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होमियोपैथिक ओषधि वैदिक-विज्ञान का प्रमाण
१. कई प्रकार के सिद्धान्त-आधुनिक सृष्टि विज्ञान में जब से एकत्व की खोज आरम्भ हुई है, तब से सृष्टि विज्ञान के सिद्धान्तों की संख्या बढती जा रही है। अभी कम-से-कम २२ प्रकार के सिद्धान्त हैं। ३ से लेकर ११ आयामों के सिद्धान्त, मूल पदार्थ परमाणु कण, क्वार्क या कई प्रकार के स्ट्रिंग। १० आयामी स्ट्रिंग तथा एम-स्ट्रिंग के ही कई प्रकार के सिद्धान्त हैं। ये कुछ कल्पनाओं के साथ गणित के समीकरण हैं जिनका न कोई हल है, न भौतिक स्वरूप ज्ञात है।
नेबुला या विशाल मेघ की कल्पना से यह आरम्भ हुआ, जिसकी कई स्थानों पर वेद में चर्चा है। वहां विभिन्न स्तर के मूल तत्त्वों को जल जैसा (रस, सरिर्, अप्, अम्भ, मर) तथा उनके विस्तार को समुद्र (नभस्वान्, सरस्वान्, सावित्र) कहा है। निर्मित पिण्ड को ३ प्रकार की भूमि (ब्रह्माण्ड, सौर मण्डल, पृथ्वी) कहा है। बीच की स्थिति ३ प्रकार का अन्तरिक्ष है, जो मूल स्रोत जैसा दीखता है (अर्यमा, वरुण, मित्र)। बीच की स्थिति मेघ (जल+ वायु) या वराह (भूमि + जल का जीव) है।
सभी सिद्धान्तों की मूल कल्पना है कि पूरा विश्व एक जैसा है-हर स्थान, दिशा, काल में। पर यह किसी स्तर पर एक जैसा नहीं दीखता है। अणोरणीयान् से महतो महीयान् तक के स्तरों के आकारों का क्या अनुपात होगा इसकी कहीं चर्चा नहीं है, जो वैदिक सिद्धान्तों में हैं। सभी आयामों के भौतिक स्वरूप का भी उल्लेख है।
अब्राहम मतों के एक ईश्वर की कल्पना का अर्थ हो गया कि कई ईश्वर हैं तथा दूसरे ईश्वरों को मानने वालों की हत्या चलती रहती है। इसी प्रकार एक सृष्टि विज्ञान बनाने की चेष्टा में कई कल्पनायें हो गयी हैं। ब्रह्म एक होने का अर्थ यह है कि विज्ञान के नियम पूरे विश्व में एक हैं। पदार्थ की रचना तथा गुण समान होंगे। सबसे सूक्ष्म या सबसे विराट् स्तर पर विश्व एक जैसा है। किन्तु उनका गणितीय सिद्धान्त एक नहीं हो सकता, जैसा कुर्ट गोडेल ने १९२३ में सिद्ध किया। इसके कई कारण हैं-कुछ चीजें पिण्ड या कण रूप हैं, जिनको गिना जा सकता है। वह ज्ञान या गणित गणेश रूप है। कई चीजें पूरे आकाश में फैली हुई हैं, जिनको गिन नहीं सकते। यह रस रूप विद्या रस-वती या सरस्वती है। इसके लिए संख्या भी कई प्रकार की हैं-पूर्ण या गिनती के लिए, रेखा या आकाश के विन्दु, गणित सूत्रों से परे। इनको विष्णु सहस्रनाम में ३ प्रकार के अनन्त कहा है-अनन्त, असंख्येय, अप्रमेय। यह प्रमाणित होने पर भी सभी सिद्धान्तों के एकीकरण का प्रयास चलता रहा, और निरर्थक गणित सूत्र बनते गये। भारत में इनका समाधान हुआ कि २ या ३ प्रकार के सिद्धान्त बनाये जायें। एक है पुरुष सिद्धान्त-पिण्डों या विश्व के १३ स्तरों (पुर) के