर संक्रान्ति से वर्ष आरम्भ करें। ओड़िशा, केरल, तमिलनाडु में सौर वर्ष को अपनी स्थानीय संस्कृति मान रहे हैं, पर यहां भी आज तक किसी ने नहीँ कहा कि रथयात्रा कर्क मास की ५ तिथि को होगी। सदा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को ही रथ यात्रा होती है तथा अधिक आषाढ़ मास में नव कलेवर जो हर्षवर्धन शासन में ६४२ ई में हुआ था (हुएनसांग के अनुसार कई वर्ष बाद यह हुआ)।
अन्य उद्देश्य के लिए वर्ष या दिन का आरम्भ अलग समय भी होता है। दिव्य दिन (सौर वर्ष) का आरम्भ उत्तरायण से होता है जब भीष्म पितामह ने देह त्याग किया था। रोमन कैलेण्डर भी इसी दिन आरम्भ होना था पर लोगों ने ७ दिन बाद चान्द्र मास के सा आरम्भ किया। मूल वर्ष आरम्भ कि तिथि २५ दिसम्बर हो गयी जिसे कृष्ण मास या क्रिसमस नाम दिया।
रथयात्रा भी अदिति युग में (१७५०० ई पू) वर्ष आरम्भ का उत्सव था, जब पुनर्वसु नक्षत्र से वर्ष आरम्भ होता था। अतः पुनर्वसु का देवता अदिति है तथा शान्ति पाठ में कहते हैं-अदितिर्जातं अदितिर्जनित्वम् (अदिति से वर्ष समाप्त हुआ तथा नया आरम्भ हुआ)।
उसके प्रायः १८०० वर्ष बाद कार्तिकेय कैलेण्डर में धनिष्ठा नक्षत्र या माघ मास से वर्ष आरम्भ हुआ (महाभारत, उद्योग पर्व, २३०/८-१०) जब उसमेँ वर्षा ऋतु का आरम्भ होता था। अतः संवत्सर को वर्ष या अब्द (अप् या जल देने वाला) भी कहते हैं। यही व्यवस्था वेदाङ्ग ज्योतिष में है।
पुराणों में राजाओं के राजत्व काल की गणना भाद्र शुक्ल द्वादशी से है जब वामन ने बलि से इन्द्र के तीनों लोक वापस लिये थे। अतः इसे वामन द्वादशी कहते हैं। यह ओड़िशा में आज भी प्रचलित है तथा इहे अंक पद्धति कहते हैं। केरल में इसे ओणम कहते हैं पर भाद्र शुक्ल द्वादशी के बदले सिंह मास की ५ तिथि को मनाते हैं। किसी वर्ष में इस तिथि को भाद्र शुक्ल द्वादशी हुई होगी जब अंग्रेजी नकल से सौर मास को पर्व होने लगा। पुराणों में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है।
लौकिक काम के लिये सूर्योदयसे दिन आरम्भ होता है। पर गणना के लिये अर्धरात्रि से क्योंकि किसी भी देशान्तर रेखा पर एक साथ अर्धरात्रि होती है पर सूर्योदय अलग-अलग समय पर।
छाया वेध या पितर कार्यों के लिए मध्याह्न से दिन आरम्भ होता है।
चन्द्र दर्शन (शृङ्गोन्नति साधन के लिये) या रात्रि कालीन शिवरात्रि आदि के लिए सूर्यास्त से दिन का आरम्भ होता है।

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