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🙏आज का चिन्तन🙏

🌹खुशियों की तलाश स्वयं करना…. लोगों से उम्मीद रखोगे तो ये तो तुम्हें और तोड़ देंगे….🌹
आज हम जिस विषय पर विचार करने वाले हैं वो विषय लगभग हम सभी के जीवन में घटित होता है , जी हाँ सही विचार किया आपने हमारा आज का विषय “नाराजगी” है । तो क्या हम सज्ज हैं ? अक्सर आपने यह बातें किसी ना किसी से अवश्य ही सुनी होंगी कि मैं उससे बहुत नाराज़ हूँ या वह मुझे फूटी आँख नहीं सुहाता । मैं उसे कभी भी माफ़ नहीं करुंगा । मैं उसे सबक सिखा के रहुंगा / रहुंगी । मेरी बात ना मानकर उसने मेरा अपमान किया है । लोग ऐसे ही छोटी छोटी बातों को अपने सम्मान से जोड़कर किसी का जीवन बर्बाद करने पर तुल जाते हैं ।कई बार इस नाराजगी से व्यक्ति अपना भी अहित कर रहा होता है । हम बात कर रहे थे नाराजगी के प्रभाव और परिणाम की हर व्यक्ति का अपना एक अलग ही व्यक्तित्व होता है । उसका एक आभा -प्रभा मण्डल अर्थात एक औरा होता है । जैसे देवताओं के चित्रों में हम उनके आसपास इक प्रकाश का घेरा देखते हैं । ठीक वैसे ही हम जितने लोगों से जितने गहरे नाराज़ रहते हैं । हमारे चेहरे का वो तेज उतना ही कम होता चला जाता हैं । इसका कारण केवल और केवल नाराजगी के केन्द्र में बैठा “क्रोध” और “तमस” होता है। जब हम किसी पर नाराज़ होते हैं तब हम वास्तव में उस पर क्रोध कर रहे होते हैं । और वो क्रोध व्यक्ति के अन्दर एक संहार की भावना को जन्म दे रहा होता है । हम उस व्यक्ति को अनेक प्रकार से नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे होते हैं । क्या ये सत्य नहीं ? हम इस पर कभी विचार नहीं करते की एक व्यक्ति पर अपनी नाराज़गी के चक्कर में हम खुद अपने ही शत्रु बनते जा रहे हैं । हम इस नाराजगी के परिणाम चक्र को एक उदाहरण की मदद से समझते हैं – अगर एक छोटा भाई अपने बड़े भाई से नाराज़ होकर बैठ जाये। और किसी भी तरह से मानने को तैयार ही ना हो । तो एक अरसे बाद हानि किसकी होगी । विचार कीजिए…छोटा भाई अपने बड़े भाई से मिले ज्ञान, साथ और अनुभव से वंचित रह जायेगा । ऐसा होगा या नहीं । ऐसा नहीं की हम इस नाराजगी से उपजे आत्मविनाश के चक्र को रोक नहीं सकते । बस एक छोटा सा काम करना होगा नाराजगी को पल भर में अपने मन चक्र से बाहर करना होगा । अपने को सदा ही हरा भरा रखने के लिए ये काम करना नितांत आवश्यक है ।। आज के इस महत्वपूर्ण विषय विचार- चिन्तन और मनन अवश्य कीजियेगा । आशा करते हैं कि हमारा ये विषय हम सबके जीवन में कुछ अर्थ भरेगा ।। जय जय श्री राधे-राधे जी ।।
💐जय जय श्री महादेव प्रभु जी💐
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॥ आज का भगवद् चिंतन॥
18-05-2020
स्वयं द्वारा स्वयं के विरुद्ध छेड़ा जाने वाला संग्राम ही संयम कहलाता है। और सरल करें तो संयम की परिभाषा मात्र इतनी कि संयम अर्थात् एक युद्ध स्वयं के विरुद्ध।। संयम मानवीय गुणों में एक प्रधान गुण है। पशुओं में स्वयं के विरुद्ध कोई युद्ध देखने को नहीं मिलता। पशुओं में इन्द्रिय निग्रह देखने को नहीं मिलता अर्थात् पशुओं में संयम नहीं होता है। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि जिस जीवन में संयम नहीं वह जीवन पशु भले न हो मगर मगर पशुवत जरूर हो जाता है।। असंयमितता जीवन को पतन की ओर ले जाती है। असंयमित जीवन एक असंतुलित वाहन की तरह होता है, जिसमें चालक वाहन के ऊपर से अपना नियंत्रण पूरी तरह खो चुका होता है। अब थोड़ी देर से सही मगर वाहन का दुर्घटना ग्रस्त होना सुनिश्चित हो जाता है।। व्यक्ति केवल पैरों से ही नहीं फिसलता है। अपितु कानों से, आखों से, जिह्वा से और मन से भी फिसल जाता है।। स्वयं के पैरों को गलत दिशा में जाने से रोकना, स्वयं के कानों को गलत श्रवण से रोकना, स्वयं की आँखों को कुदृश्य देखने से रोकना और स्वयं के मन को दुर्भावनाओं से बचाना, यह स्वयं के द्वारा स्वयं के विरुद्ध लड़ा जाने वाला संयम रुपी युद्ध नहीं तो और क्या है। जीवन में संयमी और शुभ कार्यों में अग्रणी, ये श्रेष्ठ व्यक्तियों के लक्षण होते हैं।।

*जय श्री राधेकृष्णा*

[ दूसरों को अपनी बात मानने के लिये बाध्य करना सबसे बड़ी अज्ञानता है। यहाँ हर आदमी एक दूसरे को समझाने में लगा हुआ है।। हम सबको यही बताने में लगे हैं कि तुम ऐसा करो, तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये था।। तुम्हारे लिये ऐसा करना ठीक रहेगा। ये सब अज्ञानी की अवस्थायें हैं।। ज्ञानी की नहीं ज्ञानी की सबसे बड़ी विशेषता यही है। कि वह किसी को सलाह नहीं देता, वह मौन रहता है।। मस्ती में रहता है। वह अपनी बात को मानने के लिए किसी को बाध्य नहीं करता है।। इस दुनिया की सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि यहाँ हर आदमी अपने आपको समझदार और चतुर समझता है और दूसरे को मूर्ख। सम्पूर्ण ज्ञान का एक मात्र उद्देश्य अपने स्वयं का निर्माण करना ही है। बिना आत्म सुधार के समाज सुधार किंचित संभव नहीं है।।
[: दो वस्तु जीवन मे होती है, एक निज स्वाभाव और दूसरा औरों का प्रभाव अधिकतर हम सब अपने स्वाभाव में नहीं औरों के प्रभाव में जीते हैं।। हमे जो चाहिए वो पाने के लिए यत्न करें वो हुआ स्वभाव और औरो को पाया हुआ देखकर वो पाने का हम भी यत्न करें ये हुआ प्रभाव जब तक कुछ पाना बाकी हो तो अपने मूल स्वाभाव का परिचय नहीं होता क्योंकि हम अपनी कामनाओ के प्रभाव में जीते हैं। जब जीवन मे कुछ भी पाना बाकी न रहा हो तो जो करने का मन हो वो हमारा मूल स्वाभाव है।। सेवा करना जीव का स्वभाव है। जीवन मे कुछ पाना बाकी न रहा हो तब हमारे मूल स्वभाव की वृत्ति जागती हैं।।

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