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यदि हम ध्यान से देखें तो हमारा जीवन एक बाती कि तरह हैं, और यह शरीर एक दीपक का कार्य करता है,
यदि एक बाती को जलाने से पहले ही तेल में अच्छी तरह भींगो दिया जाए, तत्पश्चात दीपक में तेल रखकर उसे जलाया जाए, तो वह बाती जलती तो हैं, किन्तु साथ में,जलन का दुर्गंध नहीं बल्कि तेल की सुगंध और एक स्थिर प्रकाश फैलाता है, जिससे हमे अंधकार से मुक्ति मिलती है, ठीक उसी बाती को यदि हम बिना तेल में भिगोए, थोड़ी सी तेल डालकर जला देते हैं,तो वह बाती न सिर्फ चारों ओर जलन कि दुर्गंध फैलाती है, बल्कि एक अस्थिर प्रकाश के साथ, जल्द से जल्द बुझ भी जाती है,अब देखना यह है,कि जो खुद स्थिर नहीं है,वह भला दुसरो को क्या देगा, और कितने समय देगा,
ठीक उसी प्रकार यदि हम अपने जीवन को ईश्वर कि भक्ति में भिगो देते हैं तो, कर्मों का फल तो हम भुगतते हैं, लेकिन धीरे-धीरे,स्थिर होकर,कष्ट में भी आंनद का अनुभव होता है, ईश्वर कृपा के आगे हमारे कष्ट बहुत छोटे पड़ जाते हैं, ईश्वर हमारे अंदर कि तृष्णा को समाप्त कर देते हैं, जिससे हमे अपने कर्म के फलो को भुगतने का अनुभव ही नहीं होता,हम हर पल ईश्वर का जो गुनगान करतें हैं, उससे एक प्रकाश फैलता है, जिससे बहुत से जिवो का कल्याण हो जाता है, बहुत से लोग हमारे द्वारा बताए रास्ते पर चलकर ईश्वर के शरण मे आ जाते हैं, और ईश्वर कृपा से उनका जीवन सरल हो जाता है तो, फिर हमें गुरु के रूप में पुजते हैं, जिससे युगो युगो तक हमारा नाम हमारी कृति स्थिर बना रहता है,यह भी एक तरह से प्रकाश फैलाना ही कहा जाएगा, R.
कुछ लोगों कि दशा बिना भीगोय बाती जैसी होती है, दुसरो के देखा देखी पुजा पाठ करना आरंभ कर देते हैं,मन स्थिर नहीं होता, अंतर आत्मा भावना मे भिगी नहीं होती,बस दो चार दिन पुजा पाठ किए, फिर चारो ओर कहते फिर रहे हैं,अरे भगवान भी दुअंखा है,पुजा तो हम भी करतें हैं लेकिन देखो फलाने को कितना सुख संपत्ति दिया है,हमे तो कुछ नहीं मिला यह पुजा पाठ करने से,इसी को कहते हैं,जलन का दुर्गंध, बहुत भयानक होती है यह जलन, इस जलन में मनुष्य इतना नीचे गिर जाता है, कि खुद कि जलन मे जलकर जल्द ही समाप्त हो जाता है,तद उपरांत वैसे व्यक्ति का कोई नाम भी सुनना पसंद नहीं करता, ईश्वर तक को दोषी बना देने वाले पर ईश्वर भी वैसी ही कृपा करतें हैं, जो जिस भाव से देखें,उसपे उसी रूप में कृपा करतें हैं,यानि जो उन्हें बुरे भाव से नाम लेता है,उसके लिए वह बुरा ही बने रहते हैं, उन्हें अपने अच्छाई की प्रमाण देने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि सभी जानतें हैं ,

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प्रायः दुनिया में कोई भी वस्तु वैसे ही होती है, जैसा कि हम उन्हें देखना चाहते हैं।

महान दार्शनिक जे कृष्णामूर्ति जी ने एक बड़ी सुंदर बात कही कि “किसी चीज को सहज रूप से जैसी वह है, वैसी ही देखना यह संसार में सर्वाधिक कठिन चीजों में से एक है क्योंकि हमारे दिल और दिमाग बहुत ही जटिल हैं और हमने सहजता का गुण खो दिया है।”

