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कैसे बने आध्यात्मिक

“अध्यात्म कोई कर्मकांड नहीं है। अध्यात्म पूजा-पाठ नहीं है। हाँ, इन क्रियाकलापों से आध्यात्मिकता के विकास में सहायता मिल सकती है, परंतु केवल इनसे आध्यात्मिकता नहीं मिल सकती। वर्तमान समय में आध्यात्मिकता को अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया गया है, पर यह परिभाषा अपनी मूल अवधारणा पर आधारित नहीं होने के कारण अनेक भ्रांतियाँ एवं भ्रम पैदा करती है। आध्यात्मिकता है विचारों एवं भावनाओं में पवित्रता एवं दिव्यता। अध्यात्म पवित्र एवं परिशोधित चित्त में अवतरित होता है । जब चित्त अपने कलुष संस्कारों से क्लिष्ट संस्कारों में धुल जाता है तो वह ऐसा हो जाता है, जैसे स्वच्छ एवं साफ तारों भरे आसमान में पूर्णिमा का चाँद अपनी शुभ रोशनी बिखेरता है। चित्त के परिशोधन के बाद अंतर्गगन में परमात्मा का प्रकाश स्वत: ही बिखर जाता है, यही अध्यात्म है।

अध्यात्म जीवन की सर्वांगीण दृष्टि है एवं समग्र विज्ञान है। इसमें अधूरापन नहीं है और न यह एकांगी है।यह समग्रता का पर्याय है, जिसमें विचारों एवं भावनाओं में टकराहट नहीं होती है, बल्कि एक सामंजस्य होता है। इस सामंजस्य में जिस सौंदर्य की अनुभूति होती है, उसे ही अध्यात्म कहते हैं। इस सौंदर्य में पवित्रता घुली होती है; इस सौंदर्य में उत्कृष्टता मिली होती है; यह सौंदर्य दैहिक नहीं, आत्मिक होता है। इसी कारण आंतरिक पवित्रता को सर्वोच्च सौंदर्य की संज्ञा दी जाती है। जिसमें यह सौंदर्य होता है, देह से बेडौल-कुरूप होने के बावजूद उसे आध्यात्मिक माना जाता है। सुकरात आध्यात्मिक थे। उनकी देह सुंदर न होने के बावजूद उनके विचार ‘एवं भाव उत्कृष्ट, पवित्र एवं दिव्य थे।

आंतरिक सौंदर्य एवं पवित्रता ही आध्यात्मिकता की कसौटी है, परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं कि जिसकी देह आकर्षक हो, वह आध्यात्मिक नहीं हो सकता। महावीर, भगवान बुद्ध, शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद आदि की देह भी अति आकर्षक थी और मन एवं भाव भी पवित्र थे। उनके आंतरिक एवं बाह्य, दोनों ही पक्ष पवित्र एवं आकर्षक थे। अध्यात्म जगत में यह विरल घटना है, परंतु केवल दैहिक सुंदरता आध्यात्मिकता के किसी मापदंड में नहीं आती है। यदि देह के सौंदर्य को ही अध्यात्म का अंग मान लिया जाए तो संसार में जितने भी सुंदर युवा-युवतियाँ एवं अन्य लोग हैं, वे सारे आध्यात्मिक नहीं मान लिए जाते? अध्यात्म का संबंध देह की पवित्रता से अधिक मन एवं भावनाओं से है। यह पवित्रता आए कैसे ? व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत करे कैसे ? यह प्रश्न अपने साथ ही उत्तर को समेटे हुए है। इसी कारण इसे पहेली कहा जाता है।

