Phone

9140565719

Email

mindfulyogawithmeenu@gmail.com

Opening Hours

Mon - Fri: 7AM - 7PM

पंच तत्व उपासना

   पंचतत्व से बना है ये ब्रह्मांड ओर मनुष्य देह भी पंचतत्व से बना है। इस तत्वके देवता ही प्रधान पंचदेव भूमि - गणपति , वायु - नारायण , अग्नि - सूर्य , जल - शक्ति , आकाश - रुद्र है । इस पंचतत्व की उपासना करके तत्व साध्य किया जाता है। तत्व साध्य होते ही तत्वके देवता भी साध्य हो जाते है । तत्व उपासना की सिद्धि से ब्रह्मांड की हरेक शक्ति साध्य हो जाती है । हमारे देहमे किसी भी तत्व को बढ़ाया या कम किया जा सकता है । आकाश तत्व की सिद्धि से हवामें तैरना या पानी पर चलना भूमि तत्वसे किसी भी पदार्थ को किसी भी चिजमे परिवर्तन करना , आरोग्य , दीर्घायु , बिगैरे अनेक सिद्धिया प्राप्त होती है । 

वाराणसी में एक साधु जो तत्व उपासक थे उनकी सन्मुख मुलाकात दरम्यान तत्व परिवर्तन का एक छोटासा प्रयोग देखने मिला । वो महात्मने अपने आसपास से घास तोड़के हाथमे लिया और देखते ही देखते उनको मिठाई में परिवर्तित कर दिया । तत्व का मूल स्वभाव बताते उन्होंने बताया :- ये घास खा कर ही गाय दूध देती है जिनकी मिठाई बनाई जाती है वो पूरी प्रक्रिया तत्व साधना युही कर सकती है । कॉलेज के संस्कृत विषयके प्राध्यापक थे और साधु बन गए वो महात्मा अभी तत्व उपासना कर रहे है ।

   ** पाँचकलाओं द्वारा तात्विक साधना**

पृथ्वी तत्व- इस तत्व का स्थान मूलाधार चक्र अर्थात् गुदा से दो अंगुल अंडकोश की ओर हटकर सीवन में स्थित है। सुषुम्ना का आरम्भ इसी स्थान से होता है। प्रत्येक चक्र का आधार कमल के पुष्प जैसा है। यह ‘भूलोक’ का प्रतिनिधि है। पृथ्वी तत्व का ध्यान इसी मूलाधार चक्र में किया जाता है।

पृथ्वी तत्व की आकृति चतुष्कोण, रंग पीला, गुण गन्ध है। इसलिए इसको जानने की इन्द्रिय नासिका तथा कर्मेन्द्रिय गुदा है। शरीर में पीलिया, कमलवाय आदि रोग इसी तत्व की विकृति से पैदा होते हैं। भय आदि मानसिक विकारों में इसकी प्रधानता होती है। इस तत्व के विकार मूलाधार चक्र में ध्यान स्थित करने से अपने आप शान्त हो जाते हैं।

साधन विधि- सबेरे जब एक पहर अँधेरा रहे, तब किसी शान्त स्थान और पवित्र आसन पर दोनों पैरों को पीछे की ओर मोड़कर उन पर बैठें। दोनों हाथ उल्टे करके घुटनों पर इस प्रकार रखी, जिससे उँगलियों के छोर पेट की ओर रहें। फिर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखते हुए मूलाधार चक्र में ‘ल’ बीज वाली चौकोर पीले रंग की पृथ्वी पर ध्यान करें। इस प्रकार करने से नासिका सुगन्धि से भर जाती है और शरीर उज्ज्वल कान्ति वाला हो जाता है। ध्यान करते समय ऊपर कहे पृथ्वी तत्व के समस्त गुणों को अच्छी तरह ध्यान में लाने का प्रयत्न करना चाहिए और ‘ल’ इस बीज मन्त्र का मन ही मन (शब्द रूप से नहीं, वरन् ध्यान रूप से) जप करते जाना चाहिए।

