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आयुर्वेद के आहार सबंधी 25 महावाक्य

जब भूख लगती है तब सिद्धांत नहीं भोजन चाहिये। भोजन एक व्यक्तिगत मसला है। परन्तु यदि हम आयुर्वेद के कुछ महावाक्यों को याद रखकर, और उस ज्ञान का उपयोग करते हुये भोजन करें तो स्वास्थ्य उत्तम स्वास्थ्य बने रहने की संभावना बनी रहती है। आज की चर्चा आयुर्वेद के आहार-विषयक महावाक्यों पर केन्द्रित है, जिनकी वैज्ञानिकता का लोहा दुनिया भर के वैज्ञानिक आज भी मानते हैं। तो आइये, आनंद लेते हैं इस ज्ञान का जो हमें बीमारी से बचाकर परिवार का लाखों रूपया व्यर्थ होने से बचाने में सक्षम हैं। और हाँ, आयुर्वेद में ज्ञान की सीमायें अनंत हैं। मेरे ध्यान में भोजन से संबंधित लगभग 1000 महावाक्य हैं। उनमें से यह केवल प्रारंभिक सूची है जिसके बिना हमारा काम ही नहीं चल सकता। आप इसमें अपने प्रिय सूत्र या प्रिय महावाक्य जोड़ते रहिये, स्वस्थ रहिये और प्रसन्न रहिये।

  1. आरोग्यं भोजनाधीनम्। (काश्यपसंहिता, खि. 5.9): सबसे पहले तो हमें यह जान लेना चाहिये, जैसा कि महर्षि कश्यप कहते हैं, कि आरोग्य भोजन के अधीन होता है। सारा खेल भोजन का है। इस महावाक्य का अर्थ यह मानिये कि खाने को खानापूर्ति की तरह मत लीजिये।
  2. नाप्रक्षालितपाणिपादवदनो (च.सू.8.20): महर्षि चरक ने कम से कम पांच हजार साल पहले यह महत्वपूर्ण सूत्र दिया था। आचार्य वाग्भट ने भी इसे सातवीं-आठवीं शताब्दी में धौतपादकराननः (अ.हृ.सू. 8.35-38) के रूप में पुनः लिखा। इसका साधारण अर्थ यह है कि भोजन करने के पूर्व हाथ, पाँव व मुंह धोना आवश्यक है। इसके वैज्ञानिक महत्त्व पर बड़ी शोध हुई है। उनमें से एक बात यह है कि लन्दन स्कूल ऑफ़ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के वैज्ञानिकों द्वारा की गयी एक शोध से पता लगा है कि हाथ धोये बिना भोजन लेने की आदत के कारण अनेक बीमारियाँ संक्रमित करती हैं। हाथ धोये बिना खाना खाने की आदत के कारण अकेले डायरिया से ही सालाना 23.25 अरब डॉलर की हानि भारत को हो रही है। यह हानि भारतीय अर्थव्यवस्था के कुल जीडीपी का 1.2 प्रतिशत है। हाथ धोने में लगने वाले कुल खर्च को समायोजित करने के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था को सालाना 5.64 अरब डॉलर की बचत हो सकती है। यह हाथ धोने में संभावित लागत का 92 गुना है। आयुर्वेद में भोजन के सम्बन्ध में अनेक महावाक्य हैं जिनका पालन कर परिवार, समाज और देश का बहुत धन बचाया जा सकता है।