पहेली अर्थात प्रश्न में जवाब का छिपा होना। पवित्रता पूजा-पाठ के माध्यम से आए, चाहे ध्यान, भजन, कीर्तन से; निष्काम कर्म से आए, चाहे तपस्या से, परंतु आए बस। जिस भी विधि से हो, आंतरिक पवित्रता में अभिवृद्धि होनी चाहिए; विचार उत्कृष्ट होना चाहिए; भावना सजल होनी चाहिए। यह सब तभी होता है, जब चित्त के क्लिष्ट संस्कार कटते हैं। जैसे-जैसे क्लिष्ट संस्कारों का दहन होता है, वैसे-वैसे चित्त परिशोधित एवं परिमार्जित होता है और पवित्रता बढ़ती है। संस्कारों का दहन सामान्य प्रक्रिया नहीं है और न ही इसे कोई सामान्य यति-भोगी ही कर सकता है। इस कार्य को विशिष्ट एवं दक्ष योगी जैसे महावीर, रमण महर्षि, श्री अरविंद, स्वामी विवेकानंद, शंकराचार्य आदि ही संपन्न कर सकते हैं। ये जिसके संस्कारों का दहन करते हैं, उसको भी देह और मन से सुदृढ़ होना चाहिए, अन्यथा इस दहन-प्रक्रिया में देह चिथड़े-चिथड़े होकर उड़ जाएगी।

संस्कारों का दहन पोखरन में किए गए परमाणु विस्फोट जैसा होता है। इससे अंदर की जमीन दहल जाती है और बाहर भयानक गुबार जैसा निकलता है। संस्कारों के दहन में देह, मन और हृदय पर असंख्य-असंख्य आघात-प्रतिघात चलते हैं। जो इसे झेल॑ जाता है, उसका चित्त निर्मल एवं पावन हो जाता है, परंतु इसे झेलना आसान नहीं है। श्री अरविंद आश्रम में रहने वाले पवित्रा ने श्री माँ से पवित्रता का वरदान माँगा। श्रीमाँ ने कहा–” कुछ और माँग लो, यह अत्यंत दुष्कर एवं कठिन है!” परंतु धुन के पक्के पवित्रा ने कहा–” हमें बस, यही चाहिए। हमारे विचारों में पवित्रता आ जाए, भावनाओं में उत्कृष्टता आ जाए, हमारे बुरे संस्कार कट जाएँ और चित्त परिमर्जित हो जाए।” श्रीमाँ ने कहा– “जाओ हो जाएगा।” और फिर क्या था, पवित्रा रुग्ण और बीमार हो गए। सालो-साल, वर्ष प्रति वर्ष भीषण बीमारी के आघात से आक्रांत हो गए, पर वे विचलित नहीं हुए; क्योंकि वे जानते थे कि यह संस्कार दहन की क्रिया है, जो कि आध्यात्मिकता की अनिवार्य एवं प्रारंभिक कसौटी है।

तपस्या से चित्त धुलता है। तपस्या सूक्ष्मशरीर का दिव्य स्नान है। तपस्था के द्वारा सूक्ष्मशरीर अपने कषाय कल्मपों से मुक्ति पाता है। तपस्या का तात्पर्य है-शुद्ध, श्रेष्ठ एवं शुभ कर्म । इसके द्वारा अंतरिक्ष से प्राणशक्ति मिलती है। जब तक देह, मन एवं भावना अंतरिक्ष से, अपने से संबंधित प्राणशक्तियों से संबंध स्थापित नहीं कर लेते, तब तक व्यक्ति अध्यात्म जगत में प्रवेश नहीं कर पाता। अध्यात्म का सार है कि मन एवं हृदय में इतनी पवित्रता एवं दिव्यता भर जाए कि अंतरिक्ष में एव बाह्य अनंत प्राणशक्तियों से इनका संपर्क हो जाए और इन पर विनाशकारी तमस्‌ की छाया न पड़े। जब दिव्यशक्तियों का संपर्क सूत्र टूटता, बिखरता है, तो तमस्‌ का प्रभाव बढ़ता है और इसके साथ ही दुःख, रोग, शोक, कष्ट कठिनाइयों का दृश्य उपस्थित होता है। तपस्या के द्वारा अंतरिक्ष की दिव्यरश्मियों से संबंध गहराता है और तमस्‌ की काली छाया का प्रभाव कम होता है।