जल तत्व- पेढू के नीचे जननेन्द्रिय के ऊपर मूल भाग में स्वाधिष्ठान चक्र में जल तत्व का स्थान है। यह चक्र ‘भव’ लोक का प्रतिनिधि है, रंग श्वेत, आकृति अर्धचन्द्राकार और गुण रस है। कटु, अम्ल, तिक्त मधुर आदि सब रसों का स्वाद इसी तत्व के कारण आता है। इसकी ज्ञानेन्द्रिय जिह्वा और कर्मेन्द्रिय लिंग है। मोहादि विकार इसी तत्व की विकृति से होते हैं।

साधन विधि- पृथ्वी तत्व का ध्यान करने के लिए बताई हुई विधि से आसन पर बैठकर ‘व’ बीज वाले अर्धचन्द्राकार चन्द्रमा की तरह कान्ति वाले जल तत्व का स्वाधिष्ठान चक्र में स्थान करना चाहिए। इनसे भूख-पास मिटती है और सहन- शक्ति उत्पन्न होती है।

अग्नि तत्व-नाभि स्थान में स्थिति मणिपूरक चक्र में अग्नि तत्व का निवास है। यह ‘स्व’ लोक का प्रतिनिधि है। इस तत्व की आकृति त्रिकोण, लाल गुण रूप है। ज्ञानेन्द्रिय नेत्र और कर्मेन्द्रिय पाँव हैं। क्रोधादि मानसिक विकार तथा सृजन आदि शारीरिक विकार इस तत्व की गड़बड़ी से होते हैं, इसके सिद्ध हो जाने पर मन्दाग्नि, अजीर्ण आदि पेट के विकार दूर हो जाते हैं और कुण्डलिनी शक्ति के जाग्रत होने में सहायता मिलती है।

साधन विधि- नियत समय पर बैठकर ‘र’ बीज मन्त्र वाले त्रिकोण आकृति के और अग्नि के समान लाल प्रभा वाले अग्नि- तत्व का मणि पूरक चक्र में ध्यान करें। इस तत्व के सिद्ध हो जाने पर सहन करने की शक्ति बढ़ जाती है।

वायु तत्व- यह तत्व हृदय देश में स्थिति अनाहत चक्र में है एवं ‘महलोक’ का प्रतिनिधि है। रंग हरा, आकृति षट्कोण तथा गोल दोनों तरह की है, गुण-स्पर्श, ज्ञानेन्द्रिय-त्वचा और कर्मेन्द्रिय-हाथ हैं। वात-व्याधि, दमा आदि रोग इसी की विकृति से होते हैं।

साधन विधि- नियत विधि से स्थित होकर ‘य’ बीज वाले गोलाकर, हरी आभा वाले वायु-तत्व का अनाहत चक्र में ध्यान करें। इससे शरीर और मन में हल्कापन आता है।

आकाश तत्व- शरीर में इसका निवास विशुद्ध चक्र में है। यह चक्र कण्ठ स्थान ‘जनलोक’ का प्रतिनिधि है। इसका रंग नीला, आकृति अण्डे की तरह लम्बी, गोल, गुण शब्द, ज्ञानेन्द्रिय-कान तथा कर्मेन्द्रिय वाणी है।

साधन विधि- पूर्वोक्त आसन पर ‘ह’ बीज मन्त्र का जाप करते हुए चित्र- विचित्र रंग वाले आकाश- तत्व का विशुद्ध चक्र में ध्यान करना चाहिए। इससे तीनों कालों का ज्ञान, ऐश्वर्य तथा अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

नित्य प्रति पाँच तत्वों का छः मास तक अभ्यास करते रहने से तत्व सिद्ध हो जाते हैं, फिर तत्व को पहचानना और उसे घटाना-बढ़ाना सरल हो जाता है। तत्व की सामर्थ्य तथा कलाएँ बढ़ने से साधक कलाधारी बन जाता है। उसकी कलाएँ अपना चमत्कार प्रकट करती रहती हैं।
इसके साथ जीवन शैली में ये परिवर्तन करें ताकि तत्व अभ्यास सरलता से होता है ।

पृथ्वी तत्व = पृथ्वी तत्व में विषों को खींचने की अद्भुत शक्ति है। मिट्टी की टिकिया बाँध कर फोड़े तथा अन्य अनेक रोग दूर किये जा सकते हैं। पृथ्वी में से एक प्रकार की गैस हर समय निकलती रहती है। इसको शरीर में आकर्षित करना बहुत लाभदायक है।

