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श्रीमदभागवत जी में पिता आत्मदेव को उपदेश देते हुए गोकर्ण जी कहते हैं कि पिताजी दो प्रकार से ही सुखी हुआ जा सकता है। प्रथम तो विरक्त, यानि अपेक्षा रहित होकर, दूसरा मुनि बनकर। मुनेरेकान्त जीविनः।
मुनि का अर्थ घर-द्वार छोड़कर कहीं जंगल में जाकर बस जाना नहीं है। मुनि का अर्थ है मन का अनुमोदन कर लेना। अपने मन को साध लेना, मन को वश में कर लेना। मन ही जीव को नाना प्रकार के पापों और प्रपंचों में फ़साने वाला है।
इस मन को कितना भी प्राप्त हो जाए तो भी यह संतुष्ट नहीं होता। यह प्राप्त का स्मरण तो नहीं कराता अपितु जो प्राप्त नहीं है उस अभाव का बार- बार स्मरण कराता रहता है। इसलिए आवश्यक है कि सत्संग और महापुरुषों के आश्रय से तथा विवेक से इस मन की चंचलता पर अंकुश लगाया जाए।

🚩जय श्रीराधे कृष्णा🚩

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🙏आशावादी भ्रम~🙏

हम आशावादी भ्रम में जीते हैं, निराशावादी भ्रम में मायूस हो जाते हैं। दोनों ही कहीं नहीं पहुंचते। आपको यथार्थवादी होना होगा, आप हर चीज को उस तरह से देखने को इच्छुक हैं जैसा वह वाकई में है। जब आप खुश और शांत होते हैं, तभी आपका शरीर और मन उत्तम ढंग से काम करते हैं और पूर्ण रूप से प्रकट होते हैं।अगर आप अपने इर्द-गिर्द के जीवन की परवाह किए बिना इस दुनिया में काम करते हैं, तो यह एक अपराधी होने जैसा है।आनंदपूर्वक जिना, यही वह उत्तम चीज है जो आप इस दुनिया के लिए कर सकते हैं। इस दुनिया को जो आप सबसे बड़ी भेंट कर सकते हैं, वह है स्वयं को आनंदपूर्ण बनाए रखना।अच्छी और बुरी आदतें जैसी कोई चीज नहीं होती। आदत का अर्थ ही है कि आप जीवन को बिना जागरूकता के जी रहे हैं। बुराई जैसी कोई चीज नहीं होती। ज्ञान है, अज्ञान है- बस इतना ही। बुराई सिर्फ अज्ञान का नतीजा हैं।सांसारिक व्यक्ति स्वयं के प्रति दयावान मगर दूसरों के प्रति निष्ठुर होता हैं। आध्यात्मिक व्यक्ति स्वयं के प्रति निष्ठुर मगर दूसरों के प्रति दयावान होता हैं। करुणा सबसे कम उलझाने वाली और सबसे अधिक मुक्त करने वाली एक ऐसी भावना है जो आप अपने अंदर पाल सकते हैं।
[ दया और करुणा का हम लोग साधारणता एक सा प्रयोग करते है। जब की दोनों एक नहीं है अद्यपी शब्दकोश में दोनों के अर्थ एक ही मिलेंगे। दोनों एक अर्थ होते हुए भी एक अर्थ नही रखते है। दया का अर्थ होता है परिस्थिति जन्य और करुणा का अर्थ होता है मनोस्थिति जन्य। यह भेद जानना बहुत जरूरी है वरना हम दोनों के बीच का अंतर कभी नहीं समझ पाएंगे। जिस इंसान में करुणा है उसके लिए बाहर की कोई भी परिस्थिति हो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई फर्क नहीं पड़ता कौन है सामने। करुनवान व्यक्ति अकेले बैठी होगी तो भी करूणावान बनी रहेगी। करुणा बहती रहेगी उससे। करुणा व्यक्ति की अंतः चेतना का स्त्रोत है। इसीलिए भगवान बुद्ध या महावीर को दयावान नहीं कहते अपितु उन्हें हम करूणावान कहते है। क्योंकि उनसे हर हमेश करुणा बहती रहती है अविरत।

