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शिव से सम्बन्धित ऐसे तथ्य जो हर साधक को अवश्य जानने चाहिए।

शिव से सम्बन्धित कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो वर्तमान समय में कुछ लोग भोलेनाथ के बारे में दुष्प्रचार करके प्राचीन सनातन धर्म की जड़ों को खोखला कर रहे हैं। आईये आज हम उन कुछ प्रश्नों पर विचार करेंगे जो आम जन को भ्रमित कर रहे हैं और शिव की छवि को धूमिल करके और स्वयं को उनसे भी ऊपर काल्पनिक सदाशिव के नाम का प्रयोग कर मात्र शब्दों के जाल द्वारा भ्रमित कर कलियुग के स्वामी जो कभी सच्चे ईश्वर को पसंद नहीं करता, के समक्ष नतमस्तक हैं।

पहला प्रश्न – शिव कौन हैं, उनके पिता का क्या नाम है?
उत्तर – शिव कोई व्यक्ति या मनुष्य नहीं। वह एक शक्ति हैं। सनातन धर्म एक पूर्ण वैज्ञानिक धर्म है। जिसमें ईश्वर से सम्बन्धित ज्ञान को अनेकों रूपों से परिभाषित किया गया है क्योंकि ईश्वर का न तो कोई रूप है, न ही रंग हैं, न कोई आकार है और न ही वह स्त्री या पुरूष है। वेदों में ईश्वर की इसी प्रकार से स्तुति की गई है। तो वास्तव में आज हम जिस शिव के रूप को जानते हैं वह कौन हैं। क्या वह हमारी कोरी कल्पना है? इसी बात को लेकर अक्सर कुछ लोग भोलेनाथ को अपनी अज्ञानता के कारण मात्र कल्पना मानते हैं। किन्तु शिव को मात्र ग्रन्थों को पढ़कर या शब्दों के साथ खेलकर नहीं जाना जा सकता। क्योंकि शिव एक ऊर्जा है, शिव वह शक्ति है जिसके कारण सृष्टि का प्रारम्भ हुआ उन्हें अलग-अलग ग्रन्थों को पढ़कर शब्दों द्वारा कभी भी नहीं जाना जा सकता। हां यह अवश्य है कि शिव को जानने के पश्चात समस्त ग्रन्थों के भेद को अवश्य समझा जा सकता है क्योंकि भिन्न-भिन्न ग्रन्थों को भिन्न-भिन्न महापुरूषों ने अपने अनुभवों के द्वारा लिखे हैं। सभी महापुरूषों की उपासना का मार्ग भिन्न-भिन्न होने के कारण उनके अनुभवों में उनके काल, समय और भाषा की भिन्नता के कारण बहुत सी विरोधाभासी बातों का समावेश हो जाता है किन्तु हम उन्हें गलत या सही न जानकर मात्र उनके अनुभवों को अपनी साधना में सहायक के रूप में प्रयोग करते हैं तो अवश्य ही हम उनके अनुभवों का लाभ उठा सकते हैं, अन्यथा वह हमारे लिए ज्ञान का परिचायक न होकर अज्ञानता की ओर धकेलते हैं।

दूसरा प्रश्न – शिव के पिता कौन थे?
उत्तर – वहीं दूसरी ओर यदि हम शिव के पिता की बात करें तो यह अत्यन्त ही अज्ञानतापूर्ण और हास्यापद प्रश्न है कि शिव के पिता कौन थे। जब शिव कोई शरीर न होकर मात्र ऊर्जा स्वरूप अनन्त शक्ति हैं जिसका न कोई आदि है और न ही कोई अन्त तो उनके माता या पिता होने का प्रश्न ही नहीं उठता। वह कोई मनुष्य की भांति जन्म नहीं लेते। वह समस्त कालों से परे हैं, स्वयं महाकाल हैं।

तीसरा प्रश्न – क्या शिव भी मनुष्यों की भांति जन्म लेते हैं और मरते हैं?
उत्तर – यहां पर गीता के अध्याय के उद्गरण देकर बताने का असफल प्रयास किया जाता है कि शिव की भी मृत्यु होती है, ब्रह्मा और विष्णु भी जन्म लेते हैं और मरते हैं। यहां पर श्रीकृष्ण ने जो बात अर्जुन को समझाने की कोशिश की है, वहां पर यह प्रश्न पूछने वाले चूक जाते हैं। उन्हें लगता है कि शायद ब्रह्मा, विष्णु और महेश की भी मृत्यु होती है। मात्र गीता का श्रवण कर लेने मात्र से ब्रह्म (ईश्वर, शिव) के सार तत्व को नहीं जाना जा सकता अर्थात जब श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता के उपदेश दे रहे थे तभी वहीं दूसरी ओर संजय अपनी दिव्यदृष्टि से वह सब स्वयं श्रवण करते हुए, राजा धृष्टराष्ट्र को वह सभी उपदेश सुना रहे थे। तो ऐसा क्यों हुआ कि सम्पूर्ण गीता के श्रवण के पश्चात भी राजा धृष्टराष्ट्र अधर्म का त्याग कर धर्म की ओर चले? गीता, रामायण, वेद, पुराण या किसी भी शास्त्र को मात्र शब्दों द्वारा पढ़कर कभी भी ब्रह्म या शिव या ईश्वर को नहीं समझा जा सकता। शब्द तो मात्र ईश्वर की स्तुति का माध्यम भर हैं। उन पर ही अटक कर हम भ्रमित तो हो सकते हैं किन्तु मुक्ति को कभी प्राप्त नहीं हो सकते।