तपस्वी सदा प्रणशक्ति से संपन्न होता है और इसका उपयोग वह चमत्कारिक ढंग से करता है। तपस्या के माध्यम से वह सूक्ष्मतत्त्वों को संयोजित, संगृहीत करके इच्छित वस्तुओं, परिस्थितियों आदि का निर्माण करता है । हालाँकि इससे ऊर्जा का क्षरण होता है, परंतु असंभव को संभव बनाया जा सकदा है । ऋषि विश्वामित्र, अगस्त्य, दधीचि, वसिष्ठ आदि ने तपस्या के शिखर को छुआ है और वर्तमान समय में भी अपनी सूक्ष्म और कारण सत्ता से तपस्या करके सृष्टि के कल्याण में निरत रहते हैं। तपस्या से अध्यात्म का संबंध है; क्योंकि इससे चित्त परिष्कृत होता ह। संकल्पपूर्वक की गई तपस्या चित्त के सभी संस्कारों का दहन करती जाती है, परंतु तपस्या के साथ भी एक विडंबना जुड़ी है कि अकेली तपस्या तपस्वी को अहंकारी एवं दंभी बनाती है, तपस्वी तपस्या के द्वारा! असीम ऊर्जा का स्वामी बन जाता है और उसको इच्छा शक्ति से सूक्ष्म एवं स्थूल जगत में घटनाएँ घटने लगती हैं। उसकी इच्छा मात्र से सृष्टि के पंचतत्त्वों में परिवर्तन होने लगता है और इच्छित संकल्प के अनुरूप ऊर्जा तत्क्षण आकार लेने लगती है। वह जैसा चाहता है, वैसा ही होने लगता है। शुभ हो या अशुभ, सभी कुछ उसकी इच्छा एवं संकल्य पर टिका रहता है। इसी कारण तपस्वी की इच्छा ही कर्म मान लिया जीता है । यदि उसे सताने वाले पर कष्ट आएँ तो ऐसी अनहोनी घट सकती है; हालाँकि उस पर इस कर्म का विधान लगता है। कर्म के विधान से तो कोई बच नहीं सकता है, फिर वह कैसे बच सकता है ? अत: पवित्रता के बिन, विवेक के बिना की गई तपस्या अध्यात्म से दूर है। अत: तपस्या के साथ स्वाध्याय द्वारा पवित्रता उपार्जन जुड़ा हुआ होना चाहिए।

स्वाध्याय से विवेक पैदा होता है, विचारों में प्रखरतः एवं उत्कृष्टता पैदा होती है। स्वाध्याय मन एवं विचारों का दिव्य स्नान है। स्वाध्याय से मन भीगता है और चिंतन श्रेष्ठ होता है। इससे मन में सदैव सकारात्मक सोच बनी रहती है। वह भ्रम, संशय, निराशा, अवसाद, चिंता, कुंठा आदि विकारों से विकृत नहीं होटा है। स्वाध्याय मनोविकारों को दूर करता है और मानसिक स्वास्थ्य में संवर्द्ध करता है। मानसिक स्वास्थ्य स्वाध्याय से पुष्ट होता है। इससे कल्पनाओं को नई ऊँचाइयाँ होती हैं, विचारों को नया आयाम मिलता है, चिंतन परिस्थिति में सकारात्मक एवं रचनात्मक होता है, परंतु तप के बिना स्वाध्याय व्यक्ति को विचायर्न तप के अभाव में केवल स्वाःध्याय व्यक्ति को काल्पनिक बनाता है, जहां अनगढ़ विचारों का जमघट होता है।

