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🕉 धर्म का सारतत्त्व क्या है ?

  📙 रामचरितमानस में *धर्म* और *धर्मसार* इन दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। गुरु वशिष्ठ यह स्वीकार करते हैं कि भरत के व्यक्तित्त्व में धर्म नहीं, बल्कि धर्म का सार है। *धर्म-सार और धर्म में क्या अन्तर है ?* इसे यद्यपि किसी दृष्टान्त के द्वारा तो पूरी तरह से स्पष्ट नहीं किया जा सकता, पर समझाने के लिये इसको एक रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
 आम के फल 🥭 को यदि आप देखें तो उसमें तीन भाग होते हैं। आम के सबसे ऊपर छिलका है, बीच में रस और अन्त में गुठली है। और तीनों में से किसी की उयोगिता कम नहीं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यदि आम के ऊपर छिलका न हो तो उसका रस गन्दा हो जायगा, उसका रस बह जायगा, इस प्रकार आम छिलके के द्वारा ही सुरक्षित है। अगर रस के अन्तराल में गुठली न हो तो नये वृक्ष उत्पन्न नहीं होंगे। आप गुठली को भूमि में डाल दीजिये तो उस गुठली से नया वृक्ष उत्पन्न हो जायगा और इस दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि आम के तीनों भाग अत्यन्त उपयोगी हैं। लेकिन इतना होते हुए भी अगर कोई ऐसी बुद्धिमत्ता दिखावे कि तीनों वस्तुओं को उपयोगी मानकर तीनों को ही खा जाय तो उसे आप मनुष्य कहेंगे कि पशु ? इसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि वे तीनों उपयोगी तो हैं लेकिन इस उपयोग का अर्थ यह नहीं हुआ कि तीनों को खा जाना चाहिये। और भई ! अगर हम किसी ऐसे व्यक्ति की कल्पना करें कि जो छिलके और गुठली को तो खा जाय परन्तु रस को फेंक दे, तब तो यही मानना पड़ेगा कि वह पशु से भी गया बीता है। उसके लिये तो पशु शब्द कहना भी अनुपयुक्त है। किन्तु धर्म की तुलना अगर एक आम के फल से का जाय तो उसमें भी आम की तरह तीन भाग हैं। धर्म में एक छिलका है, एक गुठली है और एक रस है। किन्तु तीनों वस्तुओं का स्वरूप क्या है, आइये! इस पर भी थोड़ा विचार करें।
 जब भी धर्म का उपदेश शास्त्र के द्वारा, व्याख्याता के द्वारा अथवा किसी प्रमाण के द्वारा दिया जायगा तो शब्द के माध्यम से ही जायगा। धर्म की व्याख्या जब की जायगी तो शब्द के माध्यम से जायगी। अतः *"शब्द"* ही छिलका है। और धर्म शास्त्रों ने बहधा यह किया है कि जब भी वे किसी धर्म का उपदेश देते हैं तो इसके साथ-साथ मनुष्य को यह भी लोभ दिखाते हैं कि अगर इस धर्म का पालन करोगे तो इसके बदले में तुम्हें क्या मिलेगा ? और क्या मिलेगा, बस ! वही गुठली है और मध्य में जो धर्म का वास्तविक रहस्य है, वही उस आम का सार है। गुरु वशिष्ट की वाणी में भी यह तीनों विद्यमान हैं। छिलका भी है, गुठली भी है और रस भी है। श्री भरत के व्यक्तित्व की विशेषता यह है कि जब वे धर्म की व्याख्या करते हैं तो छिलके और गुठली को अलग करके जो वस्तुतः धर्म का वास्तविक रस है, उसी को व्यक्त करते हैं। और उसी की अभिव्यक्ति उनके चरित्र में होती है। 👏
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