आकारों का अनुपात। दूसरा श्री-सिद्धान्त हैजिसके अनुसार आकाश में १० आयाम हैं। इनमें ५ आयाम यान्त्रिक विश्व की व्याख्या करते हैं (५ मा छन्द, मा की मूल इकाईयां)। अगले आयाम ६ से १० तक चेतना के विभिन्न रूपों की व्याख्या करते हैं जो चिति या व्यवस्था और क्रम निर्धारित कर सके। अतः पूरा विश्व समझने के लिए ५-१० आयाम तक के ६ दर्शन तथा दर्श-वाक् (लिपि) होगी। तीसरा यज्ञ सिद्धान्त कह सकते हैं जो अव्यक्त से ९ प्रकार के निर्माण चक्र हैं। यह काल की भी माप करते हैं। सम्भव है कि पुरुष तथा श्री सिद्धान्तों से ही यज्ञ सिद्धान्त की व्याख्या हो जाये किन्तु मुझे यह स्पष्ट नहीं है। अतः सरलता के लिए ३ सिद्धान्त मान लेते हैं।
सृष्टि विज्ञान की सबसे बड़ी कठिनाई है कि हम सिद्धान्तों को जानने या परीक्षण के लिये प्रयोग नहीं कर सकते। न तो आकाशीय पिण्डों तक पहुंच सकते हैं, न उनकी क्रिया अपने जीवन काल में देख सकते हैं। एकमात्र वैदिक विज्ञान है जिसकी एक वैज्ञानिक परीक्षा होमियोपैथिक दवाओं के रूप में है। इसका आधुनिक विज्ञान में कोई आधार नहीं है। हीनमैन ने प्राचीन शास्त्रों के अध्ययन के आधार पर ही यह सिद्धान्त निकाला था, पर उस समय भारत पराधीन होने के कारण हीनमैन, मैक्समूलर आदि सभी ने भारतीय स्रोतों का बिना उल्लेख किये चोरी की है।
२. होमियोपैथी की विज्ञान विरुद्ध प्रक्रिया-इसकी कई विधियां आधुनिक विज्ञान के विरुद्ध हैं-
(१) जैसा रोग, वैसा लक्षण वाली ओषधि से रोग दूर होता है। आयुर्वेद में एक उक्ति है-विषस्य विषमौषधम्।
(२) केवल अलकोहल घोल में ही ओषधि निर्माण होता है। सोम से निर्माण होने के कारण यह सौम्य है, जिसमें स का उच्चारण ह होने से होम्य या होमियो हो गया है।
(३) सौम्य (मद्य में) घोल को १०० गुणा अलकोहल से पतला (विरल) करने पर उसकी शक्ति १ अर्थात् 1C (C = Centum, 100) होती है। १०० बार ही क्यों? कम शक्ति की दवा को १० गुणा (X = रोमन लिपि में १०) भी विरल किया जाता है।
(४) विरल करने पर ओषधि की शक्ति बढ़ती कैसे है जब उसकी मात्रा बहुत कम हो जाती है?
(५) हर बार १०० गुणा विरल कर केवल ३०, २०० या १००० शक्ति की दवा बनती है। ५०, ३००, ५०० आदि शक्ति की ओषधि क्यों नहीं? १० गुणा विरल करने पर केवल ३, ६, १२ शक्ति की औषधि बनती हैं।
(६) अणु की संख्या अनन्त नहीं है। ३० शक्ति की औषधि में मूल घोल को ३० बार १००-१०० गुणा विरल किया जाता है। यदि मूल घोल में केवल ओषधि पदार्थ भी मान लें, तो इसकी मात्रा ३० शक्ति घोल में १० घात ६० में १ घात से कम होगी। यह पूरे सौर मण्डल में एलेक्ट्रोन की संख्या है (परमाणु का प्रायः २०००वां भाग, अणु का उससे भी छोटा भाग)। अतः ३०, २०० या किसी शक्ति की ओषधि में उस औषधि का कोई अणु नहीं है। फिर उसका प्रभाव कैसे हो रहा है?
