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हिन्दू शब्द का शास्त्रीय अर्थ

मोहम्मद और ईसा से भी पूर्व हिन्दू और हिन्दु शब्द का प्रयोग सौम्य , सुन्दर , सुशिल , सुशोभित , धर्मशील और दुष्टदमन में दक्ष अर्थो में प्रयुक्त होता था ।
सिकंदर ने भारत में आकर हिन्दुकुश जिसका पर्याय हिन्दकुट पर्वत दर्शन की भावना व्यक्त की , पारसियों के ग्रन्थ शातिर में हिन्दू शब्द का उल्लेख है , अवेस्ता में हजारो वैदिक शब्द पाए जाते है , सिकंदर से भी सैकड़ो वर्ष पूर्व का यह ग्रन्थ है , उसमे हिन्दू शब्द का प्रयोग किया गया है ।

बलख नगर का नाम पहले हिंदवार था , ‘स’ और ‘ह’ का ऋग्वेद के अनुसार अभेद होता है इस दृष्टि से विचार करें तो भविष्य पुराण के अनुसार सिन्धुस्थान या हिन्दुस्थान या हिंदुस्तान के लिए हुआ है ,और आर्यो का यह उत्तम देश बताया गया है , साथ ही साथ कालकापुराण में हिंदवो शब्द का प्रयोग हुआ है , शारंगधर पद्धति में हिंदवो शब्द का प्रयोग हुआ लेकिन वेदमार्गीय कहकर वैदिक मार्ग पर चलने वाले हिन्दू कहे गए , आर्यो का नाम हिन्दू है , इंदु और सिंधु को पर्याय भी माना गया , दोनों संस्कृत के शब्द है ।

बृहस्पति आगम का हम अनुशीलन करे तो क्षेत्र का भी अंकन किया गया है , बृहस्पति आगम में स्पष्ट ही हिंदुस्तान शब्द का प्रयोग किया गया है , साथ ही साथ महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में भी आर्यावर्त को ही हिन्दुस्थान या सिन्धुस्थान के रूप में ख्यापित है ।

साथ ही साथ वृद्धस्मृति के अनुसार सदाचार तत्पर हो , हिंसा से सुदूर रहकर अराजक तत्वों के दमन में दक्ष हो , वेद , गोवंश का रक्षक हो , उसका नाम हिन्दू है ।

और साथ ही साथयह भी समझना चाहिए कि रामकोष और पारिजातहरण नाटक में भी हिन्दू शब्द का प्रयोग हुआ है ।
हिन्दुओ की एक प्रशस्त परिभाषा भी प्राप्त है माधवदिग्विजय के अनुसार – जिन महानुभाव में वेद के बीज मन्त्र ओंकार को मन्त्र के रूप में स्वीकार किया है , पुनर्जन्म में जिनकी आस्था है , जो गोभक्त , गंगाभक्त है और भारतीय परंपरा के वैदिक मनीषियों को अपना गुरु मानते है , और जितने हिंसक जीव है उनके दमन में वे दक्ष होते है साथ ही साथ क्षात्रधर्म के उद्भाषक होते है , उनका नाम हिन्दू माना गया है ।
अगर हम विचार करके देंखे तो ऋग्वेद में भी हिन्दू शब्द का प्रयोग किया गया है उसमे हि और न्दू दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ गोभक्तो के रूप में किया गया है ।

इस प्रकार मैंने कई उदाहरण के द्वारा बताया कि मुस्लिमो के द्वारा दिया गया यह निन्दावाचक शब्द नही है मुसलमान से पहले सिकंदर भारत आए थे उससे भी पहले पारसी ग्रंथो में हिन्दू शब्द का उल्लेख है।

भगवान वेदव्यास विरचित ग्रंथो में विविध मेदनी आदि कोषो में , कालिका आदि पुराणों में भी हिन्दू शब्द का प्रयोग है ।
और अर्थ लगाने की एक प्रशस्त विधा है , जैसे आजकल भाजपा , सपा , बसपा कहते है , इसी शैली में प्राचीन प्रथानुसार ऋग्वेद में भी गोभक्त के रूप में हिन्दू शब्द का प्रयोग हुआ है , अथर्ववेद में ज्यों का त्यों समु्ध्दृत है , तो हिन्दू शब्द वैदिक , पौराणिक है , शब्दकोष में उपलब्ध है और विदेशी हिन्दू ही कहते रहे है , ऐसी स्थिति में हिन्दू , सिंधु और इंदु को पर्यायवाची माना गया ।