प्रतिदिन प्रातःकाल नंगे पैर टहलने से पैर और पृथ्वी का संयोग होता है। उससे पैरों के द्वारा शरीर के विष खिच कर जमीन में चले जाते हैं और ब्राह्ममुहूर्त में जो अनेक आश्चर्यजनक गुणों से युक्त वायु पृथ्वी में से निकलती है उसको शरीर सोख लेता है। प्रातःकाल के सिवाय यह लाभ और किसी समय में प्राप्त नहीं हो सकता। अन्य समयों में तो पृथ्वी से हानिकारक वायु भी निकलती है जिससे बचने के लिए जूता आदि पहनने की जरूरत होती है।

प्रातःकाल नंगे पैर टहलने के लिए कोई स्वच्छ जगह तलाश करनी चाहिए। हरी घास भी वहाँ हो तो और भी अच्छा। घास के ऊपर जमी हुई नमी पैरों को ठंडा करती है। वह ठंडक मस्तिष्क तक पहुँचती है। किसी बगीचे, पार्क, खेल या अन्य ऐसे ही साफ स्थान में प्रति दिन नंगे पाँवों कम से कम आधा घंटा नित्य टहलना चाहिए। साथ ही यह भावना करते चलना चाहिए “पृथ्वी की जीवनी शक्ति को मैं पैरों द्वारा खींच कर अपने शरीर में भर रहा हूँ और मेरे शरीर के विषों को पृथ्वी खींच कर मुझे निर्मल बना रही है।” यह भावना जितनी ही बलवती होगी, उतना ही लाभ अधिक होगा।

हफ्ते में एक दो बार स्वच्छ भुरभुरी पीली मिट्टी या शुद्ध बालू लेकर उसे पानी से गीली करके शरीर पर साबुन को तरह मलना चाहिए। कुछ देर तक उस मिट्टी को शरीर पर लगा रहने देना चाहिए और बाद में स्वच्छ पानी से स्नान करके मिट्टी को पूरी तरह से छुड़ा देना चाहिए। इस मृतिका स्नान से शरीर के भीतरी और चमड़े के विष खिंच जाते हैं और त्वचा कोमल एवं चमकदार बन जाती है।

जल तत्व= मुरझाई हुई चीजें जल के द्वारा हरी हो जाती हैं। जल में बहुत बड़ी सजीवता है। पौधे में पानी देकर हरा भरा रखा जाता है, इसी प्रकार शरीर को स्नान के द्वारा सजीव रखा जाता है। मैल साफ करना ही स्नान का उद्देश्य नहीं हैं वरन् जल में मिली हुई विद्युत शक्ति, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन आदि अमूल्य तत्वों द्वारा शरीर को सींचना भी है। इसलिए ताजे, स्वच्छ, सह्य ताप के जल से स्नान करना कभी न भूलना चाहिए। वैसे तो सवेरे का स्नान ही सर्वश्रेष्ठ है पर यदि सुविधा न हो तो दोपहर से पहले स्नान जरूर कर लेना चाहिए। मध्याह्न के बाद का स्नान लाभदायक नहीं होता। हाँ गर्मी के दिनों में संध्या को भी स्नान किया जा सकता है।

प्रातःकाल सोकर उठते ही वरुण देवता की उपासना करने का एक तरीका यह है कि कुल्ला करने के बाद स्वच्छ जल का एक गिलास पीया जाए। इसके बाद कुछ देर चारपाई और इधर उधर करवटें बदलनी चाहिए। इसके बाद शौच जाना चाहिए। इस उपासना का वरदान तुरन्त मिलता है। खुल कर शौच होता है और पेट साफ हो जाता है। यह ‘उषापान’ वरुण देवता की प्रत्यक्ष आराधना है।

जब भी आपको पानी पीने की आवश्यकता पड़े, दूध की तरह घूँट घूँट कर पानी पियें। चाहे कैसी ही प्यास लग रही हो एक दम गटापट न पी जाना चाहिए। हर एक घूँट के साथ यह भावना करते जाना चाहिए-”इस अमृत तुल्य जल में जो मधुरता और शक्ति भरी हुई है, उसे मैं खींच रहा हूँ।” इस भावना के साथ पिया हुआ पानी, दूध के समान गुणकारक होता है। पानी पीने में कंजूसी न करनी चाहिए। भोजन करते समय अधिक पानी न पियें इसका ध्यान रखते हुए अन्य किसी भी समय की प्यास को जल द्वारा समुचित रीति से पूरा करना चाहिए। व्रत के दिन तो खास तौर से कई बार काफी मात्रा में पानी पीना चाहिए।