मानसिक शक्ति तो मात्र तपस्या से मिलती है । ऊर्जा के बिना कल्पनाओं की अकल्पनीय उड़ान भर सकते हैं और कर्म में परिणत हुए बिना ऊँची उड़ान से नीचे गिर जाते हैं अच्छे विचार का परिणाम ही शुभकमों के साथ होना है और न औरों को तृप्ति मिलती है, परंतु यदि स्वाध्याय के संग तपस्या का संयोग घटित हो! जाए तो शुभकर्म होने प्रयास एवं पुरुषार्थ के सिलसिले को जीवनपर्यत चलते रहना चाहिए। रुक-रुककर चलना, थक- थककर रुकना, इस तरह से अभ्यास कभी नहीं सधेगा। इसकी अविराम गति में लय का संगीत होना चाहिए। प्रयास में दीर्घकाल और निरंतरता के साथ भावभरी निष्ठा एवं अडिग संकल्प का समावेश भी होना चाहिए।

अभ्यास से साइको इम्युनिटी विकसित होती है। वैराग्य भी इस कार्य में अति सहायक होता है। महर्षि पतंजलि कहते हैं-दृष्टानु भ्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्‌। (१/१५) अर्थात देखे और सुने ‘गए विषयों में सर्वथा तृष्णा रहित चित्त की जो वशीकार नामक अवस्था है, वह वैराग्य है। वैराग्य का जन्म विवेक के गर्भ से होता है। विवेक का अर्थ है सही-गलत की ठीक समझ; उचित-अनुचित का सही ज्ञान; नाशवान और अविनाशी तत्त्व का बोध; सत और असत की ‘पहचान। विवेक होगा तो जो तत्त्व हमारे मन को नीचे गिराता है, हम उससे दूर रहेंगे और जो इसे ऊँचा उठाता है, उसका वरण करेंगे। अत: अभ्यास और वैराग्य साइको इम्युनिटी को संवर्द्धित करने में सबसे अहम भूमिका का निर्वहन करते हैं।

“योग मनोविज्ञान’ के अनुसार साइको इम्युनिटी के फलक एवं आंयाम अति व्यापक एवं विस्तृत हैं। मनोविज्ञान इसके तत्त्वों को संवेगात्मक परिपक्वता (इमोशनल मैच्युरिटी), आत्मविश्वास (सेल्फ कॉन्फिडेंस), सामंजस्य क्षमता (एडजस्टमेंट केपेसिटी) और वेलबिइंग के रूप में निरूपित करता है; अर्थात साइको इम्युनिटी की परिवर्द्धित अवस्था में व्यक्ति अपने विचारों, भावनाओं एवं व्यवहारों में संतुलित रहेगा । वह अस्थिर एवं असहाय नहीं होगा। उसे निराशा, हताशा, अवसाद, चिंता आदि मनोविकार परेशान नहीं करेंगे। वह सुखी, संतुष्ट, स्थिर एवं शांत रहेगा। ये तत्त्व साइको इम्युनिटी के परिणाम हैं। यदि किसी व्यक्ति की साइको इम्युनिटी सुदृढ़ एवं विकसित है तो वह मनोविकारों से परे एवं पार रहकर हजारों मानसिक प्रतिघातों के बीच भी प्रसन्नता की मुस्कराहट विकसित करेगा। तपस्या और आध्यात्म ही साइको इम्युनिटी का सर्वोपरि प्रतीक है।

साइको इम्युनिटी हमारे मन की वह क्षमता है, जो विकारों के विषाक्त प्रभाव से हमें अभेद्य कवच प्रदान करती है। मंगलमय वाणी, शुभकर्म, सच्चिंतन, सद्भाव के द्वारा इस कवच को और भी अभेद्य किया जाता है, जबकि दूषित चिंतन, ईर्ष्या, द्वेष, निंदा, उद्विग्नता, चंचलता, अशांति से इस कवच को हम स्वयं छिन्न-भिन्‍न करते हैं। अत: हमारी साइको इम्युनिटी को स्थिर एवं विकसित करने के लिए हमें इनसे दूर रहना चाहिए और सदाचरण में निरत रहना चाहिए।

         

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