इन विन्दुओं की संक्षिप्त व्याख्या नीचे दी जाती है।
३. रोग-ओषधि के समान लक्षण-ओषधि के २ मुख्य अर्थ हैं। एक अर्थ में जिस वृक्ष के फल पकने पर वह नष्ट हो जाता है, उसे ओषधि, अन्य को वनस्पति कहते हैं। ओषः पाकः आसु धीयते, इति ओषधयः (अथर्व वेद, ६/९५/३, सायण भाष्य)। जैसे चावल, गेहूं आदि के वृक्ष फल पकते ही नष्ट हो जाते हैं तथा अगले वर्ष पुनः खेती करनी पड़ती है। ये ओषधि हैं। किन्तु आम, अमरूद आदि वृक्षों में हर वर्ष फल लगते हैं तथा वृक्ष बने रहते हैं। ये वनस्पति हैं। ओषधि का अन्य अर्थ है, जो शरीर को धारण करे, रोग दूर करे तथा शक्ति उत्पन्न करे। ओषधयः ओषद् धयन्तीति वा। ओषत्येना धयन्तीति वा। दोषं धयन्तीति वा (यास्क निरुक्त, ९/२७, शतपथ ब्राह्मण, २/२/४/५)। एक प्रचलित उक्ति है-विषस्य विषमौषधम्। यह १८५० में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का लिखा हिदी नाटक था। इसका तात्पर्य है दुष्ट को दुष्टता से ही ठीक किया जाता है-शठे शाठ्यं समाचरेत्। विष से विष की चिकित्सा होती है, यह उल्लेख अथर्व वेद में है-
विषेण हन्मि ते विषम् (अथर्व सं. ५/१३/४)
जिस ओषध से रोग होता है उसी से दूर होता है। इसका उदाहरण अथर्ववेद के आरोग्य सूक्त (२/३) में है, जिसका देवता धन्वन्तरि (समुद्र मन्थन के समय विष्णु अवतार, सुश्रुत संहिता के मूल लेखक)। स्राव वाला व्रण जो ओषधि करती है उसी से वह ठीक भी होता है। इसमें शतं भेषज लिखा है, क्या इसका अर्थ १०० गुणा विरलता है जो बार बार की जाती है? एक नक्षत्र भी शतभिषक् है।
आदङ्गा कुविदङ्गा शतं या भेषजानि ते। तेषामसि त्वमुत्तममनास्रावमरोगणम्॥२॥
नीचैः खनन्त्यसुरा अरुस्राणमिदं महत्। तदास्रावस्य भेषजं तदु रोगमनीनशत्॥३॥
उपजीका उद्भरन्तिसमुद्रादधिं भेषजम्। तदास्रावस्य भेषजं तदु रोगमनीनशत्॥४॥
अरुस्राणमिदं महत् पृथिव्या अध्युद्भृतम्। तदास्रावस्य भेषजं तदु रोगमनीनशत्॥५॥
ये ओषधियां अंगों से, भूमि खनन कर, नीचे जल या समुद्र से तथा भूमि के ऊपर उत्पन्न वृक्षों से हैं।
४. मद्य घोल में ओषधि-मनुष्य विश्व की आत्मा है-पुरुषोऽयं लोक सम्मित इत्युवाच भगवान् पुनर्वसुः आत्रेयः, यावन्तो हि लोके मूर्तिमन्तो भावविशेषास्तावन्तः पुरुषे, यावन्तः पुरुषे तावन्तो लोके॥ (चरक संहिता, शारीरस्थानम् ५/२)
शतपथ ब्राह्मण (१०/४/४/२) में कहा है कि जितनी ज्योति या नक्षत्र हैं उतने ही लोमगर्त्त है। चर्म पर केश लोम या रोम हैं, उनका गर्त्त कलिल (cell) है। विश्व में जितने ब्रह्माण्ड (ज्योति रूप सूर्यों का समूह-नक्षत्र) हैं उतनी ही ज्योति (सूर्य या तारा गण) हैं, उतने ही शरीर के कलिल या कोषिका हैं।
शतपथ ब्राह्मण (१२/३/२/५) में कहा है कि पुरुष संवत्सर जैसा है। संवत्सर (३६० दिन) में १०,८०० मुहूर्त हैं (प्रतिदिन ३० मुहूर्त-प्रति ४८ मिनट का)। मुहूर्त को ७ बार १५-१५ से विभाजित करने पर लोमगर्त्त होता है जो १ सेकण्ड का प्रायः ७५,००० भाग होगा। १ संवत्सर में जितने लोमगर्त्त हैं, शरीर में उतने ही लोमगर्त्त हैं, अतः इस काल-मान को लोमगर्त्त कहते हैं।