अग्नि तत्व= जीवन को बढ़ाने ओर विकसित करने का काम अग्नि तत्व का है जिसे गर्मी कहते हैं। गर्मी न हो तो कोई वनस्पति एवं जीव विकसित नहीं हो सकता। गर्मी के केन्द्र सूर्य उपासना और अग्नि उपासना एक ही बात है।

स्नान करके गीले शरीर से ही प्रातःकालीन सूर्य के दर्शन करने चाहिए और जल का अर्घ्य देना चाहिए। पानी में बिजली का बहुत जोर रहता है। बादलों के जल के कारण आकाश में बिजली चमकती है। इलेक्ट्रिसिटी के तारों में भी वर्षा ऋतु में बड़ी तेजी रहती है। पानी में बिजली की गर्मी को खींचने की विशेष शक्ति है। इसलिए शरीर को तौलिया से पोंछने के बाद नम शरीर से ही नंगे बदन सूर्य नारायण के सामने जाकर अर्घ्य देना चाहिए। यदि नदी, तालाब, नहर पास में हो कमर तक जल में खड़े होकर अर्घ्य देना चाहिए। अर्घ्य लोटे से भी दिया जा सकता है और अंजलि से भी, जैसी सुविधा हो कर लेना चाहिए। सूर्य के दर्शन के पश्चात् नेत्र बन्द करके उनका ध्यान करना चाहिए और मन ही मन यह भावना दुहरानी चाहिए-”भगवान सूर्य नारायण का तेज मेरे शरीर में प्रवेश करके नस नस को दीप्तिमान सतेज और प्रफुल्लित कर रहे हैं और मेरे अंग प्रत्यंग में स्फूर्ति उत्पन्न हो रही है।” स्नान के बाद इस क्रिया को नित्य करना चाहिए।

हो सके तो रविवार का व्रत भी करना चाहिये। यदि पूरा व्रत न हो सके तो एक समय, बिना नमक का भोजन करने से भी सूर्य का व्रत माना जा सकता है। इससे भी मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार मनुष्य के तेज में वृद्धि होती है और नेत्र रोग, रक्त विकार तथा चर्म रोग विशेष रूप से दूर होते हैं।

वायु तत्व= शरीर को पोषण करने वाले तत्वों का थोड़ा भाग भोजन से प्राप्त होता है, अधिकाँश भाग की पूर्ति वायु द्वारा होती है। जो वस्तुएं स्थूल हैं वे सूक्ष्म रूप से वायु मंडल में भी भ्रमण करती रहती हैं। योरोप अमेरिका में ऐसी गायें हैं जिनकी खुराक 24 सेर है परन्तु दिन भर में दूध 28 सेर देती हैं। यह दूध केवल स्थूल भोजन से ही नहीं बनता वरन् वायु में घूमने वाले अदृश्य तत्वों के भोजन से भी प्राप्त होता है। बीमार तथा योगी बहुत समय तक बिना खाये पिये भी जीवित रहते हैं। उनका स्थूल भोजन बन्द है तो भी वायु द्वारा बहुत सी खुराकें मिलती रहती हैं। यही कारण है कि वायु द्वारा प्राप्त होने वाले ऑक्सीजन आदि अनेक प्रकार के भोजन बन्द हो जाने पर मनुष्य की क्षण भर में मृत्यु हो जाती है। बिना वायु के जीवन संभव नहीं। आबोहवा का जितना स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है उतना भोजन का नहीं। डॉक्टर लोग क्षय आदि असाध्य रोगियों को पहाड़ों पर जाने की सलाह देते हैं क्योंकि वे समझते हैं कि बढ़िया दवाओं की अपेक्षा उत्तम वायु में अधिक पोषक तत्व मौजूद हैं।

