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ध्यान साधना, चमत्कार, और सिद्धियों का भ्रम।

कम शब्दों में संचेप।

(1) ध्यान साधना के दौरान मन के तमाम गाँठे पिघलने लगती, जैसे, क्रोध, काम ईर्ष्या ये सब तमाम नकारतमकता नष्ट होने लगती।

(2) जो साधक नीयमित कुछ समय “ध्यान साधना” करता हैं, वो धीरे धीरे प्रकृतिक नीयम अथवा इसके संचालन के बारे में जान लेते जैसे। जो प्रकृतिक बाहर हैं वही प्रकृतिक जीव के शरीर में भी विद्धमन हैं।

(3) ध्यान साधना प्रगाढ़ होने के बाद जीव के अंदर तमाम “तत्वज्ञान” की जानकारी स्वतः होने लगती और बिना किसी किताब को पढ़े वो हर तरह की जानकारी स्वयं के माध्यम से पा लेता।

(4) जो ध्यान के माध्यम से तत्वज्ञान को समझ लेता “तत्वज्ञान” अर्थात प्रकृतिक अर्थात जिस पंचतत्व से मिलकर शरीर और “प्रकृतिक” का निर्माण होता तो प्रकृतिक उसका साथ देने लगती।

(5) और जैसे जैसे वो पंचतत्व को जानकार ख़ुद को अर्थात “स्वयं” को जान कर ” स्वयं” को पंचतत्व से मुक्त करने लगता अर्थात ” स्थूल” से मुक्त होते जाता वैसे वैसे जीव “अवतरित” होने लगता।

(6) और जब इंसान “सूक्ष्म” को जानकर ” सूक्ष्म” में विश्राम करने लगता उस समय जो वो सोचता या जो वो बोलता, प्रकृतिक उसका सेवक बनकर उसकी हर सोच और हर वाणी को प्रत्यक्ष करने लगता।

(7) और इस अवस्था में पहुँचकर साधक ” जीव” मात्र नहीं रह जाता वो अवतरित होकर “दिव्य पुरुष” में परिवर्तित होने लगता और प्रकृतिक को संचालित करने लगता अपितु इंसान भगवान बन जाता।

इसीलिए बोला जाता आत्मा ही परमात्मा (अहम् ब्रह्म अशमी) अर्थात सूक्ष्म के सबसे अंतिम संस्कार जिसे जीव ख़ुद को उस संस्कार में ढाल देता और ” स्वयं” “ब्रह्मा” बन जाता।

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