ब्रह्माण्ड की तारा संख्या या शरीर के लोमगर्त्त खर्व संख्या में हैं। उससे अधिक संख्याके कण एक साथ नहीं रह सकते, वे विखर्व (बिखर) हो जाते हैं।
लोमगर्त्त को भी १५ से भाग देने पर (१ सेकण्ड का प्रायः ११,२०,००० भाग) स्वेदायन है, क्योंकि वर्षा की बून्द इतनी दूर बरसती हैं या इतनी बून्द बड़ी वर्षा में गिरती हैं। १ बून्द का आयतन ३/१०० घन सें.मी. होता। यदि १००० वर्ग किलोमीटर में १० सेंमी. वर्षा हुयी, तो उसमें प्रायः इतनी ही बून्दें होंगी जितनी संवत्सर में स्वेदायन-प्रायः १० घात १३। नाम का कारण है कि स्वेद (जल विन्दु) इतनी ही दूरी तक हवामें गिरता है, उसके बात वह टूट जायेगा या दो बून्द मिल जायेंगी। यहां काल माप को दूरी से जोड़ा गया है। स्वेदायन समय में प्रकाश किरण २७० मीटर चलती है, जितनी दूर स्वेद का अयन (चलन) होता है।
आकाश के ५ पर्व शरीर की प्रतिमा शरीर के ५ कोष हैं, जिनका केन्द्र मेरुदण्ड के ५ चक्र हैं।
आकाश में विश्व के ५ पर्व हैं-स्वायम्भुव मण्डल, परमेष्ठी मण्डल, सौरमण्डल, चान्द्र मण्डल,भू-मण्डल। इनके चिह्न माहेश्वर सूत्र के प्रथम ५ वर्ण हैं जो देवनागरी के ५ मूल स्वर हैं-अ, इ, उ, ऋ, लृ। मेरुदण्ड के ५ चक्रों के बीजमन्त्र इनके सवर्ण अन्तःस्थ वर्ण हैं-ह, य, व, र, ल। ऊपर से नीचे ये ५ चक्र हैं-विशुद्धि, अनाहत, मणिपूर, स्वाधिष्ठान, मूलाधार। माहेश्वर सूत्र हैं-अइउण्। ऋलृक्। —- हयवरट्। लण्।
सूर्य जगत् की आत्मा है। ब्रह्माण्ड के मद्य समुद्र में सौरमण्डल तैर रहा है। अतः आत्मा को सन्तुलित करने केलिए मद्य में घोल कर ओषधि दी जाती है।
यस्य त्री पूर्णा मधुना पदान्यक्षीयमाणा स्वधया मदन्त।
य उ त्रिधातु पृथिवीमुत द्यामेको दाधार भुवनानि विश्वा॥४॥
तदस्य प्रियमभि पाथो अश्यां नरो यत्र देवयवो मदन्ति।
उरुक्रम्स्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः॥५॥ (ऋक् १/१५४/४-५)
सूर्य रूपी विष्णु के ३ पद सौर मण्डल के भीतर के ३ पद हैं-१०० सूर्य व्यास दूरी तक ताप क्षेत्र, ३००० व्यास दूरी (यूरेनस कक्षा तक) सौर-वायु, उसके बाद जहां तक सूर्य का तेज ब्रह्माण्ड से अधिक है, वह प्रकाश क्षेत्र तृतीय पद हुआ। जितनी दूरी तक सूर्य एक सामान्य तारा जैसादीख सकता है, वह सूर्य किरण की सीमा या परम पद है। यही ब्रह्माण्ड का व्यास है। यह परम पद रूपी सूर्य का स्रोत मध्व का उत्स (स्रोत) है।
महत् तत् सोमो महिषश्चकार, अपां यद् गर्भो अवृणीत देवान्।
अदधादिन्द्रे पवमान ओजो अजनयत् सूर्ये ज्योतिरिन्दुः॥(ऋक् ९/९७/४१)
= वह महान् सोम महिष कहलाता है, जिसके गर्भ में देवों ने सूर्य तेज रखा, जिसके क्षेत्र में पवमान सोम है।
सूर्य से हमारा सम्बन्ध प्रकाश गति से है जो १ मुहूर्त में ३ बार जा कर लौट आता है-१५ करोड़ किलोमीटर दूरी को पार करने में ३ लाख किमी प्रति सेकण्ड गति से प्रायः ८ मिनट लगेगा। ३ बार जा कर लौटने में ८ x ६ = ४८ मिनट लगेगा।
ब्रह्मसूत्र (४/२/१७-२०)-१-तदोकोऽग्रज्वलनं तत् प्रकाशित द्वारो विद्या सामर्थ्यात् तत् शेष गत्यनुस्मृति योगाच्च हार्दानुगृहीतः शताधिकया।
२. रश्म्यनुसारी। ३. निशि नेति चेन सम्बन्धस्य यावद् देहभावित्वाद् दर्शयति च। ४. अतश्चायनेऽपि दक्षिणे।