।। हर हर महादेव ।।

#हिंदुस्थान –

हिन्दू शब्दपर कुछ हिंदुओं और कुछ दूसरे संस्थान से जुड़े लोगों को यह आपत्ति हैं कि “यह शब्द हमारी जाति का बोधक नहीं” क्योंकि संस्कृत के विशाल साहित्य में यह शब्द नहीं पाया जाता।
कुछ लोग यह भी कहतें हैं कि “यह शब्द घृणासूचक हैं,” इसलिये मुसल्मानों ने हमारा यह नाम रखा और इसका अर्थ – “काला चौर, बदमाश आदि हैं।
एक दल यह कहता हैं कि “हिन्दू नाम में क्या रखा हैं ? इसका मोह ही क्यों किया जाय ? इसकी जगहपर आर्य और हन्दुस्थान की जगहपर भारत या आर्यावर्त शब्द रख दिया जाय।
इसी तरह हिन्दुत्व और उसके व्यापक स्वरूपपर छोटी-मोटी शङ्काएँ और भी उठायी जाती हैं।
#शङ्काओंपरविवेचन –
संस्कृत के एक दो नहीं; अनेक ग्रन्थों में हिन्दू शब्द पाया जाता हैं। अद्भुतरूपकोष में लिखा हैं – #हिंदुर्हिंदूश्चपुंसिद्वौदुष्टानांचविघर्षणे।।
अर्थात् ” दुष्ट लोगों को रगड़नेवालों को हिन्दू और हिंदु और हिन्दू कहा जाता हैं। ये दोनों शब्द पुल्लिंग हैं।
हेमन्तकविकोष की उक्ति हैं – #हिंदूर्हिनारायणादिदेवताभक्तः।।
अर्थात् हिन्दू उसे कहा जाता हैं, जो नारायण आदि देवों का भक्त हैं।
रामकोष – की उक्ति हैं – #हिंदुर्दुष्टौनभवतिनानार्योनविदूषकः। #सद्धर्मपालकोविद्वान्श्रौतधर्मपरायणः।। तात्पर्य यह हैं कि हिन्दू न तो दुर्जन होता हैं; न अनार्य होता हैं और न सद्धर्म आदि का निन्दक ही होता हैं। जो सच्चे धर्म का पालक, विद्वान् और वेदधर्म में निरत हैं, वही हिन्दू हैं।
संस्कृतभाषा के विराट् और प्रामाणिक कोष “शब्द कल्पद्रुम” में भी हिन्दू शब्द और इसकी व्युत्पत्ति लिखी हैं।
मेरुतन्त्र ३३वें प्रकरण में लिखा हैं – #हिंदूधर्मप्रलोप्तारो
जायन्तेचक्रवर्तिनः। #हीनंचदूषयत्येवहिंदूरित्युच्यतेप्रिये।। अर्थात् शक, हूण आदि चक्रवर्ती राजा हिंदूधर्म का नाश करनेवालें होंगे। जो दुष्ट को दोष देता हैं, उसे हिन्दू कहा जाता हैं। अनेक विद्वानों का मत हैं कि मेरुतन्त्र से भी प्राचीन ग्रन्थ *”कालिका पुराण” हैं । उसमें कहा हैं कि – *#कालेनबलिनानूनमधर्मकलितेकलौ।* #यवनैर्घोरमाक्रान्ताहिंदवोविन्द्यमाविशन्।। अर्थात् बली काल के कारण धर्मशून्य कलियुग में विदेशियों के द्वारा आक्रमण होनेपर हिन्दूलोग विन्द्यपर्वत चले गये।
इन श्लोक से स्पष्ट विदित होता हैं कि संस्कृत साहित्य में एक नहीं, अनेक स्थलोंपर हिन्दू शब्द का उल्लेख हैं। इस शब्द का जो लक्षण किया गया हैम, हिन्दू शब्द की जो परिभाषा दी गयी हैं, उससे स्पष्ट ही ज्ञात होता हैं कि हिन्दू (आर्य)शिष्टव्यक्तियों का ही नाम हैं । हिन्दू वह हैं, जो दुष्टनाशक,धर्मपरायण,वेदधर्मानुयायी, नारायण आदि देवताओं का भक्त और विद्वान् हैं। इन सब लक्षणों से ज्ञात होता हैं कि आर्य(शिष्टव्यक्ति) और हिन्दू एक हैं और आर्यजाति का नाम ही हिन्दूजाति हैं। इसलिये पहली आपत्ति एकदम निरर्थक हैं। उपर के एक श्लोक से यह भी विदित होता हैं कि हिंदु और हिन्दू – दोनों ही शब्द शुद्ध हैं।