  3. आहारः प्रीणनः सद्यो बलकृद्देहधारकः। आयुस्तेजः समुत्साहस्मृत्योजोऽग्निविवर्द्धनः। (सु.चि., 24.68): स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा और बीमारी को रोकने में भोजन का स्थान रसायन और औषधि से कम नहीं है। इस सूत्र का अर्थ यह है कि आहार से संतुष्टि, तत्क्षण शक्ति, और संबल मिलता है, तथा आयु, तेज, उत्साह, याददाश्त, ओज, एवं पाचन में वृद्धि होती है। सन्देश यह है कि साफ़-सुथरा, प्राकृतिक और पौष्टिक भोजन शरीर, मन और आत्मा की प्रसन्नता और स्वास्थ्य के लिये आवश्यक है।
  4. नाशुद्धमुखो (च.सू.8.20): अशुद्ध मुंह से अर्थात मुंह की शुद्धता सुनिश्चित किये बिना भोजन नहीं लेना चाहिये। साफ़-सफाई के पश्चात ही भोजन का आनंद लेना उपयुक्त रहता है।
  5. न कुत्सयन्न कुत्सितं न प्रतिकूलोपहितमन्नमाददीत (च.सू.8.20): दूषित अन्न या भोजन या दुश्मन या विरोधियों द्वारा दिया गया भोजन नहीं खाना चाहिये।
  6. न नक्तं दधि भुञ्जीत (च.सू.8.20): रात में दही नहीं खाना चाहिये। असल में दही यदि ताज़ा न हो तो उसके लाभदायक गुण नष्ट हो जाते हैं। इसीलिये यह महावाक्य बहुत उपयोगी है।
  7. नसक्तूनेकानश्नीयान्न निशि न भुक्त्वा न बहून्न द्विर्नोदकान्तरितात् न छित्त्वा द्विजैर्भक्षयेत् (च.सू.8.20): सत्तू—भुने हुये अनाज का आटा—घी और चीनी के मिश्रण के बिना नहीं खाना चाहिये। सत्तू को रात में, भोजन के बाद, अधिक मात्रा में, दिन में दो बार, या पानी पी पी कर ठांस कर, या दांतों को किटकिटाते हुये भी नहीं खाना चाहिये।
  8. पूर्वं मधुरमश्नीयान् (सु.सू.46.460): भोजन में सबसे पहले मधुर या मीठे पदार्थ खाना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि भोजन पूरा करने के बाद मिठाई या आइसक्रीम में हाथ मारना नुकसानदायक है। भोजन का अंत सदैव कटु, तिक्त या कषाय रस से करना चाहिये।
  9. आदौ फलानि भुञ्जीत (सु.सू.46.461): फल भोजन के प्रारंभ में खाना चाहिये। भोजन के अंत में फल खाने की परंपरा अनुचित है।
  10. पिष्टान्नं नैव भुज्जीत (सु.सू.46.494): पीठी वाले भोजन प्रायः नहीं लेना चाहिये। अगर बहुत भूखे हैं तो कम मात्रा में पिष्टान्न लेकर उससे दुगनी मात्रा में पानी पीना चाहिये।
  11. हिताहितोपसंयुक्तमन्नं समशनं स्मृतम्। बहु स्तोकमकाले वा तज्ज्ञेयं विषमाशनम्।। अजीर्णे भुज्यते यत्तु तदध्यशनमुच्यते। त्रयमेतन्निहन्त्याशु बहून्व्याधीन्करोति वा।। (सु.सू.46.494): हितकर और अहितकर भोजन को मिलकर खाना (समशन), कभी अधिक कभी कम या कभी समय पर कभी असमय खाना (विषमाशन) या पहले खाये हुये भोजन के बिना पचे ही पुनः खाना (अध्यशन) शीघ्र ही अनेक बीमारियों को जन्म दे देते हैं। आज की स्थिति में बढ़ रही जीवन-शैली से जुड़ी बीमारियों का यही कारण है।
