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औषधि केवल रोग निवृत्ति के लिए होती है, स्वास्थ्य के लिए नहीं। स्वास्थ्य तो उपलब्ध है। साबुन से कपडे में कभी भी चमक नहीं आती, साबुन केवल कपडे पर लगी गंदगी को साफ करता है।। इसी प्रकार शांति के लिए हमें कोई प्रयत्न नहीं करना, वह तो प्राप्त ही है। आनन्द तो नित्य है, सहज है, मिला हुआ ही है।। अशांति देने वाले, विषाद देने वाले कर्मों से हमें बचना है। जिस प्रकार रोड़ पर चलते समय हमें स्वयं गाड़ियों से बचना पड़ता है।। क्लेश की, कलह की स्थितियों से विवेकपूर्वक बचते रहो। वो उत्पन्न होंगी और रोज नए-नए रूप में आएँगी। जिस प्रकार एक कुशल नाविक तेज धार में समझदारी से अपनी नाव को किनारे लगा देता है। उसी प्रकार आप भी समझदारी पूर्वक जीवन रुपी नाव को शांति और आनंद के किनारे पर रोज पहुँचाओ।।
[सेवा की आवश्यकता और स्वरूप जनसाधारण की गतिविधियाँ और क्रिया-कलाप केवल अपने तक ही सीमित रहते हैं। सामान्य व्यक्ति अपना सुख और हित देखना ही पर्याप्त समझता है। वह सोचता है कि अपने लिए पर्याप्त साधन सुविधाएँ जुट जाएँ, अपने लिए सुखदायक परिस्थितियाँ हो, इतना ही काकी है। शेष सब चाहे जिस स्थिति में पड़े रहें। स्वार्थपरता इसी का नाम है। स्व के संकुचित दायरे में पड़े व्यक्तियों की रीति-नीति इसी स्तर की होती है। जब उसकी परिधि विस्तृत होती चलती है, व्यक्ति अपनेपन का विकास करता है तो उसमें दूसरों के लिए भी कुछ करने की उमंग उठने लगती है और व्यक्ति सेवा मार्ग पर अग्रसर होने लगता है। जीवन साधना से आत्मिक चेतना का विकास जैसे-जैसे होने लगता है सेवा की टीस उसी स्तर की उठने लगती है और व्यक्ति स्वयं की ही नहीं सबकी सुख-सुविधाओं और हित-अहित की चिंता करने लगता है, उसका ध्यान रखने लगता है। परमार्थ साधन में लगे व्यक्तियों को उससे भी उत्कृष्ट आनंद और आत्म संतोष अनुभव होता है।। जो स्वार्थ पूर्ति में ही लगे व्यक्तियों को प्राप्त होता है। पुण्य-परमार्थ, लोकमंगल, जनकल्याण, समाजहित आदि सेवा-साधना के ही पर्यायवाची नाम हैं। और इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है।। जिन व्यक्तियों ने भी इस पद्धति से जीवन सार्थकता की साधना की, मनुष्य और समाज का स्तर ऊँचा उठाने के लिए योगदान दिया, सामाजिक सुख-शांति में बाधक तत्त्वों का उन्मूलन करने के लिए प्रयत्न किए, समाज ने उन्हें सर आँखों पर उठा लिया। महापुरुषों के रूप में आज हम उन्हीं नर-रत्नों का स्मरण और वंदन करते हैं। मानवी सभ्यता और संस्कृति के विकास में सबसे बड़ी बाधा है व्यक्ति और समाज को त्रस्त करने वाली समस्याएँ। आज जिधर भी देखा जाए उधर अभाव, असंतोष, चिंता, क्लेश व कलह का ही बाहुल्य दिखाई देता है।।
[राधे-राधे
त्याग और नाश ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। स्वयं की इच्छा से किसी वस्तु अथवा पदार्थ को छोड़ना त्याग तथा स्वयं की इच्छा न होते हुए किसी वस्तु अथवा पदार्थ का छूट जाना नाश कहलाता है। प्रकृत्ति का अपना एक शाश्वत नियम है, और वो ये कि मान, पद, प्रतिष्ठा, वैभव कुछ भी और कभी भी यहाँ शाश्वत नहीं रहता। सूर्य सुबह अपने पूर्ण प्रकाश के साथ उदय होता है।। और शाम होते-होते उसका प्रकाश क्षीण होने लगता है। और दिन में प्रचंड प्रकाश फैलाने वाला वही सूर्य अस्ताचल में कहीं अपनी रश्मियों को छुपा लेता है।। रात्रि को चंद्रमा अपनी शीतला बिखेरता है मगर वो भी सुबह होते-होते कहीं प्रकृत्ति के उस विराट आंचल में छुप सा जाता है। सदा कुछ भी नहीं रहने वाला इसलिए बाँटना सीखो! चाहे प्रेम हो, सम्मान हो, समय हो, खुशी हो, धन हो अथवा अन्य कोई भी वस्तु। जिन फलों को वृक्ष द्वारा बाँटा नहीं जाता एक समय उन फलों में अपने आप सड़न आने लगती है।। और वो सड़कर वृक्ष को भी दुर्गंधयुक्त कर देते हैं। इसी प्रकार समय आने पर प्रकृत्ति द्वारा सब कुछ स्वतः ले लिया जायेगा,अब ये आप पर निर्भर करता है कि आप बाँटकर अपने यश और कीर्ति की सुगंधी को बिखेरना चाहते हैं। या संभालकर, संग्रह और आसक्ति की दुर्गंध को रखना चाहते हैं।।