दया सिर्फ उनमें उत्पन्न होती है जिनमें करुणा नहीं होती। दया उनमें पैदा होती है जिनके हृदय में करुणा नहीं होती। दया सिर्फ परिस्थिति के दबाव में उत्पन्न होती है जब कि करुणा हृदय के विकास से पैदा होती है। रास्ते से कहीं गुज़र रहे है और कहीं पे भिखारी देखते हो तो उस पर दया आती है करुणा नहीं। दया अहंकार को भर्ती है, पोषित करती है जब कि करुणा अहंकार तो तोड़ती है। करुणा उनमें ही हो सकती है जिन में अहंकार ना हो। दया तो अहंकार को पोषित करने का एक सनमानिय तरीका है। जिससे अहाकर भी पोषित होता है और दूसरो के सामने सन्मान भी मिलता है। जब को दोनों ही सूरत में अहंकार को बढ़ावा मिलता है। जब आप किसी को दान देते है तब जो रस उत्पन्न होता है आपके अंदर देनेवाले का वह बाहर से दिखाई नहीं पड़ता परंतु अगर आप भीतर खोजेंगे तो पाएंगे कि अंदर तो देनेवाले का अहंकार का स्वर सुनाई पड़ रहा है।
[करुनावान चाहेगा कोई भिखारी ना रहे जबकि दयावान चाहेगा भिखारी रहे। करूणावान कभी भी बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। वह चाहेगा इस धरती से सारे भिखारी मीट जाए और उनकी तकलीफे दूर हो जाए। दया तो एक अहंकार को पोषित करने का साधन मात्र है। जब कि करुणा तो स्वयं चेतना से उत्पन्न होती है। वह उत्पन्न करनी नहीं पड़ती। जब भीतर से अहंकार नष्ट हो जाता है, तब करुणा का जन्म होता है। तो दया और करुणा एक बात नहीं है। एक अर्थ नहीं है। मतलब एक जैसे दोनों के होते हुए भी एक अर्थ नही रखता। दया अहंकार अच्छे इंसान का अहंकार ईगो है जब कि क्रूरता बुरे आदमी का अहंकार ईगो है। सज्जन और दुर्जन एक ही अहंकार की धुरी पर है। बस धुरी ही सिर्फ विपरीत दिशा में घूम रही है।

अगर में किसी को भूखा रखु तो कोई भी मुझे बुरा कहेगा, हो सकता है कानून भी सज़ा देगा, किन्तु में खुद को भूखा रखू और अनशन करू तो? कोई मुझे सज़ा दे पाएगा? लोग मुझे सज्जन कहने लगेंगे और यही फर्क है दोनों में। अहंकार को बढ़ावा मिलता है। अगर किसी को भूखे मारना गलत है तो खुद को भूखे मारना कैसे सही हो गया? एक धर्म बन जाता है और दूसरा अधर्म?

धन्यवाद्।


धर्म को अलग से करने की वजाय प्रत्येक कर्म को धर्ममय करना सीखो। आज हमारी प्रार्थना ऐक्शन बन कर रही गई है।। होना यह चाहिए प्रत्येक ऐक्शन प्रार्थना जैसा हो जाए।। जीवन वीमा के इस युग में आज हमने धर्म को भी इस दृष्टि से देखना शुरू कर दिया है। साल में एक धार्मिक आयोजन या अनुष्ठान रुपी क़िस्त जमा कर , साल या 6 महीने के लिए निश्चिन्त हो जाते हैं। साल में एक बड़ा आयोजन या पूजा करने की वजाय प्रत्येक कर्म को, व्यवहार को , आचरण को धर्ममय करना सीखो।। हमारा व्यवहार, आचरण, हमारा बोलना, सुनना, देखना, सोचना सब इतना लयवद्ध और ज्ञानमय हो कि ये सब अनुष्ठान जैसे लगने लग जाएँ। धर्म के लिए अलग से कर्म करने की आवश्यकता नहीं है।। अपितु जो हो रहा है। उसी को ऐसे पवित्र भाव से करें कि वही धर्म बन जाए।।
[ दीन दुखियों की सेवा करो और सभी से प्रेम, ताकि आपको परमात्मा को ढूँढने कहीं दूर न जाना पड़े। यह अनमोल वचन हमें बहुत कुछ सन्देश दे जाते हैं बशर्ते हम समझने का प्रयास करें। हमारे जीवन की विचित्रिता तो देखिये हम तीर्थ स्नान के लिए कोसों दूर जाते हैं और पड़ोस का कोई दुखियारा केवल इस कारण मर गया कि उसे एक घूँट जल की न मिल सकी।। हम बड़े-बड़े भंडारे लगाने मीलों दूर जाते हैं और मुहल्लों के कई किशोर- किशोरियाँ पढने- लिखने की उम्र में सिर्फ इसलिए अमानवीय व्यवहार सहकर भी रात- दिन मजदूरी करते हैं ताकि उनके परिवार को कम से कम एक वक्त तो भर पेट भोजन मिल सके।। काश अब भी इस समाज में कोई एकनाथ और नामदेव जैसे चैतन्य पुरुष प्रकट होते, जिन्हें पशु में ही पशुपति नाथ और कुत्ते में ही कुल देव के दर्शन हो जाएँ।।

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