दूसरी आपत्ति तो और भी निरर्थक हैं। मुसल्मानों की बात तो अलग रही, जिन दिनों महम्मद साहब का जन्म भी नहीं हुआ था और अरबजाति का इतिहास भी काल के अगाध पेट में था, उन्हीं दिनों बादशाह सिकंदर भारतवर्ष आया था। उसने अपने मन्त्री से “हिंदूकुश(हिंदूकूट)पर्वत जाने की इच्छा प्रकट की थी। यह बात उसके जीवनचरित में हैं। जब कि ईसा से भी सैकड़ों वर्ष पूर्व ” हिन्दू” शब्द था,तब कैसे कहा जा सकता हैं कि हिंदू नाम मुसल्मानों का रखा हुआ हैं ?
सिकंदर से भी सैकड़ो वर्ष पहिले पारसियों का धर्मग्रन्थ “अवेस्ता” बना था। उसमें वेद के हजारों शब्द पाये जातें हैं। उसमें हिंदू शब्द का उल्लेख हैं। उसी समय से सिन्धु के इस पार बसनेवालें को हिंदू कहा जाता हैं। “बलख” नगर का नाम भी *”हिंदवार” था। वस्तुतः हिंदू शब्द सिन्धु शब्द का तद्भव रूप हैं। पारसी भाषा में *”स” को “ह” कहा जाता हैं। सप्त को हप्त, सरस्वती को हरह्वती, और असुर को अहुर कहा जाता हैं। भाषाविज्ञान के अनुसार भी स और ह परस्पर बदला करते हैं। पारसवालों ने पहिले स्वात, गोमती, कुमा, वितस्ता,चन्द्रभागा, इरावती और सिन्धु को अर्थात् “सप्तसिन्धु” को हप्तसिंधु कहना शुरू किया। “भविष्य पुराण, प्रतिसर्गपर्व अध्याय ५ में से भी हप्तहिंद शब्दों का उल्लेख आया हैं”। अनन्तर संक्षेप में हिंदू कहने लगे और अन्त हिंदू या सिन्धू के इस पार के रहनेवालों को – सारे भारतवासियों को हिन्दू कहने लगे। पश्चिमी विदेशों में सारे भारतवासी इसी सिन्धु के रास्ते जाते थे;क्योंकि विदेश जाने का एकमात्र यही रास्ता था। इसलिये पारसी सब को हिंदू ही कहने लगे। बल्कि आजतक ईरान, तुर्की, ईराक, अफगानिस्तान और अन्य देशों में भारतवर्ष को हिंद और प्रत्येक भारतवासीयों को हिंदू कहा जाता हैं – चाहे वह हिंदू हो, मुसल्मान हो या कोई और हो। अमेरिकावाले प्रत्येक भारतीय को – हिन्दू,मुसल्मान, ईसाई,पारसी, यहूदी सबको हिन्दू कहतें हैं। इसलिये यह कहना सत्य का अपमान करना हैं कि हिंदू शब्द मुसल्मानों का दिया हुआ हैं। वस्तुतः यह सिन्धु शब्द से निकला हैं, जिसका ऋग्वेद में कितनी ही बार उल्लेख हैं। इस सिन्धु नद की ऋग्वेद में बड़ी ही प्रशंसा लिखी हैं। इसे आर्य(शिष्ट)लोग परम पवित्र मानते थे। सिन्धु के तटपर ही ऋषियों ने अनेक वैदिक मन्त्रों का तपःपूत अन्तःकरण में आविष्कार किया था। इस तरह सिन्धु वैदिक प्रयोग हैं और उसके तद्भव हिंदु शब्द में वैदिक संस्कृति भरी हुई हैं।