जिन श्रीकृष्ण के भीतर कंस को अपना काल और शिशुपाल को अपना बैरी नजर आने लगा, उन्हीं श्रीकृष्ण के भीतर उद्धव को अपना मित्र तो पाण्डवों को अपना परम सनेही नजर आने लगा।

दुर्योधन को नीति का पाठ पढ़ाने वाले महात्मा विदुर व शांति का संदेश लेकर आये श्रीकृष्ण, कुटिल नजर आने लगे तो सदा अपनी कुटिलता से धर्म विमुख करने वाले मामा शकुनी व अन्याय में सदा साथ देने वाले भ्राता दुशासन में अपना परम हितैषी नजर आने लगा।

मानव जीवन की कुटिलता, मानव मन का कपट व्यवहार, और मानव स्वभाव की छद्मता ही उसके जीवन को जटिल और असहज बना देती है। जीवन की जटिलता का अर्थ केवल इतना है कि हम किसी चीज का जैसी वो वास्तव में हैं, उस हिसाब से नहीं अपितु जैसे हम स्वयं हैं, उस हिसाब से मुल्यांकन करते हैं।

मानव मन के इन आंतरिक विकारों का समन सत्संग और सद् ग्रंथ से ही संभव हो पाता है। जीवन में सत्संग और सद् ग्रंथों को भी स्थान देना सीखिए ताकि आपकी छुद्र ग्रंथियों का निर्मूलन हो और आपको एक नवीन दृष्टि प्राप्त हो सके।

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“चिन्ता” जी हाँ आज हमारा और आपका विषय रहेगा । वास्तव में “चिन्ता” और “चिता” में एक बिन्दु का अंतर है, किन्तु अगर हम इन दोनों को छोड़कर “चिन्तन” का चयन करते हैं तो जीवन के बहुत से अनसुलझे रहस्यों का समाधान हो जाता है । हम बात कर रहे थे “चिन्ता” पर , जैसा कि हम अपनी कल्पना से कोई योजना बनाते हैं, और योजना कभी कभार बहुत काम की होती है । और उसे हम बहुत उत्साह से आरंभ भी करते हैं । लेकिन उस पर थोड़ा सा काम करके हम अचानक उसे विराम दे देते हैं। ऐसी ही अनेक आधी अधूरी योजनाएं आपके पास भी होंगी । जिन्हें आपने पूरे जोर-शोर के साथ आरंभ तो किया, लेकिन उसे उसके परिणाम तक नहीं पहुंचाया । परिणाम स्वरूप पूरी कल्पना पूरी योजना एक नाकाम सोच के रूप में सामने आती है । हमने कभी विचार किया है कि ऐसा क्यों होता है ? ऐसा मात्र कार्य में संकल्प शक्ति के अभाव के कारण होता है। क्योंकि हम कार्य आरंभ करते समय अपनी संकल्प शक्ति पर विचार नहीं करते । भावुकता के साथ कार्य का आरम्भ तो कर लेते हैं, लेकिन उसको निरंतर संचालित करने की शक्ति और क्षमता पर तनिक भी विचार नहीं करते । यही नहीं हम उस कार्य के प्रति अपनी रुचि , दक्षता और कार्य कौशल पर भी विचार नहीं करते । बस कल्पना अच्छी लगती है और हम उस काम को करने का निर्णय कर लेते हैं । क्या यह सत्य नहीं है ? ऐसा जब – जब और जहां – जहां होगा कार्य अधूरा छूटेगा ही छूटेगा । क्योंकि कार्य वही पूर्ण होता है जहां कौशल्य पूर्ण लगन , तप पूर्ण रुचि और संकल्प शक्ति का सही मेल हो । जहां भी इन तीनों या किसी एक का भी अभाव होगा तो योजना कितनी भी बढ़िया तथा कितनी भी लाभप्रद क्यों ना हो , परिणाम कुछ नहीं निकलेगा ठीक वैसे ही जैसे- किसी रोग को दूर करने के लिए उचित परहेज, उचित आराम और सही दवाइयों की आवश्यकता होती है । आगे से किसी भी कार्य को आरंभ करने से पूर्व अपनी संकल्प शक्ति लगन और अपनी रुचि पर अवश्य विचार कीजिएगा । हम निश्चय ही हर कार्य में सफल होंगे आधी अधूरी योजनाएं कभी भी हमारे हिस्से में नहीं आएंगी ।। इस मंत्र को अपनाने की आवश्यकता है । आशा है कि यह मंत्र हमारे जीवन में कुछ अर्थ भरेगा ।।