रूपं रूपं मघवा बोभवीति मायाः कृण्वानस्तन्वं परि स्वाम्।
त्रिर्यद्दिवः परिमुहूर्त्तमागात् स्वैर्मन्त्रैरनृतुपा ऋतावा॥(ऋग्वेद, ३/५३/८)
त्रिर्ह वा एष (मघवा=इन्द्रः, आदित्यः = सौर प्राणः) एतस्या मुहूर्त्तस्येमां पृथिवीं समन्तः पर्य्येति। (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद्, १/४४/९)
प्रकाश गति से यह सम्बन्ध चन्द्र तथा शनि तक के ग्रहों की गति के कारण प्रभावित होता है जिससे ग्रह प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है।
सूर्य आत्मा जगतस्तथुषश्च (वाजसनेयी यजुर्वेद ७/४२)
तदेते श्लोका भवन्ति-अणुः पन्था विततः पुराणो मां स्पृष्टोऽनुवित्तो मयैव। तेन धीरा अपियन्ति ब्रह्मविदः स्वर्गं लोकमिव ऊर्ध्वं विमुक्ताः।८। तस्मिञ्छुक्लमुत नीलमाहुः पिङ्गलं हरितं लोहितं च। एष पन्था ब्रह्मणा ह्यानुवित्तस्तेनैति ब्रह्मवित्पुण्य कृत्तैजसश्च॥ (बृहदारण्यक उपनिषद् ४/४/८,९)
५. विरल करने से शक्ति वृद्धि-विश्व की उत्पत्ति का मूल स्रोत रस था। रस मिलने से आनन्द होता है, अतः इसे आनन्द भी कहते हैं। पृथ्वी से आरम्भ कर हर अगले धाम में आनन्द १००-१०० गुणा बड़ता है, तथा सौर मण्डल भी विरल होता जाता है। अतः हर बार १०० गुणा विरल किया जाता है। आनन्द बढ़ने से ओषधि की शक्ति बढ़ती है।यद्वै तत् सुकृतं रसो वै सः। रसँ ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति। (तैत्तिरीय उपनिषद् २/७/२)
सैषा ऽऽनन्दस्य मीमांसा भवति। युवा स्यात् साधु युवाध्यापक आशिष्ठो द्रढिष्ठो बलिष्ठस्तस्येयं प्रूथिवी सर्वा वित्तस्य पूर्णा स्यात्। स एको मानुष आनन्दः॥
ते ये शतं मानुषा आनन्दः। स एको मनुष्य-गन्धर्वानामानन्दः। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
ते ये शतं मनुष्य-गन्धर्वानामानन्दाः। स एको देव-गन्धर्वानामानन्दः। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
ते ये शतं देवगन्धर्वानां आनन्दाः। स एकः पितॄणां चिरलोक लोकानां आनन्दः। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
ते ये शतं पितॄणां चिरलोक लोकानामानन्दाः। स एक आजानजानां देवानामानन्दः। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
ते ये शतं आजानजानां देवा नामानन्दाः। स एकः कर्मदेवानामानन्दः। ये कर्मणा देवानपियन्ति श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
ते ये शतं कर्मदेवानां आनन्दाः। स एको देवानां आनन्दः श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
ते ये शतं इन्द्रस्यानन्दाः। स एको बृहस्पतेरानन्दः। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
ते ये शतं बृहस्पतेरानन्दाः। स एकः प्रजापतेरानन्दः। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
ते ये शतं प्रजापतेरानन्दाः। स एको ब्रह्मण आनन्दः। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।
एतं अन्नमयं आत्त्मानं उपसंक्रामति। एतं प्राणमयं आत्मानं उपसंक्रामति। एतं मनोमयं आत्मानं उपसंक्रामति। एतं विज्ञानमयं आत्मानं उपसंक्रामति। एतं आनन्दमयं आत्मानं उपसंक्रामति। (तैत्तिरीय उपनिषद्, २/८)