*यूनानीभाषा में “ह” का लोप हो जाने के कारण यूनान या ग्रीस में इन्द और इन्दु शब्द प्रचलित हुए। अंग्रेज आदि *यूरोपियनोनें “द” का “ड” बना दिया और इन्दु की जगह “इंड” “इंडो”, इंडिया”, बना डाला। अंग्रेजों को हिंदू लिखना भी पड़े, तो वे हिंडू ही लिखैंगे, हिंदू नहीं। उनकी भाषा में ” द” की जगह “ड” ही हैं। इंड शब्द से ही उन्होंनें “इंडीज़” ईस्ट इंडीज,” वेस्ट इंडीज़”, इंडीयन, इंडियन ओशन”, आदि शब्दों को रच ड़ाला। केवल एक “सिन्धु” या हिंदू शब्द की विदेशियोंने इतनी दुर्गति कर डाली हैं। हम पसंद करे या न करें, परंतु #अंग्रेजहमेंइंडियन ही कहेंगे। संस्कृति से शून्य विदेशियोंतक को वे भ्रान्ति के कारण “रेड इंडियन” कहतें हैं। परंतु वे पसंद करे या न करें, हम भी तो उन्हें “फिरंगी” और अंग्रेज ही कहतें हैं — इंग्लिशमेन नहीं।
जर्मनीवाले अपने को “डोइट्श” और अपने देश को “डोइट्लैंड” कहतें हैं; परंतु इन्हें हम जर्मन और उनके देशको जर्मनी कहतें हैं, चाहे वे पसंद करे या न करें।
फ्रांसवाले तो और भी गजब करतें हैं — वे इंडियन को “इंजये” कहतें हैं। इतना कहने का तात्पर्य यह हैं कि उच्चारण-दोष और देश, काल, पात्र की विभिन्नता के कारण एक शब्दों का इतिहास और संस्कृति रहती हैं। फलतः मूल “सिन्धु” या “हिंदु” शब्द वैदिक हैं, परम पवित्र हैं और हमारी समूची संस्कृति से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध हैं।
हिंदू शब्द के “काला चोर” आदि अर्थ द्वेषवश किये जाते हैं। जो विधर्मी हिंदूसे डाह और जलन रखता हैं, वह तो ऐसे ऊटपटांग अर्थ करेगा ही। हिंदू सुर के पूजक हैं और पारसी असुर के । दोनों में विरोध भाव ज्यादा बढ़ गया, तब पारसी हिंदू शब्द के अर्थ का अनर्थ करने लगे। हिंदू मुसल्मानौं में शत्रूता बढ़ गयी, तब मुसल्मान इसका अर्थ “नास्तिक= “काफिर” आदि कहने लगे। परंतु हिंदू शब्द न तो पारसी का हैं, न अरबी का; इसलिये हिंदू शब्द के झूठे अर्थ समाज में कभी गृहीत नहीं हुए। खुद मक्का और मदीनावाले भारत के मुसल्मानों को हिंदू और हिंदी कहतें हैं तो क्या अपने किये अर्थ के अनुसार मसल्मान नास्तिक और काफिर हैं ? इसलिये वह कहना सरावर असत्य हैं कि यह शब्द मुसल्मानों का दिया हुआ हैं और इसके अर्थ बुरे हैं। संस्कृत में असुर शब्द का अर्थ तो अच्छा नहीं हैं, तो क्या पारसी “अहुरमज्द” को छोड़ देंगे ?
जो लोग यह कहतें हैं नाम में क्या रखा हैं ? उनके सामने नीबू का नाम लीजिये, नीबू के नामका कीर्तन कीजिये, तो उनकी जीभपर पानी जरूर आ जायगा। क्या महाराणा प्रताप का नाम लेनेपर गर्वसे छाती नहीं फूल उठती ? तब फिर नाम का मोह क्यों नहीं किया जाय ?