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प्रायः दुनिया में कोई भी वस्तु वैसे ही होती है। जैसा कि हम उन्हें देखना चाहते हैं।। महान दार्शनिक जे कृष्णामूर्ति जी ने एक बड़ी सुंदर बात कही कि “किसी चीज को सहज रूप से जैसी वह है, वैसी ही देखना यह संसार में सर्वाधिक कठिन चीजों में से एक है क्योंकि हमारे दिल और दिमाग बहुत ही जटिल हैं। और हमने सहजता का गुण खो दिया है।। जिन श्रीकृष्ण के भीतर कंस को अपना काल और शिशुपाल को अपना बैरी नजर आने लगा, उन्हीं श्रीकृष्ण के भीतर उद्धव को अपना मित्र तो पाण्डवों को अपना परम सनेही नजर आने लगा दुर्योधन को नीति का पाठ पढ़ाने वाले महात्मा विदुर व शांति का संदेश लेकर आये श्रीकृष्ण, कुटिल नजर आने लगे तो सदा अपनी कुटिलता से धर्म विमुख करने वाले मामा शकुनी व अन्याय में सदा साथ देने वाले भ्राता दुशासन में अपना परम हितैषी नजर आने लगा मानव जीवन की कुटिलता, मानव मन का कपट व्यवहार, और मानव स्वभाव की छद्मता ही उसके जीवन को जटिल और असहज बना देती है। जीवन की जटिलता का अर्थ केवल इतना है कि हम किसी चीज का जैसी वो वास्तव में हैं, उस हिसाब से नहीं अपितु जैसे हम स्वयं हैं, उस हिसाब से मुल्यांकन करते हैं।। मानव मन के इन आंतरिक विकारों का समन सत्संग और सद् ग्रंथ से ही संभव हो पाता है। जीवन में सत्संग और सद् ग्रंथों को भी स्थान देना सीखिए ताकि आपकी छुद्र ग्रंथियों का निर्मूलन हो और आपको एक नवीन दृष्टि प्राप्त हो सके।।

  

[ हम कुछ पूजा पाठ, करके सोचते हैं, मै किसी का बुरा नही करता,तो फिर मुझे ही दुख क्यो उठाने पड़ते हैं। यह हमारी सोच है।। हम जीवन मे जाने अनजाने बहुत से ऐसे कार्य ,कर बैठते हैं। जिनका ज्ञान हमे बहुत देर में होता है।। संसार मे दूसरों के साथ छल-कपट का व्यवहार किया जाता हो। जहाँ पर दूसरों को गिराने की योजनायें बनाई जाती हों और जहाँ पर दूसरों की उन्नति से ईर्ष्या की जाती हो, वह स्थान नरक नहीं तो और क्या है। नरक अर्थात वह वातावरण जिसका निर्माण हमारी दुष्प्रवृत्तियों व हमारे दुर्गुणों द्वारा होता है। स्वर्ग अर्थात वह स्थान जिसका निर्माण हमारी सत्प्रवृत्तियों व हमारे सदाचरण द्वारा किया जाता है।। मरने के बाद हम कहाँ जायेंगे यह महत्वपूर्ण नहीं है अपितु हम जीते जी कहाँ जा रहे हैं ये महत्वपूर्ण है। मरने के बाद स्वर्ग की प्राप्ति जीवन की उपलब्धि हो ना हो मगर जीते जी स्वर्ग जैसे वातावरण का निर्माण लेना अवश्य जीवन की उपलब्धि है।।
[जिस दिन आप ने सोच लिया कि आपने ज्ञान पा लिया है, आपकी मृत्यु हो जाती है। क्योंकि अब कोई आश्चर्य नहीं होगा, ना कोई आनंद और ना कोई अचरज. अब आप एक मृतक का जीवन जियेंगे।।

    *_!! ॐ   !!_*

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