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कुंडलिनी_महाशक्ति

आज के युग में लगभग कुछ ही प्रतिशत लोग कुंडलिनी ओर उसकी शाक्ति के बारे में जानते होगें। जो थोडा बहुत स्वाध्याय किया उसे आप लोगों के साथ सांझा करने का एक तुच्छ सा प्रयास कर रहा हूँ अपनी प्रतिक्रिया जरुर दें जानकारी कैसी लगी।
यह मानवीय पिंड (शरीर) विश्व ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा नमूना मात्र है। सूर्य चलता है और सौरमंडल के ग्रह -उपग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं। ठिक उसी प्रकार परमाणु भी अकेला नहीं होता, उसके साथ इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन,न्यूट्रॉन आदि की एक मंडली रहती है जो ‘न्यूक्लियस’ से प्रभावित होकर अपना कार्य उसी तरह चलाती है। जिस तरह सौर मंडल के साथ सूर्य ।विशाल वृक्ष का सारा ढांचा छोटे से बीज के भीतर पूरी तरह विद्यमान रहता है। मनुष्य का शरीर ही नहीं उसका स्वभाव ,बुद्धि ,अत:करण आदि महत्वपूर्ण सूक्ष्म चेतना संस्थान भी अति सूक्ष्म रज -वीर्य में पूरी तरह ‘जीन्स’ रुप से विद्यमान रहता है। ब्रह्माण्ड की विशाल व्यापकता को यदि हम बीज रुप में देखना चाहें, तो उसे मानव शरीर की सूक्ष्मता का विश्लेषण करते हुए भली प्रकार जान सकते हैं। जान ही नहीं सकते उस व्यक्तिगत सूक्ष्मता का विश्व गरिमा के साथ जुडे हुए अविच्छिन्न संबंध का लाभ भी उठा सकते हैं। यह संबंध सूत्र यदि प्रसुप्त न रहकर जाग्रत हो जाए , दुर्बल न रहकर परिपक्व हो जाए, तो विश्वव्यापी शक्ति – भण्डार से अपने लिए आवश्यक वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध आकर्षित कर सकता है। इतना ही नहीं, अपनी दुर्बल इकाई को समर्थ बनाकर उससे विराट् विश्व के जड़ चेतना संस्थान को प्रभावित कर सकता है।
साधना और तपश्चर्या वस्तुतः इसी अति महत्वपूर्ण विज्ञान का नाम है। प्राचीन काल में तप साधना के द्वारा जिनने जो वरदान ओअए थे,उनके इतिहास ,पुराण विस्तारपूर्वक हम पढ़ते- सुनते हैं । इन दिनों वैसी उपलब्धियाँ प्रत्यक्ष ना होने से वे बातें कपोल कल्पना जैसी लगती हैं ओर वस्तुतः बात ऐसी नहीं है। यदि ठिक विधि से ठीक उपकरणों द्वारा उस विज्ञान को कार्यान्वित किया जाए तो पूर्वकाल की कपोल – कल्पना समझी जाने वाली बातों को आज भी प्रत्यक्ष किया जाना संभव है।
तपस्वियों द्वारा साधना के फलस्वरूप प्राप्त किए वरदान और कुछ नहीं , विराट् विश्व की अंतरंग शक्तियों में से कुछ का इच्छानुकूल उपयोग कर सकने की क्षमता ही समझी जानी चाहिए ।इसी प्रकार शाप- वरदान दे सकने में क्षमता को अपनी व्यक्तिगत इकाई को इतना प्रबल बना लेना चाहिए, मनुष्यों ,या पदार्थों को अपनी संकल्प शक्ति के प्रहार से अभीष्ट दिशा में मुड़ने के लिए विवश किया जा सके । देवताओं का अस्तित्व इस विराट् विश्व में उनकी विशालता के अनूरुप व्यापक भी हो सकता है ? पर हमसे देवताओं के जिस अंश का प्रत्यक्ष और सीधा संबंध है वह ‘अंश’ अपने भीतर ही ‘शक्तिबीजों ‘ के रुप में विद्यामान रहता है। साधना का प्रयोजन इन्हीं शक्तिबीजों को जाग्रत और समर्थ बनाना है। समष्टिगत देवताओं का आशिर्वाद ,वायु,वर्षा, धूप शीत,दुर्भिक्ष आदि के रुप में समग्र रुप से बरसता है और उससे सबको समान लाभ मिलता है। व्यक्तिगत वरदान आशीर्वाद देने वाले देवता अपने शरीर में ही विद्यामान रहते हैं। विविध साधनाओं द्वारा उन्हीं को स्वयं समर्थ बनाया जाता है। और अपनी तपस्या के अनुरुप उन्हीं से वह लाभ पाया जाता है। जिसे ‘अलौकिक’ चमत्कारी, देवप्रदत, वरदान के रुप में आश्चर्य के साथ सुना और देखा जाता है।
इस अलौकिक और अद्भुत चमत्कार प्रस्तुत करने वाली शक्ति को ही योगियों और तपस्वियों ने कुंडलिनी नाम दिया है और उसे जीवन चेतना का आधार बताया है। उसी से जीवधारियों को शक्ति और तेजस्विता मिलती है। सामान्य स्थित में व्यक्ति की कुंडलिनी शक्ति जितनी मात्रा में स्पंदन करती है। ,उतना ही प्रभाव – क्षेत्र ,उस मनुष्य का होता है। उसी के आधार और अनुपात से लोगों को सुख दुःख ,आदर-समान, लोक प्रतिष्ठा आदि मिलती है। इसलिए यह कहना गलत ना होगा की मनुष्य के स्थूल जीवन की नहीं, व्यावहारिक जीवन की सफलता का और समुन्नतिका आधार भी कुंडलिनी शक्ति ही है।