नाम वस्तुतः ध्वनिरूप आकार हैं। अपनी सारी अभिलाषाओं को मनुष्य नामरूपी एक शब्द में प्पकट कर देता हैं। नाम में इतने संस्कार, भावनाएँ और स्मृतियाँ मिली रहती हैं कि नाम और वस्तु एक ही हो रहते हैं। नाम को नामवाले से हटाया नहीं जा सकता। शरीर का अङ्ग न होते हुए भी बहुत बार शरीर ही नहीं, शरीर से भी अधिक महत्त्व नाम का हो जाता हैं। शरीर तो विनष्ट हो जाता हैं, परंतु नाम कभी विनष्ट नहीं होता। आदि-शङ्कराचार्य जी का शरीर नहीं हैं; परंतु नाम करोड़ों मनुष्यों के लिये जादू का काम करता हैं। यह कहना बलिलकुल बाहियात हैं कि “नाम में क्या रखा हैं?” प्रत्युत यह कहना अधिक उपयुक्त हैं कि नाम में ही सब कुछ हैं।
आज हजारों वर्षों से हिंदू नाम में इतना विशद् इतिहास, इतनी सम्पन्न संस्कृति, इतने उदात्त आदर्श, इतनी रहस्यमयी भावनाएँ, इतने समर्थ जीवन और इतने स्वस्थ तेज घुले-मिले हैं कि यह शब्द प्राणों से भी प्यारा हो गया हैं। यह शब्द हमारे अगणित सत्कार्यों का दप्पण हो गया हैं। इस नाम के लिये असंख्य योगी, यति, कवि, दार्शनिक, जननायक और महापराक्रमी अपनी जानतक दे चुके हैं। यह नाम इतिहास का महाकोष बन चुका हैं। ये ही कारण हैं कि हिंदू नाम में हमारा इतना मोह और इतनी ममता हैं।
यद्यपि यह निर्विवाद हैं कि आर्य(शिष्ट)लोग सदा से यही के निवासी हैं, तथापि विदेशी विद्वान् और उनके चैले भारतीय विद्वान् इस देश में आर्यों आदि का निवास नहीं मानतें। वे कहतें हैं कि आर्यलोग एशिया, माइनर, स्कांडेनेविया या तिब्बत से आये हैं। यदि यह बात मान ली जाय, तो भी यह मानना ही पडेगा कि विदेशीलोग यहाँ के आदि निवासियों —— द्रविड़, आदि द्रविड़, कोल, भील, नागा, सन्थाल आदि — को हिंदू कहते थे। मूल नाम हिंदू ही था, जैसा कि ऊपर की पंक्तियों में प्रमाणीकृत हैं। संस्कृत मैं ह के स्थानपर स और ध के स्थानपर द करके वे हिंदू की जगह सिन्धु कहने लगे। नामों का परिमार्जन का अभ्यास आर्यों(शिष्टों)का था ही। वे अलेक्जेंड्रिया को अलसन्दा और सेल्यूक्स को सुलूव कहते थे। यदि यह बात सच हो तो मानना पडेगा कि इस देश के आर्य नाम से भी प्राचीन हिंदू हैं। इसका प्राञ्जल रूप अपनी प्रिय नदी के नामपर सिन्धु रखा गया अवश्य। परंतु जनसाधारण में हिंदू शब्द ही प्रचलित रहा और आर्य भी हिंदू कहलाने लगे। पीछे चलकर हिंदू शब्द इतना व्यापक हो गया कि संस्कृत की पुस्तकों में भी इसका प्रयोग धड़ल्ले से होने लगा।
सातवीं शताब्दी में अनेक गिरिकन्दराओं को लाँघकर चीनी यात्री ह्वेनत्सांग यहाँ आया था और कई वर्ष भारत में रहा; परंतु उसने भी हमें हिंतू ही लिखा हैं। द्राविडवी प्रयोग केवल कुछ पारसी करते थे। वे अफगानिस्तान को श्वेतभारत कहते थे। बस, सिन्धु, वा हिंदु — शब्द प्रोज्ज्वल वैदिक स्मृतियों को जगानेवाला हैं, इसलिये यही नाम हमें सबसे अधिक उपयुक्त जँचा। सिंधुस्थान वा हिंदुस्थान उत्तम-राष्ट्र माना गया — “( सिन्धुस्थानमिति ज्ञेयं राष्ट्रमार्यस्य चोत्तमम्।। भविष्य पुराण प्र० प ०२।।)”

