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कर्म और भाग्य और ज्योतिष
जीवन में पुरूषार्थ और भाग्य दोनों का ही अलग-अलग महत्व है। ये ठीक है कि पुरूषार्थ की भूमिका भाग्य से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है लेकिन इससे भाग्य का महत्व किसी भी तरह से कम नहीं हो जाता।कर्म के साथ भाग्य जोड़ दोगे तो उसका मान 10 गुना बढ़ता ही जाएगा। लेकिन केवल भाग्य भरोसे बैठकर कर्म भी क्षीण होने लगते हैं। मित्रों, जीवन में पुरूषार्थ और भाग्य.दोनों अपने-अपने स्थान पर श्रेष्ठ हैं ।
पांडवों की माता कुन्ती भगवान श्री कृष्ण से कहती है, कि मेरे सभी पुत्र महापराक्रमी एवं विद्वान है । किन्तु हम लोग फिर भी वनों में भटकते हुए जीवन गुजार रहे हैं, क्यों ? क्योंकि भाग्य ही सर्वत्र फल देता है भाग्यहीन व्यक्ति की विद्या और उसका पुरूषार्थ निरर्थक है
वैसे देखा जाए तो भाग्य एवं पुरूषार्थ दोनों का ही अपना-अपना महत्व है । लेकिन इतिहास पर दृष्टी डाली जाए तो सामने आएगा कि जीवन में पुरूषार्थ की भूमिका भाग्य से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है । भाग्य की कुंजी सदैव हमारे कर्म के हाथ में होती है, अर्थात कर्म करेंगे तो ही भाग्योदय होगा
जबकि पुरूषार्थ इस विषय में पूर्णत: स्वतंत्र है । माना कि पुरूषार्थ सर्वोपरी है, किन्तु इतना कहने मात्र से भाग्य की महता तो कम नहीं हो जाती । आप देख सकते हैं, कि दुनिया में ऎसे मनुष्यों की कोई कमी नहीं है जो कि दिन-रात मेहनत करते हैं, लेकिन फिर भी उनका सारा जीवन
अभावों में ही व्यतीत हो जाता है । अब इसे आप क्या कहेंगें ?
उन लोगों नें पुरूषार्थ करने में तो कोई कमी नहीं की फिर उन लोगों को वो सब सुख सुविधाएं क्यों नहीं मिल पाई ? जो कि आप और हम भोग रहे हैं । एक इन्सान इन्जीनियरिंग, डाक्टरी या मैनेजमेन्ट की पढाई करके भी नौकरी के लिए मारा मारा फिर रहा है, लेकिन उसे कोई चपरासी की नौकरी पर भी रखने को भी तैयार नहीं है
वहीं दूसरी ओर एक कम पढा लिखा इन्सान किसी काम धन्धे में लग कर बडे मजे से अपने परिवार का पेट पाल रहा है । अब इसे आप क्या कहेंगें ?
एक मजदूर जो दिन भर भरी दुपहर में पत्थर तोडने का काम करता है, क्या वो कम पुरूषार्थ कर रहा है ? अब कुछ लोग कहेंगें कि उसका वातावरण, उसके हालात, उसकी समझबूझ इसके लिए दोषी है, या फिर उसमें इस तरह की कोई प्रतिभा नहीं है, कि वो अपने जीवन स्तर को सुधार सके अथवा उसे जीवन में ऎसा कोई उचित अवसर नहीं मिल पाया कि वो जीवन में आगे बढ सके या फिर उसमें शिक्षा की कमी है आदि आदि…ऎसे सैकंडों प्रकार के तर्क हो सकते हैं
मैं मानता हूँ कि इस के पीछे जरूर उसके हालात, वातावरण, शिक्षा- दीक्षा, उसकी प्रतिभा इत्यादि कोई भी कारण हो सकता है । लेकिन ये सवाल फिर भी अनुत्तरित रह जाता है, कि क्या ये सब उसके अपने हाथ में था ?
यदि नहीं तो फिर कौन सा ऎसा कारण है, कि उसने किसी अम्बानी, टाटा-बिरला के घर जन्म न लेकर एक गरीब के घर में जन्म लिया । किसी तर्कवादी के पास इस बात का कोई उत्तर है ?
ये निर्भर करता है इन्सान के भाग्य पर जिसे चाहे तो आप luck कह लीजिए या मुक्कदर या किस्मत या फिर कुछ भी यह सत्य है, कि इन्सान द्वारा किए गए कर्मों से ही उसके भाग्य का निर्माण होता है । लेकिन कौन सा कर्म, कैसा कर्म और किस दिशा में कर्म करने से मनुष्य अपने
भाग्य का सही निर्माण कर सकता है ये जानने का जो माध्यम है, उसी का नाम ज्योतिष है ज्योतिष शास्त्र का महत्व वेदों से है. ज्योतिष शास्त्र एक ऐसा विज्ञान है जो आपके जीवन के हर रास्तो पर शुभता लाने में समर्थ है. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मनुष्य की कुंडली के नवम भाव को भाग्य भाव माना जाता है. अपने भाग्य की वृद्धि के लिए आपको कुंडली के नवम भाव, भाग्येश और भाग्य राशि पर अधिक विचार करना चाहियें और अपके भाग्य वृद्धि में अवरोध कर रहे ग्रहों को ज्योतिष के उपायों के अनुसार दूर करना चाहियें. आप ज्योतिष शास्त्र को ऐसे समझ सकते हो कि परमात्मा हमारा हाथ पकड़कर हमे भाग्य तक नही पहुंचता बल्कि हमे रास्ता दिखा देता है. उसी तरह ज्योतिष शास्त्र आपके भाग्य वृद्धि के लिए अनेक रास्ते बनता है और आपको अनेक उपाय देता है जिनकी मदद से आप अपने भाग्य में वृद्धि कर सको. ग्रह, नक्षत्र, राशियाँ एवं अन्य ब्रह्मांड स्थित पिंड को सतत प्रभावित करते रहते हैं और इसी कारण उसके कर्म को प्रभावित करते रहते हैं, कर्म के प्रभाव से ही भाग्य प्रभावित होता है और यही कारण है कि जिससे ज्योतिषीय ग्रह स्थितियाँ मनुष्य के भाग्यदर्शन में सहायक सिद्ध होती है। स्थूल रूप से कुंडली के 12 भावों को तीन भागों में विभक्त किया गया है, ये हैं केन्द्र (1/4/7/10 भाव), पणकर (2/5/8/11) तथा आपोक्लिम (3/6/9/12) जो ग्रह केंद में बैठा है वह पूर्वजन्मकृत कर्मों के फल का प्रदाता है तथा आपोक्लिम स्थान के ग्रहों से स्थान व दृष्टि संबंध बना रहा हो तो अपरिवर्तनशील कर्मफल को दर्शाता है।
पणकर स्थान के ग्रह इहजन्मोपार्जित कर्मों का इसी जन्म में भोग करने वाले होते हैं तथा यह सुनिश्चित भी किया जा सकता है कि इस कर्म को किन कर्मों एवं प्रयोगों से बदला जा सकता है। लग्न से द्वादश भावों कि राशियाँ अपने पीछे के कर्म एवं योनि का दिग्दर्शन करती है। द्वादशांश चक्र में लग्नेश एवं लग्न राशि से कर्म के फल फल एवं संचित कर्म तथा प्रारब्ध निर्माण कि बाधाओं का बोध होता है।

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