पाँचों प्रकार की ज्ञानेंद्रियां भी बिजली के तारों की तरह इसी परमशक्ति से जुड गयी हैं। इसलिए वह सूक्ष्म चेतना होने पर भी संकल्प रुप में आ गयी है। चेतना होने के कारण चिति, जीने से जीव, मनन करने से मन और बोध करने से चेतना को बुद्धि रुप में देखा जाता है। अंहकार रुप में उसे ही चतुष्टक कहते हैं। पर इन विभिन्न नाम का एक ही आधार है। —- चेतना । इस चेतना की ,शक्तियों की मूलाधार शक्ति को ही कुंडलिनी कहा जाता है। ज्ञान और अनुभव के पांचों कोश बीज रुप से इसी में पाए जाते हैं। इसलिए कुंडलिनी शक्ति जाग्रत कर लेने वाला इंन्द्रियों को उसी तरह वश में कर लेता है, जिस तरह लगाम लगे हुए घोड़ों को वश में कर लिया जाता है। जिसने इंन्द्रियों को जीत लिया, संसार में उसको किसका भय? जो निर्भय हो गया वही विश्व विजेता हो गया ।
कुंडलिनी की इन्हीं महान सामर्थ्यों को जानकर ही योगशास्त्रों में उसे सर्वाधिक महत्व दिया गया। इसके साथ अनेक प्रकार की कल्पना जोड दी गयी । अनेक प्रकार से उसका वर्णन किया जाता है। सीधे ,सरल शब्दों में कुंडलिनी वह दिव्य मानस तेज है, जो आत्मचेतना से परिसिक्त है और शरीर भर में व्याप्त है साधना के फलस्वरूप यह तेज सिमटकर ध्यान के समय ज्योत बनकर देह में कार्य करने लगता है।
कुंडलिनी शक्ति को और अच्छी तरह से समझने के लिए श्वास क्रिया और सुषुम्ना शीर्षक (मेडुला आब्लांगेटा) का विस्तृत अध्ययन आवश्यक है। पाश्चात्य वैज्ञानिक अभी तक इतना ही जान पाए है। कि नाक से ली हुई सांस गले से होते हुई फुफ्फुसों (फेफड़ों ) तक पहुँचती है। फेफड़ों के छिद्रों में भरे हुए रक्त को वायु शुद्ध कर देती है। और रक्त परि संचालन की गतिविधि शरीर में चलती रहती है।
किंतु प्राणायाम द्वारा श्वास – क्रिया को बंद करके भारतीय योनियों ने उह सिद्ध कर दिया है कि चेतना जिस प्राणतत्त्व को धारण किए हुए जीवित है, उसके लिए श्वास क्रिया आवश्यक नहीं ।श्वास ली हुई हवा का स्थूल भाग ही रक्तशुद्धिका काम करता है। उसका सूक्ष्म भाग सुषुम्ना शीर्षक में अवस्थित इड़ा और पिंगला नाड़ियों के माध्यम से नाभि – कंद स्थित चेतना को इद्दीप्त किए रहता है। ‘गोरक्ष – पद्धति ‘ में श्लोक ४८ से इस क्रिया को शक्तिचालन महामुद्रा ,नाडी – शोधन आदि नाम दिए हैं। और लुखा है कि सामान्य अवस्था में इड़ा और पिंगला नाडियों का शरीर कि जिस ग्रंथि या इंद्रिय से संबंध होता है। मनुष्य उसी प्रकार के विचारों से प्रभावित होता है। इस अवस्था में नाड़ियों के स्वत: संचालन का अपना कोई क्राम नहीं होता । किंतु जब विशेष रुप (प्राणायाम) से प्राणवायु को धौंका जाता है। तो इड़ा (गर्म नाड़ी ) और पिंगला (ठंडी नाड़ी) सम – स्वर में प्रवाहित होने लगाती है। इस अवस्था के विकास के साथ – साथ नाभि – कंद में प्रकाश स्वरूप गोला भी विकसित हिने लगता है। उससे प्राण शक्ति विद्युतशक्ति के समान नि: सृत होती है। , चूँकि सभी नाड़ियां ईसी भाग से निकालती हैं इसलिए वह इस ज्योति गोले के संस्पर्श में होती हैं सभी नाड़ियों में वह विश्वव्यापी शक्ति झरने से सारे शरीर में वह तेज ‘ओजस्’ के रूप में प्रकट होने लगता है इंन्द्रियों में वही बल के रुप में, नेत्रों में चमक के रुप में परिलक्षित होता है। इस प्राण शक्ति के कारण प्रबल आकर्षण शक्ति पैदा होती है।
यह शक्ति नाभि प्रदेश में प्रस्फुटित होती है और चूंकि कटि प्रदेश भी उसी के समीप है, इसलिए वह भाग अधिक शीघ्र और तेजी से प्रभावित होता है। इसलिए यौन शक्तिकेंन्द्रों को नियंत्रण में रखना अधिक आवश्यक होता है। साधना कि अबधि में संयम ओर इसलिए अधिक जोर दिया जाता है, जिससे कुंडलिनी शक्ति का फैलाव ऊर्ध्वगामी हो जाए , उसी से ओज की वृद्धि होती है।
जय भगवती

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