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यहाँ इस समस्त चराचर जगत् में सभी कुछ प्राकृतिक ही है, इसीलिये ही इस जगत् को ही प्रकृति भी कहा जाता है और प्रकृतिको ही हम स्वभाव भी कहते हैं। यह स्वभाव अथवा प्रकृति परिवर्तनशील ही होते हैं, यहाँके समस्त चराचर अथवा जड़-चेतन जीवोंके आकार भी बदलते ही रहते हैं, वह चाहे पर्वत और समुद्र ही क्यों न हों।
हमने इसी अपने ही जीवन में देखा है कि जहाँ पर्वत थे आज वहाँ तालाब अथवा मैदान दिखायी देता है,पर्वतोंको तो तोड़-फोड़कर रोड-सड़कें और मकान बना दिये गये हैं।
और यह भी सुना है कि जब भी महायुद्ध होते हैं तब उन युद्धों में पशुपास्त्र, ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र आदि अणु एवं परमाणु तथा रासायनिक बमों का प्रयोग होता आया है और होता ही रहता है; इन अस्त्र-शस्त्रोंमें इतनी अधिक शक्ति होती है कि ये पूरी पृथ्वी का भी नक्शा बदल लेते हैं, कई देश, पहाड़ और समुद्रोंका भी रूप बदलकर रख देते हैं। कई पीढ़ियों की भी सकल बदल सकने की भी शक्ति रखते हैं।
इससे भी यही सिद्ध होता है कि यहाँ सभी कुछ अपने-अपने समय के अनुसार बदल ही जाता है, जैसे सत्युग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग में इन सभी प्रकार के शरीरोंमें भी बहुत बड़ा फर्क आ जाता है, सत्युग और त्रेता, एवं द्वापरके शरीरोंका वर्णन सुनकर लोग आश्चर्यमें पड़ जाते हैं और बहुत से लोग तो उन लेखोंपर भी यकीन ही नहीं कर पाते हैं, अर्थात् झूठी और मनगढ़ंत बातें ही समझते हैं।
जबकि इस वर्तमान कालमें भी कहीं-कहीं ढाल-तलवारें एवं भाले आदि इतने भारी निकलते हैं कि आजके जमाने के एक आदमी के लिये तो उन्हें उठाना ही मुश्किल हो जाता है। जबकि ये सभी उस समयके उनके चलाने वाले हथियार ही तो थे और यह भी सभी लोग देखते ही हैं कि अपने दादा-परदादाओं के शरीरके समान पोते-परपोते हो ही नहीं पाते हैं। फिर भी कुछ अविवेकी लोगों का ध्यान इस ओर न जाकर पिछले समयमें लिखे गये इतिहास-पुराणों एवं शास्त्रों को आजके जमाने के अनुसार झूठा साबित करने की कोशिश में ही लगे रहते हैं।
अतः मेरा आप सभी से निवेदन है कि अपने-अपने विवेक और अनुभव का प्रयोग अवश्य ही करें! इन अविवेकियों के चक्करों से हमेशा ही सावधान रहें।

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