सिन्धु शब्द के दो अर्थ हैं – नदी और समुद्र। इस देश के पश्चिम में सिन्धुनदी हैं ही । उत्तर में भी हिमालय के अन्तर्गत सिन्धु ही सीमा का निश्चय करती हैं। पूर्व में हिमालय से ब्रह्मपुत्रा नदी निकली हैं। कुछ लोग इसे सिन्धु की सहोदरा और कुछ लोग इसको सिन्धु की पूर्वीधारा मानते हैं। इस तरह पूर्व में भी सिन्धु हुई। दक्षिण में तो सिन्धु या हिंदमहासागर विस्तृत हैं ही । इस तरह भगवान् ने ही हमारे देशको पूर्णतः सिन्धुस्थान या हिंदुस्थान बना रखा हैं। हमारे देश के लिये इससे बढ़कर दूसरा उपयुक्त शब्द होगा भी नहीं।
ऋग्वेद ९/३३/६ और १०/४७/२ में चार समुद्रों का उल्लेख हैं। इन समुदारों में हमारे पूर्वज जहाजों और नावों के द्वारा यात्रा करते थे और विविध देशों में व्यापार करके धन और ऐश्वर्य से अपने देशको सम्पन्न करते थे। १/४८/३; — १/५६/२;— १/११६/३— ४/५५/६;— ५/८५/६;– ७/८८/३; भूगर्भशास्त्री कहतें हैं कि बलख और फारस के उत्तरी भाग में और तुर्किस्तान के पश्चिमी प्रान्त में एक विस्तृत समुद्र था, जो प्राकृतिक कारणों से सूखकर कृष्णहृद(black sea), काश्यपहृद(caspean sea), आरलहृद(sea of aral) और बल्काशहृद(lake balkash)के रूपों में परिणत हो गया हैं। किसी समय पंजाब(पंचनद)के दक्षिण, पश्चिम और पूर्व में समुद्र विद्यमान था। outline of history ग्रन्थ में एच,जी,वेल्स ने लिखा हैं कि ऐसे समुद्रों का अस्तित्व आज से पचीसहजार वर्ष से लेकर पचासहजार वर्ष के भीतर हो सकता हैं। इस तरह स्पष्ट ज्ञात होता हैं कि हमारे देश के चारों तरफ चार समुद्र थे। सप्तसिन्धु, काश्मीऱ, गान्धार(अफगानिस्तान),बिलोचिस्तान के उत्तर बलख और तुर्किस्तान के पश्चिम आदि में हमारे पूर्वज रहते थे। कदाचित् इसी कारण उन्हों ने अपने देश का नाम सिन्धुस्थान या हिंदुस्थान रखा। इस प्रकार कम से कम पचीसहजार वर्षों से भी इस दिव्य देश का नाम हिंदुस्थान ज्ञात होता हैं। उस समय सुमेर, अक्कद, चाल्डियन, बेबीलोनियन, ग्रीक, रोमन, चीनी और इजिप्शियन आदि संसार की प्राचीनतम जातियों का अस्तित्व भी नहीं था।
खेद की बाद हैं कि देश के कुछ लोगों ने अभीतक हिंदू और हिंदुस्थान के पूर्ण महत्त्व को नहीं समझा हैं। परंतु वह दिन दूर नहीं, जब हम ही इन पावन शब्दों के आगे सिर नहीं झुकायेंगे, सारा विश्व सिर झुकायेगा और हिंदुत्व के महाव्यापक स्वरूप के अमरगीत गायेगा।
इसी हिंदुस्थान के प्रत्येक ग्राम में देवपुरुषों का वास था, प्रत्येक प्रान्त में यज्ञ होतें थे, घर घर में खजाना भरा रहता था और #हरएकमनुष्यमेंधर्मकानिवास था — “( ग्रामे ग्रामे स्थितो देवो देशे देशे स्थितो मखः। गेहे गेहे स्थितं द्रव्यं धर्मश्चैव जने जने।। भविष्य पु० प्रतिसर्ग पर्व)”
उस समय एक ही संस्कृति थी, एक सी प्रथाएँ थी, एक राष्ट्रभाषा संस्कृत थी और सम्पूर्ण राष्ट्र के जीवन में अद्भुत आनन्द था। पशु-पक्षीतक स्वतन्त्र विचरा करतें थे।
ये ही सब कारण हैं हिंदू और हिंदुस्थान शब्दों का महत्व अनेक विदेशी भी समझतें थे। यहूदी शूरवीर को हिंदू कहते थे। अरबी ग्रन्थ “सोहब मो अल्लक” में लिखा हैं — भाई बन्धुओं का अत्याचार हिंदू-तलवार से भी अधिक घातक होता हैं। अरबी में एक कहावत हैं – हिंदू जवाब देना, जिसका मतलब हैं “शत्रुपर कड़ी चोट करना। हिंदू तलवार और शूरता की ऐसी ही धाक थी। बेबोलोनिया में बढ़िया बाग को ” सिन्धु” कहते थे। यह इसलिये कि हिंदू ही बागों के पौंधे देतें थे। वहाँ की भाषा में हिंदू का अर्थ इस देश का निवासी हैं। कोई बुरा अर्थ नहीं हैं।
हिंदी की प्राचीनतम कविता चंदबरदाई के पिता “वेन की जो पायी जाती हैं, वह बारहवीँ सदी की हैं। अजमेर के राजा पृथ्वीराज के पिता को लक्ष्य करके यह काव्य लिखा गया हैं। इसमें हिंदु, हिंदुस्थान और हिंद कईं बार नाम आया है, जिससे विदित होता हैं कि ये शब्द उन दिनों अत्यन्त आदरणीय और पूजनीय थे।
उन दिनों मुसल्मान पहिले पहल आये हुए थे। वे राजपूतों के पक्के शत्रु थे। यह कैसे सम्भव था कि अपने शत्रुओं के रखे घृणित नामको राजपूत तुरंत अपना लेते और उसे पूजनीय मान लेते ? चन्दबरदाई ने तो अपने “पृथ्वीराजरासो” में अगणित बार हिंदु शब्द का प्रयोग बड़े गर्व और गौरव के साथ किया हैं। रासो में “भारत” शब्द का व्यवहार तो कई बार किया गया हैं। समर्थ रामदास ने भी अपने काव्यों में राष्ट्रिय भावना से भरे हिंदू और हिंदुस्थान शब्दों का उल्लेख किया हैं। महाकवि भूषण ने छत्रपति शिवाजी और बुंदेलराज छत्रसाल के सम्बन्ध में कविताएँ बनायी थी, उनमें हिंदू और हिन्दुस्थान की बार बार प्रशंसा की हैं। गुरु तेगबहादुर और गुरु गोविन्दसिंह तो हिंदुत्व के लिये ही जिये और मरे। हिंदूधर्म और हिंदूराज्य के लिये पेशवा वीर महाकाल का विकराल रूप धारण करके मुसल्मानों से लड़े थे । सुजानसिंह,जयसिंह, राणा बप्पा, राणा साँगा, राणा प्रताप आदि वीर व्याघ्रों ने हिंदुत्व की रक्षा के लिये मदमत्त शत्रुओं को रौंद डाला था।