*जय श्रीराधे कृष्णा*

[ आज का व्यक्ति जब घर से बाहर निकलता है, तो अपने आप आकर्षक प्रस्तुत करना चाहता है । यह सब करने के लिए वह बड़े साफ सुथरे धुले हुए अच्छे कपड़े पहनता है । गंदे और मैले कपड़े नहीं पहनना चाहता।। वह ऐसा सोचता है, कि यदि मेरे कपड़े गंदे और मैले होंगे, तो लोग मुझे अच्छा व्यक्ति नहीं मानेंगे, मेरे पास आना नहीं चाहेंगे, मुझसे बात नहीं करेंगे, लेन-देन आदि व्यवहार नहीं करेंगे। इसलिए वह अपने कपड़ों पर पूरा ध्यान देता है। हज़ारों रुपए सिर्फ कपड़ों पर ही खर्च कर देता है, जिससे कि उसका संसार के लोगों में आकर्षण या प्रतिष्ठा बनी रहे।। तो जैसे आपके अच्छे कपड़े दूसरों को आकर्षित करते हैं। इसी प्रकार से आपके विचार भी तो दूसरों को प्रभावित करते हैं।। यदि आपके विचार भी अच्छे शुद्ध सरल एवम् परोपकार से युक्त हों, तो वे भी सब को आकर्षित करेंगे। तथा आप के व्यक्तित्व का निखार करेंगे।। यह आश्चर्य की बात है, कि लोग बाह्य आकर्षण बनाने के लिए अपने कपड़ों पर तो बहुत ध्यान देते हैं, परंतु वास्तविक आकर्षण बनाने के लिए अपने विचारों एवं आचरण पर अधिक ध्यान नहीं देते, कि वे भी कपड़ों की तरह ही शुद्ध एवं साफ सुथरे होने चाहिएँ।। कपड़ों से अधिक महत्व विचारों तथा आचरण का है। इसलिए कपड़ों के साथ- साथ अपने विचारों एवं आचरण को भी शुद्ध बनाएं। क्योंकि आपके शुद्ध विचार तथा आचरण ही , कपड़ों की अपेक्षा, दूसरों को अधिक सुख देते हैं।।

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