आनन्द का अनुभव मन द्वारा होता है, अतः मानसिक मूल के रोगों के लिए १००-१०० गुणा विरल किया जाता है।
१०० भाग में विभक्त करने के कई संकेत हैं-
या ओषधीः पूर्वे जाता देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा। मनै नु बभ्रूणामहं शतं धामानि सप्त च॥१॥
शतं वो अम्ब धामानि सहस्रमुत वो रुहः। अधा शतक्रत्वो यूयमिमं मे अगदं कृत॥२॥
अश्वावती सोमावतीमूर्जयन्तीमुदोजसम्। आवित्सि सर्वा ओषधीरस्मा अरिष्टतातय॥७॥
याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा या च पुष्पिणीः। बृहस्पति प्रसूतास्ता नो मुञ्चत्वंहसः॥१५॥
या ओषधीः सोमराज्ञीर्बह्वीः शतविचक्षणा। तासां त्वमस्युत्तमारं कामाय शं हृदे॥१८॥ (ऋक् १०/९७/१-१८)
आ न इन्द्रो शतग्विनं रयिं गोमन्तमश्विनम्। भरा सोम सहस्रिणम्॥ (ऋक् ९/६७/६)
सहस्रेति शतामधो विमानो रजसः कविः। इन्द्राय पवते मदः॥(ऋक् ९/६२/१४)
यच्छतमभिषज्यम्। तच्छतभिषक्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण १/५/२/९)
क्रिया प्रधान रोगों के लिए १० गुणा विरल किया जाता है।
उत त्वा हरितो दश सूरो अयुक्त यातवे। इन्दुरिन्द्र इति ब्रुवन्॥( ऋक् ९/६३/९)
अथ यद्दशमे ऽहन् प्रसूतो भवति तस्माद्दशपेयो ऽथो यद्दश दशैकैकं चमसमनु प्रसृप्ता भवन्ति तस्मद्वेव दशपेयः। (शतपथ ब्राह्मण ५/४/५/३)
श्रीर्वै दशममहः। (ऐतरेय ब्राह्मण ५/२२)
प्रजापतिर्वै दशहोता। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/१/१, २/२/३/२, २/२/८/५, २/२/९/३)
६. निश्चित क्रम तक विरल क्यों-दस गुणा विरल करने के लिए ३, ६ या १२ बार विरल करते हैं। स्थूल शरीर का प्रतीक मूलाधार है जिसमें कुण्डलिनी के ३ पूर्ण चक्र हैं। अतः स्थूल शरीर के लिए ३ बार १०-१० गुणा विरल किया जाता है। जल, वायु तत्त्व के केन्द्र स्वाधिष्ठान तथा अनाहत चक्र हैं जिनमें ६, १२ दल हैं। अतः जल तथा वायु तत्त्वों से सम्बन्धित रोगों के लिए ६, १२ बार विरल करते हैं।
सौर मण्डल ३० धाम तक है। ये धाम पृथ्वी से आरम्भ कर क्रमशः २-२ गुणा बड़े हो जाते हैं। सौर मण्डल का प्रतीक मनुष्य का मणिपूर चक्र है जो नाभि क्षेत्र में है। आधुनिक चिकित्सा में भी से सोलर प्लेक्सस (Solar Plexus) ही कहते हैं। अधिकांश रोग पाचन संस्थान से सम्बन्धित हैं जिनका केन्द्र नाभि है। अतः सूर्य के ३० धामों के अनुसार ३० बार १००-१०० गुणा विरल किया जाता है।
त्रिंशद् धाम वि राजति वाक् पतङ्गाय धीयते। प्रति वस्तो रहद्युभिः॥ (ऋक् १०/१८९/३)
द्वात्रिशतं वै देवरथाह्न्यन्ययं लोकस्तँ समन्तं पृथिवी द्विस्तावत्पर्येति तां समन्तं पृथिवीं द्विस्तावत्समुद्रः पर्येति….. (बृहदारण्यक उपनिषद् ३/३/२)
सूर्य केन्द्रित माप करने पर २०० त्रिज्या पर चान्द्र-मण्डल है जिसके केन्द्र में पृथ्वी है। १००० त्रिज्या पर बृहस्पति है, जो सबसे बड़ा ग्रह है। चन्द्रमा निकट होने के कारण मन को अधिक प्रभावित करता है, अतः यह मन का कारक है। चन्द्र के निकट सोम का प्रथम स्तर है। उसके बाद बृहस्पति या ब्रह्मणस्पति सोम है। अतः मन के अन्तर स्तरों को प्रभावित करने के लिए २०० तथा १००० शक्ति की ओषधि का प्रयोग किया जाता है।