हिंदूपन को हिंदुत्व कहा जाता हैं। हिंदूपन के भीतर हिंदूधर्म, हिंदूमर्यादा, हिंदूसंस्कृति, हिंदूसभ्यता, हिंदूपरम्परा, हिंदूकला आदि आदि,,,, सब आ जाते हैं। हिंदुत्व का स्वरूप इतना व्यापक हैं कि रक्षा के लिये वे भी प्राण देने को तैयार हैं। जो हिंदुत्व की दो-ही-एक बातें मानतें हैं। आर्यसमाजी, सीख, जैन, बौद्ध आदि सब हिंदूमहासभा में सम्मिलित हैं। यहाँ के नास्तिक भी अपने को हिंदू कहतें हैं। गोआ के प्रायः सभी ईसाई हिंदू-देव-देवियों की अबतक पूजा करते थे। जिनपर हिंदुत्व की धाक जम गयी हैं, वे कितने ही मुसल्मान गोमांस के पासतक नहीं जाते। महापतित भी अपने को छाती फुलाकर हिंदू बताता हैं। औघड़ से लेकर परम वैष्णवतक हिंदुत्वाभिमानी हैं। वर्णाश्रमी भी हिंदू हैं वर्णाश्रम के द्रोही भी हिंदू हैं। ईश्वरद्रोही बौद्ध भी हिंदू हैं, वेदद्रोही जैन भी हिंदू हैं और मूर्तिपूजाद्रोही आर्यसमाजी भी हिंदू हैं। चाण्डाल और चमार भी हिंदुत्व के लिये जान देते हैं और कोल, भील भी हिंदुत्व की रक्षा के लिये कट मरतें हैं। कन्धार और काबुल से गंगास्नान करनेवाले भी हिंदुत्व के हिमायती हैं और गंगातट पर रहकर गंगा की समालोचना करनेवाले भी हिंदू हैं। हिंदुत्वने ही बौद्ध को जन्म दिया हैं; इसलिये बौद्धधर्म माननेवाले जापानी, चीनी, तातारी, मंगोल, तिब्बती, सिंहली, बर्मी आदि भी हिंदू हैं। बर्मा के भिक्षु उत्तमा हिंदुमहासभा के सभापति भी हुए थे।

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