अनन्त आकाश में से वायु द्वारा प्राणप्रद तत्वों को खींचने के लिए भारत के तत्व दर्शी ऋषियों ने प्राणायाम की बहुमूल्य प्रणाली का निर्माण किया है। मोटी बुद्धि से देखने में प्राणायाम एक मामूली सी फेफड़ों की कसरत मालूम पड़ती है और इससे इतना ही लाभ प्रतीत होता है कि फेफड़े मजबूत बनें और रक्त शुद्ध हो किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से इस क्रिया द्वारा अनिर्वचनीय लाभ प्रतीत हुए हैं। बात यह है कि प्राणायाम द्वारा अखिल आकाश में से अत्यन्त बहुमूल्य पोषक पदार्थों को खींचकर शरीर को पुष्ट बनाया जा सकता है।

स्नान करने के उपरान्त किसी एकान्त स्थान में जाइए। समतल भूमि पर आसन बिछा कर पद्मासन से बैठ जाइए। मेरुदंड बिलकुल सीधा रहे। नेत्रों को अधखुला रखिए। अब धीरे धीरे नाक द्वारा साँस खींचना आरम्भ कीजिए और दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ भावना कीजिए कि “विश्वव्यापी महान प्राण भण्डार में से मैं स्वास्थ्यदायक प्राणतत्व साँस के साथ खींच रहा हूँ और वह प्राण मेरे रक्त प्रवाह तथा समस्त नाड़ी तन्तुओं में प्रवाहित होता हुआ सूर्यचक्र में (आमाशय का वह स्थान जहाँ पसलियाँ और पेट मिलते हैं) इकट्ठा हो रहा है। इस भावना को ध्यान द्वारा चित्रवत् मूर्तिमान रूप से देखने का प्रयत्न करना चाहिए। जब फेफड़ों को वायु से अच्छी तरह भर लो तो दस सैकिण्ड तक वायु को भीतर रोके रहो। रोकने के समय ऐसा ध्यान करना चाहिए कि “प्राणतत्व मेरे अंग प्रत्यंगों में पूरित हो रहा है।” अब वायु को नासिका द्वारा ही धीरे धीरे बाहर निकालो और निकालते समय ऐसा अनुभव करो कि “शरीर के सारे दोष, रोग और विष वायु के साथ साथ निकाल बाहर किये जा रहे हैं।”

उपरोक्त प्रकार से आरम्भ में दस प्राणायाम करने चाहिए फिर धीरे धीरे बढ़ाकर सुविधानुसार आधे घंटे तक कई बार इन प्राणायामों को किया जा सकता है। अभ्यास पूरा करने के उपरान्त आपको ऐसा अनुभव होगा कि रक्त की गति तीव्र हो गई है और सारे शरीर की नाड़ियों में एक प्रकार की स्फूर्ति, ताजगी और विद्युत शक्ति दौड़ रही है। इस प्राणायाम को कुछ दिन लगातार करने से अनेक शारीरिक और मानसिक लाभों का स्वयं अनुभव होगा।

आकाश तत्व= आकाश का अर्थ शून्य या पोल समझा जाता है। पर यह शून्य या पोल खाली स्थान नहीं है। ईथर तत्व (Ethar) हर जगह व्याप्त है। इस ईथर को ही आकाश कहते हैं। रेडियो द्वारा ब्रॉडकास्ट किये हुए शब्द ईथर तत्व में लहरों के रूप में चारों ओर फैल जाते हैं। रेडियो यंत्र की सहायता से उन लहरों को पकड़ कर उन शब्दों को दूर दूर स्थानों में भी सुना जाता है। केवल शब्द ही नहीं विचार और विश्वास भी आकाश में (ईथर में) लहरों के रूप में बहते रहते हैं। जैसी ही हमारी मनोभूमि होती है उसी के अनुरूप विचार इकट्ठे होकर हमारे पास आ जाते हैं। एक ही समय में दिल्ली, बम्बई, लाहौर, लन्दन, न्यूयार्क आदि से विभिन्न प्रोग्राम ब्रॉडकास्ट होते हैं परन्तु आपके रेडियो सैट की सुई जिस स्टेशन के नम्बर पर लगी होगी उसी का प्रोग्राम सुनाई पड़ेगा और अन्य प्रोग्राम अपने रास्ते चले जायेंगे। इसी प्रकार हमारी मनोभूमि, रुचि, इच्छा जैसी होती हैं उसी के अनुसार आकाश में से विचार, प्रेरणा और प्रोत्साहन प्राप्त होते हैं। सृष्टि के आदि से लेकर अब तक असंख्य प्राणियों द्वारा जो असंख्य प्रकार के विचार अब तक किये गये हैं वे नष्ट नहीं हुए वरन् अब तक मौजूद हैं, आकाश में उड़ते फिरते हैं। यह विचार अपने अनुरूप भूमि जहाँ देखते हैं वहीं सिमट सिमट कर इकट्ठे होने लगते हैं। कोई व्यक्ति बुरे विचार करता है तो उसी के अनुरूप असंख्य नई बातें उसे अपने आप सूझ पड़ती हैं, इसी प्रकार भले विचारों के बारे में भी है हम जैसी अपनी मनोभूमि बनाते हैं उसी के अनुरूप विचार और विश्वासों का समूह हमारे पास इकट्ठा हो जाता है और यह तो निश्चित ही है कि विचारो की प्रेरणा से ही कार्य होते हैं। जो जैसा सोचता है वह वैसे ही काम भी करने लगता है।