  12. प्राग्भुक्ते त्वविविक्तेऽग्नौ द्विरन्नं न समाचरेत्। पूर्वभुक्ते विदग्धेऽन्ने भुञ्जानो हन्ति पावकम्। (सु.सू.46.492-493): सुबह खाने के बाद जब तक तेज भूख न लगे तब तक दुबारा अन्न नहीं खाना चाहिये। पहले का खाया हुआ अन्न विदग्ध हो जाता है और ऐसी दशा में फिर खाने वाला इंसान अपनी पाचकाग्नि को नष्ट कर लेता है।
  13. भुक्त्वा राजवदासीत यावदन्नक्लमो गतः। ततः पादशतं गत्वा वामपार्श्वेन संविशेत्।। (सु.सू.46.487): भोजन के बाद राजा की तरह सीधा तन कर बैठना चाहिये ताकि भोजन का क्लम हो जाये। फिर सौ कदम चल कर बायें करवट लेट जाना चाहिये।
  14. भुक्त्वाऽपि यत् प्रार्थयते भूयस्तत् स्वादु भोजनम् (सु.सू.46.482): जिस भोजन को खाने के बाद पुनः माँगा जाये, समझिये वह स्वादिष्ट है।
  15. उष्णमश्नीयात् (च.वि.1.24.1): उष्ण आहार करना चाहिये। परन्तु ध्यान रखिये कि बहुत गर्म भोजन से मद, दाह, प्यास, बल-हानि, चक्कर आना व पित्त-विकार उत्पन्न होते हैं।
  16. स्निग्धमश्नीयात् (च.वि.1.24.2): स्निग्ध भोजन करना चाहिये। परन्तु घी में डूबे हुये तरमाल के रूप में नहीं। रूखा-सूखा भोजन बल, वर्ण, आदि का नाश करता है परन्तु बहुत स्निग्ध भोजन कफ, लार, दिल में बोझ, आलस्य व अरुचि उत्पन्न करता है।
  17. मात्रावदश्नीयात् (च.वि.1.24.3): मात्रापूर्वक भोजन करना चाहिये। भोजन आवश्यकता से कम या अधिक नहीं करना चाहिये।
  18. जीर्णेऽश्नीयात् (च.वि.1.24.4): पूर्व में ग्रहण किये भोजन के जीर्ण होने या पच जाने के बाद ही भोजन करना चाहिये।
  19. वीर्याविरुद्धमश्नीयात् (च.वि.1.24.5): वीर्य के अनुकूल भोजन करना चाहिये। अर्थात् विरुद्ध वीर्य वाले खाद्य-पदार्थों, जैसे दूध और खट्टा अचार आदि को मिलाकर नहीं खाना चाहिये।
  20. इष्टे देशे इष्टसर्वोपकरणं चाश्नीयात् (च.वि.1.24.6): मन के अनुकूल स्थान और सामग्री के साथ भोजन करना चाहिये। अभीष्ट सामग्री के साथ भोजन करने से मन अच्छा रहता है।
  21. नातिद्रुतमश्नीयात् (च.वि.1.24.7): बहुत तेज गति या जल्दबाज़ी में भोजन नहीं करना चाहिये।
  22. नातिविलम्बितमश्नीयात् (च.वि.1.24.8): अत्यंत विलम्बपूर्वक भोजन नहीं करना चाहिये।
  23. अजल्पन्नहसन् तन्मना भुञ्जीत (च.वि.1.24.9): बिना बोले बिना हँसे तन्मयतापूर्वक भोजन करना चाहिये। भोजन और तन्मयता का संबंध इतना प्रगाढ़ है कि भोजन के संबंध में आयुर्वेद में दी गई सम्पूर्ण सलाह निरर्थक जा सकती है, यदि भोजन तन्मयता के साथ न किया जाये।
  24. आत्मानमभिसमीक्ष्य भुञ्जीत (च.वि.1.25): पूर्ण रूप से स्वयं की समीक्षा कर भोजन करना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि शरीर के लिये हितकारी और अहितकारी, सुखकर और दुःखकर द्रव्यों का शरीर के परिप्रेक्ष्य में गुण-धर्म का ध्यान रखते हुये यहाँ दिये गये महावाक्यों के अनुरूप ही भोजन करने का लाभ है।
