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अगर हम अपेक्षा छोड़ दें कोई मांग न रहे किसी से और जो कर सकते हैं वो करते रहे और मिली हुई वस्तु ,व्यक्ति, परिस्थिति को सत्कारपूर्वक स्वीकार करें तो हमे क्या कोई दुख दे सकेगा ?

जितनी भी उलझने है दुःख है सबकी वजह तो हमारी अपेक्षा ही है जो अपेक्षा हम दुसरो से कर रहे है। हमारी कामना है की काम मेरे अनुसार होवे यही तो दुःख की बड़ी जड़ है । इस बात पे विचार करना है।

अगर हम होश में आ जाए जाग जाए कि इस जग में मिलना किसी से कुछ भी नहीं है तो पाने को दौड़ खत्म हो जाये जो दुख निराशा का कारण है।
बस इतना समझ आ जाये कि जो मिला है उसका सत्कार करना है उसका सिर्फ सदुपयोग करना है उसे अपना बनाने की व्यर्थ कोशिस नही करना है तो हम अनुभव करेंगे की जीवन से दुख चला गया अब कोई दुख दे नही सकता है । सुख की चाहना ही तो दुःख का कारण है।

जय श्री कृष्ण🙏🙏
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   *🔥प्रेम और भक्ति का हिसाब ....🔥*

एक पहुंचे हुए सन्यासी का एक शिष्य था, जब भी किसी मंत्र का जाप करने बैठता तो संख्या को खडिया से दीवार पर लिखता जाता। किसी दिन वह लाख तक की संख्या छू लेता किसी दिन हजारों में सीमित हो जाता। उसके गुरु उसका यह कर्म नित्य देखते और मुस्कुरा देते।
एक दिन वे उसे पास के शहर में भिक्षा मांगने ले गये। जब वे थक गये तो लौटते में एक बरगद की छांह बैठे, उसके सामने एक युवा दूधवाली दूध बेच रही थी, जो आता उसे बर्तन में नाप कर देती और गिनकर पैसे रखवाती। वे दोनों ध्यान से उसे देख रहे थे। तभी एक आकर्षक युवक आया और दूधवाली के सामने अपना बर्तन फैला दिया, दूधवाली मुस्कुराई और बिना मापे बहुत सारा दूध उस युवक के बर्तन में डाल दिया, पैसे भी नहीं लिये। गुरु मुस्कुरा दिये, शिष्य हतप्रभ उन दोनों के जाने के बाद, वे दोनों भी उठे और अपनी राह चल पडे। चलते चलते शिष्य ने दूधवाली के व्यवहार पर अपनी जिज्ञासा प्रकट की तो गुरु ने उत्तर दिया,
प्रेम वत्स, प्रेम! यह प्रेम है, और प्रेम में हिसाब कैसा? उसी प्रकार भक्ति भी प्रेम है, जिससे आप अनन्य प्रेम करते हो, उसके स्मरण में या उसकी पूजा में हिसाब किताब कैसा?” और गुरु वैसे ही मुस्कुराये व्यंग्य से।
” समझ गया गुरुवर। मैं समझ गया प्रेम और भक्ति के इस दर्शन को। “

🙏
आज का भगवद चिन्तन ॥

ना बोलना बड़ी बात है और ना चुप रहना बड़ी बात है मगर कब बोलना और कब चुप रहना इसका विवेक रखना ही बड़ी बात है। अगर बोलना ही बड़ी बात होती तो दुनिया का हर वाचाल मनुष्य प्रशंसा का पात्र होता एवं अनावश्यक बोलने वाली द्रौपदी को कभी भी महाभारत के लिए जिम्मेदार न ठहराया जाता।
इसी प्रकार केवल चुप रहना ही बड़ी बात होती तो भरी सभा में अपनी कुलवधू का अपमान होते देखकर भी मौन साधने वाले पितामह भीष्म को कभी मंत्री बिदुर द्वारा, कभी भगवान श्रीकृष्ण द्वारा तो कभी समाज द्वारा दोषी ना माना गया होता।
अतः कब बोला जाए और कितना बोला जाए ? व कब चुप रहा जाए और कब तक चुप रहा जाए तथा कितना चुप रहा जाए ? जिसे इन बातों को समझने का विवेक आ गया निश्चित ही उसने एक शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण जीवन की नीव भी रख ली।