चैथा प्रश्न – शिव किसका ध्यान करते हैं और यदि शिव त्रिकालदर्शी हैं तो क्यों वे यह न जान सके कि भस्मासुर को वरदान देने के पश्चात उन्हें स्वयं उससे बचकर भागना होगा?
उत्तर – शिव को सदैव ध्यान अवस्था में दिखाया जाता है किन्तु इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि शिव भी किसी की उपासना करते हैं और उनसे भी ऊपर कोई अन्य शक्ति उन्हें चलाती है। वास्तव में शिव के जिस स्वरूप को हम आज जानते हैं वह मात्र उनके साधकों के लिए प्रेरणा स्त्रोत्र हैं। शिव से सम्बन्धित जितने भी प्रतीक चिन्ह हैं वह उस परमसत्ता ईश्वर के विषय में ही संकेत देती हैं। भोलेनाथ के सम्बन्धित चिन्हों पर यदि हम दृष्टि डालें तो उनके विषय में अत्यन्त ही गहन समझ की आवश्यकता है। यदि उन्हें समझ लिया जाये तो यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है कि यदि हम शिव को मनुष्य के रूप में जन्म लेने वाला और मृत्यु को प्राप्त होने वाला मान भी लें तो यह कैसे सम्भव है कि कोई मनुष्य की भांति दिखने वाला व्यक्ति अपनी जटाओं में सम्पूर्ण गंगा को समाहित कर सकता है। कैसे इतने बड़े चन्द्रमा को अपने मस्तक पर धारण कर सकता है और कैसे वह अनेकों कार्य कर सकता है जो प्राचीन कथाओं में प्रचलित हैं। वास्तव में यह समस्त कथाएं उन साधकों के लिए हैं जिनका लक्ष्य शिव को साघ्य न जानकर स्वयं शिव हो जाना है।

शिव त्रिकालदर्शी हैं अर्थात जो भी गुण हम परमपिता परमात्मा के लिए जानते हैं। वह सभी शिव में विद्यमान हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि शिव अलग हैं और परमात्मा अलग। वास्तव में दोनों एक ही हैं। परमात्मा जिनका कोई स्वरूप नहीं, कभी जन्म नहीं लिया, स्वयंभू हैं उन्हें हम बिना किसी साधना के अनुभव के बिना किसी स्वरूप के कैसे समझ सकते है। शिव का स्वरूप जिन्हें हम जानते हैं, जिनकी पूजा अर्चना करते हैं, वास्तव में प्रारम्भिक चरण के उन साधकों के लिए हैं जो अभी जान न सके हैं कि वास्तव में शिव अर्थात ईश्वर अरूप हैं। अरूप तक पहुंचने का मार्ग रूप से होकर गुजरता है। सगुण उपासना से होते हुए साधक निर्गुण की ओर पहुंचता है।
अब यदि हम किसी निर्गुण विचारधारा के महापुरूष के अनुभव को पढ़ते हैं तब वहां सगुणवाद निरर्थक जान पड़ता है। इसका आशय यह नहीं है कि सगुणवाद निरर्थक है। सनातन धर्म की पूर्णता ही यही है कि वह समस्त को एक साथ लेकर चलता है और महाकाल भोलेनाथ में समस्त को स्वीकार करने का गुण इस बात का प्रमाण है कि वही सगुण रूप के द्वारा जो वास्तव में निर्गुण है। यह ज्ञान मात्र साधक को साधना करने के पश्चात स्वयंमेव हो जाता है। शब्दों के द्वारा मात्र कलियुग के बन्धनों में बन्धने के समान है।

पांचवा प्रश्न – शिव की उपासना करने वाला रावण क्यों राक्षस कहलाता है?
उत्तर – इस प्रश्न के उत्तर हेतु यह जान लेना आवश्यक है कि वास्तव में सुर, असुर और मनुष्य क्या है? क्या यह सब भिन्न-भिन्न जातियों से संबंध रखते हैं? इसका उत्तर हैं कदापि नहीं। वास्तव में यह सभी दशाऐं मात्र मनुष्य के कर्म और उसका चुनाव पर निर्भर करता है कि वह किसका चुनाव करता है। शिव जोकि ईश्वर हैं और ईश्वर कभी भी किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। फिर चाहे वह मनुष्य हो, पशु हों या फिर नरभक्षी राक्षस। कर्म करने का चुनाव मात्र मनुष्य को प्राप्त है और जो भी साधक ईश्वर का स्मरण करता है ईश्वर वह उसे सबकुछ प्रदान करता है जो भी उसे मिलना चाहिए। किन्तु कर्म करने की क्षमता होने के कारण मनुष्य इस बात का चुनाव कर सकता है कि वह प्राप्त शक्ति का कैसे प्रयोग करता है। यदि वह बुराई करता है तो यहां ईश्वर की कोई गलती नहीं क्योंकि यदि रावण शिव का परम भक्त था तो श्रीराम भी शिव के परम भक्त थे। हनुमान स्वयं शिव के अवतार थे। श्रीराम, श्रीकृष्ण, हनुमान और न जाने कितने ऐसे नाम है जो परम शिव भक्त थे, जिनका नाम परम सम्मानित महापुरूषों में लिया जाता है। कर्म करने की योग्यता के कारण मानव जन्म-जन्मांतरों तक जन्म मरण के चक्रों में चक्कर काटता रहता है। ईश्वर सब पर बराबर रूप से दया दृष्टि रखता है। वह सभी को मनुष्य जन्म देकर ईश्वर की आराधना करने का अवसर प्रदान करते हैं ताकि वह मनुष्य जन्म में शिव महारहस्य महाविद्या के ज्ञान साधना द्वारा मुक्ति को प्राप्त होकर शिव में शिव हो सके।

     

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