  25. अशितश्चोदकं युक्त्या भुञ्जानश्चान्तरा पिबेत् (सु.सू.46.482): भोजन के पश्चात युक्तिपूर्वक पानी की मात्रा लेना चाहिये। तात्पर्य यह है कि खाने के बाद गटागट लोटा भर जल नहीं चढ़ा लेना चाहिये।

स्वस्थ रहने के लिये खाद्य-पदार्थों के चयन एवं भोजन के संबंध में आयुर्वेद के इन महावाक्यों की भूमिका को स्वीकार करना और व्यवहार में लाना आवश्यक है। हाल ही में भोजन से जुड़े इन महावाक्यों पर रेण्डम सैम्पल के आधार पर चयनित 60 आयुर्वेदाचार्यों को एक लघु प्रश्नावली भेजी गई। उनके उत्तरों में से स्कोरिंग वाले हिस्से को दुनियाभर में स्वीकार्य लिकर्ट-स्केल पर सहमति या असहमति की तीव्रता को नापा गया। इसमें दृढ़-असहमति, असहमति, न-सहमति-न-असहमति, सहमति, दृढ़-सहमति के स्केल पर एक्सपर्ट-जजमेंट विधि से जानकारी ली गई। प्राप्त निष्कर्षों का सारांश यह था कि रोगियों तथा स्वस्थ व्यक्ति के संबंध में भोजन के इन तमाम आयुर्वेदिक सिद्धांतों की समकालीन उपयोगिता यथावत है। इन सिद्धांतों में सभी उपयोगी हैं अतः सभी का यथासंभव पालन करना चाहिये। परंतु यदि आप अति-विकट परिस्थिति में हैं तो भी तीन महावाक्यों की सलाह के साथ किसी कीमत पर कदापि समझौता नहीं किया जा सकता: पहले किये गये भोजन के जीर्ण होने (पच जाने) पर ही भोजन करना, समुचित मात्रा में भोजन करना, तथा तन्मयतापूर्वक होकर भोजन करना।
भोजन की खामी से होने वाली एसिडिटी या पेट की जलन के लिये ओमेज़, ओम्प्रजोल या प्रिलोसेक या ऐसी तमाम प्रोटोन पंप इन्हिबिटर्स का दीर्घकालिक प्रयोग बहुत हानिकारक है| प्रोटॉन पंप अवरोधक दवा उनमें से हैं जिनका लंबी अवधि के उपचार के लिए उपयोग विशेष रूप से बढ़ रहा है| अक्सर इनके निर्धारित मात्रा से ज्यादा और अनुचित उपयोग से भारी प्रतिकूल प्रभावों का पता चला है| इनमें संक्रमण का खतरा बढ़ना, विटामिन और खनिजों के आंतों में अवशोषण को कम करना, गुर्दे की क्षति और मनोभ्रंश या डेमेंशिया शामिल हैं। इसके अलावा, कुछ अध्ययनों में बृहदान्त्र कैंसर, गैस्ट्रिक कैंसर, हृदय जोखिम, विटामिन बी 12 की कमी, हाइपोमैग्नेसीमिया, हाइपोनैट्रीमिया और फ्रैक्चर का जोखिम बढ़ने का खतरा बताया गया है।

उम्र-आधारित रोग-जनन (ऐज-रिलेटेड पैथोजेनेसिस) का मुख्य कारण भोजन के संबंध में आयुर्वेद की सलाह को न मानना भी है। यदि भोजन, शरीर, मन, व पर्यावरण के अंतर्संबंध को समझ लें तो स्वस्थ रहना संभव है। तनाव-जनित अपक्षयी तथा गैरसंचारी रोग जैसे कैंसर, मधुमेह, उच्च-रक्तचाप आदि की समस्या से जूझ रहे विश्व का कल्याण आयुर्वेद में दी गयी सलाह के प्रयोग पर निर्भर है।


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