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यदि ईश्वर कोई ऐसी व्यवस्था करता कि झूठ बोलते ही आदमी की जीभ में छाले पड़ जाते , चोरी करते ही हाथ में फोड़े हो जाते , बेईमानी करने से बुखार आ जाता , किसी पर कुदृष्टि डालते ही आंखें दु:खने लगतीं , कुविचार आते ही सिरदर्द हो जाता तो शायद किसी के लिए भी दुष्कर्म करना संभव न होता। लोग जब उससे लाभ की अपेक्षा हानि देखते तो दुष्कर्म करने की हिम्मत स्वयं न करते। लेकिन ईश्वर ने ऐसा न करके , मनुष्य के भीतर छुपी मानवता की हत्या होने से रोका। दंड भय से तो विवेक रहित पशु को भी अवांछनीय मार्ग पर चलने से रोका जा सकता है। लाठी के बल पर भेड़ों को इस या उस रास्ते पर चलाने में गड़रिया सफल रहता है। सभी जानवर इसी प्रकार दंड-भय दिखाकर अमुक प्रकार से जाते जाते हैं। यदि हर काम का तुरंत दंड मिलता और ईश्वर बलपूर्वक अमुक मार्ग पर चलने के लिए विवश करता , तो फिर मनुष्य भी पशुओं की श्रेणी में आता , उसकी स्वतंत्र आत्मचेतना विकसित हुई या नहीं , इसका पता ही नहीं चलता। भगवान ने मनुष्य को भले या बुरे कर्म करने की स्वतंत्रता इसलिए प्रदान की है कि वह अपने विवेक को विकसित करके भले-बुरे का अंतर करना सीखे और दुष्परिणामों के शोक-संतापों से बचने एवं सत्परिणामों का आनंद लेने के लिए स्वत: अपना पथ निर्माण कर सकने में समर्थ हो। इस आत्मविकास पर ही जीवनोद्देश्य की पूर्ति और मनुष्य जन्म की सफलता अवलम्बित है। इसके बावजूद उसने कर्मफल दंड विधान की व्यवस्था कदम-कदम पर बना भी रखी है। यों समाज में भी कर्मफल मिलने की व्यवस्था है और सरकार द्वारा भी उसके लिए साधन जुटाए गए हैं। पुलिस , जेल- ऐसे प्रबंध किए गए हैं कि अनाचार करने वालों को रोका और दंडित किया जा सके। समाज में कुकर्मियों का तिरस्कार और अविश्वास भी होता है , लोग उनका सहयोग , समर्थन नहीं करते और संपर्क बनाने से बचते हैं। झंझट मोल न लेने की कायरता से डरकर कोई प्रत्यक्ष विरोध कर संघर्ष न करे , चुप भले ही बैठा रहे , पर अनैतिक व्यक्ति को सच्चे मन से प्यार कोई नहीं कर सकता। व्यभिचारी भी अपने घर में दूसरे व्यभिचारी का और चोर भी अपने घर में दूसरे चोर का प्रवेश नहीं होते देता , क्योंकि वह उसे अविश्वस्त मानता है। भीतर ही भीतर घृणा करता है और चाहता है कि वह सांप , बिच्छू की तरह अलग ही बना रहे। कुकर्मी थोड़े से साधन भर इकट्ठे कर सकते हैं और उनसे यत्किंचित शरीर एवं इंद्रियों का क्षणिक सुख भोग सकते हैं , पर सामाजिक प्रणाली होने के नाते जिस श्रद्धा , सम्मान , प्यार और सहयोग की उन्हें भारी भूख और आवश्यकता रहती है , वह उन्हें सदा अप्राप्त ही रहता है। सामाजिक असहयोग और तिरस्कार एक ऐसा दंड है जो अप्रत्यक्ष होते हुए भी मनुष्य को घर में रहने वाले भूत पिशाच की तरह उद्विग्न और संत्रस्त रखता है। यह स्थिति कम कष्टकारक नहीं है। इससे भी बढ़कर एक और दंड व्यवस्था आत्मप्रताड़ना है। पापी मनुष्य एक क्षण के लिए भी शांति अनुभव नहीं कर सकता। भीतर की प्रताड़ना बाहरी दंडों से अधिक हानिकारक होती है। उसके कारण व्यक्ति निरंतर दुर्बल , उद्विग्न , एकाकी , नीरस और विक्षिप्त बनता चला जाता है। व्यक्तित्व को हेय , पतित और अस्त-व्यस्त बनाने में आत्मग्लानि का सबसे बड़ा योगदान होता है। इन तीनों से परिवर्तन की अनुकूलता नहीं दिखी तो ईश्वर का सीधे हस्तक्षेप होता है। आज नहीं तो कल उसकी व्यवस्था के अनुसार कर्मफल मिलकर ही रहेगा। देर हो सकती है , अंधेर नहीं। सरकार और समाज से पाप को छिपा लेने पर भी आत्मा और परमात्मा से उसे छुपाया नहीं जा सकता। इस जन्म या अगले जन्म में हर बुरे-भले कर्म का प्रतिफल निश्चित रूप से भोगना पड़ता है। ईश्वरीय कठोर व्यवस्था उचित न्याय और उचित कर्मफल के आधार पर ही बनी हुई है। कर्मफल एक ऐसा अमिट तथ्य है जो आज नहीं तो कल भोगना ही पड़ेगा। कभी-कभी इन परिणामों में देर इसलिए होती है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना चाहता है कि व्यक्ति अपने कर्त्तव्य व धर्म समझ सकने और निष्ठापूर्वक उनका पालन करने लायक विवेक बुद्धि संचित कर सका या नहीं। जो दंड भय से डरे बिना दुष्कर्मों से बचना मनुष्यता का गौरव समझता है और सदा सत्कर्मों तक ही सीमित रहता है , समझना चाहिए कि उसने सज्जनता की परीक्षा पास कर ली और पशुता से देवत्व की ओर बढ़ने का शुभारंभ कर दिया।

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