७. बिना ओषधि के किसी अणु के प्रभाव कैसे-इजरायल के हैफा विश्वविद्यालय ने एक कल्पना की थी कि अलकोहल को याद रहता है कि यह ओषधि घोली गयी थी। पर, ३०, २००, १००० बार विरल करने पर ही क्यों याद रहता है, इसकी कोई व्याख्या नहीं है। पहले लिखा जा चुका है कि पूरे सौरमण्डल की मात्रा १० घात ६० इलेक्ट्रान के बराबर है। अतः ३० शक्ति की ओषधि में इलेक्ट्रन स्तर तक विभाजन होने पर भी ओषधि का कोई कण नहीं होगा। पर वेद में पदार्थ के और ४ स्तर के छोटे विभाजन हैं जिनमें कणों की संख्या क्रमशः १०-१० खर्व गुणा अधिक होगी। दो स्तरों की संख्या का अनुपात २ घात ८० = १० घात २४ है, अतः ८० को अशीति (भोजन) छन्द कहते हैं। इस संख्या को आधुनिक रसायन विज्ञान में एवोगाड्रो संख्या कहते हैं।
मनुष्य से छोटे ७ स्तर हैं जिनका आकार क्रमशः १-१ लाख भाग छोटा है। मन्ष्य शरीर भी एक विश्व है। इससे छोटा विश्व कलिल है, जो गर्भ में जाते ही सभी धातु (पोषक पदार्थ) का कलन करने लगता है। इससे छोटा पुनः परमाणु है, जिसके आकार की वस्तु (मीटर का १० घात १० भाग) को जीव कहा गया है, जो किसी कल्प में नष्ट नहीं होता। अणु का पुनः १ लाख भाग करने पर उसकी नाभि होगी जो कुण्डलिनी का आकार कहा गया है। इसके २ आवरण १० तथा १०० गुणा बड़े हैं। बाहरी आवरण बालाग्र (माइक्रोन) का १ कोटि भाग है। इससे छोटे मूल कणों इलेक्ट्रानआदि का आकार परिभाषित नहीं है। इनका तरंग रूप में विस्तार उनकी ऊर्जा के अनुसार घटता है। कुण्डलिनी से छोटे अन्य ४ स्तर हैं-३ प्रकार के जगत् कण (चर = लेप्टान Lepton, स्थाणु = बेरियान Baryon, अनुपूर्व = मेसान Meson)।, देव-दानव (क्रियात्मक-निष्क्रिय प्राण), पितर, ऋषि। इस क्रम में अन्तिम ऋषि तत्त्व का आकार मीटर का १० घात ३५ भाग होगा, जिसे आधुनिक विज्ञान में सबसे छोटी लम्बाई के रूप में प्लांक दूरी कहा गया है।
वालाग्रमात्रं हृदयस्य मध्ये विश्वं देवं जातरूपं वरेण्यं (अथर्वशिर उपनिषद् ५)
अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्व पाशैः ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/१३)
वालाग्र शत साहस्रं तस्य भागस्य भागिनः। तस्य भागस्य भागार्धं तत्क्षये तु निरञ्जनम् ॥ (ध्यानविन्दु उपनिषद् , ४)
ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितॄभ्यो देव दानवाः। देवेभ्यश्च जगत्सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥ (मनुस्मृति, ३/२०१)
वालाग्र शत भागस्य शतधा कल्पितस्य च ॥
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्, ५/९)
षट्चक्र निरूपण, ७-एतस्या मध्यदेशे विलसति परमाऽपूर्वा निर्वाण शक्तिः कोट्यादित्य प्रकाशां त्रिभुवन-जननी
कोटिभागैकरूपा । केशाग्रातिगुह्या निरवधि विलसत .. ।९। अत्रास्ते शिशु-सूर्यकला चन्द्रस्य षोडशी शुद्धा नीरज
सूक्ष्म-तन्तु शतधा भागैक रूपा परा ।७।
(६) असद्वा ऽइदमग्र ऽआसीत् । तदाहः – किं तदासीदिति । ऋषयो वाव तेऽग्रेऽसदासीत् । तदाहुः-के ते ऋषय इति ।
ते यत्पुराऽऽस्मात् सर्वस्मादिदमिच्छन्तः श्रमेण तपसारिषन्-तस्मादृषयः (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/१)

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