आकाश तत्व में से लाभदायक सद्विचारों को आकर्षित करने के लिए प्राणायाम के बाद का समय ठीक है। एकान्त स्थान में किसी नरम बिछाने पर चित्त होकर लेट जाओ, या आराम कुर्सी पर पड़े रहो अथवा मसंद या दीवार का सहारा लेकर शरीर को बिलकुल ढीला कर दो। नेत्रों को बन्द करके अपने चारों ओर नीले आकाश का ध्यान करो। नीले रंग का ध्यान करना मन को बड़ी शान्ति प्रदान करता है। जब नीले रंग का ध्यान ठीक हो जाए तब ऐसी भावना करनी चाहिए कि ‘निखिल नील आकाश में फैले हुए सद्विचार, सद्विश्वास, सत्प्रभाव चारों ओर से एकत्रित होकर मेरे शरीर में विद्युत किरणों की भाँति प्रवेश कर रहे हैं और उनके प्रभाव से मेरा अन्तःकरण दया, प्रेम, परोपकार, कर्तव्यपरायणता, सेवा, सदाचार, शान्ति, विनय, गंभीरता, प्रसन्नता, उत्साह, साहस, दृढ़ता, विवेक आदि सद्गुणों से भर रहा है।” यह भावना खूब मजबूती और दिलचस्पी के साथ मनोयोग तथा श्रद्धा पूर्वक होनी चाहिए। जितनी ही एकाग्रता और श्रद्धा होगी उतना ही इससे लाभ होगा।

आकाश तत्व की इस साधना के फलस्वरूप अनेक सिद्ध, महात्मा, सत्पुरुष, अवतार तथा देवताओं की शक्तियाँ आकर अपने प्रभाव डालती हैं और मानसिक दुर्गुणों को दूर करके श्रेष्ठतम सद्भावनाओं का बीज जमाती हैं। सद्भावों के कारण ही यह लोक और परलोक आनन्दमय बनता है यह तथ्य बिलकुल निश्चित और स्वयं सिद्ध है।

उपरोक्त पाँच तत्वों की साधनाएं देखने में छोटी और सरल हैं तो भी इनका लाभ अत्यन्त विषद है। नित्य पाँचों तत्वों का जो साधन कर सकते हैं। वे इन सबको करें जो पाँचों को एक साथ न कर सकते हों वे एक एक दो दो करके किया करें। कौन सा साधन पहले कौन सा पीछे यह भी अपनी अपनी सुविधा के ऊपर निर्भर है। जिन्हें प्रतिदिन करने की सुविधा न हो वे सप्ताह में एक दो दिन के लिए भी अपना कार्यक्रम निश्चित रूप से चलाने का प्रयत्न करें। इस तत्वों की उपासना के समय उस तत्व के देवताओ के मंत्र जाप भी त्वरीत सिद्धि देते है ।

जिसे साधना करके जीवनमे कुछ पाने की तमन्ना हो उन्हें ये निर्दोष ओर फलदायी उपासना करनी चाहिए जो क्षमता अनुसार अवश्य फलदायी है l

            

Recommended Articles

Leave A Comment