*संजीव कृष्ण ठाकुर जी*

दीन दुखियों की सेवा करो और सभी से प्रेम, ताकि आपको परमात्मा को ढूँढने कहीं दूर न जाना पड़े। यह अनमोल वचन हमें बहुत कुछ सन्देश दे जाते हैं बशर्ते हम समझने का प्रयास करें। हमारे जीवन की विचित्रिता तो देखिये ! हम तीर्थ स्नान के लिए कोसों दूर जाते हैं और पड़ोस का कोई दुखियारा केवल इस कारण मर गया कि उसे एक घूँट जल की न मिल सकी।
हम बड़े-बड़े भंडारे लगाने मीलों दूर जाते हैं और मुहल्लों के कई किशोर- किशोरियाँ पढने- लिखने की उम्र में सिर्फ इसलिए अमानवीय व्यवहार सहकर भी रात- दिन मजदूरी करते हैं ताकि उनके परिवार को कम से कम एक वक्त तो भर पेट भोजन मिल सके।
काश ! अब भी इस समाज में कोई एकनाथ और नामदेव जैसे चैतन्य पुरुष प्रकट होते, जिन्हें पशु में ही पशुपति नाथ और कुत्ते में ही कुल देव के दर्शन हो जाएँ।|

Զเधॆ Զเधॆ🙏🙏

      *यदि इंसान अपने देखने के भीतरी दृष्टिकोण को बदल ले तो बाहर सब कुछ अच्छा और सुन्दर नजर आएगा। जैसा हम स्वयं होते हैं वैसा ही हमें सर्वत्र नजर आने लगता है। सीधी सी बात है जैसा आँखों पर चश्मा लगा होगा वैसा ही नजर आने लगेगा।*

       *संसार में बहुत लोगों को केवल बुराईयाँ, दोष, गंदगी और गलत चीजें ही नजर आती है। यह सब उनकी ग़लत कट्टर धारणा के कारण होता है, स्वयं भगवान भी सामने आकर प्रकट हो जाएँ तो उनमें भी सबसे पहले इन्हें दोष ही नजर आएगा।*

      *संसार में अच्छे, सज्जन, सत्कर्मी और श्रेष्ठ लोग भी बहुत हैं। धरती पर कई लोग तो ईश्वर का चिन्तन करते-करते तीर्थ जैसे ही हो गए हैं। दोष दर्शन की जगह हम सबमें गुण दर्शन करने लग जाएँ तो हमारा स्वयं का विकास तो होगा ही दुनिया भी बड़ी खूबसूरत नजर आने लगेगी।*

जय श्री कृष्ण🙏🙏
सज्जनो सुख और दुख दोनो जीवन के दो पहलू है, कभी सुख रहेगा तो कभी दुख /जिसने सुख और दुख को एक समान समझा उसी ने जीवन का सही आनन्द उठाया /जीवन में बहुधा अप्रिय प्रसंग आते रहते हैं। यह जरुरी नहीं कि हमेशा प्रिय परिस्थितियाँ तथा अनुकूल व्यवहार ही उपलब्ध हों। हानि, घाटा, रोग ,शोक, बिछोह, अपमान, असफलता, आक्रमण, आपत्ति आदि की विपन्न स्थितियाँ भी सुख-संपत्ति की भाँति आती रहती हैं। इनका आना भी अनिवार्य है। कोई भी इन विविधताओं से बच नहीं पाता। इस उभयपक्षीय क्रम को सहन करने योग्य मनोभूमि बनाए रखना हर विवेकशील मनुष्य का कर्तव्य है।प्रतिकूलताएँ आने पर जो घबराते हैं ,अधीर होते हैं, किंकर्त्तव्यविमूढ़ बनते हैं, वे अपनी इस दुर्बलता को भी एक नई विपत्ति के रुप में ओढ़ते हैं और उनका कष्ट दूना हो जाता है। इसके विपरीत साहसी और धैर्यशील लोग कठिन से कठिन समय को भी अपने साहस के बल पर काट देते हैं और निराशा को चीरकर आशा का वातावरण बनाने के लिए प्रयत्न करके फिर कामचलाऊ स्थिति उत्पन्न कर लेते हैं।

Զเधॆ Զเधॆ🙏🙏

वाकई.. यह सत्य है कि जैसे हमारे संस्कार होते हैं, वैसा ही हमारे मन का व्यवहार होता है, हमारे पारिवारिक-संस्कार अवचेतन मस्तिष्क में गहरे बैठ जाते हैं। माता-पिता जिस संस्कार के होते हैं, उनके बच्चे भी उसी संस्कारों को लेकर पैदा होते हैं। बाकी जीवन में हमारे कर्म ही ‘संस्‍कार’ बनते हैं और संस्कार ही जन्मों प्रारब्धों का रूप लेते हैं। हमें समझना चाहिए कि कर्मों को सही व बेहतर दिशा दे दें तो संस्कार अच्छे बनेगें और संस्कार अच्छे बनेंगे तो जो प्रारब्ध का फल बनेगा, वह मीठा व स्वादिष्ट होगा। हमें सदैव ध्यान रखना चाहिए कि हमसे जानबूझकर कोई गलत काम ना हो और हम किसी के साथ कोई छल कपट या धोखा भी ना करें….

जय श्री कृष्ण🙏🙏

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